Tuesday, June 30, 2009

पूंछ नहीं छोड़ेंगे हम!

Monday, June 29, 2009

जल का घोड़ा दरियाई घोड़ा


दरियाई घोड़े को अधिकांश लोगों ने सरकसों और चिड़ियाघरों में देखा होगा। यह विशाल और गोलमटोल प्राणी केवल अफ्रीका में पाया जाता है। हालांकि उसके नाम के साथ घोड़ा शब्द जुड़ गया है, पर उसका घोड़ों से कोई संबंध नहीं है। दरियाई घोड़ा उसके अंग्रेजी नाम हिप्पो (हिप्पोपोटामस का संक्षिप्त रूप) से भी जाना जाता है। "हिप्पोपोटामस" शब्द का अर्थ भी "वाटर होर्स" यानी "जल का घोड़ा" ही है। असल में दरियाई घोड़ा सूअरों का दूर का रिश्तेदार है।

उसे आसानी से विश्व का दूसरा सबसे भारी स्थलजीवी स्तनी कहा जा सकता है। वह 14 फुट लंबा, 5 फुट ऊंचा और 4 टन भारी होता है। उसका विशाल शरीर स्तंभ जैसे और ठिंगने पैरों पर टिका होता है। पैरों के सिरे पर हाथी के पैरों के जैसे चौड़े नाखून होते हैं। आंखें सपाट सिर पर ऊपर की ओर उभरी रहती हैं। कान छोटे होते हैं। शरीर पर बाल बहुत कम होते हैं, केवल पूंछ के सिरे पर और होंठों और कान के आसपास बाल होते हैं। चमड़ी के नीचे चर्बी की एक मोटी परत होती है जो चमड़ी पर मौजूद रंध्रों से गुलाबी रंग के वसायुक्त तरल के रूप में चूती रहती है। इससे चमड़ी गीली एवं स्वस्थ रहती है। दरियाई घोड़े की चमड़ी खूब सख्त होती है। पारंपरिक विधियों से उसे कमाने के लिए छह वर्ष लगता है। ठीक प्रकार से तैयार किए जाने पर वह २ इंच मोटी और चट्टान की तरह मजबूत हो जाती है। हीरा चमकाने में उसका उपयोग होता है।

दरियाई घोड़े का मुंह विशाल एवं गुफानुमा होता है। उसमें खूब लंबे रदनक दंत होते हैं। चूंकि वे उम्र भर बढ़ते रहते हैं, वे आसानी से 2.5 फुट और कभी-कभी 5 फुट लंबे हो जाते हैं। निचले जबड़े के रदनक दंत अधिक लंबे होते हैं। ये दंत हाथीदांत से भी ज्यादा महंगे होते हैं क्योंकि वे पुराने होने पर हाथीदांत के समान पीले नहीं पड़ते।

यद्यपि दरियाई घोड़े का अधिकांश समय पानी में बीतता है, फिर भी उसका शरीर उस हद तक जलजीवन के लिए अनुकूलित नहीं हुआ है जिस हद तक ऊद, सील, ह्वेल आदि स्तनियों का। पानी में अधिक तेजी से तैरना या 5 मिनट से अधिक समय के लिए जलमग्न रहना उसके लिए संभव नहीं है। उसका शरीर तेज तैरने के लिए नहीं वरन गुब्बारे की तरह पानी में बिना डूबे उठे रहने के लिए बना होता है। वह तेज प्रवाह वाले पानी में टिक नहीं पाता और बह जाता है। इसीलिए वह झील-तालाबों और धीमी गति से बहने वाली चौड़ी मैदानी नदियों में रहना पसंद करता है। चार-पांच फुट गहरा पानी उसके लिए सर्वाधिक अनुकूल होता है।

दरियाई घोड़े की सुनने एवं देखने की शक्ति विकसित होती है। उसकी सूंघने की शक्ति भी अच्छी होती है। सुबह और देर शाम को वह खूब जोर से दहाड़ उठता है, जो दूर-दूर तक सुनाई देता है। अफ्रीका के जंगलों की सबसे डरावनी आवाजों में उसके दहाड़ने की आवाज की गिनती होती है। दरियाई घोड़े की आयु 35-50 वर्ष होती है।

दरियाई घोड़ा अधिकांश समय पानी में ही रहता है, पर घास चरने वह जमीन पर आता है, सामान्यतः रात को। घास की तलाश में वह 20-25 किलोमीटर घूम आता है पर हमेशा पानी के पास ही रहता है। भारी भरकम होते हुए भी वह ४५ किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ सकता है। दिन को वह पानी में पड़े-पड़े सुस्ताता है। ऐसे सुस्ताते समय पानी के बाहर उसकी आंखें, नाक और पीठ का कुछ हिस्सा ही दिखाई देता है।

दरियाई घोड़ा समूहचारी प्राणी है और 20-200 सदस्यों के झुंडों में रहता है। झुंड का संचालन एक बूढ़ी मादा करती है। हर झुंड का एक निश्चित क्षेत्र होता है, जिसके केंद्रीय हिस्से में मादाएं बच्चों को जनकर उन्हें बड़ा करती हैं। उनकी यह बालवाड़ी सामान्यतः नदी के मध्य स्थित छोटे टापुओं में होती है। वहां नरों को प्रवेश करने नहीं दिया जाता। यदि वे घुसने की कोशिश करें तो मादाएं मिलकर उसे बाहर खदेड़ देती हैं। नर इस बालवाड़ी के चारों ओर अपना क्षेत्र बना लेते हैं, शक्तिशाली नर बालवाड़ी के एकदम पास, ताकि वे मादाओं के सतत संपर्क में रह सकें, और कमजोर और छोटे नर बालवाड़ी से दूर।


नवजात बच्चा 3 फुट लंबा, डेढ़ फुट ऊंचा और 25 किलो भारी होता है। जन्म सामान्यतः जमीन पर ही होता है। जन्म से पहले मादा घास को पैरों से रौंदकर बिस्तर सा बना लेती है। पैदा होने के पांच मिनट में ही बच्चा चल-फिर और तैर सकता है। मादा बच्चे को चलने, तैरने, आहार खोजने और नरों से दूर रहने का प्रशिक्षण देती है। बच्चे अपनी मां के साथ साए के समान लगे रहते हैं। मादा एक कठोर शिक्षक होती है और बच्चा उसकी बात न माने तो उसे वह कड़ी सजा देती है। वह अपने विशाल सिर से उसे ठोकर लगाती है जिससे बच्चा चारों खाने चित्त होकर जमीन पर गिर पड़ता है। कभी-कभी वह अपने रदनक दंतों से बच्चे पर घाव भी करती है। बच्चा जब अपना विरोध भूल कर आत्मसमर्पण कर देता है, तब मां उसे चाटकर और चूमकर प्यार करती है।

बच्चों की देखभाल झुंड की सभी मादाएं मिलकर करती हैं। जब मां चरने जाती है, तब बाकी मादाएं उसके बच्चे को संभाल लेती हैं। बच्चा अन्य हमउम्र बच्चों के साथ खेलता रहता है। नर और मादा बच्चे अलग-अलग खेलते हैं। उनके खेल भी अलग-अलग होते हैं। मादाएं पानी में छिपा-छिपी खेलती हैं, और नर आपस में झूठ-मूठ की लड़ाई लड़ते हैं।

नर बच्चे थोड़े बड़े होने पर बालवाड़ी से बाहर निकाल दिए जाते हैं। वे बालवाड़ी से काफी दूर, अपने झुंड के क्षेत्र की लगभग सीमा में, अपना क्षेत्र स्थापित करते हैं। वे निरंतर मादाओं के निकट आने की कोशिश करते हैं, ताकि वे उनके साथ मैथुन कर सकें, पर बड़े नर उन्हें ऐसा करने नहीं देते। छोटे नरों को मादाओं से समागम करने के लिए बड़े नरों से बार-बार युद्ध करना और उन्हें हराना होता है। इस व्यवस्था के कारण झुंड के सबसे बड़े एवं शक्तिशाली नर ही मादाओं से समागम कर पाते हैं, जिससे इस जीव की नस्ल मजबूत रहती है।



पानी में लेटे-लेटे दरियाई घोड़े बार-बार जंभाई लेते हैं और ऐसा करते हुए अपने मुंह को पूरा खोलकर अपने बड़े-बड़े रदनक दंतों का प्रदर्शन करते हैं। यह अन्य नरों को लड़ाई का निमंत्रण होता है। लड़ते समय दरियाई घोड़े पानी से काफी बाहर उठ आकर अपने विस्फारित मुंह के रदनक दंतों से प्रतिद्वंद्वी पर घातक प्रहार करते हैं। इससे उसके शरीर पर बड़े-बड़े घाव हो जाते हैं और वह दर्द से चीख उठता है। पर ये घाव जल्द ठीक हो जाते हैं। लड़ाई का मक्सद प्रतिद्वंद्वी के आगे के एक पैर को तोड़ना होता है जिससे वह शीघ्र मर जाता है क्योंकि लंगड़ा होने पर वह आहार खोजने जमीन पर नहीं जा पाता और भूख से मर जाता है। जब दो नर भिड़ते हैं, उनका युद्ध दो घंटे से भी ज्यादा समय के लिए चलता है। लड़ते हुए वे जोर-जोर से दहाड़ भी उठते हैं। बड़े नरों का शरीर इन लड़ाइयों के निशानों से भरा होता है।

दरियाई घोड़े के कोई प्राकृतिक शत्रु नहीं हैं। कभी-कभी जमीन पर चरते समय सिंह उन पर झपट कर उनकी पीठ पर अपने नाखूनों और दांतों से घाव कर देता है, पर उन्हें मारना सिंह के लिए आसान नहीं है क्योंकि उनकी मोटी खाल और चरबी की परत के कारण सिंह के दांत और नाखून उनके मर्म स्थानों तक पहुंच नहीं सकते हैं। दरियाई घोड़े का सबसे बड़ा शत्रु तो मनुष्य ही है जो उसकी खाल, दांत और मांस के लिए उसे मारता है। मनुष्यों ने अब उसके चरने के सभी स्थानों को भी कृषि के लिए अपना लिया है, जिससे इस प्राणी के रहने योग्य जगह बहुत कम रह गई है। एक समय दरियाई घोड़े समस्त अफ्रीका में पाए जाते थे, पर अब अधिकांश इलाकों से वे विलुप्त हो चुके हैं।

दरियाई घोड़ों की एक अन्य जाति भी हाल ही में खोजी गई है। वह है बौना दरियाई घोड़ा। वह 5 फुट लंबा, 3 फुट ऊंचा और लगभग 250 किलो भारी होता है। वह अकेले या जोड़ों में वनों में रहता है।

(बौना दरियाई घोड़ा)

गरमी की मार मनुष्यों पर ही नहीं पड़ती

Sunday, June 28, 2009

स्थल और जल का अद्भुत प्राणी सील


सील एक अद्भुत समुद्री स्तनधारी जीव है। वह प्रायः ठंडे प्रदेशों के समुद्री हिस्सों में मिलती है। सीलों के दो वर्ग होते हैं, बाहरी कान वाली सीलें (इयर्ड सील) और लोम वाली सीलें (फर सील)।

सील को शीत से जमा हुआ समुद्री स्थान बहुत पसंद है। सील जब ठंडे पानी में डुबकी लगाती है तो उसी समय उसके हृदय के धड़कने की गति धीमी हो जाती है, जिससे उसके फेफड़ों में मौजूद आक्सीजन अधिक देर चलती है। वह प्रत्येक 10 या 12 मिनट बाद पानी के बाहर सांस लेने आती है। सील पानी में सो भी सकती है। जब सांस लेनी हो, तो नींद से जागे बगैर अनायस सतह पर उठ आती है।

उसके जैसा एक अन्य समुद्री स्तनधारी जल सिंह (सी-लयन) है। उसमें बाहरी कान होते हैं। उसके अगले पैर यद्यपि चप्पुओं में बदल चुके हैं, वह उन्हें आगे की ओर मोड़ सकता है जिससे वह चट्टानों पर चढ़ भी सकता है।

सील सारे वर्ष भोजन और गरम जलवायु की तलाश में समुद्र में घूमती रहती है, पर निर्धारित समय किसी समुद्री टापू के निर्धारित जगह पर बच्चे देने पहुंच जाती है। उसके बच्चे जन्म के समय 7 किलोग्राम तक के हो सकते हैं। जन्म के प्रथम वर्ष में बच्चे का वजन सबसे ज्यादा बढ़ता है। सील की आयु करीब 12 वर्ष होती है।

मनुष्यों की बढ़ती आबादी, सैलानियों की भीड़ और इनकी चर्बी, खाल और मांस की अत्यधिक मांग होने से सील जाति के प्राणियों की संख्या घटने लगी है। उदाहरण के लिए सील और जल सिंह एक समय आस्ट्रेलिया के पश्चिमी तट पर काफी सामान्य थे। उनके लिए एडिलिडी (आस्ट्रेलिया) में संरक्षण उद्यान भी बनाया गया था। आस्ट्रेलिया का कंगारू टापू पहले जल सिंह की वजह से ही सैलानियों को आकर्षित करता था। पर अब सीलों की घटती हुई संख्या के कारण वहां का आकर्षण कम होता जा रहा है। इसी टापू से यूरोप के लिए सीलों के मांस, चर्बी, खाल आदि का निर्यात होता है।

सीलों पर मनुष्यों ने बहुत अत्याचार किया है। इन्हें चर्बी और खाल के लिए लाखों की संख्या में बड़े ही निर्दयी तरीके से मारा जाता है। इनके नवजात शिशुओं तक को नहीं बख्शा जाता है। इस हत्याकांड के कारण बहुत सी सीलों की संख्या बहुत ही कम हो गई हैं। कई विलुप्ति की कगार पर खड़े हैं, और कई विलुप्त भी हो चुके हैं।

मनुष्य के अलावा सील के अनेक शत्रु हैं, जैसे सफेद भालू, किलर ह्वेल, शार्क मछली, आदि। कभी-कभी सीलों के शरीर पर शार्क के काटे के निशान देखई देते हैं, जो शार्कों के साथ हुई भयानक मुठभेड़ की जीती-जागती छाप होती हैं।

Saturday, June 27, 2009

पहाड़ों का जहाज याक


याक का नाम तो अधिकतर लोगों ने सुना होगा परंतु बहुत कम लोग जानते होंगे कि यह जानवर एक समूचे देश (तिब्बत) के जीवन का आधार है।

याक (बास ग्रुनियन्स) भैंस से संबंधित प्राणी वर्ग का पशु है। जंगली याक एक भीमकाय जानवर है जो 4.5 मीटर लंबा और 2 मीटर ऊंचा होता है। याक तिब्बत की ऊंची पहाड़ियों में रहता है। भारत में लद्दाख प्रदेश में भी याक पाए जाते हैं। जिन पहाड़ी प्रदेशों में याक रहता है, वहां बहुत कम पानी बरसता है और बेहद ठंड पड़ती है। ऐसे कठोर वातावरण को झेलने में मदद करती है याक की शारीरिक बनावट। लंबे खुरदुरे बाल उसके पूरे शरीर को ढके रहते हैं, जिससे उसे बर्फीली हवा और हिम दोनों से सुरक्षा मिलती है। भारी भरकम शरीर के बावजूद याक उंची पहाड़ियों पर आसानी से चढ़ सकता है। इसमें उसके पैरों के सख्त खुर सहायता करते हैं। मादा और नर दोनों के सींग लंबे, फैले हुए और सिरे पर ऊपर की ओर मुड़े हुए होते हैं।

