Friday, July 31, 2009

क्षीण हो रही है ओजोन परत

ऊपर आसमान में कुछ विचित्र सा घट रहा है। मनुष्यों को हानिकारक पराबैंगनी किरणों से सुरक्षा प्रदान करनेवाली ओजोन परत पतली होती जा रही है। पराबैंगनी किरणों के लगने के कारण चर्मकैंसर हो सकता है। संघातिक प्रकार के चर्मकैंसरों में ३० प्रतिशत रोगी पांच साल के अंदर मर जाते हैं। पराबैंगनी किरणों के कारण मोतियाबिंद भी होता है। अधिक संगीन मामलों में लोग इसके कारण अंधे हो सकते हैं। ओजोन परत क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) नामक मानव-निर्मित रसायनों के कारण पतली हो रही है।

पहले हम यही समझते थे कि सीएफसी एक वरदान हैं और वे मनुष्य के जीवन को समृद्ध और आरामदायक बना सकते हैं। सीएफसी कृत्रिम यौगिक होते हैं, जो क्लोरीन, कार्बन और फ्लोरीन से बने होते हैं। उनका न कोई रंग होता है न गंध। हमने दैनंदिन के कई कार्यों में सीएफसी का उपयोग किया है। मुख्यतः सीएफसी का उपयोग शीतलक के रूप में होता है। जब वे वाष्पीकृत होते हैं, वे आसपास से ऊष्मा ग्रहण करते हैं। इससे फ्रिजों में खाना ठंडा रहता है। वातानुकूलक सीएफसी के वाष्पीकरण ऊर्जा का उपयोग करके कमरों और वाहनों को ठंडा रखते हैं। विकासशील देशों में सीएफसी से यूरीथेन फोम बनाया जाता है जो कारों की सीटें आदि बनाने के काम आता है। सीएफसी का उपयोग सेमीकंडक्टरों को धोने के लिए विलायक के रूप में और ड्राइक्लीनिंग में भी होता है।

ओजोन परत का उद्गम प्राचीन महासागरों से हुआ है और वह धीरे-धीरे दो अरब वर्षों में पूरा बनकर तैयार हुआ है। ओजोन परत में जो ओजोन है उसका मूल स्रोत महासागरों के पादपों द्वारा किए गए प्रकाशसंश्लेषण के दौरान पैदा हुई आक्सीजन है। महासागरों से निकली आक्सीजन के अणु ऊपर उठते-उठते वायुमंडल के समताप मंडल में पहुंच जाते हैं। वहां वे परमाणुओं में टूट जाते हैं। ये परमाणु दुबारा जुड़कर ओजोन का निर्माण करते हैं। आक्सीजन के अणुओं के बिखरने और आक्सीजन के परमाणुओं के जुड़कर ओजन बनने के लिए आवश्यक ऊर्जा सूर्य से आनेवाली पराबैंगनी किरणों से प्राप्त होती है। ओजोन परत सूर्य से आनेवाली अधिकांश पराबैंगनी किरणों को इन क्रियाओं के लिए अवशोषित कर लेती है, जिससे ये अत्यंत घातक पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह तक पहुंचने नहीं पातीं।

लगभग ४० करोड़ वर्ष पूर्व ओजोन परत पूर्ण रूप से बन गई थी। उसके बन जाने से महासागरीय जीव-जंतु जमीन की ओर बढ़ सके क्योंकि वे अब ओजोन परत के कारण पराबैंगनी किरणों से सुरक्षित थे। इससे पूर्व केवल महासागरों में ही जीवन का अस्तित्व था, क्योंकि वही इन घातक किरणों से मुक्त था।

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में बड़ी मात्रा में सीएफसी वायुमंडल में छोड़े जाने लगे। समताप मंडल में पहुंचकर सीएफसी टूट जाते हैं, जिससे उनमें मौजूद क्लोरीन मुक्त हो जाती है। यह क्लोरीन ओजोन परत के लिए घातक होती है। जब ओजोन परत नष्ट हो जीती है, पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह तक फिर से पहुंचने लगती है। इससे चर्मकैंसर, मोतियाबिंद आदि होने लगते हैं, और मनुष्य सहित सभी जीव-जंतुओं का स्वास्थ्य संकट में पड़ जाता है।

विश्व भर की मौसम वेधशालाएं उपग्रहों और मौसम गुब्बारों के उपयोग से ओजोन परत का निरीक्षण कर रही हैं। उनके निरीक्षणों से चिंताजनक तथ्य सामने आए हैं। भूमध्यरेखीय प्रदेशों के अलावा बाकी सब स्थानों में ओजोन परत पतली हो रही है। ओजोन परत पतली तब आती है जब समताप मंडल में तापमान कम हो। ऊंचाई जितनी अधिक हो, ओजोन परत उतनी ही अधिक क्षीण हो रही है। सबसे अधिक नुक्सान अंटार्क्टिका के ऊपर देखा गया है। वहां ओजोन इतना कम हो गया है कि ओजोन परत में एक बड़ा छिद्र ही बन गया है। यह छिद्र वर्ष १९८० में प्रथम बार प्रकट हुआ था। यह छिद्र बढ़ता ही जा रहा है। यदि ओजोन की मात्रा 1 प्रतिशत घट जाए, तो पराबैंगनी किरणों के आतपन में १.५ प्रतिशत का इजाफा हो जाता है। पराबैंगनी किरणों के कारण होनेवाले रोग विश्व भर में बढ़ रहे हैं। सबसे अधिक चिंता चर्मकैंसर है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार २२ लाख व्यक्तियों को हर साल चर्मकैंसर हो जाता है। इनमें से २,००,००० व्यक्तियों में यह कैंसर संघातिक होता है। क्योटो विश्र्वविद्यालय में एक प्रयोग किया गया, जिसके अंतर्गत चूहों को सप्ताह में तीन दिन पराबैंगनी किरणों के सामने रखा गया। लगभग ४० सप्ताह बाद सभी चूहों में चर्मकैंसर के लक्षण देखे गए। जब शोधकर्ताओं ने इन चूहों के जीनों का परीक्षण किया, तो उन्होंने देखा कि कैंसर को रोकने वाले जीन इन चूहों में नदारद थे।

पराबैंगनी किरणें जीनों में उत्परिवर्तन लाती हैं, जिससे कैंसर हो जाता है। पराबैंगनी किरणें आंखों के लेन्स को भी नुक्सान पहुंचाती हैं, जिससे मोतियाबिंद हो जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार हर साल ३२ लाख व्यक्ति पराबैंगनी किरणों के कारण बने मोतियाबिंद से अंधे हो जाते हैं। पराबैंगनी किरणें फसलों को भी नुक्सान पहुंचाती हैं। यदि पराबैंगनी किरणों का आतपन बढ़ जाए, तो विश्व भर में पैदावार घट सकती है और पृथ्वी का संपूर्ण पारिस्थितिकीय तंत्र प्रभावित हो सकता है।

सीएफसी के कारण ओजोन परत का पतला होना एक गंभीर विश्व स्तरीय समस्या है। वर्ष १९८७ में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने मांट्रियल प्रोटोकोल अपनाकर सीएफसी में कमी लाने का निश्चय किया। इस प्रोटोकोल में शामिल देशों ने तय किया कि वर्ष १९९६ तक वे सीएफसी का उपयोग पूर्णतः बंद कर देंगे।

पश्चिमी देशों में उपयोग किए हुए सीएफसी की पुनर्प्राप्ति के कड़े नियम हैं। इससे वहां इन्हें हवा में छोड़े जाने की समस्या उतनी संगीन नहीं है। परंतु जापान तथा विकासशील देशों में ऐसे नियमों की कमी है। इन देशों का कहना है कि सीएफसी की पुनर्प्राप्ति अव्यावहारिक है। सबसे बड़ी समस्या इसमें आनेवाली ऊंची लागत है, जो हर वर्ष लगभग २६ अरब रुपए के बराबर है।

तेजी से विकसित होते एशिया में सीएफसी की मांग बढ़ती ही जा रही है। आज विश्व भर में जितना सीएफसी उपयोग किए जाते हैं, उसका आधा एशिया में होता है, मुख्यत चीन, जापान, भारत और आसियान देशों में। मांट्रियल प्रोटोकोल की धारा ५, १२२ विकासशील देशों को सीएफसी का उपयोग समाप्त करने के लिए कुछ अधिक समय देता है, ताकि उनका आर्थिक विकास न रुके। इन देशों को २०१० तक सीएफसी का उपयोग बंद करना है, जबकि समृद्ध देशों के लिए यह सीमा १९९६ है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने विकासशील देशों को सीएफसी के उपयोग में कमी लाने में मदद देने के लिए एक बहुपक्षीय कोष स्थापित किया है।

ओजोन परत के पूर्णत स्वस्थ होने के लिए काफी लंबा समय लगनेवाला है। इसका मतलब यह है कि हम सबको अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए आज इसी समय निर्णय लेना होगा कि हम सीएफसी का उपयोग नहीं करेंगे।

Thursday, July 30, 2009

कोमोडो ड्रैगन


कोमोडो ड्रैगन दुनिया की सबसे बड़ी छिपकली है। उसकी लंबाई 3 मीटर (10 फुट) और वजन 180 किलो होता है।

कोमोडो ड्रैगन की जीभ सांप की जीभ के समान फटी हुई होती है। उसके नाखून और दांत बहुत पैने और जबड़े बहुत ही मजबूत होते हैं। अपनी लंबी मांसल पूंछ की कोड़े जैसी मार से वह अपने शत्रुओं को घायल कर सकता है। उसका शरीर कठोर शल्कों से ढका होता है।

कोमोडो ड्रैगन इंदोनीशिया के चार छोटे टापुओं में ही पाया जाता है। उनमें से सबसे बड़े टापू का नाम कोमोडो टापू है।

कोमोडो ड्रैगन एक प्रकार की गोह है। वह मांस-भक्षी है जो मरे जानवरों का मांस भी खाता है और खुद भी शिकार करता है। छोटे कोमोडो ड्रैगन छिपकली, कीड़े-मकोड़े, पक्षी, सांप आदि खाते हैं। जब वे लंबाई में 30 सेंटीमीटर के और उम्र में लगभग एक साल के हो जाते हैं, तो वे मरे जानवरों का मांस खाने लगते हैं। बड़े कोमोडो ड्रैगन हिरण, बकरी, जंगली सूअर आदि का शिकार करते हैं। वे 500 किलो वजन की भैंस तक को मार सकते हैं। कभी-कभी इन खूंखार छिपकलियों ने बच्चों, बूढ़ों और बीमार मनुष्यों पर भी हमला किया है।

कमोडो ड्रैगन एक अत्यंत सफल शिकारी है। उसके लचीले मसूड़ो में 60 से अधिक आरीदार किनारोंवाले, मुंह के अंदर की ओर मुड़े हुए, उस्तरे के समान तेज धारवाले दांत होते हैं। ये दांत उसके जीवनकाल में पांच बार नए सिरे से उगते हैं, इसलिए दांत टूटने से कोमोडो ड्रैगन को अधिक परेशानी नहीं होती। कोमोडो ड्रैगन के दांत शार्क मछली के दांतों के समान होते हैं। कहते हैं कि कोमोडो ड्रैगन के द्वरा जरा सा काटे जाने पर भी मृत्यु हो जाती है। चूंकि वह सड़ा-गला मांस खाता है, इसलिए सड़े-गले मांस में मौजूद अनेक घातक जीवाणु उसके मुंह में होते हैं। काटे जाने पर ये जीवाणु घाव में मिल जाते हैं और इससे काटे गए प्राणी के शरीर में जहर फैल जाता है। कोमोडो ड्रैगन को इससे फायदा ही होता है। यदि शिकार उसकी पकड़ से बच भी गया, तो कुछ ही दिनों में अपने घावों में जहर फैलने से वह मर जाएगा और कोमोडो ड्रैगन उसके शव को ढूंढकर खा जाएगा। कोमोडो ड्रैगन की सूंघने की शक्ति इतनी प्रबल होती है कि वह सड़े मांस को 8 किलोमीटर की दूरी से सूंघ सकता है।

