शोर प्रदूषण ऐसी ध्वनि के होने को कहते हैं जो पीड़ादायक हो। बढ़ते शोर के कारण मनुष्य के जीवनयापन स्तर की गुणवत्ता में गिरावट आती है। शोर प्रदूषण मुख्य रूप से यातायात और औद्योगिक गतिविधियों के कारण होता है। यातायात का शोर अधिक संगीन है क्योंकि वह अधिक लोगों पर असर डालता है। यातायात के साधनों में हवाई जहाज, रेल गाड़ी, भारी-भरकम ट्रक एवं मोटरकार अधिक शोर करते हैं। मिक्सर, कूलर, टीवी, रेडियो, टेपरिकार्डर आदि घरेलू उपकरणों के कारण घर के भीतर शोर का स्तर बहुत अधिक हो सकता है।
शोर प्रदूषण हमारे मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। चिकित्साशास्त्र ने यह भी प्रमाणित कर दिया है कि शोर प्रदूषण अनेक बीमारियों को अधिक तीव्र कर देता है। इन बीमारियों में शामिल हैं, एलर्जी, पेट का अल्सर (वृण) तथा दिल, मस्तिष्क जिगर और फेफड़ों की बीमारियां। शोर आदमी को क्रोधी बना देता है और उसे थका देता है। उसमें निराशा एवं उदासी के भाव भी पैदा करता है। ये सब विभिन्न बीमारियों का कारण बन जाते हैं। भुवनेश्वर के सेंटर फॉर यूथ एंड सोशल डेवलपमेंट की एक रिपोर्ट के अनुसार अत्यधिक शोर से गर्भस्थ भ्रूण में अवांछित परिवर्तन आ जाते हैं और कभी-कभी उसकी मृत्यु भी हो जाती है।
लंबे समय तक शोर प्रदूषण की चपेट में रहने से बेहरा हो जाने का खतरा रहता है। विश्व भर में बुलडोजर, जैक-हैमर, डीजल ट्रक, हवाई जहाज आदि के साथ काम करने वाले लाखों व्यक्ति शोर प्रदूषण के कारण बेहरे हो गए हैं। आधुनिक ऐंप्लिफाइड रॉक-एंड-रॉल संगीत ज्यादा सुननेवाले युवकों को भी सुनने की तकलीफें हो जाती हैं। 135 डेसिबल से अधिक का शोर यदि थोड़ी देर के लिए भी कानों में आ लगे, तो कानों को स्थायी नुक्सान हो सकता है। 150-160 डेसिबल का शोर कानों के पर्दों को फाड़ सकता है। अफ्रीका और भारत के वनवासियों के अध्ययन से पता चला है कि उनमें उम्र के बढ़ने के साथ सुनने की शक्ति का क्षय उस तीव्रता से नहीं होता जिससे हम शहरवासियों में होता है। शायद उम्र के साथ बेहरेपन का आना औद्योगिक सभ्यता की एक खास देन है।
जो बच्चे शोराकुल परिवेश में बढ़ते हैं, वे शारिरिक एवं मानसिक दृष्टि से पंगु हो जाते हैं। कानपुर शहर के रेलवे कालोनियों और कारखानों के निकट के शोराकुल मुहल्लों में रहनेवाले लगभग 500 बच्चों पर किए गए एक अध्ययन में देखा गया कि 10 प्रतिशत बच्चों में बेहरेपन के प्रारंभिक लक्षण विद्यमान हैं। कई बच्चों ने सिरदर्द, क्रोध एवं विचलन की शिकायत की। लगभग 60 प्रतिशत बच्चों ने किसी भी विषय पर गहराई से ध्यान लगाने की क्षमता खो दी थी।
भारत के अनेक बड़े शहरों में शोर प्रदूषण शहरी जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया है। दिल्ली, कलकत्ता और मुंबई में शोर प्रदूषण का स्तर विश्व में सर्वाधिक है। सोक्लीन नामक संस्था के अनुसार इन शहरों में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित शोर सीमा (45 डेसिबल) से अधिक शोर होता है। जिस दर से ये शहर फैल रहे हैं, उसे देखते हुए भविष्य में इन शहरों में शोर प्रदूषण की स्थिति और अधिक गंभीर हो उठेगी। यह अवश्यंभावी इसलिए भी लगता है क्योंकि शोर प्रदूषण को नियंत्रित करने की व्यवस्थागत प्रणालियां विकसित नहीं हो रही हैं।
शोर को उसके स्रोत पर ही नियंत्रित करना चाहिए। इसके लिए मशीनों की बनावट में सुधार करना आवश्यक होगा ताकि उनके कारण शोर कम-से-कम हो। अत्यधिक शोर करनेवाली पुरानी और बिगड़ी हुई मशीनों की या तो मरम्मत होनी चाहिए या उन्हें फेंक दिया जाना चाहिए। शोर करनेवाली मशीनों पर काम करनेवाले कर्मियों को कानों में इयर प्लगों का उपयोग करना चाहिए।