याक के परिवेश को देखेंगे तो आपको चारों तरफ बर्फ ही बर्फ मिलेगा। आप सोचेंगे कि ऐसे परिवेश में जहां हरियाली नाममात्र के लिए भी नहीं होती, याक क्या खाकर जिंदा रहता होगा। परंतु बहुत ही सहनशील होने के कारण वह गर्मी के मौसम में सिर उठाने वाली घास और बाकी समयों में काई खाकर जीवित रहता है। जमीन पर कहीं-कहीं बिखरी नमक खाने का भी उसे शौक है। जब पानी के स्रोत ठंड़ से जम जाते हैं तो प्यास बुझाने के लिए याक हिम खाने लगते हैं। भोजन की तलाश में सर्दियों में याक पहाड़ियों से उतरकर निचली घाटियों में चले आते हैं। इतना सब होने पर भी सर्दी में बहुत से याक भूख और ठंड़ के कारण मरते भी हैं।

दूसरे मवेशियों की तरह याक भी झुंड़ में रहते हैं। उनका झुंड बिन बाप के परिवार की तरह होता है, क्योंकि सांड साधारणतः अकेले रहता है। परंतु मादाएं और बछड़े 20-200 तक के झुंड़ बनाकर चलते हैं। बछड़ों की देखभाल और झुंड के नेतृत्व का दायित्व मादा ही संभालती है। बर्फ में याक एक कतार में अपने आगे चलने वाले याक के खुरों से बने गढ्ढों में अपने पांव रखकर चलते हैं। जब याक के झुंड का सामना भेड़िए के झुंड से होता है, तो याक बछड़ों को बीच में रखकर घेरा बना लेते हैं।

पतझड़ में याक प्रजनन करते हैं। अप्रैल में मादा एक बछड़े को जन्म देती है। इस महीने में नई उगी घास पर्याप्त मात्रा में भोजन प्रदान करती है। नवजात बछड़ा पैदा होते ही सक्रिय हो जाता है।

युगों से याक को तिब्बतियों द्वारा पालतू जानवर के रूप में काम में लाया जाता रहा है। याक के शरीर का हर अंग किसी न किसी उपयोग में आ सकता है। ऊंचाई चढ़ने की याक की अद्भुत क्षमता के कारण उससे पहाड़ों की कठिन ढलानों में सामान ढोने का काम लिया जाता है। यह कहना शायद गल़त नहीं होगा कि याक के बगैर हिमालय के कठिन वातावरण में यात्रा और व्यापार असंभव होता। तिब्बतियों का बहुत अच्छा मित्र है याक।

Friday, June 26, 2009

जीना मुश्किल कर दिया है कंबख्त शोर ने

शोर प्रदूषण ऐसी ध्वनि के होने को कहते हैं जो पीड़ादायक हो। बढ़ते शोर के कारण मनुष्य के जीवनयापन स्तर की गुणवत्ता में गिरावट आती है। शोर प्रदूषण मुख्य रूप से यातायात और औद्योगिक गतिविधियों के कारण होता है। यातायात का शोर अधिक संगीन है क्योंकि वह अधिक लोगों पर असर डालता है। यातायात के साधनों में हवाई जहाज, रेल गाड़ी, भारी-भरकम ट्रक एवं मोटरकार अधिक शोर करते हैं। मिक्सर, कूलर, टीवी, रेडियो, टेपरिकार्डर आदि घरेलू उपकरणों के कारण घर के भीतर शोर का स्तर बहुत अधिक हो सकता है।



शोर प्रदूषण हमारे मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। चिकित्साशास्त्र ने यह भी प्रमाणित कर दिया है कि शोर प्रदूषण अनेक बीमारियों को अधिक तीव्र कर देता है। इन बीमारियों में शामिल हैं, एलर्जी, पेट का अल्सर (वृण) तथा दिल, मस्तिष्क जिगर और फेफड़ों की बीमारियां। शोर आदमी को क्रोधी बना देता है और उसे थका देता है। उसमें निराशा एवं उदासी के भाव भी पैदा करता है। ये सब विभिन्न बीमारियों का कारण बन जाते हैं। भुवनेश्वर के सेंटर फॉर यूथ एंड सोशल डेवलपमेंट की एक रिपोर्ट के अनुसार अत्यधिक शोर से गर्भस्थ भ्रूण में अवांछित परिवर्तन आ जाते हैं और कभी-कभी उसकी मृत्यु भी हो जाती है।

लंबे समय तक शोर प्रदूषण की चपेट में रहने से बेहरा हो जाने का खतरा रहता है। विश्व भर में बुलडोजर, जैक-हैमर, डीजल ट्रक, हवाई जहाज आदि के साथ काम करने वाले लाखों व्यक्ति शोर प्रदूषण के कारण बेहरे हो गए हैं। आधुनिक ऐंप्लिफाइड रॉक-एंड-रॉल संगीत ज्यादा सुननेवाले युवकों को भी सुनने की तकलीफें हो जाती हैं। 135 डेसिबल से अधिक का शोर यदि थोड़ी देर के लिए भी कानों में आ लगे, तो कानों को स्थायी नुक्सान हो सकता है। 150-160 डेसिबल का शोर कानों के पर्दों को फाड़ सकता है। अफ्रीका और भारत के वनवासियों के अध्ययन से पता चला है कि उनमें उम्र के बढ़ने के साथ सुनने की शक्ति का क्षय उस तीव्रता से नहीं होता जिससे हम शहरवासियों में होता है। शायद उम्र के साथ बेहरेपन का आना औद्योगिक सभ्यता की एक खास देन है।

जो बच्चे शोराकुल परिवेश में बढ़ते हैं, वे शारिरिक एवं मानसिक दृष्टि से पंगु हो जाते हैं। कानपुर शहर के रेलवे कालोनियों और कारखानों के निकट के शोराकुल मुहल्लों में रहनेवाले लगभग 500 बच्चों पर किए गए एक अध्ययन में देखा गया कि 10 प्रतिशत बच्चों में बेहरेपन के प्रारंभिक लक्षण विद्यमान हैं। कई बच्चों ने सिरदर्द, क्रोध एवं विचलन की शिकायत की। लगभग 60 प्रतिशत बच्चों ने किसी भी विषय पर गहराई से ध्यान लगाने की क्षमता खो दी थी।

भारत के अनेक बड़े शहरों में शोर प्रदूषण शहरी जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया है। दिल्ली, कलकत्ता और मुंबई में शोर प्रदूषण का स्तर विश्व में सर्वाधिक है। सोक्लीन नामक संस्था के अनुसार इन शहरों में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित शोर सीमा (45 डेसिबल) से अधिक शोर होता है। जिस दर से ये शहर फैल रहे हैं, उसे देखते हुए भविष्य में इन शहरों में शोर प्रदूषण की स्थिति और अधिक गंभीर हो उठेगी। यह अवश्यंभावी इसलिए भी लगता है क्योंकि शोर प्रदूषण को नियंत्रित करने की व्यवस्थागत प्रणालियां विकसित नहीं हो रही हैं।

शोर को उसके स्रोत पर ही नियंत्रित करना चाहिए। इसके लिए मशीनों की बनावट में सुधार करना आवश्यक होगा ताकि उनके कारण शोर कम-से-कम हो। अत्यधिक शोर करनेवाली पुरानी और बिगड़ी हुई मशीनों की या तो मरम्मत होनी चाहिए या उन्हें फेंक दिया जाना चाहिए। शोर करनेवाली मशीनों पर काम करनेवाले कर्मियों को कानों में इयर प्लगों का उपयोग करना चाहिए।

औद्योगिक इकाइयों के इर्द-गिर्द पेड़ लगाने चाहिए। पेड़ शोर को 10 डेसिबल तक कम कर सकते हैं। इसी प्रकार भीड़-भाड़वाली सड़कों के दोनों ओर भी पेड़ों की कई कतारें लगाई जानी चाहिए। सार्वजनिक स्थलों में रेड़ियो, ध्वनि-विस्तारक, टीवी आदि के उपयोग पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। वाहनों के कर्कश हार्नों पर पूरा प्रतिबंध होना चाहिए। अधिक शोर करनेवाले पुराने वाहनों का उपयोग निषिद्ध कर देना चाहिए। साइकिलों और साइकिल रिक्शाओं के उपयोग को बढ़ावा देना चाहिए। उनकी खरीदारी पर सब्सिडी उपलब्ध करानी चाहिए और साइकिल और साइकिल रिक्शा चालकों के लिए सभी सड़कों पर अलग जगह निश्चित करनी चाहिए। बिजली से चलनेवाली बसों के उपयोग को बढ़ावा देना चाहिए क्योंकि वे कम शोर करती हैं। हवाई जहाजों के कारण बहुत अधिक शोर प्रदूषण होता है। इसलिए हवाई अड्डे मानव बस्तियों से बहुत दूर बनाए जाने चाहिए।

आवास स्थलों के डिजाइन में परिवर्तन करके भी शोर प्रदूषण से बचा जा सकता है। मकानों को सड़क के दोनों ओर आमने-सामने दो कतारों में न बनाकर उन्हें असमान रूप से बनाना चाहिए। इससे शोर वातावारण में छितर जाएगा और उसकी तीव्रता कम हो जाएगी। भवनों की बाहरी दीवारों को खुरदुरा छोड़ना चाहिए। ये दीवारें सपाट न होकर गोल, परावलयिक अथवा हाइपरवलयिक होनी चाहिए। इससे ध्वनि तरंगें उनसे टकराकर आकाश की ओर परावर्तित हो जाएंगी। इससे ध्वनि के गूंज उठने को भी कम किया जा सकता है।

अन्य उपाय मानव आबादी को अत्यधिक शोरगुल वाले स्थानों से अलग रखना, रात के वक्त यातायात पर पाबंदी लगाना, जनसाधारण में शोर के हानिकारक प्रभावों के बारे में चेतना लाना आदि है। निस्संदेह शोर को नियंत्रित करने के कानून भी बनाने चाहिए और उन्हें कड़ाई से लागू करना चाहिए।

आजकल शोर कम करने के लिए पर्याप्त प्रौद्योगिकीय साधन उपलब्ध हैं। आवश्यकता है तो केवल शोर को एक खतरनाक चीज के रूप में पहचानने और उससे प्रभावशाली ढंग से निपटने की इच्छाशक्ति की।

Thursday, June 25, 2009

भूत-प्रेतों का डेरा पीपल का वृक्ष


पीपल के पेड़ पर भूत-पिशाच रहते हैं, यह अंधविश्वस हमारे भारतीय समाज में बहुत अधिक जड़ें जमाया हुआ है। परंतु यह कम ही लोगों को पता होगा कि विश्व भर के वृक्षों में यह सबसे अधिक मात्रा में आक्सीजन उत्पन्न करता है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रकृति की यह अनुपम देन प्रति घंटे 1,700 किलोग्राम आक्सीजन उत्सर्जित करता है। यानी पर्यावरण शुद्धि में पीपल का अत्यधिक महत्व है। इसके अलावा यह वृक्ष अपनी घनी छाया और सुंदरता के लिए भी विख्यात है।

पीपल के बारे में धार्मिक मान्यता है कि इसकी जड़ों में ब्रह्मा, तने में विष्णु और पत्तों में महेश का वास होता है। इसीलिए अनेक पूजा विधियों एवं धार्मिक अनुष्ठानों में पीपल के नीचे दीपक जलाने और उसकी पूजा करने का चलन है। धार्मिक आस्था से जुड़े होने के कारण ही इस वृक्ष को आमतौर पर काटा नहीं जाता है।



पीपल का वानस्पतिक नाम फाइकस रिलिजियोसा है। यह वृक्ष मंदिरों के आसपास अथवा सड़कों के किनारे अधिक मिलता है। यह भी है कि जहां पीपल का वृक्ष होता है, वहीं लोग पूजा-आरती शुरू करके उस स्थान को मंदिर में बदल देते हैं। हिंदू और बौद्ध धर्मों में पीपल का अत्यधिक महत्व है। धार्मिकता का केंद्र होने के कारण ही इस वृक्ष का वानस्पतिक नाम रिलिजियोसा है।

शुष्क जलवायु में कुछ समय के लिए उसके पत्ते झड़ जाते हैं, अन्यथा पूरे वर्ष वह हरा-भरा रहता है। जनवरी से मार्च के बीच उस पर नई पत्तियां आ जाती हैं। ये शुरू में तांबे के रंग की होती हैं, बाद में हरा रंग प्राप्त करती हैं। इन पत्तों का आकार हृदय जैसा होता है। उनका सिरा लंबा और नुकीला होता है। इस कारण से बारिश में पत्तों पर लग गया पानी पत्ते के सिरे के जरिए जल्दी ही उतर जाता है। इन पत्तों का डंठल हल्का व चपटा होता है और टहनी से वह लचीले रूप से जुड़ा रहता है। इस कारण से पत्ते सदैव हिलते रहते हैं और हल्की सी हवा में भी पीपल के पेड़ से सरसराहट की तेज ध्वनि आती है। इन पत्तों की सतह खूब चमकीली होती है और चंद्रमा के प्रकाश में तीव्रता से झिलमिलाती हैं। सरसराहट और चमकीले पत्तों के कारण रात को इस विशाल वृक्ष का रूप सचमुच डरावना हो जाता है। शायद इसीलिए लोग मानने लगे कि इस वृक्ष में भूत-पिशाच का वास होता है।

पीपल के फूल आमतौर पर बाहर से दिखाई नहीं देते हैं। फल अप्रैल-मई में लगते हैं। वे गुच्छों के रूप में तने से चिपके रहते हैं। पकने पर उनका रंग गहरा बैंगनी हो जाता है। पशु-पक्षी इन्हें बड़े चाव से खाते हैं।

पीपल दीर्घायु वाला वृक्ष है। श्रीलंका में एक पीपल दो हजार वर्षों से भी पुराना बताया जाता है। उसे भारत से ही वहां ले जाया गया था। पीपल में सूखी जलवायु झेलने की अद्भुत क्षमता होती है।

पीपल की एक विशेषता और है। वह यह कि पीपल जमीन में कठिनाई से उग पाता है। लेकिन पुराने मकानों, दीवारों अथवा दूसरे वृक्षों पर वह आसानी से जड़ें उतार लेता है। इन जगहों पर उसके बीज पक्षियों के जरिए पहुंचते हैं। जब पीपल किसी और वृक्ष पर उगने लगता है, तो वह धीरे-धीरे उस वृक्ष का दम घोंट देता है और उसका स्थान ले लेता है। जंगलों में इसके बहुत से उदाहरण देखने को मिलते हैं। यदि मकानों पर उग आए पीपल को रहने दिया जाए, तो उसकी जड़ें मकान भर में फैल जाएंगी और अंततः मकान खंडहर में बदल जाएगा।

पीपल जिस वनस्पति-समूह में है, उसी में एक और विशाल और परिचित वृक्ष है, बरगद, पर उसके बारे में किसी अन्य लेख में।