यह खूंखार छिपकली ताकतवर ही नहीं, अत्यंत बुद्धिशाली भी होता है। वह हिरण, सूअर आदि चौकन्ने प्राणियों को भी धोखा देकर पकड़ लेता है। कोमोडो ड्रैगन शिकार करने के लिए जंगली मार्गों के पास लेटा रहता है। मिट्टी के रंग का होने के कारण वह बिलकुल छिपा रहता है। शिकार के मार्ग पर से गुजरने पर वह उसे लपककर पकड़ लेता है।

कोमोडो ड्रैगन भोजन को बड़ी तेजी से निगलता है। सांप की तरह वह भी अपने जबड़ों को खूब फैला सकता है। वह एक बार में पूरे छौने को या सूअर के पूरे सिर को या बकरी के आधे शरीर को निगल सकता है। 50 किलो वजन का कोमोडो ड्रैगन 40 किलो वजन के हिरण को 20 मिनट में चट कर सकता है। कोमोडो ड्रैगन अपने वजन के 80 प्रतिशत जितना मांस एक बार में खा सकता है।

मादा गर्मियों में 30 जितने अंडे देती है। आठ महीने बाद अंडों से आधे मीटर (डेढ़ फुट) लंबे बच्चे निकल आते हैं। पैदा होते ही वे पेड़ों पर चढ़ जाते हैं, वरना बड़े कोमोडो ड्रैगन उन्हें पकड़कर खा जाएंगे। ये बच्चे लगभग एक साल तक पेड़ों पर ही रहते हैं और वहीं से आहार खोजते हैं।

कोमोडो ड्रैगन की आयु लगभग 50 वर्ष होती है।

कोमोडो ड्रैगन दिन भर धीमे-धीमे चलते हुए आहार खोजता रहता है। सामान्यतः वह अकेले ही रहता और शिकार करता है। उसे तटीय इलाकों के वनों में शिकार करना पसंद है। वह सागरतटों पर भी आहार खोजता है और लहरों के साथ बह आई मछलियों और अन्य समुद्री जीवों को खाता है। वह अच्छा तैराक है और एक टापू से दूसरे टापू को तैरकर जाता है। कोमोडो ड्रैगन 15 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से कुछ दूरी तक दौड़ सकता है।

रात को सोने के लिए और दिन में तेज धूप से बचने के लिए कोमोडो ड्रैगन जमीन पर बिल खोदता है। कभी-कभी वह अन्य जानवरों द्वारा खोदे गए बिलों को भी हथिया लेता है।

कोमोडो ड्रैगन 2 कोरड़ वर्षों से इस पृथ्वी पर रहता आ रहा है। पर लगता है कि अब उसके दिन पूरे होते जा रहे हैं। आज उसे एक संकटग्रस्त प्राणी माना जाता है। वन्य अवस्था में केवल 5,000 कोमोडो ड्रैगन ही जीवित बचे हैं। उसे सबसे अधिक खतरा उसके रहने लायक जंगलों के कम होने से है।

Wednesday, July 29, 2009

एल्कहॉल से दौड़ती ब्राजील की कारें

विश्व के जिन देशों पर विदेशी कर्ज का बोझ सबसे अधिक है, उनमें से अग्रणी है दक्षिण अमरीका का विशाल देश ब्राजील। इस पर विदेशी कर्ज का संकट तो है ही, तेल की बढ़ती कीमत के कारण इसकी आर्थिक स्थिति और बिगड़ती गई है। उपलब्ध विदेशी मुद्रा का आधा तो आयातित तेल के भुगतान पर ही खर्च हो जाता है। मोटर कार निर्माण इस देश का प्रमुख उद्योग है। तेल की बढ़ती कीमत के कारण इस उद्योग को भी मंदी का सामना करना पड़ रहा है। साथ ही देश की संपूर्ण अर्थव्यवस्था ही डांवाडोल होने लगी है।

देश के कर्णधारों को स्पष्ट हुआ कि अर्थव्यस्था को स्थिर करने के लिए आयातित तेल पर निर्भरता कम करनी होगी। तेल के विकल्प के रूप में ब्राजील के विशाल गन्ने की फसल से उत्पन्न एल्कहॉल के उपयोग को प्रोत्साहन दिया जाने लगा। एल्कहॉल के उत्पादन और वितरण की विस्तृत प्रणाली अब देश भर में कायम हो गई है। ब्राजील में बिकने वाले नब्बे प्रतिशत कारें एल्कहॉल से चलती हैं।

इस कार्यक्रम का सबसे पहला लाभ आर्थिक था। देश तेल आयातित करने में खर्च होने वाली विदेशी मुद्रा बचा सका। दूसरा लाभ यह था कि एल्कहॉल उद्योग द्वारा पैदा किए गए रोजगार के असंख्य अवसरों से देश में फैली व्यापक बेरोजगारी में कमी आई। तीसरा लाभ था एक ऐसी स्थानीय प्रौद्योगिकी का विकास जिसके लिए किसी भी विदेशी मुल्क का मुंह नहीं जोहना पड़ता था। परंतु सबसे महत्वपूर्ण लाभ तो पर्यावरणीय दृष्टि से मिला। डीजल या पेट्रोल की तुलना में एल्कहॉल अधिक साफ-सुथरा ईंधन है। एल्कहॉल के व्यापक उपयोग से ब्राजील के शहरों में वायु प्रदूषण बहुत कम हो गया है।

किंतु इतने व्यापक पैमाने पर परिवर्तन लाना बहुत आसान काम नहीं था। एल्कहॉल प्राकृतिक तेल के मुकाबले महंगा ईंधन है। अतः उसे आम लोगों के लिए सुलभ बनाने के लिए सरकार को उसे रियायती दरों पर उपलब्ध करना पड़ा।

ईंधन के रूप में एल्कहॉल तैयार करने के लिए एक बहुत बड़े क्षेत्र पर गन्ना उगाने की आवश्यकता हुई। बहुत-सी खेती योग्य जमीन पर जिस पर पहले अन्न उगाया जाता था, अब गन्ना उगाया जा रहा है। दूसरी ओर ब्राजील के दुर्लभ उष्णकटिबंधीय वर्षावनों को जलाकर गन्ने के लिए जमीन तैयार की जाने लगी है।

परंतु एल्कहॉल के पक्ष में यह महत्वपूर्ण तथ्य भी है कि वह खनिज तेल के समान अनवीकरणीय ईंधन नहीं है। अब कृषि-वैज्ञानिक गन्ने के पैदावार बढ़ाने के लिए अनुसंधान कर रहे हैं, ताकि कम से कम जमीन से आवश्यक गन्ना पैदा कर लिया जा सके। एल्कहॉल उद्योग को भी अधिक कार्यक्षम बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं। पहले रस निकालने के बाद गन्ने के डंठलों को फेंक दिया जाता था। अब इसके नए-नए उपयोग खोजे गए हैं, जो ब्राजील की ईंधन की समस्या को सुलझाने में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।

सान मारटिंदो एल्कहॉल बनाने वाले बड़े से बड़े कारखानों में से एक है। इस कारखाने में 1976 से तेल के स्थान पर गन्ने के रस के अवशिष्टों को जलाकर ऊर्जा प्राप्त करने के लिए प्रयोग चल रहा है। अब संपूर्ण बिजली की आवश्यकता गन्ने के अविशिष्टों को जलाकर प्राप्त की जाती है। इसके अलावा दो मेगावाट बिजली अन्य कारखानों को बेची भी जाती है। सच तो यह है कि देश का दस प्रतिशत बिजली का उत्पादन गन्ने के अवशिष्टों को जलाकर होता है।

एक अन्य कारखाने में गन्ने के अविशिष्टों के लिए एक और उपयोग विकसित कर लिया गया है। अवशिष्टों को भाप में पकाकर और उसमें खमीर मिलाकर पशुओं को खिलाने योग्य, उच्च कोटि का प्रोटीनयुक्त चारा तैयार किया जाता है, जिसे विदेशों को बेचकर विदेशी मुद्रा भी कमाई जा सकती है।

ब्राजील का एल्कहॉल कार्यक्रम साबित करता है कि तेल पर आधारित उद्योग प्रणाली को किसी अन्य ऊर्जा स्रोत से भी चलाया जा सकता है। ब्राजील ने जो मार्ग अपनाया है वह शायद हमारे देश के लिए उपयुक्त न हो, क्योंकि इस घने बसे देश में व्यापक पैमाने पर गन्ने की खेती के लिए जमीन न मिल सके, परंतु ब्राजील का उदाहरण हमें सोचने पर मजबूर कर देता है कि जिस प्रकार ब्राजील ने अपनी परिस्थितियों के अनुकूल तेल का विकल्प ढूढ़ने में सफलता पाई है, वैसे ही हम भी अपने देश की परिस्थितियों के अनुकूल तेल का कोई दूसरा विकल्प ढूंढ़ सकते हैं और तेल आयात करने में खर्च होने वाली विदेशी मुद्रा बचा सकते हैं। इतना ही नहीं, एक कम प्रदूषणकारी औद्योगिक व्यवस्था की नींव भी रख सकते हैं। हमारे लिए सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, बयो गैस आदि नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत काफी संभावनाएं लिए हुए हैं।

Tuesday, July 28, 2009

प्रकृति के अजूबे सफेद बाघ

देश-विदेश के बहुत से चिड़ियाघर सफेद बाघों को प्रदर्शित करते हैं। इन प्रकृति के अजूबों को देखने अपार भीड़ जुटती है। ये भव्य जानवर होते भी हैं बड़े ही आकर्षक - विशाल आकार, श्वेत चर्म पर गहरी भूरी धारियां, हल्के गुलाबी होंठ और नाक, तथा कठोर नीली आंखें। इन विलक्षण जानवरों की कहानी अत्यंत रोचक है।

देश-विदेश के चिड़ियाघरों में प्रदर्शित सभी सफेद बाघों का पूर्वज मोहन नाम का सफेद बाघ है। उसे १९५१ में रीवा के बाग्री वनों में अपनी मां के साथ विचरते समय पकड़ा गया था। उसकी मां तो शिकारियों की गोलियों की भेंट चढ़ गई पर मोहन, जो उस समय एक निरा दूध-पीता बच्चा था, जिंदा पकड़ लिया गया। उसके विलक्षण रंग को देखकर रीवा के महाराजा ने उसके विशेष परवरिश की व्यवस्था कर दी। जब वह बड़ा हुआ तो बेगम नाम की एक साधारण बाघिन से उसका जोड़ा बांधा गया। बेगम ने १९५३-५६ के दौरान तीन बार बच्चे जने और कुल १० शावक पैदा किए। ये सब साधारण रंग के बाघ थे। वर्ष १९५८ में उनमें से एक बाघिन राधा से, जो मोहन की ही पुत्री थी, मोहन के चार बच्चे हुए, जो सभी श्वेत रंग के निकले। आज चिड़ियाघरों में दिख रहे बीसियों सफेद बाघ सब इन्हीं चार शावकों के वंशज हैं। इन सबके पितामह मोहन ने २० वर्ष की लंबी आयु पाई और १९६९ में मध्य प्रदेश में रीवा नरेश के एक महल में उसका देहांत हुआ।

