Tuesday, June 2, 2009
गेंद की तरह लुढ़क सकता है वज्रशल्क
वज्रशल्क हिमालय के दक्षिणी भाग, श्रीलंका, भारत के मैदानी इलाकों और पहाड़ियों की निचली ढलानों में पाया जाता है। पूंछ समेत उसकी लंबाई 60-120 सेंटीमीटर होती है। दूसरी जातियां जो भारत में पाई जाती हैं, जैसे चिनी वज्रशल्क आदि, 48-93 सेंटीमीटर लंबी होती है। यह जानवर अपने आपको गेंद की तरह गोल बनाकर लुढ़क सकता है।
वज्रशल्क का सिर, पीठ, पूंछ और टांगें सब भूरे रंग की लंबी और धनी खपरियों से ढंकी हुई होती हैं। उसके शरीर का अंदरूनी हिस्सा नरम और रोएंदार होता है। उसकी थूथनी के सिरे पर बगैर दांतों का छोटा-सा मुंह होता है। उसकी लंबी जीभ लगभग एक फुट बाहर निकल सकती है। वज्रशल्क की आंखें छोटी होती हैं और कान खपरियों में छिपे रहते हैं। वह अपने तेज पंजों से जमीन खोदता है। प्रत्येक टांग में पांच उंगलियां होती हैं।
वज्रशल्क बिलों में रहता है। बिल की लंबाई जमीन की स्थिति के अनुसार होती है। मैदानों में 240 सेंटीमीटर, पत्थरीली जमीन में 180 सेंटीमीटर और नरम जमीन में 600 सेंटीमीटर लंबे बिल पाए जाते हैं। ये बिल जमीन के नीचे 60 सेंटीमीटर चौड़ाई के गोलाकार सदन की तरह होते हैं। वज्रशल्क अपने बिल में या चट्टानों के बीच बैठा दिन गुजारता है। वह रात के समय बड़ा उद्यमी दिखाई देता है। वज्रशल्क अपनी सुरक्षा के लिए पेड़ पर भी चढ़ जाता है। पेड़ पर चढ़ते समय वह अपने तेज पंजों और पूंछ की मदद लेता है। वह या तो डाली के इर्द-गेर्द पूंछ को लपेटकर ऊपर चढ़ता है या उससे लटककर। जमीन पर वज्रशल्क धीरे-धीरे चलता है। कभी-कभी चारों ओर अच्छी तरह देखने के लिए वह गिलहरी के समान पिछली टांगों पर खड़ा भी हो जाता है।
वज्रशल्क के प्रजनन के बारे में बहुत कम ज्ञात है, क्योंकि बंदी स्थिति में वह प्रजनन नहीं करता। अलग-अलग प्रदेशों में उसका प्रजनन भी अलग-अलग समय पर होता है। एक बार में एक बच्चा पैदा होता है। कभी-कभार ही दो बच्चे पैदा होते हैं। वज्रशल्क के बच्चे की लंबाई 45 सेंटीमीटर होती है। उसकी खपरियां नरम होती हैं और उसकी खुराक सिर्फ दूध होती है। मादा अपने बच्चे को अपनी पूंछ पर बिठाती है और खतरा महसूस होने पर उसे पूंछ के नीचे ढकेलकर गोल-गुच्छू-बुच्छू हो जाती है जिससे बच्चा उसके पेट के पास पूंछ के नीचे सुरक्षित रहता है। नर-मादा दोनों अपने बच्चें के साथ बिल में रहते हैं।
वज्रशल्क बड़े चाव से दीमक और चीटिंयां खाते हैं। इसीलिए उन्हें चीटीखोर भी कहा जाता है। वज्रशल्क चींटियों और दीमकों की बांबियों को अपने तेज पंजों से खोद डालता है और अपनी लंबी जीभ को बांबी में डालकर टटोलता है। उसकी जीभ चिपचिपी होती है। चींटीं और दीमक जब उससे चिपक जाते हैं, तब वह उन्हें चाट जाता है। जब चींटियां उस पर हमला करती हैं, तब उसके सिर की मजबूत चमड़ी उसकी रक्षा करते हैं। आंखों की रक्षा के लिए उन पर मोटे ढक्कन होते हैं। वज्रशल्क चींटियों के साथ उनके अंडों, डिंभों और कोषों को भी खा जाता है। वे उसके जठर की मोटी मांसपेशियों और उन छोटे कंकड़ों से दली जाती हैं जिन्हें वह समय-समय पर निगलता है।
वज्रशल्क का प्रमुख शत्रु मनुष्य है। उसके मांस के लिए उसे मारा जाता है। उसकी हड्डियों के गहने बनते हैं। वज्रशल्क की हड्डियां दवा के काम भी आती हैं।
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भारत के वन्य जीव
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