- एशिया के तीन में से एक व्यक्ति को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध नहीं है।
- शहरी गरीबों में से 40 प्रतिशत को और कई ग्रामीण बस्तियों को सुरक्षित पेयजल नहीं मिलता।
- पिछले सौ सालों में एशिया की आबादी 30 करोड़ से बढ़कर 135 करोड़ हो गई है। यद्यपि भारत जैसे कुछ एशियाई देशों में पिछले दो दशकों में जनसंख्या वृद्धि की दर में मामूली सी कमी देखी गई है, फिर भी मनुष्य की आबादी निरंतर बढ़ती जा रही है। इसका मतलब है पानी की मांग में निरंतर वृद्धि।
- कृषि में उपोयग किए जानेवाले कुल पानी की तुलना में पानी का औद्योगिक उपयोग नगण्य है, फिर भी उद्योगों द्वारा प्रवाहित अपपदार्थों से मीठे जल के अनेक स्रोत दूषित हो रहे हैं, जिसका दूरगामी परिणाम हो सकता है।
पानी की मांग एक अन्य दिशा से भी आती है। यह है शहरी इलाके। ध्यान रहे कि विश्व की कुल आबादी का 50 प्रतिशत शहरों में रहता है। भारत की शहरी आबादी पिछले दो दशकों में लगभग 11 करोड़ से बढ़कर 22 करोड़ हो गई है, यानी लगभग दुगुनी। देश में ग्रामीण इलाकों से लोग निरंतर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।
शहरी इलाकों में रह रहे लोगों की जीवनशैलियों में आए परिवर्तन से रहन-सहन अधिक सुविधाजनक हो गया है, लेकिन बदली हुई जीवनशैलियां अधिक पानी की मांग भी करती हैं। जब नगरपालिकाओं द्वारा मुहैया कराया गया पानी अपर्याप्त साबित होता है, तो शहरी और अर्ध-शहरी इलाकों के निवासी भूजल का दोहन करने लगते हैं। इसका परिणाम होता है भूजल भंडारों का तेजी से खाली होना।
इससे देश में ऐसे अनेक क्षेत्र बन गए हैं जहां पानी की विकट कमी है।
शहरीकरण में आई तेजी से भूमि के उपयोग में भी अनेक परिवर्तन आए हैं। अब अधिकाधिक जमीन का उपयोग सड़कों, रेलमार्गों, भवनों, वाणिज्यिक केंद्रों, मनोरंजन और उद्योगों के लिए होने लगा है। भूमिगत जलभंडारों को भरने के लिए अब बहुत कम जमीन रह गई है।
कुल मिलाकर, इन सब कारकों का प्रभाव यह रहा है कि सतही और भूमिगत जलस्रोतों में उपलब्ध पानी निरंतर कम होता जा रहा है, और जो पानी उपलब्ध है, उसकी गुणवत्ता बिगड़ती जा रही है। आज पानी विभिन्न मानव समुदायों में असमान रूप से वितरित है। इसलिए यह निहायत जरूरी है कि हम मीठे जल के प्रमुख स्रोत, यानी वर्षाजल का, विवेकपूर्ण उपयोग करें।
वर्षा अत्यंत अनिश्तित है। कई जगहों में वह अपर्याप्त और परिवर्तनशील भी है। जहां राजस्थान में औसत वार्षिक वर्षा मात्र 200 मिलीमीटर है, तो असम में वह 12,000 मिलीमीटर है। लेकिन देश के लगभग सभी भागों में वर्षा होती है और उसे विकेंद्रीकृत रूप से संचित किया जा सकता है।
वर्षाजल के संरक्षण की अवधारण (रेनवाटर हारवेस्टिंग) 4,000 साल पहले के कांस्य युग से ही, यानी मानव सभ्यता के उषाकाल से ही, अस्तित्व में रही है। उस काल के समुदाय भी अपने मकानों की छतों से वर्षाजल को जमीन पर बने कुंडों में एकत्र करते थे।
राजस्थान जैसे कम वर्षावाले राज्यों में साल भर के लिए पेयजल की आपूर्ति हेतु जल-संरक्षण की विभिन्न प्रकार की स्थानीय प्रणालियां विकसित हुई हैं। इन प्रणालियों की बदौलत मनुष्यों और मवेशियों को वर्ष भर पीने का पानी मिलता रहता है। कई स्थानों में तो जल-संरक्षण की संरचनाएं मकान के मूल ढांचे का एक हिस्सा हुआ करती हैं।