यद्यपि मोहन से पहले भी जंगलों में सफेद बाघ देखे गए हैं, लेकिन उनमें और मोहन में एक खास अंतर है। मोहन इन सफेद बाघों के समान "एलबिनो" नहीं था। एलबिनो जानवरों की आंखें गुलाबी रंग की होती हैं। वे बहुधा कमजोर एवं कद में छोटे होते हैं और अधिक समय जीवित नहीं रहते। मनुष्य समेत अनेक प्राणियों में एलबिनो पैदा होते हैं। मनुष्यों में उन्हें सूर्यमुखी मनुष्य कहा जाता है। उनके शरीर - बाल समेत - सफेद रंग का होता है क्योंकि उनमें रंजक पदार्थ नहीं होते। इसके विपरीत मोहन की आंखें नीली थीं और वह सामान्य बाघों से बड़ा और शक्तिशाली था। बंदी अवस्था में भी वह स्वस्थ रहा और उसने प्रजनन किया।

सच तो यह है कि मोहन एक "रिसेसिव म्यूटेंट" था। बाघों की चमड़ी, नाक और आंख के रंग को एक खास जीन निर्धारित करता है जिसे 'क' नाम दिया जा सकता है। इसके प्रभाव को निष्क्रिय बनानेवाला एक दूसरा जीन भी होता है, जिसे इसका रिसेसिव जीन कहा जाता है। इसे 'ख' से अभिहित किया जा सकता है। यदि किसी जीव में 'क' जीन न हो तो यह रिसेसिव जीन 'ख' सक्रिय हो उठता है और उस जीव को एलबिनो बना देता है। सामान्य रंग वाले बाघों में 'क-क' अथवा 'क-ख' का जीन-संयोजन पाया जाता है, जबकि सफेद बाघ में अनिवार्यतः 'ख-ख' का जीन-संयोजन होता है, यानी उनमें 'क' जीन का अभाव होता है। इस तरह यदि बाघ-बाघिन में से एक भी 'क-क' हो, तो सभी शावक सामान्य पैदा होंगे, परंतु यदि दोनों 'क-ख' हों तो एक-आध शावक सफेद पैदा हो सकते हैं। परंतु यदि दोनों ही 'ख-ख' हों, तो उनके सभी बच्चे सफेद पैदा होंगे। यद्यपि १९५१ से पहले भी शिकारियों द्वारा सफेद बाघ मारे गए हैं, लेकिन मोहन पहला सफेद बाघ था जिसे जिंदा पकड़ा गया और उसने बंदी अवस्था में प्रजनन भी किया। उसकी संतति के कारण सफेद बाघ विश्व-प्रसिद्ध हो गए।

उनके विलक्षण रंग और विशाल आकार के अलावा सफेद बाघों और अन्य बाघों में कोई भी अंतर नहीं होता है। परंतु चिड़ियाघरों के लिए उनका अद्भुत रूप-रंग ही महत्व रखता है। इसलिए चिड़ियाघर सफेद बाघों के लिए मुंह मांगी कीमत देने को तैयार रहते हैं। एक स्वस्थ सफेद बाघ के लिए एक लाख डालर तो आसानी से मिल जाता है। दुर्भाग्य से अत्यधिक अंतरप्रजनन के कारण इस विलक्षण जीव की नस्ल बहुत क्षीण हो गई है। मोहन की वंश परंपरा में ११४ सफेद बाघ पैदा हुए, जिनमें से केवल २५ आज भारत और अन्य देशों में जीवित हैं।

Monday, July 27, 2009

दुनिया का सबसे बड़ा सांप अनाकोंडा


अनाकोंडा विश्व का सबसे बड़ा सांप माना जाता है। उसके विशाल आकार और आक्रामक स्वभाव को लेकर अनेक अतिशयोक्तिपूर्ण बातें कही गई हैं। इन मनगढ़ंत बातों के आधार पर बनी फिल्म "अनाकोंडा" अभी कुछ दिनों पहले काफी चर्चे में रही। इस फिल्म में इस सांप को काफी खतरनाक और मानवभक्षी दर्शाया गया है, जो सचाई से कोसों दूर है। आइए, इस विशाल सांप के बारे में कुछ विज्ञान-सिद्ध, सच्ची बातें जानें।

दिलचस्प बात यह है कि इस सांप का नाम अनाकोंडा एक तमिल शब्द से उपजा है और उसका अर्थ होता है "हाथियों को मारने वाला" (आनै (हाथी) + कोलरा (मारनेवाला) = अनाकोंडा)। पर कोई भी सांप हाथी को मार नहीं सकता, अनाकोंडा भी नहीं। इसलिए "हाथियों को मारने वाला" का अर्थ यही लेना होगा कि यह सांप अन्य सांपों से बहुत बड़ा होता है।

अनाकोंडा की औसत लंबाई 20 फुट होती है। पर बहुत से खोजी यात्रियों ने 150 फुट लंबे अनाकोंडा के होने की बातें कही हैं। उनके दावों में कितनी सचाई है, इसका पता लगाने के लिए अमरीका के राष्ट्रीय चिड़ियाघर ने कई साल पहले 30 फुट से ज्यादा लंबा अनाकोंडा लाने वाले को 5000 डालर का पुरस्कार घोषित किया था। इस पुरस्कार को आज तक किसी ने नहीं पाया है। इससे यह सिद्ध होता है कि इस सांप की लंबाई 20-25 फुट से अधिक नहीं होती और 100-150 फुट लंबे अनाकोंडा केवल खोजी यात्रियों के खयालों में होते हैं। इस दृष्टि से अनाकोंडा विश्व का सबसे लंबा सांप भी नहीं ठहरता क्योंकि भारतीय अजगर कभी-कभी उससे भी लंबा हो जाता है। पर अनाकोंडा निश्चय ही विश्व का सबसे भारी सांप है। उसके शरीर का घेराव आसानी से तीन फुट हो सकता है।

उसके हल्के हरे रंग के शरीर पर बड़े-बड़े काले धब्बे बने होते हैं। सिर पर नाक से लेकर गर्दन तक दो काली धारियां होती हैं। अनाकोंडा समस्त दक्षिण अमरीका में पाया जाता है, खासकर के अमेजन नदी के घने जंगलों में। अजगर के समान ही अनाकोंडा के शरीर के निचले भाग में गुदा-द्वार के पास पिछली टांगों के अवशेष-स्वरूप दो कांटे रहते हैं। ये मैथुन के समय मादा को उकसाने में काम आते हैं। यद्यपि अनाकोंडा भी अजगर के ही कुल का सांप है, पर मादा अनाकोंडा अजगर के समान अंडे नहीं देती बल्कि जीवित बच्चों को जन्म देती है। नवजात अनाकोंडा 2-3 फुट लंबे होते हैं। वन्य अवस्था में अनाकोंडा 40-50 साल जीवित रहते हैं। अमरीका के एक चिड़ियाघर में यह सांप 28 वर्ष जीवित रहा।

अनाकोंडा का अधिकांश समय पानी में बीतता है। वह धीमी गति से बहनेवाली नदियों और दलदलों में रहता है। तेज बहाववाली नदियां उसे पसंद नहीं हैं। सामान्यतः वह अकेले ही रहता है। बिरले ही 3-4 अनाकोंडा एक-साथ दिखते हैं। प्रत्येक अनाकोंडा का एक निश्चित शिकारगाह होता है जहां वह अन्य सजातीय सर्पों को आने नहीं देता।

अनाकोंडा सामान्यतः रात को सक्रिय रहता है। शिकार फंसाने के लिए वह छिछले पानी में बिना हिले-डुले लेटा रहता है। शरीर को पानी में डूबने से रोकने के लिए वह हवा निगल लेता है। किसी प्राणी के पानी पीने आने पर वह पानी से उछल कर उसे अपने मजबूत जबड़ों में पकड़ लेता है और अपने शरीर की कुंड़लियां उसके ऊपर डालकर उसे पानी में खींच लेता है। शिकार की मृत्यु पानी में डूबने अथवा कुंड़लियों के दबाव के कारण दम घुटने से होती है। अनाकोंडा द्वारा भींचे जाने से शिकार की हर हड्डी के चूर-चूर होने की बातें केवल किस्से-कहानियों में मिलती हैं और उनमें कोई सचाई नहीं है। वह मछली, छोटे-बड़े पक्षी, हिरण, सूअर, बड़े आकार के कृंतक (चूहे के वर्ग के जीव), पानी के कच्छुए और कभी-कभी मगर का शिकार करता है।

सभी सांपों के समान वह अपने शरीर के घेराव से कहीं बड़े शिकार को निगल सकता है। एक बार एक 25 फुट लंबे अनाकोंडा ने 6 फुट लंबा मगर निगल लिया था। इतना बड़ा शिकार खाने के बाद उसे हफ्तों तक खाने की आवश्यकता नहीं रहती। वह चुपचाप किसी सुरक्षित जगह कुंड़लियों के बीच सिर छिपाए पड़ा रहता है। कभी-कभी अनाकोंडा जमीन पर आकर भी शिकार करता है। जमीन पर वह धीमी गति से ही रेंग सकता है। उसे पानी के ऊपर निकल आई वृक्ष-शाखाओं में लेटकर धूप सेंकना भी अच्छा लगता है।

इस सांप की दृष्टि बहुत कमजोर होती है और वह काफी पास की चीजें ही साफ-साफ देख पाता है, यद्यपि उसके शिकार के हलचलों को वह तुरंत भांप लेता है। शिकार खोजने में उसकी तीव्र घ्राण शक्ति अधिक सहायक बनती है। अधिकांश सांपों के समान उसकी नाक के पास एक अन्य अवयव भी होता है जो शिकार के शरीर से उत्पन्न गरमी को ताड़ने में सहायता करता है। इसी से अनाकोंडा रात के अंधेर में भी शिकार खोज लेता है।

इतने बड़े और शक्तिशाली सांप के बारे में अनेक कहानी-किंवदंतियां बनना स्वाभाविक ही है। दक्षिण अमरीका के आदिवासी उसे देवता मानकर उसकी पूजा करते हैं। कुछ आदिवासी उसे अपना पूर्वज मानते हैं। आदिवासियों में यह धारणा भी प्रचलित है कि रात को अनाकोंडा एक नाव में बदल जाता है और उसके शरीर पर पाल जैसे अवयव बन जाते हैं।

जिस प्रकार भारत में अजगर के संबंध में यह धारणा काफी आम है कि वह मनुष्यों को पकड़कर निगल जाता है, दक्षिण अमरीका के लोग अनाकोंडा के संबंध में ऐसा मानते हैं। यह सही है कि कुछ मनुष्य इस विशाल सांप द्वारा मारे गए हैं, पर यह कहना कि वह उन्हें खाता भी है, कोरी कल्पना है। मनुष्य के कंधे की चौड़ाई इतनी अधिक होती है कि वह बड़े से बड़े अनाकोंडा के भी गले से नहीं उतर सकता। मनुष्य के साथ अचानक मुठभेड़ हो जाने पर घबराहट में अथवा आत्मरक्षा में उसकी कुंड़लियों में कुछ मनुष्य आए हैं और उनका दम घुटा है। इन मौतों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह सांप खाने के इरादे से मनुष्यों का शिकार करता है।