Wednesday, June 24, 2009

फोटो फीचर : बोतल-बंद पानी का दूसरा पहलू









Tuesday, June 23, 2009

जंगल में नाचा मोर


लगभग सभी लोगों ने मोर को कभी न कभी देखा होगा। मोर यानी खूबसूरत आंखों वाला सुंदर नीला-हरा भारतीय पक्षी। मोर भारत का मूल निवासी है। भारत ने 1963 में इस आकर्षक पक्षी को राष्ट्रीय पक्षी के रूप में गौरवान्वित किया और उसके शिकार पर रोक लगा दी।

मोर बड़े आकार का पक्षी है। इसलिए वह उड़ता कम है और चलता या दौड़ता अधिक। कुछ-कुछ डरपोक स्वभाव का यह पक्षी सर्वभक्षी है और फल, फूल, अनाज, बीज, घास, पत्ती, कीड़े-मकोड़े और छोटे जीवों को खाता है। वह सांपों का बड़ा दुश्मन है। कहावत भी है कि जहां मोर की आवाज सुनाई पड़ती है, वहां नाग नहीं जाता। किसानों का वह अच्छा मित्र है। मोर आसानी से पालतू बन जाता है।

मोर को गरमी और प्यास बहुत सताती है। इसलिए नदी के किनारे के क्षेत्रों में रहना उसे अच्छा लगता है। बर्फीले स्थानों में रहना उसे पसंद नहीं है। भारत में मोर हरियाणा, राजस्थान, गुजरात और खासकर चित्रकूट और वृंदावन में पाया जाता है। तमिलनाडु में कार्तिकेय भगवान के मंदिरों में मोर रहते हैं क्योंकि कार्तिकेय भगवान का वह वाहन है। वह संसार के अनेक अन्य देशों में भी पाया जाता है जैसे बर्मा, पाकिस्तान, वियतनाम तथा अफ्रीका के अनेक देश। वियतनाम में पाए जाने वाले मोर की गर्दन काली होती है।

भगवान ने मोर को सुंदरता और आकर्षण दिया है लेकिन आवाज में मिठास नहीं रखी। वह सुबह-सुबह बड़ी जोर से अपनी कर्कश आवाज में बोलना शुरू करता है। बादलों के गरजने की आवाज सुनकर तो वह पागलों की तरह जोर-जोर से पुकारता है। आसमान पर बादल छाए रहने पर मोर नाचता है। मोर का नाचना बड़ा चित्ताकर्षक होता है। उसकी पूंछ पर नीले-सुनहरे रंग के चंद्राकार निशान होते हैं। नाचते समय परों के मेहराब पर ये निशान बड़े मनमोहक लगते हैं। प्रकृति ने मोर के पर जितने आकर्षक बनाए हैं, उसके पैर उतने ही बदसूरत। कहा जाता है कि नाचते समय अपना पांव दिख जाने पर मोर नाचना बंद कर देता है। मोर की आंखें तेजस्वी होती हैं। मोर को तैरना नहीं आता।

इतिहास में मोर को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। मौर्य वंश का नाम उसी पर पड़ा बताया जाता है। मौर्य सम्राटों की रसोई में रोज दो मोर पकाए जाते थे। इस परंपरा को अहिंसाप्रिय अशोक ने बंद करवा दिया। मौर्यों के सिक्कों पर भी मोर के चिह्न अंकित हैं। विद्यादात्री मां सरस्वती को भी यह पक्षी अति प्रिय है। भगवान कृष्ण के मुकुट पर मोर के पर सदा लगे रहने के कारण उन्हें मोरमुकुटधारी कहा जाता है।

पशु-पक्षियों में मादा की अपेक्षा नर बहुधा अधिक सुंदर होते हैं। मोर के साथ भी यही बात है। आकर्षक रंग, लंबी पूंछ, माथे पर राजमुकुट सी बड़ी कलगी आदि सारी व्यवस्थाएं नरों तक सीमित हैं। मोरनी में सुंदरता के अभाव का एक जबरदस्त प्राकृतिक कारण है। खूबसूरती और आकर्षण के अभाव में वह आसानी से नहीं दिखती है। इस तरह अंडा सेते समय वह दुश्मन की नजर से बची रहती है।

मोर पेड़ों की डालियों पर खड़े-खड़े सोते हैं। मोरनी साल में एक बार जनवरी से अक्तूबर के बीच अंडे देती है। अंडों का रंग सफेद होता है। उनकी संख्या एक बार में चार से आठ तक होती है। अंडा सेने की जिम्मेदारी अकेले मोरनी को पूरी करनी पड़ती है। पालतू मोर के अंडों को सेने का काम मुर्गियों से भी कराया जाता है। बचपन में नर और मादा मोर की अलग-अलग पहचान नहीं हो सकती। एक साल का होने पर नर की पूंछ लंबी होने लगती है। बच्चों के कुछ बड़े होने पर उनके सिर पर कलगी आती है।

मोर का दवा के रूप में भी उपयोग किया जाता है। मोर के मरने के उपरांत मोर तेल तैयार किया जाता है। मोर के परों को जलाकर प्राप्त की गई भस्म को शहद के साथ खाने से खांसी बंद हो जाती है। दुनिया के सुंदर पक्षियों में मोर का अपना एक अलग स्थान है। सुंदरता केवल परों या रंगों की ही नहीं होती। मोर के आचरण और व्यक्तित्व में भी सुंदरता पाई जाती है।

Monday, June 22, 2009

पक्षी जो मुहावरा बन गया


डोडो मोरिशियस में पाया जानेवाला मुर्गी से बड़े आकार का भारी-भरकम, गोलमटोल पक्षी था। उसकी टांगें छोटी एवं कमजोर थीं और शरीर के वजन को बड़ी मुश्किल से संभाल पाती थीं। उसके पंख हास्यास्पद हद तक छोटे थे और उड़ने के लिए नाकाफी थे। अपने बचाव के लिए यह पक्षी न तो तेज दौड़ सकता था न उड़ ही।

मोरिशियस हिंद महासागर में स्थित एक टापू है जिसका क्षेत्रफल १,८५० वर्ग किलोमीटर है। सोलहवीं सदी में पुर्तगाली नाविक अपने जहाजों में रसद एवं पानी भरने के लिए इस टापू पर नियमित रूप से लंगर डालते थे। उन्होंने ही इस पक्षी की जानकारी सबसे पहले अन्य लोगों तक पहुंचाई। कहा जाता है कि उन्होंने डोडो पक्षी को मुगल दरबार में भी पेश किया था और दरबारी चित्रकार ने इस विचित्र और बेढंगे पक्षी का चित्र भी बनाया था।

इस पक्षी का नाम डोडो पुर्तगालियों का ही दिया हुआ है। उन्होंने पाया कि यह पक्षी अत्यंत काहिल और निरापद है। जब नाविक उसे मारने की कोशिश करते थे तो वह बचने का प्रयत्न नहीं करता था और खड़े-खड़े मारा जाता था। देखने में भी यह पक्षी सुंदर न था। इसलिए उन्होंने उसका नाम डोडो रखा जिसका अर्थ है जड़ मूर्ख।

पुर्तगाली मोरिशियस में १५०० ई को पहुंचे और केवल १८० वर्षों में, यानी १६८० ई में, डोडो की नस्ल समाप्त हो गई। इसका मुख्य कारण पुर्तगालियों द्वारा मांस के लिए उसका शिकार था। इसके अलावा पुर्तगालियों द्वारा मोरिशियस में छोड़े गए कुत्ते, बिल्ली, चूहे, सूअर आदि पालतू जानवरों से तीव्र प्रतिस्पर्धा के कारण भी डोडो की संख्या में कमी आई। डोडो के कोई प्राकृतिक शत्रु नहीं थे। शत्रु के अभाव में और भोजन की प्रचुरता के कारण डोडो अत्यंत सुस्त हो गया था। अतः कुत्ते, बिल्ली आदि के आक्रमणों को वह झेल न सका। इसके साथ ही चूहे, सूअर आदि उसके अंडों और चूजों को नुकसान पहुंचाते थे।

वर्षों पहले मर-मिटकर भी डोडो हमारी जुबान पर बार-बार आता है, क्योंकि उसका नाम एक मुहावरा बन गया है, जिसका अर्थ है काफी समय से मरा हुआ या काहिल और बुद्धू।

मौसम की जानकारी देनेवाला पत्थर

मौसम विभाग की भविष्यवाणियों से आपका विश्वास उठ चुका है। वे मजाक ज्यादा होती हैं, भविष्यवाणियां कम। अब एक नई तकनीक आपको मौसम के बारे में बेहतर जानकारी दे सकती है। उसे आजमाकर देखिए।

Sunday, June 21, 2009

संसार का सबसे ऊंचा जीव जिराफ


सभी तृणभक्षियों में जिराफ सबसे अधिक विलक्षण एवं आकर्षक है। वह संसार का सबसे ऊंचा जीव है। उसकी अधिकतम ऊंचाई ५.५ मीटर होती है। इस ऊंचाई का लगभग आधा उसकी मीनार जैसी लंबी गर्दन है। आश्चर्य की बात यह है कि इस लंबी गर्दन में भी हड्डियों की संख्या उतनी ही होती है जितनी कि हमारी या किसी भी स्तनधारी की गर्दन में होती है, यानी सात। इस ऊंची गर्दन को संतुलित रखने के लिए जिराफ के आगे के दोनों पैर भी खूब लंबे होते हैं। इन पैरों के सिरे पर गाय-भैंस की तरह दो खुर होते हैं। जिराफ के सिर पर बालों से ढके दो छोटे सींग भी होते हैं। इन सींगों के भीतर हड्डियां नहीं होतीं। जिराफ की छोटी सी पूंछ के सिरे पर गाय की पूंछ के समान बालों का एक गुच्छा होता है।

जिराफ केवल अफ्रीका में पाए जाते हैं और वहां उनकी दो जातियां हैं। दोनों में शरीर पर बनी चिकत्तियों का आकार अलग होता है। मसाई जिराफ में ये चिकत्तियां तारे के आकार की होती हैं, जबकि रेटिक्युलेटेड जिराफ में ये चौकोर होती हैं।

जिराफ की गर्दन की असाधारण ऊंचाई के बारे में वैज्ञानिकों ने अनेक अटकलें लगाई हैं। इन विद्वानों में प्रसिद्ध जीवशास्त्री चार्ल्स डारविन भी शामिल है। इन वैज्ञानिकों के विचार के अनुसार शुरू शुरू में जिराफ घोड़े के समान साधारण लंबाई की गर्दन वाला प्राणी था। वह अन्य तृणभक्षियों के समान घास-पत्ती आदि खाता था। घास-पात खानेवाले और भी अनेक प्राणी थे, जैसे हिरण, घोड़े, गाय-भैंस आदि आदि। अतः इन चीजों के लिए इन जीवों में काफी प्रतिस्पर्धा होती थी। इस प्रतिस्पर्धा से बचने के लिए जिराफ पेड़ों की उन ऊंची डालियों पर लगे पत्तों को खाने लगे। वे पेड़ों की ऊपरी डालियों तक पहुंचने के लिए अपनी गर्दन को अक्सर ऊपर बढ़ाया करते थे। कुछ जिराफ प्राकृतिक रूप से ही अन्यों से अधिक लंबी गर्दन वाले पैदा हुए। वे अपनी लंबी गर्दन के कारण अधिक भोजन प्राप्त करने में सफल हुए। इस कारण से वे अन्य जिराफों से अधिक समय तक जीवित रह सके और अधिक संख्या में संतान छोड़ सके। इन संतानों में भी अपनी माता-पिता के समान लंबी गर्दन का गुण मौजूद था। जिराफों की इस पीढ़ी में से भी प्रकृति ने उन जिराफों को अधिक सफल बनाया जिनकी गर्दन सामान्य से अधिक लंबी थी। जब हजारों सालों तक इस प्रकार का प्राकृतिक चयन होता रहा तो जिराफों की गर्दन की लंबाई आजकल की जितनी हो गई।

जिराफों की दृष्टि अत्यंत तीक्ष्ण होती है और चूंकि उनकी ऊंचाई भी बहुत अधिक है, इसलिए वे दूर-दूर तक देख सकते हैं। जब वे सिंह आदि परभक्षियों को देख लेते हैं, तब ५० किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से भाग निकलते हैं। जमीन चाहे जितना ऊबड़-खाबड़ क्यों न हो, उन्हें कोई तकलीफ नहीं होती। यद्यपि जिराफ देखने में काफी अटपटी बनावट के जीव लगते हैं, लेकिन दौड़ते समय उनका सारा अटपटापन दूर हो जाता है और उनकी छटा देखते ही बनती है। दौड़ते समय वे शरीर के एक तरफ के दोनों पैरों को एक-साथ आगे बढ़ाते हैं, इसलिए दौड़ने की उनकी शैली अन्य तृणभक्षियों से भिन्न होती है। जब कोई जिराफ शत्रुओं द्वारा घिर जाता है तब अपना बचाव करने के लिए अपने आगे के पैरों से लात मारता है। सिंह आदि इन पैरों की चपेट में आ जाएं तो एक ही लात में उनका काम तमाम हो जाता है।

जिराफ सूखे, खुले वनों में रहते हैं और वे पेड़ों की ऊंची डालियों को चरते हैं। अपनी ऊंचाई के कारण वे उन पत्तों तक भी पहुंच जाते हैं जो अन्य जानवरों की पहुंच के बाहर होते हैं। वे दिन भर और कभी कभी रात को भी चरते रहते हैं। पानी पीते वक्त उन्हें थोड़ी तकलीफ होती है क्योंकि उन्हें अपनी लंबी गर्दन को पानी तक झुकाना पड़ता है। इसके लिए वे आगे के दोनों पैरों को खूब फैला लेते हैं और धीरे-धीरे गर्दन को झुकाते हैं। इस अवस्था में वे कई बार सिंह का शिकार हो जाते हैं क्योंकि झुके होने पर वे सिंह के आगमन को भांप नहीं पाते।

यद्यपि जिराफ अत्यंत कोमल स्वभाव के प्राणी हैं, लेकिन नर कई बार आपस में लड़ते हैं। तब वे अपनी लंबी गर्दन से प्रतिद्वंद्वी पर वार करते हैं। चिड़ियाघरों और सफारी उद्यानों में जिराफ आसानी से पालतू बन जाते हैं और प्रजनन भी करते हैं। उनके बच्चे अत्यंत सुंदर और मन को मोहने वाले स्वरूप के होते हैं।

Saturday, June 20, 2009

चींटी -- छोटी पर मेहनती


हर समय हम चींटियों को नजरअंदाज करते हैं, उन्हें पैरों तले कुचल देते हैं और उन्हें काटनेवाले दुष्टों से अधिक कुछ नहीं समझते। किंतु चींटी बहुत ही मेहनती जीव होती है और उसके जीवन में अद्भुत हद तक एकता की भावना पाई जाती है।

भोजन की तलाश में इधर-उधर भटकता यह छोटा-सा जीव दुनिया के किसी भी कोने में दिखाई दे जाता है। चाहे गरम देश हों या ठंडे, चींटी बाग-बगीचों, पेड़ों और घरों में भी मिल जाएगी। केवल ध्रुवीय प्रदेशों और पर्वतों की ऊंची चोटियों में, जो सदा बर्फ से ढंके रहते हैं, चींटी नहीं होती।