औद्योगिक इकाइयों के इर्द-गिर्द पेड़ लगाने चाहिए। पेड़ शोर को 10 डेसिबल तक कम कर सकते हैं। इसी प्रकार भीड़-भाड़वाली सड़कों के दोनों ओर भी पेड़ों की कई कतारें लगाई जानी चाहिए। सार्वजनिक स्थलों में रेड़ियो, ध्वनि-विस्तारक, टीवी आदि के उपयोग पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। वाहनों के कर्कश हार्नों पर पूरा प्रतिबंध होना चाहिए। अधिक शोर करनेवाले पुराने वाहनों का उपयोग निषिद्ध कर देना चाहिए। साइकिलों और साइकिल रिक्शाओं के उपयोग को बढ़ावा देना चाहिए। उनकी खरीदारी पर सब्सिडी उपलब्ध करानी चाहिए और साइकिल और साइकिल रिक्शा चालकों के लिए सभी सड़कों पर अलग जगह निश्चित करनी चाहिए। बिजली से चलनेवाली बसों के उपयोग को बढ़ावा देना चाहिए क्योंकि वे कम शोर करती हैं। हवाई जहाजों के कारण बहुत अधिक शोर प्रदूषण होता है। इसलिए हवाई अड्डे मानव बस्तियों से बहुत दूर बनाए जाने चाहिए।
आवास स्थलों के डिजाइन में परिवर्तन करके भी शोर प्रदूषण से बचा जा सकता है। मकानों को सड़क के दोनों ओर आमने-सामने दो कतारों में न बनाकर उन्हें असमान रूप से बनाना चाहिए। इससे शोर वातावारण में छितर जाएगा और उसकी तीव्रता कम हो जाएगी। भवनों की बाहरी दीवारों को खुरदुरा छोड़ना चाहिए। ये दीवारें सपाट न होकर गोल, परावलयिक अथवा हाइपरवलयिक होनी चाहिए। इससे ध्वनि तरंगें उनसे टकराकर आकाश की ओर परावर्तित हो जाएंगी। इससे ध्वनि के गूंज उठने को भी कम किया जा सकता है।
अन्य उपाय मानव आबादी को अत्यधिक शोरगुल वाले स्थानों से अलग रखना, रात के वक्त यातायात पर पाबंदी लगाना, जनसाधारण में शोर के हानिकारक प्रभावों के बारे में चेतना लाना आदि है। निस्संदेह शोर को नियंत्रित करने के कानून भी बनाने चाहिए और उन्हें कड़ाई से लागू करना चाहिए।
आजकल शोर कम करने के लिए पर्याप्त प्रौद्योगिकीय साधन उपलब्ध हैं। आवश्यकता है तो केवल शोर को एक खतरनाक चीज के रूप में पहचानने और उससे प्रभावशाली ढंग से निपटने की इच्छाशक्ति की।
Friday, June 26, 2009
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3 comments:
Achchhi jaankaaree.
मै आप से सहमत तो हूँ परन्तु दोषी भी हमी हैं , शोर का यह मायाजाल हमारा खुद का ही बुना है | दुसरे देशों की बात न भी करें तो हम स्वयं अपनी मूल मान्यताओं को भूल इस में फंस चुके हैं | हम नाद ब्रह्म को भूल कीर्तन पर जोर देरहे है ' क्या बहरा हुआ खुदाया ' के कबीर कथन को गलत परिभाषित कर रहे हैं | हम भूल चुके हैं कि नाद स्वर अंतर्मन से सुना जाता है और तभी ' ब्रह्म ' से संवाद :कम्युनिकेशन बनता है | स्पष्ट है कि इस शोर के कारण हम अपनी प्राकृतिक शक्तियां खोते जा रहे हैं उनका क्षरण हो रहा है काफी हद तक हो भी चुका है ; परन्तु अभी भी सवेरा है सुधर सकता है ,नहीतो ऐसा न हो कि देर हो जाने पर हमें भजन गाना पड़े " अब पछताए का होत ,जब चिडिया चुग गयी खेत '' |
बहुत् सुंदर लिखा आप ने , विदेशो मै तो फ़िर भी इस शोर पर बहुत नियंत्रण है, जब कि हमारे यहां सब खुला है, कार ट्रओ के हार्न, मंदिर मस्जिद ओर गुरुदुवारो के लाऊड सपीकर, फ़िर आज कल के डिजे, ओर क्या क्या गिनबाये...
हम कब सुधरेगे जब सब कुछ खत्म हो जायेगा क्य तब ?
आप के लेख से १००% सहमत हुं
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