Sunday, July 26, 2009

ह्वेल कभी चल सकती थीं

लंबे समय से जलजीवन बिताते आने के कारण आजकल की ह्वेलों की शरीर-रचना में अनेक परिवर्तन हो गए हैं। इनमें से प्रमुख पिछली टांगों का लुप्त हो जाना है। परंतु इंटरनेशनल वाइल्डलाइफ नामक अमरीकी पत्रिका के अनुसार मिस्र के सागर तट से चार करोड़ वर्ष पुरानी ह्वेल की जो हड्डियां मिली हैं, उनसे प्रकट होता है कि पहले के जमाने की ह्वेलों में टांगें हुआ करती थीं। 18 मीटर लंबे इन प्राचीन ह्वेलों में लगभग 60 सेंटीमीटर लंबी पिछली टांगें पाई गई हैं। इन टांगों में घुटने, ऐड़ियां और अंगुलियां मौजूद हैं।

कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि ये टांगें ह्वेलों को सागर के तल पर चलने और छिछले पानी में आगे बढ़ने में सहायता करती होंगी। मैथुन के समय भी ये उपयोगी रही होंगी।

Saturday, July 25, 2009

सांप

आज नागपंचमी है, भारत का एक महत्वपूर्ण त्योहार। यद्यपि यह त्यौहार सांप जैसे महत्वपूर्ण और खौफनाक कुदरती जीवों के साथ तादात्मय स्थापित करने के इरादे से मनाया जाता है, लेकिन हमारे जैसे कम साक्षर देश में यह त्यौहार सांपों के संबंध में अनेक अंध विश्वास भी फैलाता है। आइए सांपों के संबंध में कुछ सच्ची बातें जानें, जो भी उनके संबंध में फैली अनेक निराधार विश्वासों और कल्पित बातों जितनी ही रोचक हैं।

सांप उत्तेजित करनेवाले और डरावने प्राणी होते हैं। सांपों के प्रति हमारी प्रतिक्रिया कभी भी उदासीनतापूर्ण नहीं होती, बल्कि उनके विषय में हम और अधिक जानना चाहते हैं।

भारत में 200 प्रकार के सांप पाए जाते हैं, जबकि विश्वभर में 2,500 प्रकार के सांप हैं। भारत में लगभग 50 प्रकार के विषैले सांप हैं, परंतु ये शायद ही कभी मनुष्य के संपर्क में आते हैं क्योंकि ये ऐसे स्थानों में बसते हैं जहां जनसंख्या बहुत कम होती है। अनेक विषैले सांप मनुष्य के लिए घातक नहीं होते, क्योंकि उनके जहर में केवल चूहे, मेंढ़क आदि छोटे जीवों को मारने की क्षमता ही होती है।

हमें चिंतित करनेवाले केवल चार सांप हैं--नाग, करैत, फुर्सा और दबोइया--जो बड़े खतरनाक हैं और मानव बस्तियों के आसपास पाए जाते हैं। गनीमत है कि इन चार मुख्य सांपों का प्रत्येक दंश घातक नही होता। दंश की तीव्रता दंशित व्यक्ति के स्वास्थ्य, उसके शरीर के आकार और शरीर में गए विष की मात्रा आदि पर निर्भर करती है।

सर्पदंश के संबंध में जो रहस्यमयता तथा अधूरी और गलत जानकारी प्रवर्तमान है, उसके परिणामस्वरूप वह एक भयानक और कल्पनातीत घटना बन जाता है। याद रखने योग्य बात यह है कि विषैले सांप के दंश का एकमात्र इलाज प्रतिविष सीरम है जो अस्पतालों में उपलब्ध रहता है। विषैले सांप के दंश से बचने के लिए जो व्यक्ति मंत्रों और जड़ी-बूटियों की शरण में जाता है वह मृत्यु को वरण करता है।

सांपों के विषय में अनेक किंवदंतियां प्रचलित हैं। सबसे अधिक प्रचलित किंवदंति यह है कि सांप बदला लेते हैं। लोग मानते हैं कि यदि आप किसी सांप को मार डालेंगे तो उसकी मादा आपको अवश्य काटेगी। यह सच नहीं है। बदला लेने की भावना सिर्फ मनुष्य में पाई जाती है।

सपेरे ने अपनी बीन को लेकर एक और किंवदंती गढ़ रखी है। तमाशाबीन सोचते हैं कि सांप सपेरे की बीन के स्वरों पर थिरकता है। लेकिन सांप के तो कान ही नहीं होते और वे सुन ही नहीं सकते। नाग का डोलना बीन की गति के प्रति उसकी प्रतिक्रिया है, आवाज के प्रति नहीं।

प्रचलित विश्वास के विपरीत नाग के सिर पर कोई मणि नहीं होता। यदि होता तो सपेरे कंगाल क्यों होते, वे राजा-महाराजा के समान धनवान न हो गए होते?

सांपों को लेकर और भी अनेक किंवदंतियां बढ़ा-चढ़ाकर कही गई हैं, जिनका कोई आधार नहीं। कदाचित सांप विश्व में सर्वाधिक गलत समझे जानेवाले प्राणी हैं। सच तो यह है कि सांप मनुष्यों के सच्चे मित्र हैं जो प्रतिवर्ष अनाज का लगभग 20 प्रतिशत नष्ट करनेवाले और प्लेग जैसी भयंकर बीमारियां फैलानेवाले चूहों को खाकर हमारा बड़ा उपकार करते हैं।

कुदरती तटरक्षक मैंग्रोव वन

आज 26 जुलाई है, विश्व मैंग्रोव एक्शन दिवस। इस दिन दुनिया भर में बहुमूल्य मैंग्रोव वनों की रक्षा करने के लिए और उनकी उपयोगिता के बारे में जागरूकता लाने के लिए प्रयास किए जाते हैं। आइए हम भी इन कुदरती तटरक्षकों के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त करें।



महाद्वीपों के किनारे समुद्रों की लहरों के प्रचंड थपेड़ों से निरंतर टूटते-बिखरते रहते हैं। इन्हीं किनारों पर अनेक बड़ी-बड़ी नदियां समुद्र-समाधि लेती हैं। इसलिए वहां खारे और मीठे पानी का अद्भुत संगम होता है। इन विशिष्ट प्रकार के जलों में एक अनोखी वनस्पति उगती है, जिसे मैंग्रोव अथवा कच्छ वनस्पति कहते हैं। बंगलादेश और पश्चिम बंगाल के दक्षिणी भागों में स्थित सुंदरबन इस प्रकार की वनस्पति का अच्छा उदाहरण है। वस्तुतः इस प्रदेश का नाम सुंदरबन इसलिए पड़ा है क्योंकि वहां सुंदरी नामक कच्छ वनस्पति के वन पाए जाते हैं।

मैंग्रोव वन पृथ्वी के गरम जलवायु वाले प्रदेशों में ही मिलते हैं। उनके पनपने के लिए कुछ मूलभूत परिस्थितियों का होना अत्यंत आवश्यक है, जैसे जल का निरंतर प्रवाह, मिट्टी में आक्सीजन कम मात्रा में होना, और सर्दियों में औसत तापमान 16 डिग्री से अधिक रहना। इस सदी के पहले वर्षों में जितने मैंग्रोव वन थे, आज उनका 60 प्रतिशत नष्ट हो चुका है। फिर भी पृथ्वी पर इस प्रकार के जंगलों का विस्तार 1 लाख वर्ग किलोमीटर है। मैंग्रोव वन मुख्य रूप से ब्राजील (25,000 वर्ग किलोमीटर पर), इंडोनीशिया (21,000 वर्ग किलोमीटर पर) और आस्ट्रेलिया (11,000 वर्ग किलोमीटर पर) में हैं। केवल ब्राजील में विश्वभर में पाए जाने वाले मैंग्रोव वनों का लगभग आधा मौजूद है। भारत में 6,740 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर इस प्रकार के वन फैले हुए हैं। यह विश्व भर में मौजूद मैंग्रोव वनों का 7 प्रतिशत है। इन वनों में 50 से भी अधिक जातियों के मैंग्रोव पौधे पाए जाते हैं। भारत के मैंग्रोव वनों का 82 प्रतिशत देश के पश्चिमी भागों में पाया जाता है।

मैंग्रोव वृक्षों के बीजों का अंकुरण एवं विकास मातृ-वृक्ष के ऊपर ही होता है। जब समुद्र में ज्वार आता है और पानी जमीन की ओर फैलता है, तब कुछ अंकुरित बीज पानी के बहाव से टूटकर मातृ-वृक्ष से अलग हो जाते हैं और पानी के साथ बहने लगते हैं। ज्वार के उतरने पर ये जमीन पर यहां-वहां बैठ जाते हैं और जड़ें निकालकर वहीं जम जाते हैं। मैंग्रोव वनों का विस्तार इसी प्रक्रिया से होता है। इसी कारण उन्हें जरायुज कहा जाता है, यानी सजीव संतानों को उत्पन्न करने वाला। जरायुज प्राणियों के बच्चे माता के गर्भ में से जीवित पैदा होते हैं।

चूंकि ये पौधे अधिकतर क्षारीय पानी से ही काम चलाते हैं, इसलिए उनके लिए यह आवश्यक होता है कि इस पानी में मौजूद क्षार उनके शरीर में एकत्र न होने लगे। इन वृक्षों की जड़ों और पत्तियों पर खास तरह की क्षार ग्रंथियां होती हैं, जिनसे क्षार निरंतर तरल रूप में चूता रहता है। बारिश का पानी इस क्षार को बहा ले जाता है। इन पेड़ों की एक अन्य विशेषता उनकी श्वसन जड़ें हैं। सागरतट के पानी पर काई, शैवाल आदि की मोटी परत होती है, जिससे पानी में बहुत कम ऑक्सीजन होती है। इसलिए इन पेड़ों की जड़ों को पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिल पाता। इस समस्या से निपटने के लिए उनमें विशिष्ट प्रकार की जड़ें होती हैं, जो सामान्य जड़ों के विपरीत ऊपर की ओर जमीन फोड़कर निकलती हैं। ये जड़ें अपने चारों ओर की हवा से आक्सीजन सोखकर उसे नीचे की जड़ों को पहुंचाती हैं। इन जड़ों को श्वसन जड़ कहा जाता है। उनका एक दूसरा काम वृक्ष को टेक देना भी है।

मैंग्रोव वृक्षों की जड़ें अंदर से खोखली होने के कारण जल्दी सड़ जाती हैं। वृक्ष के नीचे पत्तों का कचरा भी बहुत इकट्ठा हो जाता है। मैंग्रोव वनों की भूमि में हर साल 8-10 टन जैविक कचरा प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में बन जाता है। उन्हें सब मैंग्रोव वनों के वृक्षों की जड़ें बांधे रखती हैं। इस कारण जहां मैंग्रोव वन होते हैं, वहां तट धीरे-धीरे समुद्र की ओर बढ़ने लगता है। यह कृत्रिम तट पीछे की जमीन को समुद्र के क्षरण से बचाता है। लेकिन यह सब क्षेत्र अत्यंत नाजुक होता है और मैंग्रोव वृक्षों के काटे जाने पर बहुत जल्द बिखर जाता है। मैंग्रोव क्षेत्र के विनाश के बाद उनके पीछे की जमीन भी समुद्र के क्षरण का शिकार हो जाती है।