विश्वभर में चींटियों की लगभग १४,००० जातियां पाई जाती हैं। ये १ मिलीमीटर से लेकर ४ सेंटीमीटर तक की लंबाई की होती हैं। जिन चींटियों को हम सबसे अधिक पहचानते हैं, उनमें हैं काली चींटी, मकोड़ा, पेड़ों पर रहनेवाली लाल चींटी जो काटने के लिए मशहूर है और छोटी काली चींटी जो गुड़ आदि मीठी चीजों की ओर अद्भुत आकर्षण दर्शाती है।

चींटियों की दुनिया में नर चींटियों की भूमिका बहुत थोड़ी होती है। उनका जीवनकाल भी अल्प समय का होता है। नर मानसून के तुरंत बाद प्रकट होते हैं, सामान्यतः पहली बौछार के बाद। हमारे ध्यान में वे तब आते हैं जब घर की रोशनी से आकृष्ट होकर वे कमरों में प्रवेश करने लगते हैं। नर का बस एक काम होता है, मादा से समागम करना। इसके बाद उसकी मृत्यु हो जाती है। नर परयुक्त होते हैं। वे भारी संख्या में अपने घोंसले से दूर किसी स्थल पर एकत्र होते हैं। फिर वे अपने शरीर से एक वाष्पशील तरल छोड़ते हैं जो मादा चींटियों और अन्य नरों को आकर्षित करता है। जैसे ही कोई मादा चींटी प्रकट होती है, कई नर उसका आलिंगन करते हैं और एक उससे समागम करके मादा के उदर में शुक्राणुओं को पहुंचा देता है। बाद में अन्य नर भी ऐसा ही करते हैं। इस प्रकार जल्द ही मादा का उदर शुक्राणुओं से भर जाता है। मादा से समागम करने के बाद नर चींटियां एकएक करके मरने लगती हैं, क्योंकि उनकी अब कोई आवश्यकता नहीं होती। मादा चींटी कहीं दूर जाकर अपने जबड़ों से नोचकर या किसी सख्त सतह से रगड़कर अपने पंखों को उखाड़ देती है। वह अब रानी चींटी कहलाती है और स्वयं घोंसला आरंभ करने में सक्षम होती है।

रानी चींटी का मुख्य कर्तव्य हजारों की संख्या में अंडे देना होता है। इसे वह दस-पंद्रह सालों तक निरंतर पूरा करती है। उसे दोबारा नर से समागम नहीं करना प़ड़ता क्योंकि प्रथम उड़ान के दौरान जो शुक्राणु उसने संचित कर लिए थे, वे उम्र भर काम आते हैं। पहली बार दिए गए अंडों के फटने तक रानी चींटी कुछ नहीं खाती। उसके शरीर में मौजूद चर्बी और उड़नपेशियों के गलने से ही उसे आवश्यक ऊर्जा प्राप्त होती रहती है।

रानी द्वारा प्रथम बार जो अंडे दिए जाते हैं, उनसे निकलती हैं श्रमिक चींटियां, जो रानी की देखभाल में लग जाती हैं। वे घोंसले के रखरखाव की सारी जिम्मेदारी को भी अपने ऊपर ले लेती हैं। अब रानी आहार ग्रहण करना प्रारंभ करती है और श्रमिक चींटियां उनके द्वारा एकत्र किए गए भोज्य पदार्थों में से सबसे स्वादिष्ट टुकड़े रानी को खिलाती हैं।

सभी श्रमिक चींटियां मादाएं होती हैं, हालांकि उनमें प्रजनन की क्षमता नहीं रहती। वे कई आकारों की होती हैं। सबसे बड़ी सैनिक चींटियां होती हैं। ये घोंसले की रखवाली करती हैं। इनका सिर बड़ा होता है और जबड़े मजबूत होते हैं। ये अन्य श्रमिक चींटियों की भी मदद करती हैं।

श्रमिक चींटियां भोजन की तलाश करती हैं और नन्हीं चींटियों की देखभाल करती हैं। अंडों से निकली नन्हीं चींटियों के पैर विकसित नहीं होते और वे कीड़े के समान लगती हैं। वे हिलडुल नहीं सकतीं। उन्हें श्रमिक चींटियों द्वारा तब तक खिलाया जाता है जब तक कि वे पूर्ण विकसित न हो जाएं।

सामूहीक प्राणी होने के कारण चींटी सभी कार्यों को बांटकर करती हैं। जो कुछ भी खाद्य पदार्थ मिलता है, उन्हें वे घोंसले में लाती हैं और सब चींटियां मिलकर खाती हैं। इस व्यवहार के कारण समुदाय बिखर नहीं पाता। कुछ चींटियां पानी, मकरंद आदि तरल पदार्थों को घोंसले तक पहुंचाने के लिए औजारों का उपयोग करती हैं। पत्ती, टहनी या मिट्टी के ढेले को वे तरल में रख देती हैं। जब वह तरल को सोख लेता है तो उसे वे घोंसले में ले जाती हैं। लगभग सभी चींटियां घायल जीवों को खाती हैं। इनके अलावा वे पौधों का रस भी पीती हैं। कुछ चींटियां अपने घोंसले में फफूंदी उगाती हैं और खाती हैं।

शृंगिकाएं चींटी की नाक और स्पर्शेंद्रिय होती हैं। इनके सहारे वह गंध का अनुसरण करती है और घोंसले तक अपना रास्ता ढूंढ़ती है। चींटियों के लिए शृंगिकाएं विशेषरूप से महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे लगभग अंधी होती हैं। सभी चींटियां अपने उदर से निकले एक गंध युक्त तरल से जमीन को अंकित करती जाती हैं। इस गंध मार्ग के कारण वे रास्ता नहीं भटकतीं और दूर-दूर विचरने के बाद भी अपने घोंसले पर लौट आती हैं। इतना ही नहीं किसी एक चींटी को भोजन आदि मिलने पर अन्य चींटियां इस गंध मार्ग का अनुसरण करते हुए मिनटों में भोजन तक पहुंच जाती हैं और उसे घोंसले तक खींच लाने में मदद करती हैं।

चींटी बड़े-बड़े समुदायों में रहती है। इन समुदायों में पांच लाख तक चींटियां हो सकती हैं। चींटियों का सामूहीक घोंसला अनेक प्रकार का होता है। वह कहीं भी बनाया जा सकता है, मकानों की नींव में, दीवारों में, वृक्षों की छाल के पीछे, जमीन में या पत्थरों के नीचे। सुपरिचित लाल चींटी अपने समुदाय को किसी ऊंचे पेड़ पर बसाती है। अक्सर यह एक आम का पेड़ होता है। चींटियों के डिंभकों द्वारा बनाए गए रेशम जैसे धागे की सहायता से ये चींटियां पास-पास स्थित पत्तों को चिपका देती हैं। अफ्रीका की दर्जी चींटियां भारत की लाल चींटियों के वर्ग की हैं किंतु उनके द्वारा बनाए गए घोंसले वृक्षों की एक या दो शाखाओं को जोड़ते हैं। बहुधा पास-पास खड़े दो या अधिक पेड़ों की डालियों को जोड़ते घोंसले भी बनाए जाते हैं।

वृक्षों पर रहनेवाली काली चींटी टहनियों पर बड़े-बड़े पगोड़ानुमा घोंसले बनाती है। इन घोंसलों की ऊंचाई १० मीटर तक हो सकती है। ये घोंसले देखने में रेत के बने से लगते हैं, किंतु वास्तव में पत्तों के बने होते हैं। घोंसला बनाने के लिए पत्ते सर्वोत्तम साधन हैं। यह चींटी उनकी सतह पर एक प्रकार के तरल पदार्थ का लेप लगाती है जो उन्हें जलरोधक बना देता है। यह तरल चींटियों के शरीर से स्रवित होता है। कठफोड़वे की एक जाति इन चींटियों के घोंसले में ही अपना नीड़ बनाती है। उसके अंडे, चूजे और अंडों को सेते स्वयं कठफोड़वे को ये खूंखार चींटियां कोई हानि नहीं पहुंचातीं। ऐसा भी नहीं लगता कि इन पक्षियों के कारण चींटियों को कोई लाभ होता हो। फिर भी वे इन पक्षियों को क्यों अपने घोंसले में रहने देती हैं, यह विज्ञान के लिए एक रहस्य बना हुआ है।

कुछ चींटियां घोंसला बनाकर नहीं रहतीं, बल्कि हमेशा एक स्थान से दूसरे स्थान भटकती रहती हैं। इन्हें फौजी चींटी कहा जाता है और ये विशाल टुकड़ियों में विचरती हैं। एक टुकड़ी में दो करोड़ तक चींटियां हो सकती हैं। इस प्रकार की चींटियां सामान्यतः दक्षिण अमरीका और अफ्रीका में पाई जाती हैं।

जब इन चींटियों की फौज चल पड़ती है तो श्रमिक चींटियां आगे-आगे चलकर आसपास के सारे इलाके को छान डालती हैं। जिस रास्ते वे आगे बढ़ती हैं, उसे गंध से अंकित करती जाती हैं। यह अन्य चींटियों के लिए मार्ग दिखाता है। श्रमिक चींटियां अवयस्क चींटियों और अंडों को भी सदा मुंह में लिए फिरती हैं। इन्हें कूच के दौरान ही खिलाया-पिलाया जाता है। रात होने पर ये चींटियां किसी पेड़ की सूराख या जमीन पर बने गड्ढों में सुस्ताती हैं।

फौजी चींटियां मांसाहारी होती हैं। जो भी प्राणी उनकी पकड़ में आ जाए उसे वे खा जाती हैं। उनकी एक कुमुक ने एक बार तीन बकरियों को दो दिनों में चट कर लिया था। इससे भी अविश्वसनीय बात "इन्सेक्ट्स ऑफ द वल्ड" नामक पुस्तक में दर्ज मिलती है। सन १९७३ में इन चींटियों की एक सेना ब्राजील के एक छोटे कसबे में घुस आई और अनेक लोगों को खा गई। इन बदकिस्मत लोगों में उस कसबे का पुलिस अधीक्षक भी शामिल था !

Friday, June 19, 2009

बिच्छू -- शर्मीला निशाचर प्राणी


बिच्छू का नाम सुनते ही हमारे शरीर में सिहरन सी दौड़ जाती है। "ये जहरीले और खतरनाक हैं!" हमारा अचेतन मन बिच्छू को देखते ही चीख उठता है। बिच्छू को हम इतनी इज्जत की नजर से उसके जहरीले डंक के कारण ही देखते हैं। यह डंक, जो उसकी पूंछ के सिरे पर होता है, मनुष्य को दिनों तक भयंकर पीड़ा दे सकता है, और कभी-कभी उसकी मृत्यु का कारण भी बन सकता है।

बिच्छुओं की अनेक बातें दिलचस्प हैं। वे कीट नहीं हैं, जैसा कि भ्रमवश समझ लिया जाता है, किंतु "संधिपाद" नामक जीव-समूह के प्राणी हैं। इस समूह में मकड़ी, कनखजूरा, रामघोड़ी आदि जीव शामिल हैं। इन सबके छह से अधिक पैर होते हैं। कीटों में पैरों की संख्या हमेशा छह होती है।

बिच्छू बड़े आकार के जीवों में गिने जाएंगे। सबसे बड़े बिच्छू की लंबाई लगभग २० सेंटीमीटर होती है। ज्यादातर वे भूरे रंग के होते हैं, लेकिन कभी-कभी उनका शरीर का रंग हरा, काला या नीलापन लिए भी हो सकता है। विश्व में ६०० से भी अधिक जाति के बिच्छू हैं।

बिच्छुओं के चार जोड़े पैर होते हैं और ये उसे काफी ध्रुतगति से चलने में सहायता करते हैं। किंतु बिच्छू सामान्यतः धीमी गति से रेंगते हैं। छेड़े जाने पर ही वे फुर्ती दिखाते हैं। शिकार को भी वे छल से ही पकड़ना पसंद करते हैं, दूर तक शिकार का पीछा करने की आदत उनमें नहीं है। संध्याकाल में बिच्छू सर्वाधिक सक्रिय होते हैं।

बिच्छू की कुछ जातियां आगे के दो पैरों को जबड़ों के साथ रगड़कर ध्वनि करती हैं। यह ध्वनी झिंगुरों, और टिड्डों द्वारा निकाली गई ध्वनि से भिन्न होती है और उसका उद्देश्य शत्रुओं और प्रतिद्वंद्वियों को आक्रमण से पहले सचेत करना होता है।

बिच्छू मांसाहारी प्राणी हैं। वे पतिंगे, मक्खी, चींटी, भृंग, मकड़ी आदि को खाते हैं। बड़ी जाति के बिच्छू छिपकली और छोटे चूहों को भी पकड़ सकते हैं। शिकार को उनके मजबूत जबड़े फाड़ डालते हैं और वे उसके शरीर के रसों को चूस लेते हैं। उनके भोजन करने की प्रक्रिया बहुत धीमी होती है और एक छोटे से कीड़े को पूरा समाप्त करने में उन्हें कई घंटे लग जाते हैं।

बिच्छुओं के डरावने रूप को देख कर लोगों को लग सकता है कि उनके कोई शत्रु नहीं होते होंगे। किंतु यह सत्य नहीं है। कई प्रकार की मकड़ियां, छिपकली, सांप, पक्षी और बंदर उन्हें चाव से खाते हैं। बिच्छुओं को उनके ही भाई-बंधुओं से भी डरना पड़ता है क्योंकि वे स्वजातिभक्षी होते हैं।

बिच्छू अंडें नहीं देते, जीवित बच्चों को जनमते हैं। ये बच्चे मादा की पीठ पर चढ़कर बैठ जाते हैं और पर्याप्त बड़े होने तक वहीं रहते हैं। कुछ बिच्छुओं की आयु पांच वर्ष होती है।

बिच्छू शर्मीले जीव होते हैं जो आत्मरक्षा के लिए ही काटते हैं। कपड़ों, जूतों और अलमारियों में छिपने की उनकी आदत के कारण ही अधिकांश दुर्घटनाएं होती हैं।

जन-मानस में बिच्छू को एक कृतघ्न प्राणी की संज्ञा दी गई है। वह ऐसा जीव है जो उसे खिलानेवाले के हाथ को ही काट लेता है। किसी को बिच्छू कह देना उसकी घोर कृतघ्नता को धिक्कारना है। लेकिन मनुष्य सुलभ विशेषताओं को जीव-जंतुओं पर आरोपित करना उचित नहीं है। सोचने-समझने की क्षमता से शून्य ये जीव इस प्रकार की भावनाएं नहीं दर्शा सकते। बिच्छू, या कोई अन्य प्राणी, यदि काटता है तो आत्मरक्षा के लिए ही, न कि किसी द्वेष भावना से।

फोटो फीचर : अब आप नैनो कार खरीदने से पहले दो बार सोचेंगे

Thursday, June 18, 2009

कुदरतनामा विविध भारती में

अभी-अभी यूनुस खान ने सूचना भेजी है कि कुदरतनामा के रेनवाटर हार्वेस्टिंग वाले लेख पर विविध भारती रविवार, 21 जून को शाम चार और पांच बजे के बीच अपने यूथ एक्सप्रेस कार्यक्रम के तहत एक विशेष पेशकश करनेवाली है।