सोलहवीं सदी में वर्षाजल का संचय विभिन्न प्रकार से होता था। मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थलों में तालाब और बावड़ियां सामुदायिक स्तर पर बनवाए जाते थे। समुदाय इन जलस्रोतों को पवित्र मानता था और उसे प्रदूषित होने नहीं देता था।
अनेक कारणों से ये स्थानीय परंपराएं तेजी से समाप्त हो रही हैं। अब समय आ गया है कि हम इन प्राचीन पद्धतियों को अपनाकर अपनी पेयजल समस्याओं का समाधान करें। ये पद्धतियां कम वर्षावाले इलाकों में ही नहीं, अपितु अधिक वर्षावाले इलाकों में भी कारगर हैं।
इमारत की मूल योजना में ही वर्षाजल संचयन की प्रणाली को शामिल करना अधिक किफायती साबित होता है। अनुभव सिद्ध करता है कि इमारत बनने के बाद उन्हें स्थापित करने में अधिक खर्चा आता है।
मकानों की छतों से संचित किया गया वर्षाजल बजरी और रेत की परत से छनकर एक टंकी में जमा होता है। इस टंकी से पानी को रसोईघर में पंप किया जाता है।
वर्षाजल का संचय रिहायशी मुहल्लों, व्यावसायिक इमारतों और कर्माचारी आवास भवनों में सफलतापूर्वक किया जाता है क्योंकि यहां सब बड़ी-बड़ी और विस्तृत छतें होती हैं। इन छतों से बह निकलनेवाला पानी नीचे की ओर जानेवाली पाइपों से एक अवसादन टंकी में जमा होता है। यहां से पानी एक पुनर्भराव (रीचार्ज) कुंड में जाता है। इसके बीच में एक गहरा कुंआ होता है। यह माडल गुजरात में पुलिस कर्मचारियों के आवासीय कालोनियों की इमारतों का एक अभिन्न अंग बन गया है।
शहरी इलाकों में बहुमंजिली इमारातें काफी सामान्य हैं। उनमें भी वर्षाजल संचित करके पेयजल का एक सुरक्षित स्रोत प्राप्त किया जा सकता है।
छतों से वर्षाजल विभिन्न पाइपों से एक आड़े फिल्टर से होकर गुजरती है। इससे छनकर आए पानी को एक टंकी में जमा किया जाता है, जहां से पंप करके उसे घरों तक पहुंचाया जाता है। अतिरिक्त पानी को गुरुत्वाकर्षण फिल्टर से भूमिगत जलभंडारों में भेजा जाता है।
ऐसी प्रणाली गुजरात के जलसेवा प्रशिक्षण संस्थान, गांधीनगर में स्थापित की गई है और वह इस संस्थान के कर्मचारियों को साल भर साफ पेयजल दे रही है।
चैक डैम बनाकर कृत्रिम रूप से भूजल भंडारों को भरकर भूजलस्तर को ऊपर उठाया जा सकता है। चैक डैमों के पीछे जमा हुआ वर्षाजल धीरे-धीरे भूमि के नीचे रिसता जाता है और चारों ओर के इलाके में जलस्तर को ऊपर उठाता है।
पानी की मांग और उसकी पूर्ति के बीच की खाई को पाटने में कृत्रिम तालाब महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गुजरात में सरगासना तालाब के द्वारा 3.3 करोड़ लिटर पानी भूमिगत जलभंडारों में पहुंचा, जिससे औसतन जलस्तर 3 मीटर ऊपर उठ आया।
यदि इस प्रकार के प्रयास क्षेत्रीय स्तर पर कुछ सालों तक किए जाएं, तो भूजल स्तर में काफी सुधार हो सकता है। सच तो यह है कि हर गांव, कस्बा और शहर में वर्षाजल संचित करने की भरपूर संभावनाएं मौजूद हैं।
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