मैंग्रोव क्षेत्र का एक अन्य उपयोग यह है कि वह अनेक प्रकार के प्राणियों को आश्रय प्रदान करता है। चिरकाल से मछुआरे इन समुद्री जीवों को पकड़कर आजीविका कमाते आ रहे हैं। मैंग्रोवों से पीट नामक ज्वलनशील पदार्थ भी प्राप्त होता है, जो कोयला जैसा होता है। मैंग्रोव टेनिन, औषधीय महत्व की वस्तुओं आदि का भी अक्षय स्रोत है। आजकल इन जंगलों से कागज के कारखानों, जहाज-निर्माण, फर्नीचर निर्माण आदि के लिए लकड़ी प्राप्त की जाने लगी है। खेती योग्य जमीन तैयार करने के लिए भी मैंग्रोव वनों को साफ किया जा रहा है। मैंग्रोव वृक्षों के पत्ते चारे के रूप में भी काम आते हैं। इन वनों में शहद का उत्पादन भी हो सकता है। जलावन की लकड़ी भी प्राप्त हो सकती है। लकड़ी का कोयला बनाने वाले उद्योग भी मैंग्रोव वनों का दोहन करते हैं।

आजकल मैंग्रोव वनों के सामने अनेक खतरे मंडरा रहे हैं। विदेशी मुद्रा कमाने का एक सरल जरिया झींगा आदि समुद्री जीवों को कृत्रिम जलाशयों में पैदा करके उन्हें निर्यात करना है। आज तटीय इलाकों में जगह-जगह इन जीवों के लिए जल-खेती (एक्वाकल्चर) होने लगी है। इसके दौरान जो प्रदूषक पदार्थ निकलते हैं, वे मैंग्रोवों को बहुत नुकसान करते हैं। मोटरीकृत नावों से मछली पकड़ने की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण भी मैंग्रोव नष्ट हो रहे हैं। पर्यटन भी मैंग्रोव के नाजुक पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहा है। पृथ्वी के तापमान में वृद्धि के कारण इस सदी में ही सागर तल 10-15 सेंटीमीटर ऊपर उठ आया है। इससे पानी के प्रवाह, क्षारीयता, तापमान आदि में जो परिवर्तन आया है वह मैंग्रोव वृक्षों की वृद्धि पर प्रतिकूल असर डाल सकता है। औद्योगिक प्रदूषण भी उन्हें नष्ट कर रहा है। आज गुजरात का तटीय इलाका, जहां सबसे अधिक मैंग्रोव वन हैं, तेजी से उद्योगीकृत हो रहा है। वहां कई सिमेंट कारखाने, तेल शोधक कारखाने, पुराने जहाजों को तोड़ने की इकाइयां, नमक बनाने की इकाइयां, आदि उठ खड़े हो गए हैं। इनके आसपास अच्छी खासी बस्ती भी आ गई है, जो अपनी ईंधन-जरूरतें मैंग्रोवों को काट कर पूरा करती हैं। इन सब गतिविधियों से मैंग्रोव धीरे-धीरे मिटते जा रहे हैं। इन विशिष्ट प्रकार के वनों को विनाश से बचाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए, क्योंकि उनके अनेक पारिस्थितिकीय उपयोग हैं। उनका आर्थिक मूल्य भी कुछ कम नहीं है।

Friday, July 24, 2009

सड़कों पर दौड़ते वाहनों से बिजली-निर्माण

कर्णाटक के कुछ उद्यमियों ने सड़कों पर दौड़ते वाहनों से बिजली पैदा करने की विधि विकसित की है।

वी. रवि और उसके साझेदारों ने साराक्की गांव में काम करते हुए एक ऐसा उपकरण बनाया है जिसे सड़कों के नीचे लगा देने से वह सड़क के ऊपर से गुजरनेवाले वाहनों के पहियों और सड़क के बीच घर्षण से पैदा हुई ऊर्जा को बिजली में बदल देता है। यदि किसी बड़े शहर की आम सड़क पर उनके बनाए 10 उपकरण लगाए जाएं तो एक मेगावाट बिजली पैदा की जा सकती है।

इस उपकरण को बढ़ावा देने के लिए उसके आविष्कारकों ने जगन्नाथ पवर रिसर्च एंड इंजिनीयरिंग नामक कंपनी भी शुरू की है। उनके अनुसार नमूने के तौर पर उन्होंने जो उपकरण बनाया है, उससे 100 हार्सपवर शक्ति पैदा की जा सकती है। उसे अधिक विकसित करने के लिए 160,000 वर्ग फुट की जमीन चाहिए, जो उनके पास फिलहाल नहीं है। इस परियोजना के एक अन्य साझेदार डी. सी. श्रीधर कहते हैं कि उन्होंने इसमें 4 लाख रुपया खर्च किया है। इससे अधिक पैसा उनके पास नहीं है।

उन्होंने कर्णाटक के मुख्यमंत्री से वित्तीय सहायता के लिए संपर्क किया है। मुख्यमंत्री ने उनके प्रस्ताव को कर्णाटक पवर कोर्पोरेशन के अध्यक्ष को भेज दिया है। अध्यक्ष ने इन उद्यमियों को प्रोत्साहित किया है, पर उन्होंने अभी वित्तीय समर्थन का आश्वासन नहीं दिया है।

रवि कहते हैं कि उन्हें सिलाई मशीन को काम करते हुए देखकर इस उपकरण का विचार आया। सिलाई मशीन के पेड़ल की धीमी चाल सुई तक पहुंचते-पहुंचते काफी गति पकड़ लेती है। इसी प्रकार उनका उपकरण वाहनों के पहियों के धीमे घूर्णन को एक अत्यंत तेज घूर्णन (5000 बार प्रति मिनट) में बदल देता है। इतने तेज घूर्णन को चुंबकीय बल से घेर देने से बिजली पैदा होती है। रवि अपने आविष्कार को धीरे-धीरे विकसित करने का इरादा रखते हैं। 5 हार्सपवर से शुरू करके वे उसकी क्षमता 100 हॉर्सपवर तक बढ़ाएंगे। उन्होंने अपना उपकरण फिलहाल श्रीनिवास नामक व्यक्ति के क्वालिटी इंजीनियरिंग नामक कारखाने में लगाया है।

Thursday, July 23, 2009

प्लास्टिक -- कचरा भी संसाधन भी

आधुनिक समाज प्लास्टिक पर उत्तरोत्तर निर्भर होता जा रहा है। पिछले वर्ष भारत में 29 लाख टन प्लास्टिक बना था। इसमें से लगभग 15 लाख टन प्लास्टिक को कचरे के रूप में फेंक दिया गया। साल-दर-साल यही प्रक्रिया दुहराई जाती है। नगरपालिकाओं द्वारा एकत्र किए गए शहरी कचरे में 4 प्रतिशत प्लास्टिक होता है। चूंकि प्लास्टिक कुदरती प्रक्रियाओं से नष्ट नहीं होता और उसे जलाने पर जहरीला धुंआ निकलता है, प्लास्टिक कचरे की समस्या एक दुस्साध्य रूप धारण करती जा रही है। गनीमत यही है कि अधिकांश प्लास्टिक का पुनश्चक्रण हो सकता है।

भारत में हर साल लगभग 7.5 लाख टन प्लास्टिक का पुनश्चक्रण होता है। इस व्यवसाय का मूल्य 25 अरब रुपए है और वह एक वर्धमान उद्योग है। एक औसत मध्यवर्गीय भारतीय नागरिक साल भर में लगभग 3 किलो प्लास्टिक का उपयोग करता है। इस दर से हर साल 30-40 लाख टन प्लास्टिक इस देश में पैदा होता है। इसमें से 20 लाख टन पुनश्चक्रण के लिए उपलब्ध होता है।

भारत में प्लास्टिक का पुनश्चक्रण करनेवाली 20,000 से भी ज्यादा इकाइयां हैं। दिल्ली का नंद नगरी मुहल्ला प्लास्टिक के पुनश्चक्रण की दृष्टि से एशिया का सबसे ब़ड़ा केंद्र है। यहां रोजाना 1,000 टन प्लास्टिक का पुनश्चक्रण होता है।

प्लास्टिक के संग्रह कार्य में भारत में लगभग 10 लाख निम्नवर्गीय व्यक्ति लगे हुए हैं। कागज जैसे अन्य कचरे की तुलना में प्लास्टिक का पुनश्चक्रण तीन गुना अधिक मुनाफेदार है। पोलिस्टेरीन कप जैसे कुछ तरह की प्लास्टिक वस्तुओं का पुनश्चक्रण पांच गुना मुनाफेदार है।

परंतु यह व्यवसाय सुसंगठित ढंग से नहीं चलता है, जिससे प्लास्टिक एकत्र करनेवाले लाखों व्यक्तियों को अनेक स्वास्थ्य संबंधी जोखिम उठाने पड़ते हैं और उन्हें उनके श्रम का पूरा मुआवजा भी नहीं मिल पाता। शायद इसी वजह से आज भारत में निर्मित कुल प्लास्टिक के लगभग आधे का ही पुनश्चक्रण के लिए संग्रह हो पाता है।

पर्यावरण और वन मंत्रालय ने देश में प्लास्टिक कचरे के उचित प्रबंध के लिए नीतियां सुझाने के लिए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के नेतृत्व में एक राष्ट्रीय प्लास्टिक कचरा प्रबंध टास्क फोर्स गठित किया है।

Wednesday, July 22, 2009

साइकिलों की राजधानी

डेनमार्क को उचित ही साइकिलों की राजधानी कहा जाता है। इस देश की आबादी 1.5 करोड़ है और वहां 1.8 करोड़ साइकिलें हैं, यानी लगभग सभी के पास एक साइकिल तो है ही, कुछ लोगों के पास दो-दो साइकिलें भी हैं। डेनमार्क में साइकिल चालकों के विशेष उपयोग के लिए बनी सड़कों की कुल लंबाई 17,000 किलोमीटर है।

यदि आप डेनमार्क के किसी निवासी से उसकी साइकिल छीन लें, तो उसे लगेगा कि आपने उसके हाथ ही काट दिए हैं। डेनमार्का में साइकिल महज एक वाहन नहीं है, वह एक पूरी दिनचर्या है। वहां के लोग दफ्तर जाने, खरीदारी करने या यों ही मजे के लिए साइकिल का उपयोग करते हैं।

वहां की यातायात का अहम हिस्सा साइकिलें ही होती हैं। सड़कों में साइकिल के लिए विशेष पथ होते हैं और साइकिल चालकों की सुविधा के लिए विशेष यातायात नियम बनाए गए हैं। सड़क किनारे उनके लिए दिशा चिह्न भी लगे हैं।

यदि आप डेनमार्क जाएं, तो आप साइकिल किराए पर लेकर देश भर में घूम सकते हैं। आपको डेनमार्क का नक्शा भी दिया जाएगा, जिसमें डेनमार्क के सभी मुख्य साइकिल मार्गों का विवरण रहता है।

Sunday, July 19, 2009

पवन शक्ति : भविष्य का प्रमुख ऊर्जा स्रोत

पवन शक्ति आज विश्व का सबसे तेजी से बढ़ता ऊर्जा स्रोत है। 1995 में विश्व भर में 4,900 मेगावाट बिजली हवा के बहाव से बनाई गई। 1994 में 3,700 मेगावाट बिजली इस स्रोत से बनाई गई थी। 1990 से 1995 के दौरान 20 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से पवन शक्ति से बिजली बनाने की अतिरिक्त क्षमता पैदा की गई। इसकी तुलना में परमाणविक ऊर्जा उत्पादन में 1 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से वृद्धि हुई। विश्व भर में कोयले के उपयोग में पिछले दशक में बिलकुल वृद्धि नहीं हुई है।