श्री यूनुस खान विविध भारती, मुंबई में बतौर रेडियो जोकी काम कर रहे हैं। वे एक ब्लोगर भी हैं और उनके कई ब्लोग हैं। उनमें से एक है, रेडियो वाणी, जिसमें वे रेडियो के बारे में लिखते हैं।

आप भी यह कार्यक्रम सुनें और बताएं कि कैसा लगा।

Wednesday, June 17, 2009

एल निनो और भारतीय मानसून

इस बार देश के अनेक भागों में मानसून के आगमन में देरी हो रही है और लोगों की चिंता बढ़ रही है। भारत अभी भी कृषि प्रधान देश है और भारतीय कृषि अब भी मानसून पर ही आधारित है। सिंचाई आदि की व्यवस्था सर्वत्र उपलब्ध नहीं है। उद्योग भी कृषि के अच्छे परिणाम पर ही निर्भर हैं। न केवल कृषि से उद्योगों को कच्चा माला प्राप्त होता है, कृषि से हुई आमदनी से ही लोग औद्योगिक उत्पाद खरीदते हैं। इसलिए यदि कृषि चौपट हो जाए, तो उद्योग भी टिके नहीं रह सकेंगे।

यद्यपि मौसम शास्त्रियों ने इस बार सामान्य मानसून की भविष्यवाणी की है, मानसून देश के कई भागों में अब भी नहीं पहुंचा है। मौसमशास्त्रियों का मानना है कि इसका मुख्य कारण अभी कुछ दिन पहले बंगाल की खाड़ी में आए आयलो नामक चक्रवाती तूफान है जिसने उत्तर भारत में बने निम्न दाबीय क्षेत्र को छिन्न-भिन्न कर दिया। अब नए सिरे से निम्न दाबीय क्षेत्र बनने पर ही मानसूनी हवा उत्तर भारत में फैल सकेगी।

मानसून की अनियमितता का एक अन्य कारण भी हो सकता है, जो है एल निनो। आपने अखबारों में इसके संबंध में छिट-पुट रिपोर्टें पढ़ी होंगी। इस साल एल निनो के क्षीण संकेत मिल रहे हैं, जिसका भी मानसून के रुक जाने से संबंध हो सकता है। क्या है यह एल निनो? आइए, समझते हैं।

दक्षिण अमरीका के तटों को प्रभावित करने वाली एल निनो नामक जलवायवीय परिघटना से भारत की मानसूनी वर्षा का गहरा संबंध है। एल निनो भी भारत में पड़नेवाले सूखे के समान रह-रहकर तीन-चार सालों में एक बार प्रकट होता है। जब भी भारत में विस्तृत सूखा पड़ा है, पेरू में भी एल निनो प्रभाव देखा गया है। लेकिन इसकी विपरीत की स्थिति नहीं देखी गई है, यानी हर बार जब एल निनो सक्रिय हो, भारत में सूखा नहीं पड़ता है। इसी कारण मौसम शास्त्रियों को एल निनो में गहरी रुचि है। यदि वे एल निनो की प्रक्रिया को और भारतीय मानसून के साथ उसके संबंधों को सटीकता से समझ सकें, तो भारत में पड़नेवाले सूखे का पूर्वानुमान कर सकते हैं, जिससे भारतीय कृषि को भारी फायदा पहुंच सकता है। खराब बारिश के समय रहते सूचना मिलने से किसान सूखे को बर्दाश्त करनेवाली फसलें बो सकते हैं, और पानी की अधिक मांग करनेवाली फसलों को बोने से होनेवाले नुकसान को बचा सकते हैं।

एल निनो जब सक्रिय होता है तो पेरू के पश्चिमी तटों पर पवन की दिशा एकाएक बदलकर समुद्र से जमीन की ओर हो जाती है। अन्य समयों में पवन का बहाव जमीन से समुद्र की ओर रहता है। इस परिवर्तन से वहां के तटीय पारिस्थितिकीय तंत्र पर बहुत बुरा असर पड़ता है।

पेरू के तटीय समुद्रों का जल जीवन गहरे समुद्र के गरम जल के सतह की ओर उठ आने पर निर्भर करता है। इस जल में पोषक तत्व घुले हुए होते हैं और अनेक प्रकार की मछलियां पेरू के तटों की ओर खिंच आती हैं। इन मछलियों पर पेरू की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ अनेकानेक पशु-पक्षी भी अवलंबित हैं, खासकर के जलपक्षी। ये जलपक्षी तट के किनारे के चट्टानों पर लाखों की संख्या में घोंसला बनाते हैं और उनकी बीट की मोटी तह वहां जमा हो जाती है। इस बीट में नाइट्रोजन की मात्रा बहुत अधिक होती है और उसे खेतों में खाद के रूप में उपयोग किया जा सकता है। पेरूवासी इस बीट का खनन करके उसे दूसरे देशों को निर्यात करते हैं। बीट का निर्यात उनके लिए आमदनी का एक महत्वपूर्ण स्रोत है।

एल नीनो की प्रक्रिया इस प्रकार होती है। सामान्यतः समुद्र की सतह पर पानी निचले स्तरों की तुलना में अधिक गरम रहता है क्योंकि वह सूरज की गरमी सोखता रहता है। लेकिन पेरू के तटों के समुद्र में इससे थोड़ी भिन्न स्थिति पाई जाती है। पूरू के भूभाग से समुद्र की ओर बहनेवाली हवाएं सतह जल को अपने आगे ठेलती जाती हैं, जिससे इस गरम जल-स्तर के नीचे मौजूद ठंडे जल को ऊपर उठ आने का मौका मिल जाता है। इस ठंडे जल में पोषक पदार्थ भारी मात्रा में रहते हैं। इससे मछलियों, जल-पक्षियों आदि के वारे-न्यारे हो जाते हैं, और वे खूब फलते-फूलते हैं। पेरू के आसपास के समुद्र इसी कारण दुनिया के सर्वाधिक उत्पादनशील पांच स्थानों में से एक माना गया है।

जब एल नीनो प्रभाव शुरू होता है, तो हवा की दिशा बदलकर समुद्र से पेरू के भूभाग की ओर हो जाता है। यह हवा समुद्र की सतह पर मौजूद गरम पानी को तट की ओर ढकेल देती है। यह गरम पानी कई किलोमीटर क्षेत्र में एक मोटी चादर के रूप में फैल जाता है। गरम जल की यह चादर निचले समुद्र से गरम एवं पोषक जल को ऊपर उठने नहीं देती। इस का परिणाम बहुत ही भयानक निकलता है। पोषक तत्वों के अभाव में मछलियां अन्यत्र चली जाती हैं और उन पर निर्भर मनुष्य एवं जीव-जंतु तबाह हो जाते हैं। एल निनो वाले वर्ष में लाखों समुद्री पक्षी भूख से मर जाते हैं। समुद्र से बह आनेवाली नम हवा तटीय इलाकों में भारी वर्षा भी लाती है। यह इलाका सामान्यतः बहुत कम वर्षा पाता है और अचानक आई वर्षा का परिणाम भयंकर एवं विध्वंसकारी बाढ़ होती है। एल निनो एक साल तक सक्रिय रहता है। उसका प्रभाव दिसंबर के महीने में चरम सीमा पर पहुंचता है।

मौसमशास्त्री एल निनो का बारीकी से अध्ययन कर रहे हैं। उनके अनुसार यह परिघटना वायुमंडल के सामान्य संचरण में बड़े पैमाने पर खलबली मचने का परिणाम है। देखा गया है कि एल निनो भारतीय सूखे के बाद प्रकट होता है। यदि एल निनो का आठ-दस महीने पूर्व अनुमान हो सके तो इससे भारत में पड़नेवाले सूखे की भी पूर्वसूचना मिल सकती है।

Tuesday, June 16, 2009

पर्यावरण कहानी : नानाजी का तोहफा

गर्मियों की छुट्टी हो गई थी। चुन्नू-मुन्नू घर बैठे-बैठे बोर हो रहे थे। तभी उन्हें दादाजी की याद आई। दादजी बगीचे में आम के पेड़ की छाया में आरामकुर्सी डलवाकर अखबार पढ़ रहे थे। दोनों बच्चे दौड़कर उनके पास पहुंच गए।

"दादाजी, दादाजी, बैठे-बैठे बोर लगता है। कुछ करने-धरने को भी नहीं है। आप ही सुझाइए न कि हम क्या करें।"

अखबार को तहाकर जमीन पर रखते हुए दादाजी मुसकुराए और बोले, "अच्छा तो यह बात है। बोलो तुम लोग क्या करना चाहते हो?"

चुन्नू ने कहा, "दादाजी, क्यों न हम कुछ खेलें, जैसे छुपा-छुपी या पकड़म-पकड़!"

अपने चश्मे के मोटे-मोटे कांचों को धोती के किनारे से पोंछते हुए, मूंछों में मुस्कुराकर दादाजी बोले, "न बाबा, दौड़ने-खेलने की तो मेरी उम्र रही ही नहीं। हां, जब मैं तुम लोगों जैसा था तब जरूर खूब धमा-चौकड़ी मचाया करता था। मुझे इसके लिए बड़ों की डांट और मार भी मिली है।"

"तब फिर हम कहीं घूमने चलते हैं," मुन्नू ने कहा।

जेठ की चिलचिलाती धूप देखकर दादाजी ने यह प्रस्ताव भी अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा, "नहीं बेटा इस धूप में घूमेंगे तो बीमार पड़ जाएंगे।"

तभी आम के पेड़ पर से कोयल कूक उठी। उसे सुनकर दादाजी को जैसे कुछ याद आ गया। वे कहने लगे, "तुम दोनों यहां मेरे सामने घास पर बैठ जाओ। मैं तुम्हें अपने बचपन की एक बात बताता हूं, जो कोयल की कूक सुनकर मुझे सहसा याद आ गई है।"

दोनों बच्चे दादाजी के सामने जम गए। दादाजी बोलने लगे, "यह तब की बात है जब मैं तुम लोगों के जितना ही था। उस दिन मेरा ग्यारहवां जनमदिन था। मेरे माता-पिता, बड़े भाई, मामा, चाचा आदि सबने मुझे तरह-तरह के तोहफे दिए--किसी ने खिलौना, किसी ने किताब, किसी ने मिठाई। मुझे याद है, उस दिन एक साइकिल और एक कैरमबोर्ड भी मुझे मिला था। पर सब से विचित्र तोहफा मुझे मेरे नानाजी ने दिया। जानते हो वह क्या था?"

चुन्नू-मुन्नू ने कई अटकलें लगाईं। पर सभी पर दादाजी ने 'न' में सिर हिला दिया।

"चलो मैं ही बता देता हूं," आखिर उन्होंने कहा, "वह था एक पौधा।"

दादाजी ने देखा कि दोनों बच्चों के चेहरे पर जो उत्सुकता दिखाई पड़ी थी, वह बुझ गई है।

हंसते हुए वे बोले, "जिस तरह तुम लोगों को इस तोहफे का नाम सुनकर निराशा हुई, वैसे ही मुझे भी उस दिन उस विचित्र तोहफे को देखकर बड़ी निराशा हुई थी। दूसरे सब लोगों से जो-जो रंग-बिरंगे, आकर्षक, कीमती तोहफे मिले थे, उनके सामने वह पौधा निश्चय ही फीका था। न तो उससे खेल सकते थे, न उसे खा या पढ़ ही सकते थे।

"मेरे नानाजी ने मेरी निराशा ताड़ ली। उन्होंने मुझे समझाकर कहा, 'बेटा दीनानाथ, इस तोहफे को तुच्छ मत समझ। आ मेरे साथ। अपने हाथों से इसे बगीच में रोप। यह तुझे वर्षों तक साथ देगा।'

"और वे मुझे अपने साथ बगीचे में ले गए और हमने उस पौधे को सावधानी से रोप दिया। नानाजी ने मुझे हिदायत दी कि मैं उसे रोज पानी दूं और उसकी देखभाल करूं।

"कुछ ही सालों में वह पौधा एक बड़ा पेड़ बन गया और आज भी वह मेरा अभिन्न साथी है। जब भी मैं उसे देखता हूं, मुझे नानाजी की याद आती है कि उन्होंने कितना उपयोगी और टिकाऊ तोहफा दिया। उस दिन जो खिलौने, किताबें आदि मुझे मिले थे, वे सब कब के खो-खा या टूट-फूट गए। पर वह पौधा आज भी है मेरे साथ। जानते हो वह कौन-सा पौधा है?"

चुन्नू-मुन्नू ने जानने की इच्छा जताई। तब दादाजी अपनी आरामकुर्सी से उठे और उसी आम के पेड़ के पास गए जिसकी छाया में वे सब बैठे थे और उसके तने को प्यार से सहलाते हुए बोले, "यही है वह पौधा।"

चुन्नू-मुन्नू ने बड़े अचरज से आम के उस विशाल पेड़ को देखा। वे कितनी ही बार उस पर चढ़े-उतरे थे, उसकी छाया में खेले थे, उसकी डालियों में उन्होंने झूले टांगे थे और उसके मीठे-खट्टे फल चखे थे। एक प्रकार से वह उनके परिवार का सदस्य ही था। अब उसकी कहानी सुनकर वह उनका और भी अधिक आत्मीय हो उठा।

कुछ सोचकर चुन्नू ने दादाजी से कहा, "दादाजी, अबकी बार मेरे जनमदिन पर मुझे भी एक पौधा ही दीजिए। मैं उसे रोपकर इस पेड़ के जैसा बढ़ा करूंगा।"

"हां दादाजी, मुझे भी जनमदिन पर पौधा ही चाहिए," मुन्नू भी चहक उठा।

"अवश्य दूंगा बेटा," दादाजी आंखों ही आंखों में हंसते हुए बोले।

कंगारू को कराटे आता है?