पवन शक्ति से बिजली निर्माण 1980 में डेनमार्क में सर्वप्रथम आरंभ हुआ जहां उसे सरकार से काफी संरक्षण प्राप्त हुआ। यद्यपि आज विश्व में पैदा की गई कुल बिजली के केवल 1 प्रतिशत के लिए पवन शक्ति जिम्मेदार है, लेकिन आनेवाले दिनों में पवन शक्ति अनेक देशों के लिए ऊर्जा का एक महत्वपूर्ण स्रोत होगा। इसका मुख्य कारण यह है कि पर्यावरणीय दृष्टि से पवन शक्ति एकदम साफ-सुथरा है। आजकल कोयला जलाकर अधिकांश बिजली बनाई जाती है, जिससे वायु प्रदूषण और अम्ल वर्षा की समस्याएं पैदा हो गई हैं। पवन शक्ति इन समस्याओं से मुक्त है। न ही वह कार्बन डाइऑक्साइड पैदा करता है, जो हरितगृह प्रभाव लाकर पृथ्वी की जलवायु को ही बदल सकता है।

वायु की औसत रफ्तार 6 मीटर प्रति सेकेंड (लगभग 22 किलोमीटर प्रति घंटा) रहने पर एक किलोवाट-घंटा बिजली की लागत 1.75-2.50 रुपए होती है, जो कोयले से चलनेवाले बिजलीघरों की बिजली से कुछ सस्ती है। पवन चक्कियों की बनावट में सुधार लाकर इस लागत में और कमी लाई जा सकती है। लागत कम करने की दृष्टि से आज बड़े-से-बड़े संयंत्र बनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए जर्मनी में 1992 में पवन चक्कियों की औसत क्षमता 180 किलोवाट थी। 1995 तक वह बढ़कर 450 किलोवाट हो गई। जल्द ही 1000-1500 किलोवाट क्षमता वाली चक्कियां बाजार में आने लगेंगी। इनके पंखों का फैलाव 65 मीटर या उससे भी अधिक होगा।

भारत में लगभग 3,000 पवन चक्कियां हैं जो सब 1990 के बाद लगाई गई हैं। सरकारी स्रोतों के अनुसार 1 अप्रैल 1996 तक 730 मेगावाट बिजली पवन शक्ति से पैदा करने की क्षमता स्थापित की जा चुकी है। 1995 में भारत ने पिछले वर्ष की तुलना में 375 मेगावाट अधिक ऊर्जा पवनशक्ति से बनाई। आज भारत उच्च स्तर की पवन चक्कियां बनाने लगा है। देश में 20 से अधिक कंपनियां इस व्यवसाय में लगी हैं। तमिलनाडु इस मामले में सबसे आगे है। यहां सैंकड़ों लोग इस नवीन उद्योग से रोजगार पा रहे हैं।

Saturday, July 18, 2009

इंडोनीशिया को घटाना पड़ा चावल की खेती में कीटनाशकों का उपयोग

चावल उगाने वाले देशों में इंडोनीशिया प्रमुख है। पिछले कई सदियों से यह देश चावल के मामले में आत्म-निर्भर था। पिछले कुछ दशाब्दियों से इंडोनीशिया की आबादी तेजी से बढ़ने लगी है और बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए उसने पारंपरिक खेती को त्याग कर उर्वरकों, कीटनाशकों और सिंचाई जल पर आधारित सघन खेती को अपनाया है।

कुछ वर्षों के लिए तो इसके परिणाम आशाजनक निकले। उत्पादन कई गुना बढ़ गया और लोग मानने लगे कि सघन खेती हमेशा के लिए सफल होती रहेगी। यह मात्र भुलावा साबित हुआ।

1960 में इंडोनीशिया को बाहर के देशों से चावल आयात करना पड़ा। इंडोनीशिया सरकार ने चावल के उत्पादन को बढ़ाने के लिए अनेक कदम उठाए। सर्वप्रथम साल में एक से अधिक फसल निकालने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया गया। इसके लिए सिंचाई आवश्यक प्रतीत हुई और अनेक बांध बनाए गए।

पहले किसान अपने खेतों में चावल के अलावा भी अन्य फसलें बोते थे। परंतु देश में जब चावल की किल्लत महसूस की गई तो उन्हें साल में तीन-चार बार चावल की फसल निकालने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि चावल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को सुवर्ण अवसर मिल गया। चावल की फसल यदि इन कीटों से संपूर्ण रूप से नष्ट न हुई तो इसका कारण था चावल की परंपरागत नस्लों में इन कीटों से बचने की नैसर्गिक शक्ति का होना।

परंतु यह सहारा भी जल्द जाता रहा। फिलिपाइन की अंतरराष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्था के वैज्ञानिकों ने धान की एक ऐसी नस्ल विकसित की जो उर्वरकों को अधिक सहन कर सकती थी। इसके कारण वह अधिक चावल दे सकती थी। यह नस्ल साल के बारहों महीने बढ़ सकती थी। आईआर 8 के नाम से जानी जाने वाली इस नस्ल को बहुत जल्द इंडोनीशिया सहित संपूर्ण दक्षिण एशिया में उगाया जाने लगा। परंतु आइआर 8 में चावल को नुकसान करने वाले कीटों के आक्रमण को सहन करने की शक्ति परंपरागत नस्लों से बहुत कम थी।

परिणाम भयंकर सिद्ध हुआ। फसलों को इन कीटों से बचाने के लिए कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग आवश्यक हुआ। परंतु इससे भी पर्याप्त सफलता प्राप्त न हो सकी। कीटनाशकों से कुछ सीमा तक कीट मर जाते थे, परंतु संपूर्ण रूप से नष्ट नहीं होते थे। कीटों को पूर्णतः नष्ट करने के लिए किसान कीटनाशकों का अधिक से अधिक उपयोग करने लगे। दिन में दो-दो बार दवाई छिड़कने लगे, परंतु परिणाम संतोषजनक नहीं निकला।

इस चिंताजनक स्थिति का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों को इसका कारण बहुत जल्द स्पष्ट हो गया। कीटनाशक चावल के पौधों को नुकसान पहुंचानेवाले कीटों को ही नहीं मारते थे, परंतु मकड़ी आदि उन जीवों को भी, जो चावल के पौधों को खानेवाले कीटों के प्राकृतिक शत्रु होते थे।

अब कृषि वैज्ञानिकों ने चावल की कृषि के लिए नई रणनीति अपनाई है। सबसे पहले तो उन्होंने किसानों को अपने खेतों में साल भर केवल चावल की फसलें बोने से मना किया है। इसके स्थान पर उन्हें चावल की एक फसल के बाद किसी अन्य फसल बोने की सलाह दी है। इससे चावल के कीटों पर कुछ हद तक नियंत्रण मिला है।

इसके बाद कीटनाशकों के अनियंत्रित छिड़काव पर रोक लगा दी गई है। बहुत से कीटनाशकों का उपयोग देशभर में निषिद्ध कर दिया है। ऐसे कीटनाशक चावल के कीटों के साथ-साथ उनके शत्रुओं को भी मार डालते थे। केवल नौ प्रकार के कीटनाशकों के उपयोग की अनुमति दी गई है। इन्हें भी इस ढंग से छिड़का जाता है जिससे चावल के कीट तो मरें, परंतु मकड़ी आदि जीव नष्ट न हों।

लाखों वैज्ञानिकों और कार्यकर्ता देश के कोने-कोने में फैलकर लोगों को इस नई तकनीक के लाभों को समझाने में व्यस्त हैं। स्वयं राष्ट्रपति ने राष्ट्र को संबोधित करके कीटनाशकों के दुरुपयोग पर नियंत्रण लगाया।

इन सब कदमों का फायदा कुछ ही दिनों में स्पष्ट होने लगा। चावल का उत्पादन फिर बढ़ने लगा। कीटों का उपद्रव कम हुआ। चावल की खेती की यह नई विधि अन्य फसलों के लिए भी उतनी ही अनुकूल है क्योंकि यह विधि प्रकृति के संतुलन को बिगाड़े बगैर प्रकृति के साथ तालमेल बनाए रखते हुए फसलों को नुक्सान करनेवाले जीवों पर नियंत्रण पाती है।

कुदरतनामा हिंदुस्तान में

कुदरतनामा के पाठक प्रभात मिश्रा ने जानकारी दी है कि कुदरतनामा ब्लोग का उल्लेख हिंदुस्तान अखबार के ब्लोग वर्ता स्तंभ में हुआ है। इस स्तंभ के लेखक हैं रवीश कुमार

कतरन संलग्न है।

Friday, July 17, 2009

अंटार्क्टिका -- दुनिया का सबसे ठंडा महाद्वीप

सातों महाद्वीपों में से सबसे ठंडा महाद्वीप अंटार्क्टिका महाद्वीप है। वह सबसे दुर्गम तथा मानव-बस्तियों से सबसे दूर स्थित जगह भी है। वह साल के लगभग सभी महीनों में दुनिया के सबसे अधिक तूफानी समुद्रों और बर्फ के बड़े-बड़े तैरते पहाड़ों से घिरा रहता है। उसका कुल क्षेत्रफल 1.4 करोड़ वर्ग किलोमीटर है। क्षेत्रफल की दृष्टि से वह आस्ट्रेलिया से बड़ा है। अंटार्क्टिका में बहुत कम बारिश होती है, इसलिए उसे ठंडा रेगिस्तान माना जाता है। वहां की औसत वार्षिक वृष्टि मात्र 200 मिलीमीटर है।

सन 1774 में अंग्रेज अन्वेषक जेम्स कुक अंटार्क्टिक वृत्त के दक्षिण में किसी भूभाग की खोज में निकल पड़ा। उसे बर्फ की एक विशाल दीवार मिली। उसने अनुमान लगाया कि इस दीवार के आगे जमीन होगी। उसका अनुमान सही था, वह अंटार्क्टिक की दहलीज तक पहुंच गया था। पर स्वयं अंटार्क्टिका पर पैर रखने के लिए मनुष्य को 75 साल और लगे।

आर्क्टिक (उत्तरी ध्रुव) और अंटार्क्टिका (दक्षिणी ध्रुव) में काफी अंतर है। सबसे महत्वपूर्ण अंतर यह है कि अंटार्क्टिका में आर्क्टिक से छह गुणा अधिक बर्फ है। यह इसलिए क्योंकि अंटार्क्टिका एक महाद्वीप है, जबकि आर्क्टिक क्षेत्र मुख्यतः एक महासागर है। अंटार्क्टिका की बर्फ की औसत मोटाई 1.6 किलोमीटर है। अंटार्क्टिका महाद्वीप का अधिकांश भाग पर्वतों के उभरे हुए कंधों और चोटियों से बना हुआ है।

अंटार्क्टिका का मौसम बिरले ही पाले और बर्फीली हवाओं से मुक्त रहता है। इस महाद्वीप में शायद मात्र 2,000 वर्ग किलोमीटर खुली जमीन है। साल में केवल 20 ही दिन तापमान शून्य से ऊपर रहता है। पृथ्वी की सतह पर मापा गया सबसे कम तापमान भी अंटार्क्टिका में ही मापा गया है। सोवियत रूस द्वारा स्थापित वोस्टोक नामक शोधशाला में 24 अगस्त 1960 को तापमान -88.3 डिग्री सेल्सियस मापा गया।

अंटार्क्टिका के बारे में सही ही कहा गया है कि वह पवनों की राजधानी है। कभी-कभी 320 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार वाली हवाएं चल पड़ती हैं, जो जमीन से मिट्टी के कणों को काट कर उड़ा ले जाती हैं।

पूरे अंटार्क्टिका महाद्वीप में मात्र 70 प्रकार की जीवधारियां खोजी गई हैं। इनमें से 44 कीड़े-मकोड़े हैं। सबसे बड़ा कीड़ा एक प्रकार का पंखहीन मच्छर है। जोंख, खटमल, मक्खी, जुए आदि भी वहां काफी संख्या में पाए जाते हैं। अंटार्क्टिका में कोई स्थलीय स्तनधारी प्राणी नहीं है, पर बहुत से समुद्री स्तनधारी उसके तटों पर विश्राम करने आते हैं, या उसके आसपास के समुद्रों में आहार खोजते हैं। इनमें शामिल हैं कई प्रकार की ह्वेलें और दक्षिणी ध्रुव के आसपास रहनेवाले पांच प्रकार के सील -- केकड़ाभोजी सील, तेंदुआ सील, रोस सील, वेडेल सील और गजसील। रोस सील अत्यंत दुर्लभ प्राणी है, जबकि वेडेल सील तटों के नजदीक ही रहता है। सभी सीलों में बड़ा गजसील है। वह प्रजनन तो अंटार्क्टिका के निकट के द्वीपों में करता है, लेकिन अंटार्क्टिका के आसपास भोजन की तलाश करने आता है। अंटार्क्टिका के पास के समुद्रों में बिना दांतवाली ह्वेलें काफी मात्रा में पाई जाती हैं। उन्हें एक समय मांस, चर्बी आदि के लिए बड़े पैमाने पर मारा जाता था। आज उनके शिकार पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगा हुआ है। अंटार्क्टिका में पाए जानेवाले पक्षियों में शामिल हैं दक्षिण ध्रुवीय स्कुआ तथा अडेली और सम्राट पेंग्विन।

अंटार्क्टिका में शाकाहारी प्राणी अत्यंत दुर्लभ हैं, कारण कि वनस्पति के नाम पर वहां शैवाक (लाइकेन), काई आदि आदिम पौधों की कुछ जातियां और केवल दो प्रकार के फूलधारी पौधे ही हैं।

अंटार्क्टिका इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वहां अनेक प्रकार के वैज्ञानिक प्रयोग किए जा सकते हैं। वैज्ञानिकों ने वहां पृथ्वी की चुंबकीय विशेषताओं, मौसम, सागरीय हलचलों, जीवों पर सौर विकिरण के प्रभाव तथा भूगर्भविज्ञान से संबंधित अनेक प्रयोग किए हैं।

भारत सहित अनेक देशों ने अंटार्क्टिका में स्थायी वैज्ञानिक केंद्र स्थापित किए हैं। इन देशों में शामिल हैं चीन, ब्राजील, आर्जेन्टीना, कोरिया, पेरू, पोलेंड, उरूग्वे, इटली, स्वीडेन, अमरीका, रूस आदि।

भारत द्वारा स्थापित प्रथम पड़ाव का नाम था दक्षिण गंगोत्री। जब यह पड़ाव पानी के नीचे आ गया, तो मैत्री नामक दूसरा पड़ाव 1980 के दशक में स्थापित किया गया।

सदियों से अंटार्क्टिका प्रदूषण के खतरे से मुक्त था, पर अभी हाल में वैज्ञानिकों ने वहां की बर्फ में भी डीडीटी, प्लास्टिक, कागज आदि कचरे खोज निकाले हैं, जो वहां स्थापित वैज्ञानिक शिविरों से पैदा हुए हैं।

वैज्ञानिकों का मानना है कि अंटार्क्टिका में 900 से भी अधिक पदार्थों की महत्वपूर्ण खानें हैं। इनमें शामिल हैं सीसा, तांबा और युरेनियम।

अंटार्क्टिका पर अभी किसी देश का दावा नहीं है, न ही विभिन्न देशों के कुछ वैज्ञानिक शिविरों के सिवा वहां कोई मानव बस्तियां ही हैं। पर क्या यह स्थिति हमेशा ऐसी बनी रह पाएगी? जैसे-जैसे मानव आबादी बढ़ती जाएगी, अमरीका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया आदि महाद्वीपों के समान इसके उपनिवेशीकरण के लिए भी होड़ मच सकती है। यदि वहां किसी महत्वपूर्ण खनिज (जैसे, सोना, पेट्रोलियम, आदि) की बड़ी खानों का पता चले, तो भी उन पर अधिकार जमाने के लिए अनेक देश आगे आएंगे। पृथ्वी के गरमाने से अंटार्क्टिका की काफी बर्फ पिघल सकती है, जिससे वहां काफी क्षेत्र बर्फ से मुक्त हो सकता है और मनुष्य के रहने लायक बन सकता है। इससे भी अंटार्क्टिका में मनुष्यों का आना-जाना और बसना बढ़ सकता है। पर्यटन भी इसमें योगदान कर सकता है। जैसे-जैसे प्रौद्योगिकीय विकास होगा, ऐसे उपकरण उपबल्ध होने लगेंगे जो अंटार्क्टिका जैसे अत्यंत ठंडवाले इलाकों में भी सामान्य जीवन बिताने को सुगम बनाए।

इसलिए 17वीं 18वीं सदी में श्वेत जातियों द्वारा अफ्रीका, द. अमरीका आदि में जो लूट-खसोट और विनाश लीला मचाई थी, उससे इस अनोखे परिवेश को बचाने और इस महाद्वीप के अधिक संतुलित और समस्त मानव-जाति के हित में उपयोग को बढ़ावा देने के लिए 1959 में 12 देशों ने अंटार्क्टिका संधि में हस्ताक्षर करके इस महाद्वीप को सैनिक गतिविधियों और खनन से मुक्त रखने का निर्णय लिया। अब इस संधि में 46 देशों ने हस्ताक्षर कर दिए हैं, जिसमें भारत भी शामिल है।

Thursday, July 16, 2009

हवा में घुली मौत

कुछ जहरीले पदार्थों के असुरक्षित समझी जानेवाली मात्रा में और काफी समय तक हवा में विद्यमान रहने को वायु प्रदूषण कहते हैं। ये पदार्थ मनुष्य, अन्य जीव-जंतु, भवन, फसल, पेड़-पौधे और पर्यावरण को नुक्सानकारक होते हैं। शहरी परिवेश में आम तौर पर पाए जाने वाले वायु प्रदूषकों में शामिल हैं सल्फर डाइआक्साइड, नाइट्रोजन के आक्साइड, कार्बन मोनोआक्साइड, ओजोन, सीसा, धूल आदि।

हर दिन हम लगभग 22,000 बार सांस लेकर हवा से 15-16 किलो आक्सीजन सोखते हैं। लेकिन इस जीवनदायिनी हवा में इन प्रदूषकों के भी घुले रहने से सांस के साथ हम उन्हें भी सोखते जा रहे हैं। ये जहरीले पदार्थ अब पानी, भोजन और त्वचा के जरिए भी शरीर में घुसने लगे हैं।

वायु प्रदूषण का मुख्य कारण अनियंत्रित औद्योगिकीकरण और शहरों का फैलना है। उद्योगों के बेतहाशा बढ़ने से ऊर्जा की मांग भी बहुत बढ़ गई है। ऊर्जा निर्माण के दौरान वायु को प्रदूषित करने वाले तत्वों का उत्सर्जन होता है। हमारे देश में अधिकांश बिजली का निर्माण तापबिजली घरों में होता है जिनमें कोयला जलाया जाता है। कोयला जलाने पर सल्फर डाइआक्साइड, राख तथा अनेक अन्य प्रदूषक तत्व हवा में पहुंते हैं। स्वयं उद्योगों के अपने उत्सर्जनों में भी अनेक प्रकार के जहरीले तत्व होते हैं। औद्योगिकीकरण से जुड़ी है यातायात के साधनों का विस्तार। आज सभी शहरों में पेट्रोल और डीजल के वाहनों का भीड़-भड़ाका हो गया है। इन वाहनों के उत्सर्जन में कार्बन डाइआक्साइड, कार्बन मोनोआक्साइड, सीसा आदि अनेक खतरनाक पदार्थ होते हैं। हमारे देश के अधिकांश वाहन पुराने और बिगड़े हुए हैं और उनसे बहुत अधिक धुंआ निकलता है। घरों में कोयला, गोबर, लकड़ी, आदि जलाने से और रिहायशी मोहल्लों में कचरा, टायर-ट्यूब आदि को जलाने से भी वायु प्रदूषण बढ़ता है।

अनेक प्रकार के वायु प्रदूषक श्वसन तंत्र, हृदय आदि को हानि पहुंचाते हैं। सल्फर डाइआक्साइड, नाइट्रोजन के आक्साइड, ओजोन और निलंबित पदार्थ फेफड़ों को कमजोर कर देते हैं और अनेक प्रकार की श्वसन संबंधी बीमारियों के लिए जमीन तैयार करते हैं। ओजोन आंख, नाक और गले में जलन, सिरदर्द आदि का कारण बनती है। वह हृदय एवं मष्तिष्क की गड़बड़ियों को भी जन्म देती है। वह पेड़-पौधों को भी नुकसानन पहुंचाती है। ओजोन मुख्यतः वाहनों के उत्सर्जन में पाई जाती है। वह प्रकाश-रसायनिक (फोटोकेमिकल) स्मोग भी लाती है।

वाहनों, चूल्हों आदि में ईंधन जलाने पर कार्बन मोनोआक्साइड गैस निकलती है। यह एक अत्यंत जहरीली गैस होती है, जो मृत्यु तक का कारण बन सकती है। यह गैस हमारे खून में मौजूद हीमोग्लोबिन नामक अंश को नाकाम कर देती है। हमारे फेफड़े इसी हीमोग्लोबिन की सहायता से हवा से आक्सीजन सोखते हैं। इस तरह कार्बन मोनोआक्साइड अधिक होने पर हम आवश्यक मात्रा में आक्सीजन नहीं सोख पाते। इससे हमारे मस्तिष्क, हृदय आदि को नुकसान पहुंच सकता है और मृत्यु भी हो सकती है।

आजकल के उद्योगों से तरह-तरह के विषैले रासायनिक उत्सर्जन होते हैं जो कैंसर आदि भयंकर बीमारियां ला सकते हैं। विदेशों में उद्योगों के उत्सर्जन पर कड़ा नियंत्रण होने से बहुत सी बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने पुराने और ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों को भारत जैसे विकासशील देशों में ले आई हैं। इन विकासशील देशों में प्रदूषण नियंत्रण कानून उतने सख्त नहीं होते या उतनी सख्ती से लागू नहीं किए जाते। इन कारखानों में सुरक्षा की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता। इनमें कम उन्नत प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल किया जाता है जो सस्ते तो होते हैं, परंतु संसाधन बहुत खाते हैं और प्रदूषण भी बहुत करते हैं। इन कारखानों की मशीनरी पुरानी होने, सुरक्षा की ओर ध्यान न दिए जाने या लापरवाही के कारण कई बार भयंकर दुर्घटनाएं होती हैं जिसके दौरान भारी परिमाण में विषैले पदार्थ हवा में घुल जाते हैं। इस तरह की घटनाओं का सबसे अधिक ज्वलंत उदाहरण भोपल में यूनियन कार्बाइड के कीटनाशक कारखाने में हुआ विस्फोट है। इस दुर्घटना में एमआईसी नामक अत्यंत घातक गैस कारखाने से छूटी थी और हजारों लोगों को मौत की नींद सुला गई। इस तरह की अनेक दुर्घटनाएं हमारे देश के औद्योगिक केंद्रों में आए दिन घटती रहती हैं। उनमें मरनेवालों की संख्या भोपाल के स्तर तक नहीं पहुंची है, लेकिन इससे वे कम घातक नहीं मानी जा सकतीं।