कंगारू आस्ट्रेलिया में पाया जानेवाला एक विचित्र स्तनधारी जीव है। विचित्र इसलिए क्योंकि वह अन्य सभी स्तनधारियों से पर्याप्त भिन्न है।

प्राणीविदों ने कंगारू को मारस्यूपिएल अर्थात थैलीदार जीव के वर्ग में रखा है। इस वर्ग में 63 थैलीदार जीव हैं। इन सबमें मादा के पेट पर एक थैला रहता है, जिसमें नवजात शिशु कुछ समय के लिए रहते हुए विकसित होता है। कंगारू के शिशु को जोई कहते हैं।

लाल कंगारू इस वर्ग का सबसे बड़ा सदस्य है। एक पूर्ण विकसित नर दो मीटर ऊंचा हो सकता है और उसका वजन 90 किलो के आसपास होता है।

कंगारू स्तनधारी तो हैं, लेकिन वे पूर्ण विकसित बच्चों को जन्म नहीं देते। कंगारू अत्यंत शुष्क प्रदेशों में रहते हैं जहां बारबार सूखा पड़ता है। इसलिए इन प्राणियों ने सूखे से बचने के लिए प्रजनन की एक अनोखी विधि विकसित कर ली है। इनके बच्चों का विकास दो चरणों में होता है। मादा की कोख में थोड़ा विकास, और बाकी का विकास मादा के पेट पर बनी थैली में।

कंगारुओं में गर्भाधान काल बहुत ही छोटा होता है, यही 30 -35 दिन। इतनी कम अवधि में कंगारू शिशु, यानी जोई, का विकास भी अपूर्ण ही होता है। वह पैदा होती ही अपनी मां के पेट की थैली में चला जाता है और लगभग नौ महीने तक इसी थैली में रहता है और विकसित होता जाता है। नौ महीने के बाद वह थोड़े-थोड़े समय के लिए बाहर निकलने लगता है।

(मां के स्तनों से चिपका हुआ जोई।)

इन जानवरों का नाम कंगारू कैसे पड़ा, इसको लेकर भी एक रोचक कहानी है। कप्तान जेम्स कुक और प्रकृतिविद जोसेफ बैंक्स आस्ट्रेलिया के जंगलों में घूम रहे थे। उन्होंने पास चर रहे कंगारुओं की ओर इशारा करके स्थानीय निवासियों से पूछा कि इन्हें आप लोग क्या कहते हैं? स्थानीय लोगों को कुक और बैंक्स की बात समझ में नहीं आई। उन्होंने अपनी भाषा में कहा, कंगारू, जिसका मतलब था, हम आपकी बात समझ नहीं पाए। कुक और बैंक्स को लगा कि ये इन जानवरों का नाम ही बता रहे हैं, और इनकी भाषा में इन जानवरों को कंगारू कहा जाता है। यही नाम उन्होंने अपने जर्नलों में नोट कर लिया और अन्य यूरोपियों को भी बता दिया। इस तरह इन जानवरों का नाम कंगारू पड़ गया।

थैलीदार जीवों के विकास की कहानी काफी रोचक है। उसका घनिष्ट संबंध पृथ्वी के भूखंडों के विकास से भी है। भूवैज्ञानिक मानते हैं कि करोड़ों वर्ष पहले पृथ्वी के सभी भूखंड परस्पर जुड़े हुए थे और पैंजिया नामक एक विशाल भूखंड के रूप में विद्यमान थे। जब स्तनधारियों का उद्भव हुआ, लगभग उस समय यह भूखंड धीरे-धीरे टूटकर बिखरता गया और आजकल के अलग-अलग महाद्वीपों का रूप लेता गया। आस्ट्रेलिया का भूखंड अन्य सभी भूखंडों से बहुत दूर चला गया और उस पर मौजूद आदिम स्तनधारी अन्य महाद्वीपों के स्तनधारियों से अलग-थलग पड़ गए। वहां उनका विकास अलग तरीके से होने लगा और अंत में उन्होंने थैलीदार स्तनधारियों का रूप ले लिया।

कंगारू आस्ट्रेलिया के वनों में तृण भक्षियों की भूमिका निभाते थे, यानी वही भूमिका जो भारतीय जंगलों में गौर, हिरण, मृग आदि और अमरीका के जंगलों में बाइसन, और अफ्रीकी जंगलों में गैंडा, जिराफ, जेबरा, मृग आदि निभाते हैं।

जब कंगारू को यूरोपियों ने पहले पहल देखा, तो उन्हें वह काफी विचित्र लगा था। एक यूरोपीय ने उसका वर्णन इस प्रकार किया – इनका सिर हिरणों के जैसा होता है, पर शृंगाभ नहीं होते, ये मनुष्य की तरह दो टांगों पर खड़े हो जाते हैं, और इनकी चाल मेंढ़क की चाल जैसी होती है।

कंगारुओं में लंबी, मजबूत पिछली टांगें होती हैं, और उनका पिछला पैर खूब बड़ा और विकसित होता है। इस बलिष्ठ अवयव की मदद से वे कूद कूदकर आगे बढ़ते हैं। इनकी आगे की टांगें छोटी होती हैं। पूंछ खूब लंबी और मांसल होती है। इसकी सहायता से वे कूद-कूदकर जाते समय अपना संतुलन बनाए रखते हैं। पूंछ को वे पांचवें पैर के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं। उनका सिर छोटा होता है।

सभी स्तनधारियों में कंगारू ही आने-जाने के लिए पिछली टांगों पर कूदने की विधि अपनाते हैं। साधारणतः कंगारू 20-30 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से बढ़ सकते हैं, पर जरूरत पढ़ने पर वे 70 किमी प्रति घंटे की रफ्तार भी पकड़ सकते हैं। एक ही छलांग में वे 30 फुट की दूरी तय कर सकते हैं।

दोनों टांगों की असंतुलित लंबाई के कारण कंगारू अन्य स्तनधारियों के समान जमीन पर चल नहीं सकते। जब धीमी गति से आगे बढ़ना हो, तो कंगारू अपनी मजबूत पूंछ और दोनों पिछली टांगों का एक साथ प्रयोग करता है। पूंछ को जमीन पर दबाकर वह अपने शरीर को थोड़ा ऊपर उठाता है और अपनी पिछली टांगों को आगे बढ़ाकर अपने शरीर को आगे ले आता है।

वन्य अवस्था में कंगारू की आयु 6 से 8 वर्ष होती है।

यद्यपि कंगारू भी गाय-भैंसों की तरह घास और अन्य वनस्पतियों को ही चरते हैं, उनकी पाचन व्यवस्था कुछ भिन्न होती है। गाय-भैंसों के पेट में कई प्रकार के जीवाणु रहते हैं, जो पाचन में मदद करते हैं, और इस प्रक्रिया में खूब सारी मीथेने और अन्य गैसों का उत्सर्जन भी करते हैं। पर कंगारू के पेट में जो जीवाणु होते हैं, वे वानस्पतिक सामग्री के किण्वन से पैदा हुई सामग्री को एसीटेट में बदल देते हैं, जिससे और भी अधिक ऊर्जा मिलती है, और मीथेन गैस भी नहीं बनती है।

कंगारुओं के पेट में जो जीवाणु इस काम को अंजाम देते हैं, उन्हें गाय-भैंसों में स्थापित करने की ओर वैज्ञानिक प्रयासरत हैं। इससे गाय भैंसों की पाचन क्रिया अधिक कार्यक्षम बन सकती है और मीथेन जैसी जलवायु परिवर्तन लानेवाली गैसों का उत्सर्जन भी कम हो सकेगा।

कंगारुओं के अब बहुत कम कुदरती परभक्षी बचे रह गए हैं। जो थे उन सबको आस्ट्रेलिया में पहुंचे मनुष्यों ने खत्म कर दिया है। अब कंगारुओं को मनुष्यों से ही सबसे अधिक खतरा है। मनुष्य उन्हें मांस के लिए खूब मारते हैं।


और अंत में वह सवाल जिसके उत्तर का आपको इंतजार था – क्या कंगारू को कराटे आता है? दरअसल हर नर कंगारू का एक क्षेत्र होता है, जिसकी वह अन्य नर कंगारुओं से रक्षा करता है। जब उसके क्षेत्र में किसी अन्य नर का अतिक्रमण होता है, तो नर उसे चुनौती देता है, और दोनों के बीच युद्ध छिड़ जाता है। पूंछ को पांचवे पैर के रूप में इस्तेमाल करके वे उसके सहारे जमीन पर खड़े हो जाते हैं और एक दूसरे पर अपने पैरों से आघात करते हैं, उसी तरह जैसे कुश्ती, मुक्केबाजी या कराटे में संलग्न मानव प्रतिद्वंद्वी करते हैं। कंगारुओं की पिछली टांगें खूब मजबूत होती हैं, और बीच की उंगली का नाखून भी खूब लंबा और तीक्ष्ण होता है। इससे प्रतिद्वंद्वी का पेट चिर सकता है। इससे बचाव के लिए उसके पेट की चमड़ी अधिक मोटी और सख्त होती है।


कंगारुओं की इस झगड़ालू आदत के कारण ही यह धारणा चल पड़ी है कि वे कराटे-बोक्सिंग में उस्ताद होते हैं। कार्टून फिल्मों और किस्सों में भी इस बात को खूब उभाड़ा गया है। आस्ट्रेलिया में चिड़ियाघरों में कंगारुओं को दस्ताने पहनाकर उनके और मनुष्य मुक्केबाजों के बीच प्रतियोगिता कराई जाती है।

इसलिए आप एक तरह से कह सकते हैं कि कंगारू को कराटे आता है।

Monday, June 15, 2009

पहेली का उत्तर



बहुत खूब! इतने सारे सही उत्तर! अब मेरे लिए कुछ कहने को बाकी रहा ही नहीं। अल्पना जी ने इसका ही नहीं बल्कि इसके मम्मी-पापा का भी व्यक्तिगत नाम और पता तक बता दिया, वाह!

अब मेरे लिए औपचारिकता निभाने भर का काम रहता है।

तो लीजिए, यह है नर जेबरे और मादा घोड़े की संतान। इसे अंग्रेजी में जोर्स कहते हैं। हिंदी में क्या कह सकते हैं इसे? जेबड़ा?

इसे आप अफ्रीका या दुनिया के किसी भी जंगल में नही देख पाएंगे। यह मानवी करामात है। संकर होने के कारण इस जानवर में प्रजनन क्षमता नहीं होती, अधिक परिचित संकर पशु खच्चर के समान।

अफ्रीका में इसे कहीं-कहीं घोड़े की जगह उपयोग किया जाता है। इसे साधना और सवारी करना जेबरे को साधने और सवारी करने से ज्यादा आसान है।

इसका एक अन्य रूप भी होता है, यानी नर घोड़े और मादा जेबरे की संतान। इसे अंग्रेजी में होब्रा कहते हैं। हिंदी में शायद घोबरा होगा। ये सारी बातें अल्पना जी ने पहले ही बता दी हैं, इसलिए टेप की तरह बजते रहने के बजाए इस पोस्ट को यहीं चुपचाप समाप्त करके अगली पहेली के लिए कुछ ऐसा कठिन टोपिक चुनने में जुट जाता हूं जिसका उत्तर अल्पना जी को नहीं पता हो।

इस पहेली का उत्तर देनेवाले सभी लोगों को मेरा आभार।

बता सकते हैं यह कौन सा जानवर है?


उत्तर अगले पोस्ट में।

सब्जी नहीं फल है टमाटर


टमाटर को लोग सब्जी समझते हैं, पर वह है दरअसल फल। यह विवाद एक बार अमरीका के उच्च न्यायालय के सामने भी आया था। न्यू यार्क के सीमा कर अधिकारियों ने वेस्ट इंडीज से आयातित टमाटरों को सब्जी मानकर उन पर सीमा कर लगाया। लेकिन आयातकों ने टमाटर को फल बताकर यह मांग की कि उनके टमाटरों को बिना कर देश में आने दिया जाए। अंत में मुख्य न्याधीश ने वनस्पतिविदों की राय लेकर निर्णय सुनाया कि टमाटरों को बिना शुल्क देश में आने दिया जाए क्योंकि वे भी ककड़ी, मटर, लोभिया, आदि की ही भांति फल हैं, हालांकि उन सबको आम बोलचाल में सब्जी ही कहा जाता है।

आजकल टमाटर का घर-घर में उपयोग होता है, लेकिन कुछ ही शताब्दी पहले बहुत कम लोग उसके बारे में जानते थे। वे भी उसे जहरीला समझकर खाते नहीं थे। सर्वप्रथम टमाटर की खेती करनेवाले दक्षिण अमरीका के निवासी थे। टमाटर वहां के शुष्क प्रदेशों में वन्य अवस्था में उगता है। मेक्सिको के स्थानीय भाषाओं में टमाटर को टमाटल कहा जाता है। इसी शब्द से अन्य भाषाओं में इस फल का नाम बनाया गया है।

टमाटर को जिस पौध-परिवार में रखा गया है, उसमें दो अन्य उपयोगी पौधे भी हैं --तंबाकू और आलू। इस परिवार के अनेक पौधे अत्यंत जहरीले होते हैं। इसी कारण शुरू में लोग टमाटर को भी जहरीला मानते थे। लेकिन टमाटर में जो जहर पाया जाता है, वह बहुत क्षीण प्रकार का होता है। मुख्यतः वह पत्तियों और अपरिपक्व हरे फलों में रहता है। जैसे-जैसे फल पकता जाता है, उसमें मौजूद जहर भी नष्ट होता जाता है। इस जहर को यदि गलती से खा लिया जाए, तो भी कुछ अधिक नुक्सान नहीं होता।

भोजन भट्टों में टमाटर अत्यधिक लोकप्रिय होते हुए भी, पोषण विशेषज्ञ उसे हिकारत की दृष्टि से देखते हैं। कारण यह है कि टमाटर में कोई भी आवश्यक पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में नहीं होता। विटामिन ए के मामले में टमाटर की स्थिति सभी फलों और सब्जियों में सोलहवीं है, जबकि विटामिन सी के मामले में तेरहवीं। लेकिन टमाटर के उपासक टमाटर विटामिन के लिए थोड़े ही खाते हैं, वे तो उसके स्वाद के कायल हैं। और स्वाद के मामले में टमाटर कोई सानी नहीं रखता। सूप, सलाड या सॉस जैसे अनेक लार टपकानेवाले व्यंजनों में टमाटर जैसे अनिवार्य है।

टमाटर इसलिए भी लोकप्रिय है क्योंकि उसे उगाना बहुत आसान है। वह विभिन्न प्रकार की जमीनों और तापमान वाले क्षेत्रों में पनपता है। हां, टमाटर का पौधा अत्यधिक ठंड बरदाश्त नहीं कर सकता। फलों को पकने के लिए प्रतिदिन दस घंटे का सूर्यप्रकाश आवश्यक है।

भारत में टमाटर की खेती पिछली शताब्दी के प्रारंभ में शुरू हुई। अब तो वह व्यापक रूप से उगाया जाता है, विशेषकर बड़े शहरों के आस-पास। भारत में टमाटर वर्ष भर उगाया जाता है क्योंकि देश के किसी-न-किसी हिस्से में उसके लिए अनुकूल मौसम मौजूद होता है। पहाड़ी इलाकों में मध्य मार्च से लेकर जून तक बीज बोए जाते हैं। मैदानों में तीन फसलें निकाली जाती हैं। अधिकांश स्थानों में टमाटर के एक या दो महीने बड़े पौधों को खेतों में रोपा जाता है।

टमाटर की जड़ें काफी गहराई तक फैलती हैं। बालुई मिट्टी में जड़ें तीन मीटर की गहराई तक उतरती हैं। पत्तियां गाढ़े हरे रंग की और बालनुमा संरचनाएं लिए होती हैं। उनसे एक आकर्षक सुगंध भी छूटती है। जब पौधा कुछ बड़ा हो जाता है, तो उसको सहारा देने के लिए लकड़ी की बैसाखियां लगा दी जाती हैं। यह आवश्यक है क्योंकि यदि फल जमीन छू जाएं तो वे सड़ने लगते हैं। फलों को पूरा पकने के लिए डेढ़ से दो महीना लग जाता है। जैसे-जैसे फल परिपक्व होते जाते हैं, उनका हरा रंग भी उतरता जाता है। सात-आठ दिनों के बाद फल पूरे लाल हो जाते हैं। पके टमाटर बड़ी जल्दी खराब होते हैं। इसलिए लंबी दूरी तक ले जाना हो तो उन्हें तब तोड़ा जाना चाहिए जब वे गुलाबी रंग के हों, वे बाद में अपने-आप पक जाएंगे। उन्हें अधिक समय तक शीतगृहों में नहीं रखना चाहिए। कम तापमान में रखने से उनके अंदर का गूदा बिगड़ने लगता है।

फल लग जाने के बाद टमाटर का पौधा बहुत कमजोर हो जाता है। अतः अधिकांश खेतिहर नई फसल नए सिरे से बीज बोकर निकालते हैं। फल देने के बाद पौधे का जो अंश बचा रहता है, उसमें बहुत अधिक प्रोटीन होता है। उसे चारे के रूप में उपयोग किया जा सकता है।

टमाटर के कुछ अन्य उपयोग भी हैं। फिल्मों के दर्शक डिशूम-डिशूम वाले दृश्यों का भरपूर आनंद टमाटर की बदौलत ही ले पाते हैं। खलनायक के शरीर से खून की जो नदियां बहती हैं, वह वास्तव में टमाटर केचप ही तो होता है। भाषणबाज नेताओं का मुंह बंद करने का सबसे कारगर उपाय भी टमाटर ही है। दो-चार सड़े-गले टमाटर उनकी ओर उछाल भर दिजिए, उनकी बोलती तुरंत बंद हो जाएगी।

Saturday, June 13, 2009

समुद्रों को जीत लिया है पेंग्वीन ने


पेंग्वीन अंटार्क्टिका महाद्वीप (दक्षिण ध्रुव) के तटों पर और दक्षिणी महासागर के किनारों पर पाए जाते हैं। उनकी कुछ जातियां भूमध्य रेखा तक के समुद्री इलाकों में रहती हैं। पेंग्वीन की 16 जातियां ज्ञात हैं। सबसे छोटा पेंग्वीन मात्र 30 सेंटीमीटर ऊंचा होता है और उसका वजन 1 किलो होता है। सबसे बड़ा सम्राट पेंग्वीन है जो 100 सेंटीमीटर ऊंचा और लगभग 40 किलो भारी होता है। सम्राट पेंग्वीन केवल अंटार्क्टिका में पाया जाता है। उसकी कनपटियों और गले में नारंगी रंग की चमड़ी होती है।

पेंग्वीन उड़ने की क्षमता खो चुके हैं, पर उनका शरीर समुद्री जीवन के लिए अनुकूलित हो गया है। जमीन पर वे काफी अटपटे ढंग से चलते हैं। उनके पैर शरीर के काफी पीछे लगे होते हैं और छोटे होते हैं। पंख अन्य पक्षियों के समान मोड़कर नहीं रखे जा सकते और चलते समय वे उनकी बगल से डोलते रहते हैं। ढलान उतरते समय या बर्फ पर चलते समय पेंग्वीन कई बार छाती के बल फिसलते हैं और इस तरह वे अधिक तेजी से आगे बढ़ पाते हैं।

जमीन पर उनकी चाल बेढंगी भले ही हो, पानी में वे कुशल तैराक होते हैं। उनके शरीर की बनावट इस तरह होती है कि तैरते समय वह पानी में कम-से-कम अवरोध उत्पन्न करता है। तैरने के लिए वे पंखों को चप्पू के समान चलाते हैं और झिल्लीदार उंगलियों वाले पैरों से तैरने की दिशा बदलते हैं। तैरने की रफ्तार कम करने और रुकने में भी पैर से काम लेते हैं।

पेंग्वीन के शरीर पर परों का एक मोटा आवरण होता है। ये पर अत्यंत छोटे और बालनुमा होते हैं। इनकी तीन परतें होती हैं। परों पर तेल फैला होने के कारण पेंग्वीन का शरीर जलरोधक रहता है। पेंग्वीन के शरीर की गरमी को शरीर में ही रोके रखने में भी पर मदद करते हैं। उनकी चमड़ी के नीचे चर्बी की मोटी परत होती है, जो भी उन्हें दक्षिण ध्रुव की बर्फीली ठंड से बचाती है।

पेंग्वीन की सभी जातियां समुद्रों से ही आहार प्राप्त करती हैं। कुछ पेंग्वीन पानी की सतह से मछलियां आदि पकड़ते हैं, कुछ उनके लिए गहरे पानी में डुबकी लगाते हैं। डुबकी लगाकर शिकार करने में सम्राट पेंग्वीन सबसे अधिक उस्ताद है। वह 250 मीटर गहरे पानी तक डुबकी लगा सकता है और बिना ऊपर आए पानी में 15 मिनट रह सकता है। इतनी गहराइयों में स्क्विड नामक अष्टबाहु (ओक्टोपस) जैसा प्राणी विचरता है जो सम्राट पेंग्वीन का पसंदीदा भोजन है।

प्रजननकाल में पेंग्वीन आहार ग्रहण करना बंद कर देते हैं। इसके पूर्व वे खूब खाकर चर्बी की एक मोटी परत अपने शरीर पर चढ़ा लेते हैं और प्रजननकाल में इसी पर गुजारा करते हैं। प्रजननकाल के अंत तक उनका वजन शुरू के उनके वजन का आधा रह जाता है। जो पेंग्वीन गरम इलाकों में रहते हैं, वे साल में दो बार प्रजनन करते हैं, जबकि अधिकांश अन्य जातियां केवल एक बार, वसंत ऋतु में, प्रजनन करती हैं। तब मौसम प्रजनन के लिए सर्वाधिक अनुकूल रहता है। दक्षिणी गोलार्ध में, जहां पेंग्वीन रहते हैं, वसंत ऋतु सितंबर-अक्तूबर में आती है। प्रजनन करने के लिए पेंग्वीन किसी परंपरागत प्रजनन-क्षेत्र में हर साल लौट आते हैं। यह कोई वीरान पत्थरीला टापू होता है। वहां आकर नर और मादा जोड़ा बांधते हैं। फिर दोनों कंकड़-पत्थर जोड़कर जमीन पर ही एक घोंसला बनाते हैं। उसमें मादा दो अंडे देती है। लगभग 40 दिनों तक नर और मादा उन्हें सेते हैं। चूजों की परवरिश भी दोनों मिलकर करते हैं। फरवरी-मार्च तक चूजे पर्याप्त बड़े हो जाते हैं और स्वतंत्र हो जाते हैं।

सम्राट पेंग्वीन में प्रजनन कुछ भिन्न ढंग से होता है। वह अंटार्क्टिका के बर्फीले क्षेत्रों में रहता है और सर्दी के मौसम में प्रजनन करता है। तब अंटार्क्टिका में तापमान शून्य से 50 डिग्री सेल्सियस नीचे चला जाता है और 80 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार की बर्फीली हवाएं चलती हैं। पर इसकी परवाह न करते हुए नर और मादा सम्राट पेंग्वीन बड़ी तादाद में किसी भूखंड में अथवा पहाड़नुमा बर्फ की सिल्लियों में एकत्र होते हैं। वे कोई घोंसला नहीं बनाते हैं। मादा केवल एक अंडा देती है। उसे सेने की जिम्मेदारी नर की होती है। वह उसे अपने पैरों के ऊपर रख लेता है और अपने पेट की लचीली चमड़ी उसके ऊपर फैला देता है। अंडे के भीतर के चूजे को पूर्ण विकसित होने में दो महीने लगते हैं। तब तक नर किसी हठयोगी के समान पैरों पर अंडा लिए निश्चल खड़ा रहता है। चारों ओर की बर्फीली आंधियों और कंपकंपाती ठंड की वह कोई परवाह नहीं करता। अपने आपको गरम रखने के लिए बहुत से नर एक-दूसरे से सटकर खड़े हो जाते हैं। जब अंडे से चूजा प्रकट होता है तो नर और मादा मिलकर उसे मछली आदि लाकर खिलाते हैं। काफी बड़ा होने तक वे चूजे को बर्फ पर उतरने नहीं देते और उसे अपने पैरों पर ही खड़ा रखकर अपने शरीर की खाल से ढंके रखते हैं।

समुद्र में पेंग्वीनों की जिंदगी खतरों भरी होती है। तरह-तरह के सील, शार्क, कुछ प्रकार की ह्वेलें आदि उन्हें चाव से खाते हैं। उनसे बचने के लिए पेंग्वीनों के पास बस तेज तैरने का अपना कौशल ही होता है। चूंकि वे बड़े-बड़े झुंडों में समुद्रों में जाते हैं, इसलिए उन्हें अपने साथियों से थोड़ी-बहुत सुरक्षा मिल जाती है।

अनेक दृष्टियों से पेंग्वीनों के हाव-भाव मनुष्य जैसे होते हैं। मनुष्य के ही समान वे शरीर और सिर को सीधा रखकर दो पैरों पर चलते हैं। उनकी चाल भी पैर घसीटकर चल रहे मनुष्य के समान होती है। कई प्रकार के पेंग्वीनों का रंग काला-सफेद होता है, इसलिए दूर से देखने पर वे ऐसे लगते हैं मानो काला कोट और सफेद बुशर्ट पहना कोई ठिगना मनुष्य खड़ा हो। पिछली शताब्दियों के खोजी यात्रियों को पेंग्वीनों को देखकर सचमुच आदमियों का धोखा हो जाता था। इसके बारे में एक रोचक प्रसंग है। एक बार कोई जहाज एक टापू के किनारे पहुंचा। जहाज के मल्लाहों ने देखा कि टापू की ऊंची-नीची चट्टानों पर एक पूरी सेना पंक्तिबद्ध खड़ी है। मल्लाह दुविधा में पड़ गए कि टापू पर उतरें कि नहीं क्योंकि यदि टापू पर खड़ी सेना उन्हें शत्रु मान ले तो वे सब मिनटों में मारे जाएंगे। काफी देर विचार करने के बाद मल्लाहों ने यही तय किया कि सतर्क रहते हुए टापू पर उतरना चाहिए। उन्होंने नाव जहाज से नीचे उतारी और उसमें सवार होकर सावधानी से टापू की ओर बढ़ने लगे। जैसे ही वे तट के निकट पहुंचे, उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि पूरी की पूरी सेना ने एक साथ समुद्र में छलांग लगा दी है और सैनिक पागलों की तरह तैरकर दूर-दूर तक छितर गए हैं। तब जाकर उन्हें पता चला कि जिन्हें उन्होंने सैनिक मान लिया था, वे मात्र पेंग्वीन थे।

हाथी को हंसी आती है?


गैंडे को गुदगुदी होती है वाले पोस्ट में मैंने यों ही मजाक के तौर पर पूछ लिया था कि कोई जानना चाहेगा, हाथी को हंसी आती है? कुदरतनामा की पाठक अल्पना वर्मा ने वही बात पकड़ ली और कह दिया, हां हम जरूर जानना चाहेंगे कि हाथी को हंसी आती है, या नहीं। फंस गया न मैं अपनी ही चालाकी में? अब इसका मैं क्या जवाब दूं? पर जवाब तो देना ही पड़ेगा, वरना अल्पना जी को क्या मुंह दिखाऊंगा? तो शुरू कर दी इंटरनेट और पुस्तकालयों में घनघोर खोजबीन। पर खाली हाथ ही लौटना पड़ा। कहते हैं इंटरनेट पर करोड़ों जाल स्थल हैं, पर एक भी जाल स्थल में मुझे इस रहस्य का खुलासा नहीं मिला कि हाथी को हंसी आती है, या नहीं। जिस पुस्तकाल में गया उसमें हजारों पुस्तकें थीं, पर एक में भी एक पन्ने भर की सामग्री नहीं थी इस पर कि हाथी को हंसी आती है या नहीं।

पर यह सब रिसर्च व्यर्थ भी नहीं गया। मुझे हाथी को हंसी आती है या नहीं इसका तो पता नहीं चल सका, पर हाथी हमें हंसा सकता है, इसके भरपूर प्रमाण मिले। तो इसे ही आपके समक्ष पेश करता हूं, और मेरी इस विफलता के लिए अल्पना जी से क्षमा मांगता हूं।
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शिशु हाथी को कब दूध पिलाना चाहिए?

जब वह शिशु हाथी हो!

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गणित में कमजोर हाथी को आप क्या कहेंगे?

डंबो!

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ऐसी कोई चीज बताइए, जो धीमे-धीमे ऊपर जाती है, पर बहुत जल्दी नीची आ जाती है।

हाथी को ले जा रहा लिफ्ट!

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दो सूंड़, आठ पैर और दो पूंछ किसके हो सकते हैं?

दो हाथियों के!

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वह क्या चीज है जो हाथी जितनी ही बड़ी है, पर उसका बिलकुल वजन नहीं होता?

हाथी की परछाई।

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हाथी और डाक पेटी में क्या अंतर है?

मुझे नहीं मालूम।

तब मैं चिट्टी पोस्ट करने का काम तुम्हें कभी नहीं दूंगा, न जाने उसे कहां डाल
आओगे!

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हाथी और चूहे को अलग पहचानने का कोई तरीका?

उन्हें उठाकर देख लीजिए।

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अफ्रीकी हाथी और भारतीय हाथी में क्या अंतर है?

लगभग 3000 किमी का।

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एक आदमी सिर पर हाथी को लिए डाक्टर के पास गया।

डाक्टर – तुम्हें मदद की जरूरत है।

हाथी – हां बिलकुल, इस आदमी को मेरे पैरों से निकालिए।

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दोनों कानों में एक-एक केला ठूंसे हुए हाथी को आप क्या कहेंगे?

कुछ भी कह लीजिए, उसे सुनाई नहीं देगा, इसलिए आप बचे रहेंगे।

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एके-47 से लैस हाथी से आप क्या कहेंगे?

हुजूर, जो आज्ञा आपकी!

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एके-47 से लैस हाथी आपसे क्या कह सकता है?

वह कुछ भी कह सकता है, किसकी मजाल उससे बहस करने की?

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उस व्यक्ति को आप क्या कहेंगे, जिसके सिर पर एक हाथी हो?

चटनी!

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हाथी के दो सूंड़ कब होते हैं?

जब दो हाथी हों!

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एक आदमी अपने खेतों पर गुलाल छिड़क रहा था।

उसके पड़ौसी ने पूछा, ऐसा क्यों कर रहे हो?

उसने कहा, हाथियों को दूर रखने के लिए।

पड़ौसी - पर यहां तो हाथी हैं ही नहीं।

आदमी – है न तरीका कारगर!

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थिएटर में हाथी आपके आगे बैठा हो तो क्या होगा?

हाथी को ही देखते रहना पड़ेगा, पिक्चर दिखने से रहा!

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हाथी और चींटी में कौन ज्यादा शक्तिशाली है?

चींटी, वह हाथी को काट सकती है, पर हाथी चींटी को नहीं!

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हाथी ने अपने नाखूनों पर लाल नेलपालिश क्यों लगाया?

क्योंकि वह टमाटर की झाड़ियों में छिपना चाहता था।

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आपको कैसे पता चलेगा कि आपके पलंग के नीचे हाथी है?

आपकी नाक छत से रगड़ने लगेगी!

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हाथी कार से बाहर कैसे आया?

जैसे वह अंदर घुसा था!

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नैनो कार में आप कितने हाथियों को बिठा सकते हैं?

चार, दो आगे, दो पीछे।

और कितने आदमियों को?

एक भी नहीं, उनके लिए अब जगह नहीं बची होगी।

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माचिस की डिबिया में आप हाथी को कैसे रखेंगे?

सबसे पहले उससे सब तीलियां निकाल लें।

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वह क्या है जो पांच टन भारी है, काला है और ध्वनि से भी तेज गति से जा रहा है?

जेट विमान में बैठा हाथी!

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चुन्नू – आज मुझे बहुत कठिन होमवर्क मिला है। मुझे हाथी पर एक निबंध लिखना है।

मुन्नू – सबसे पहले एक सीढ़ी का इंतजाम कर लो।

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टीचर – किसी जंगली जानवर का नाम बताओ।

चुन्नू - हाथी।

टीचर – शाबाश! अब एक और बताओ।

चुन्नू – एक और हाथी!

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टार्जन जब घर पहुंचा तो बहुत थका था।

जेन ने पूछा – क्या हुआ?

टार्जन – पेड़ों पर हाथियों का पीछा कर रहा था।

जेन – मैं तो सोच रही थी हाथी जमीन पर रहते हैं!

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हमला करते जंगली हाथियों को देखने का सबसे सुरक्षित तरीका क्या है?

डिस्कवरी पर देखना!

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चिड़ियाघर का हाथी मर गया था। उसके पिंजड़े के पास बैठे चिड़ियाघर का एक कर्मचारी रो रहा था।

चिड़ियाघर देखने आए एक व्यक्ति ने एक दूसरे कर्मचारी से पूछा, क्या मरे हाथी से इसे बहुत लगाव था?

वह कर्मचारी - ऐसी बात नहीं है। हाथी को दफनाने के लिए गड्ढा खोदने का काम इसे मिला है।

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Friday, June 12, 2009

ब्लोग जगत में रोमांचक जंगल संस्मरण - क्या आप उन्हें पढ़ते हैं?

आज थोड़ा व्यस्त हूं, इसलिए कुदरतनामा में कोई लंबा पोस्ट नहीं रहेगा। यदि इस शनि-रवि को आपके पास खाली समय हो, तो पंकज अवधिया के ब्लोग मेरी प्रतिक्रिया को अवश्य देख आएं। बहुत ही उम्दा ब्लोग है, जंगल संस्मरणों से भरा हुआ। अवधिया जी कृषि वैज्ञानिक हैं और वानस्पतिक जैव-विविधता का संग्रह कर रहे हैं। इस सिलसिले में उन्हें जंगलों की खूब खाक छाननी पड़ती है। इसके दौरान हुए अनुभवों और घटनाओं का बहुत ही रोमांचक वर्णन वे अपने इस ब्लोग में दे रहे हैं। मुझे तो इन्हें पढ़कर जिम कोर्बट की टेंपल टाइगर वाली किताब याद आती है।

बानगी के तौर पर उनके एक पोस्ट का यहां जिक्र करता हूं। अवधिया जी को जंगल के एक पुजारी ने बताया कि घने जंगल में भालू से मुठभेड़ हो जाए तो बकरी की आवाज निकालने से भालू इतना कन्फ्यूज हो जाता है कि यह आदमी है या बकरी कि वह बिना हमला किए चला जाता है! पुजारी से मिलकर लौटते हुए अवधिया जी का सामना एक भालू से हुआ भी। पुजारी की बात याद करके उन्होंने उनका बताया नुस्खा आजमाकर देखा। तब क्या हुआ?

क्या मैं ही सब कुछ बता दूं? जाइए, उनके ही ब्लोग पर इस लिंक को पकड़कर पहुंचिए और वहीं पढ़ लीजिए कि क्या हुआ जब अवधिया जी ने भालू के सामने निकाली में-में की आवाज!

अमर उजाला में कुदरतनामा

अमर उजाला में कुदरतनामा का लेख "क्या घड़ियाल सचमुच रोते हैं?" छपा है। इसकी सूचना और कटिंग मुझे गिरिजेश राव ने भेजी।

Thursday, June 11, 2009

गैंडे को गुदगुदी होती है?


कुदरतनामा के पाठक अजय कुमार झा ने पूछा है, क्या गैंडे को गुदगुदी होती है?

सवाल दिलचस्प है। हम उसे थोड़ा सा बदल देते हैं, ताकि उत्तर दिया जा सके। गुदगुदी की जगह खुजली मान लेते हैं। कल्पना कीजिए एक गैंडे की जिसकी पीठ में जोरों की खुजली हो रही है। वह बेचारा क्या करेगा? न तो उसके लंबे नाखूनोंवाले हाथ-पैर हैं, जिनसे वह अपनी पीठ खुजा सके। उसके पैरों में उंगलियां तक नहीं हैं, बस खुर हैं। और चमड़ी भी इतनी मोटी कि खुजली मिटाने के लिए कोई साधारण नाखून पर्याप्त नहीं होंगे, अच्छा खासा इलेक्ट्रिक ड्रिल ही चाहिए होगा असर करने के लिए। और चमड़ी भी सिलवटदार, उसके मोडों में गंदगी खूब जमा होकर खुजली मचाती होगी। पर गैंडा करे भी तो क्या? हां उसकी नोंकदार सींग जरूर एक उपयोगी औजार है जिससे खुजली मिटाई जा सकती है, पर बेचारे की गर्दन इतनी छोटी है के वह सिर घुमा ही नहीं सकता। तो यह उपाय भी बेकार गया।

तो क्या करता है गैंडा जब उसकी पीठ पर होती है खुजली! आप निश्चिंत रहें, कुदरत ने अपने सभी पुत्रों के आराम की व्यवस्था की है।

खुजली मिठाने के लिए गैंडे के पास दो-एक कारगर तरीके हैं, जिसे अन्य जानवर भी आजमाते हैं। इनमें से पहला है, कीचड़-धूल में लोटना। गैंडा कीचड़-धूल में खूब लोटता है। उल्टा लेटकर अपनी पीठ को खूब रगड़ता है कीचड़ में। इससे उसे खुजली से तो राहत मिल ही जाती है, उसके पूरे शरीर पर कीचड़-धूल की एक परत भी जम जाती है। इससे खुजली लानेवाले जीव-जंतु, जैसे पिस्सू, मर जाते हैं। कुछ प्रकार की मिट्टियों में इन कीड़े-मकोड़ों को मारने की क्षमता भी पाई जाती है। आपने मिट्टी चिकित्सा के बारे में सुना होगा, गांधी जी भी इसके शौकीन थे। शायद यह चिकित्सा पद्धति गैंडे जैसे जानवरों की देखादेखी विकसित की गई है। हमने अपने जानवर मित्रों से बहुत कुछ सीखा है, मसलन, डालफिनों से पंडुब्बी बनाना, पक्षियों से उड़ना, और गैंडों से मिट्टी चिकित्सा।

खुजली मिटाने का एक दूसरा तरीका जो गैंडे, तथा अन्य जानवर, अपनाते हैं, वह है ओक्सपेकर नामक पक्षी की सहायता लेना। गैंडों और इस पक्षी के बीच आश्रित-आश्रयदाता का संबंध पाया जाता है। गैंडे जैसा खौफनाक जानवर जो शेर को भी पास फटकने नहीं देता, इस मासूम चिड़िया को अपने शरीर पर जो चाहे करने की पूरी छूट देता है। आप इस पक्षी को उसके कान से झूलते हुए या पीठ पर शान से सवारी करते हुए आम तौर पर देख सकते हैं। यह चिड़िया गैंडे के शरीर में खुजली पैदा कर रहे पिस्सू, मक्खी, कीड़े आदि को पकड़कर खाती है। इससे गैंडे को खुजली से निजात मिल जाती है, और पक्षी की पेट-पूजा भी हो जाती है।

इन दोनों के बीच के संबंध के कुछ अन्य फायदे भी हैं। गैंडे की दृष्टि कमजोर होती है। वह अपनी आंखों के आगे कुछ फुट की दूरी तक ही देख पाता है। जीवित रहने के लिए वह श्रवण और घ्राणेंद्रियों पर अधिक निर्भर करता है। लेकिन ओक्सपेकर पक्षियों की नजरें तेज होती हैं। जब वे किसी परभक्षी जानवर को देखते हैं, जैसे बाघ, तेंदुआ आदि, तो चेतावनी पुकार निकालते हुए गैंडे की पीठ से उड़ जाते हैं। इससे गैंडे को पता चल जाता है कि आसपास कहीं खतरा विद्यामान है और वह सावधान हो जाता है।

और कोई सवाल? क्या कोई जानना चाहेगा, हाथी को हंसी आती है?

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चित्र के बारे में - यह अफ्रीकी गैंडा है। आप देख सकते हैं कि इसमें दो सींग हैं, जिनमें से एक पर ओक्सपेकर चिड़िया बैठी है। एक दूसरी चिड़िया जरा पीछे गैंडे की पीठ पर बैठी है। भारतीय गैंडे में केवल एक सींग होता है। वह अफ्रीकी गैंडे से थोड़ा बड़ा होता है।

क्या घड़ियाल सचमुच रोते हैं?

घड़ियाल


कुदरतनामा के एक पिछले पोस्ट की टिप्पणी में गिरिजेश राव (इस बार नाम सही लिया है, आलसी जी!) ने पूछा है, घड़ियाली आंसू का राज क्या है, क्या डायनोसर रोने में सक्षम थे?

सवाल रोचक है, इसलिए थोड़ी खोजबीन की। जो मुझे जानने को मिला, उसे यहां दे रहा हूं।

घड़ियाली आंसू वाली कहावत हिंदी और अंग्रेजी दोनों में विद्यमान है, और समान अर्थ रखती है, यानी कपटपूर्ण ढंग से सांत्वना दर्शाना। अंग्रेजी की यह कहावत सैकड़ों साल पुरानी है। हिंदी की यह कहावत कितनी पुरानी है, यह अजीत वाडनेकर ही बता सकते हैं। यह भी पता नहीं है कि यह कहावत हिंदी से अंग्रेजी में पहुंची है, ठग, बकशीश, आदि बीसियों हिंदी शब्दों के समान, या अंग्रेजी से ही हिंदी में आ धमकी है। इन सब विषयों की चर्चा अजीत जी के जिम्मे छोड़ते हुए घड़ियाली शोक के विषय पर आता हूं।

क्या घड़ियाल सचमुच रोते हैं, यानी आसूं बहाते हैं? इसका जवाब है, कि हां, घड़ियालों की आंखों में आसूं पैदा करनेवाले अवयव होते हैं, और उनकी आंखों से आंसू सचमुच टपकते हैं, खासकर जब वे भोजन कर रहे होते हैं।

सवाल है, इसका कारण क्या है, घड़ियाल आंसूं क्यों बहाते हैं? प्रकृति विदों ने इस गुत्थी पर काफी विचार किया है। पुराने प्रकृति विदों का जवाब यह था कि घड़ियाल जब अपने शिकार को खा रहा होता है, तो उसे उसका शिकार बने जीव की याद आती है और उसके मर जाने पर इतना दुख हो आता है, कि वह अपने आंसूं रोक नहीं पाता, हालांकि शिकार को मारा उसी ने होता है।

यह जवाब रोचक है, पर हमें संतुष्ट नहीं करता, क्योंकि घड़ियाल में इस तरह की विचारणा क्षमता हो नहीं सकती, उसका मस्तिष्क इतना विकसित ही नहीं है। जानवरों को वह अपनी भूख मिटाने के लिए मारता है, न कि किसी द्वेष भावना से। इस तरह की मानव भावनाएं जानवरों में आरोपित करना प्राचीन मानव की एक पुरानी आदत रही है। मनुष्य को चुनौती देनेवाले जानवरों को बुरा बना देना और जो उससे सहयोग करे, उन्हें मिहिमा-मंडित करना, मनुष्य की प्रवृत्ति रही है। इस तरह घड़ियाल, भेड़िए, सांप आदि बुरे जानवर बन गए हैं और हाथी, गाय, हंस आदि अच्छे। कुछ, जैसे गाय, लंगूर आदि देवता की पदवी भी प्राप्त कर गए हैं।

हमारे प्रश्न के इस अवैज्ञानिक उत्तर पर और समय न बिगाड़कर कुछ अन्य अधिक वैज्ञानिक उत्तरों की ओर बढ़ते हैं।

कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि भोजन करते समय घड़ियाल आंसूं इसलिए निकालता है क्योंकि उसकी आंसूं में ऐसे कुछ एन्जाइम होते हैं, जो भोजन को मुलायम बना देते हैं, जिससे भोजन निगलना घड़ियाल के लिए आसान हो जाता है। आंसूं आंखों से तो निकलते ही है, लेकिन चूंकि आंसूं की ग्रंथियां नासिका और मुंह से भी जुड़ी होती हैं, आंसूं मुंह के अंदर भी फैल जाता है। पर बारीकी से विचार करने पर यह उत्तर भी कुछ जंचता नहीं है - घड़ियाल अपने भोजन को आमतौर पर पानी में ही खाता है, और खाते समय उसके मुंह में भारी मात्रा में पानी विद्यमान रहता है। इसकी तुलना में चंद बूंद आंसू भोजन को कहां तक मुलायम कर पाएंगे, यह विचारणीय है।

एक तीसरा टेक यह है कि जब घड़ियाल भोजन करता है, तो शिकार को निगलने की कोशिश में आंसू लानेवाली ग्रंथियां दब जाती हैं, जिससे उनमें मौजूद आंसूं बाहर आ जाता है। यह समाधान सबसे संतोषजनक लगता है।

ध्यान रहे कि घड़ियालों में और मगरों में भी आंखों में तीन पलकें होती हैं। ऊपरी पलक, निचली पलक और इन दोनों के नीचे एक और पलक, जो पारदर्शी होती है। यानी, पूरे भोलेनाथ होते हैं ये विशाल सरीसृप! पानी के नीचे रहने पर घड़ियाल इस तीसरी पलक को आंखों पर चढ़ा लेता है। आंसू का प्रयोजन इस पलक को अच्छी तरह चिकना बनाए रखना होता है, ताकि वह आसानी से आंखों पर चढ़ाया जा सके।

घड़ियाली आंसू का एक अन्य कारण भी बताया जाता है, जो दरअसल खारे पानी में रहनेवाले मगर (सोल्टवाटर क्रोकोडाइल) पर अधिक खरा उतरता है। कहा जाता है कि घड़ियाल में पसीना बहाने की व्यवस्था नहीं होती, जैसा कि स्तनधारी, गरम खूनवाले प्राणियों में होती है। इससे वह अपने खून में जमा हुए नमक को पसीना बहाकर बाहर नहीं निकाल पाता। इसके बदले वह आंसूं बहाकर अपने खून में विद्यमान अतिरिक्त नमक से छुटकारा पा लेता है। आंसूं में लवणांश की अधिकता होती है।

समुद्री कच्छपों में भी अतिरिक्त नमक से छुटकारा पाने की यही व्यवस्था पाई जाती है, यानी आंसूं बहाकर।

कहने का मतलब है कि घड़ियाल ही नहीं समुद्री कच्छप भी रोने में कुशल होते हैं, हालांकि उनके संबंध में कोई कहावत नहीं बन पाई है।

अब रहे डायनोसर। क्या वे भी इमोशनल टाइप के थे? इस सवाल का उत्तर देना थोड़ा कठिन है क्योंकि डायनोसरों के जितने अवशेष अब तक मिल पाए हैं, वे कुछ पत्थर में बदल चुकी उनकी कुछ हड्यियां मात्र हैं। इनके आधार पर यह कह पाना कि वे रो सकते थे या नहीं, जरा मुश्किल है।

इसलिए यह सवाल हम स्टीवन स्पीलबर्ग पर छोड़ देते हैं। वे शायद अपनी किसी अगली फिल्म में (जुरैसिक पार्क 4?) इस पर प्रकाश डालें!
 

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