मानव स्वास्थ्य को पहुंचे नुकसान के अलावा भी वायु प्रदूषण के अनेक अन्य नकारात्मक पहलू होते हैं। नाइट्रोजन के आक्साइड और सल्फर डाइआक्साइड अम्ल वर्षा को जन्म देते हैं। अम्ल वर्षा मिट्टी, वन, झील-तालाब आदि के जीवतंत्र को नष्ट कर देती है और फसलों, कलाकृतियों (जैसे ताज महल), वनों, इमारतों, पुलों, मशीनों, वाहनों आदि पर बहुत बुरा असर छोड़ती है। वह रबड़ और नायलोन जैसे मजबूत पदार्थों को भी गला देती है।

वायु प्रदूषण राष्ट्रीय सीमाओं को नहीं मानता और एक देश का प्रदूषण दूसरे देश में कहर ढाता है। जब रूस के चेरनोबिल शहर में परमाणु बिजलीघर फटा था, तब उससे निकले रेडियोधर्मी प्रदूषक हवा के साथ बहकर यूरोप के अनेक देशों में फैल गए थे। लंदन के कारखानों का जहरीला धुंआ ब्रिटिश चैनल पार करके यूरोपीय देशों में अपना घातक प्रभाव डालता है। अमरीका का वायु प्रदूषण कानाडा में विध्वंस लाता है। इस तरह वायु प्रदूषण अंतरराष्ट्रीय तकरारों को भी जन्म दे सकता है।

भारत के दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता आदि बड़े शहरों में वायु प्रदूषण गंभीर रूप ग्रहण करता जा रहा है। नागपुर के राष्ट्रीय पर्यावरणीय अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (निएरी) के अनुसार इन शहरों में सल्फर डाइआक्साइड और निलंबित पदार्थों की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित अधिकतम सीमा से कहीं अधिक है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि वायु प्रदूषण फसलों को नुक्सान पहुंचाकर उनकी उत्पादकता को कम करने लगा है।

वायु प्रदूषण ओजोन परत को नष्ट करता है और हरितगृह प्रभाव को बढ़ावा देता है। इससे जो भूमंडलीय पर्यावरणीय समस्याएं सामने आती हैं, उनसे समस्त मानवजाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। हरितगृह प्रभाव वायुमंडल में ऐसी गैसों के जमाव को कहते हैं जो सूर्य की गरमी को पृथ्वी में आने तो देती हैं, परंतु पृथ्वी की गरमी को अंतरिक्ष में निकलने नहीं देतीं। इससे पृथ्वी में सूर्य की गरमी जमा होती जाती है और वायुमंडल गरम होने लगता है। इसके अनेक दुष्परिणाम हो सकते हैं। एक तो हिमालय जैसे ऊंचे पर्वतों और ध्रुवों में मौजूद बर्फ की विशाल राशि पिघलने लगेगी, जिससे समुद्र की सतह ऊपर उठने लगेगी। तापमान बढ़ने से समुद्र का पानी फैल उठेगा, जिससे भी समुद्र की सतह ऊपर आ जाएगी। इससे मालदीप, फिलिपीन्स, मोरीशियस आदि विश्व के अनेक द्वीपीय देश और बंगलादेश, डेनमार्क आदि तटीय देश विश्व के मानचित्र से ही मिट सकते हैं। हरितगृह प्रभाव लानेवाले गैसों में मुख्य कार्बन डाइआक्साइड है जो एक प्रमुख वायु प्रदूषक भी है। वह वाहनों, कारखानों और घरेलू चूल्हों में ईंधन जलाने से पैदा होता है।

वातानुकूलकों और फ्रिज आदि उपकरणों में सीएफसी नामक जो शीतलक गैस का उपयोग होता है, वह भी एक खतरनाक वायु प्रदूषक है। वह मनुष्य के स्वास्थ्य पर तो सीधा प्रभाव नहीं डालती पर वह अन्य दृष्टियों से घातक है। हिरतगृह प्रभाव को बढ़ावा देने में सीएफसी कार्बन डाइआक्साइड से कई सौ गुना कारगर है। इसलिए थोड़ी सी सीएफसी भी काफी नुक्सान कर सकती है। यह गैस अत्यंत स्थायी बनावट की होती है और वह आसानी से विघटित नहीं होती। वायुमंडल में वह सालों तक मौजूद रहकर नुकसान करती रहती है। उसका दूसरा घातक पहलु है ओजोन परत को नुक्सान पहुंचाने में उसकी भूमिका। उच्च वायुमंडल में ओजन के अणुओं से भरी एक पतली परत होती है जिसका पृथ्वी पर जीवन के कायम रहने की दृष्टि से काफी महत्व है। इस परत के ओजन अणु सूर्य से आनेवाली घातक पराबैंगनी किरणों को अवशोषित कर लेते हैं और उन्हें पृथ्वी सतह तक पहुंचने नहीं देते। यदि ये किरण पृथ्वी तक पहुंचीं तो वे जीव-जंतुओं में कैंसर आदि बीमारियों को जन्म दे सकती हैं। सीएफसी में क्लोरीन, ब्रोमीन, फ्लोरीन आदि के अंश होते हैं जो ओजोन अणुओं को तोड़ देते हैं। ओजोन अणु के नष्ट होने से ओजोन परत कमजोर हो जाती है और सूर्य की घातक पराबैंगनी किरणें पृथ्वी को पहुंचने लगती हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के स्वास्थ्य एवं पर्यावरण आयोग के ऊर्जा विषय पर गठित पैनेल ने 1992 में जेनेवा में हुए एक सम्मेलन में वायु प्रदूषण कम करने के अनेक उपाय सुझाए थे, जैसेः- शहरों में यातायात पर कड़ा नियंत्रण रखना चाहिए। निजी वाहनों को प्रोत्साहन देने के बजाए बस, रेल आदि आम यातायात के वाहनों को बढ़ावा देना चाहिए। वाहनों और उद्योगों की निकासी को नियंत्रित करने के लिए कड़े कानून होने चाहिए और उनका ईमानदारी से पालन होना चाहिए। अधिक साफ-सुथरे ईंधन अपनाने चाहिए। तापबिजलीघरों में निर्मित ऊष्मा को औद्योगिक प्रक्रियाओं में खपा लेना चाहिए (कोजेनेरेशन)। औद्योगिक एवं बिजली निर्माण इकाइयों को रिहायशी इलाकों से दूर स्थापित करना चाहिए। उद्योगों को शहरों से हटाने के लिए वित्तीय प्रलोभन देने चाहिए, प्रदूषण कम करने की प्रौद्योगिकी के विकास के लिए सरकार को शोध प्रयासों को समर्थन देना चाहिए। प्रदूषण कम करने की प्रौद्योगिकियां अपनाने के लिए सबसिडी की व्यवस्था होनी चाहिए।

इसके अलावा कुछ पेड़-पौधे जैसे अर्जुन, नीम, जामुन, खजूर, बेर, अशोक, पीपल आदि प्रदूषकों को सोखने की अद्भुत क्षमता रखते हैं। इन्हें सड़कों और उद्योगों के चारों ओर लगाना चाहिए। लखनऊ के राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान ने इस तरह के 50 पौधे पहचाने हैं। उन्हें सब बड़े पैमाने पर शहरों में लगाना चाहिए।

वायु हमारी मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। उसे शुद्ध रखना हमारे कायमी अस्तित्व के लिए परम आवश्यक है। वायु प्रदूषण को नाथने के तरीके ढूंढ़ना और उन्हें अमल में लाना हम सबके लिए जीवन-मरण का विषय है। इसलिए वायु प्रदूषण कम करने के हर प्रयत्न हमें हर स्तर पर करने चाहिए।

Wednesday, July 15, 2009

वर्षा ऋतु में प्रकृति भ्रमण

वर्षा ऋतु में प्रकृति सचमुच खिल उठती है। अनेक प्रकार के जीव न जाने कहां से प्रकट होने लगते हैं--घोंघे, मेंढ़क, टर्र, अनगिनत कीड़े-मकोड़े, जलपक्षी, कुकुरमुत्ते और तरह-तरह के पौधे। पृथ्वी जैसे मखमली हरी चादर ओढ़ लेती है। वर्षा ऋतु अनेक जीव-जंतुओं के लिए संतानोत्पत्ति का भी समय होता है। छिपकलियां (घरेलू एवं बाग-बगीचों में रहनेवाली छिपकलियां) इसी समय अंडे देती हैं। बत्तख, हंस, सारस, बगुले, बलाक आदि अनेक प्रकार के जलपक्षी भी वर्षाकाल में ही प्रजनन करते हैं। अपने तेजी से बढ़ते चूजों के लिए वर्षाकाल के सिवा किसी अन्य समय में पर्याप्त भोजन जुटा पाना जलपक्षियों के लिए असंभव होता है। हिरण, मृग, खरगोश आदि तृणभक्षी प्राणियों के लिए वर्षा ऋतु घास और स्वादिष्ट हरी झाड़ियों की दावत ही पेश कर देता है। मांसाहारी प्राणी भी उनका आहार बननेवाले तृणभक्षियों की बढ़ती संख्या से प्रसन्न रहते हैं।

यदि आप प्रकृति में रुचि लेते हो तो इन सब परिवर्तनों का लेखा-जोखा रख सकते हैं। इसके लिए आपको अपने घर से बहुत दूर जाने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। निकट के ही किसी खुले प्रदेश, तालाब या उद्यान में जाना काफी होगा।

चूंकि हमारी यादगाश्त शक्ति हमें कई बार धोखा दे देती है, इसलिए जब भी प्रकृति में भ्रमण हेतु बाहर निकलें अपने पास एक पुस्तक और कलम हमेशा रखें और इसमें प्रत्येक प्रेक्षण दर्ज करने की आदत डालें। अनेक बार किसी जंतु या उसके क्रियाकलाप का शब्दों में वर्णन करना कठिन होता है। इसके बनिस्बत उसका चित्र बनाना अधिक आसान होता है। अतः अपनी पुस्तक में शाब्दिक वर्णनों के साथ-सात आसान चित्र भी बनाने की कोशिश करें।

यदि जहां आप निरीक्षण करना चाहते हैं, वह जगह बहुत बड़ी है तो आप उसका एक छोटा हिस्सा चुन लें और इस छोटे हिस्से में मौजूद सभी पौधों और जीवों का अवलोकन करें। इस प्रकार एक सीमित क्षेत्र में अवलोकन करने के अनेक फायदे हैं। आप प्रत्येक चीज को काफी बारीकी से देख पाएंगे। आपका ध्यान भी अनेक परस्पर विरोधी बातों में बंटकर नहीं रह जाएगा।

आपको हर चीज की ओर ध्यान देना चाहिए, चाहे वह क्षुद्र-से-क्षुद्र कीड़ा हो या एक भव्य जलपक्षी। इस प्रकार का अवलोकन आपको एक बार नहीं बल्कि दिन के किसी निश्चित समय में लगातार कई दिनों तक करना चाहिए। इससे आपको पता चल जाएगा कि अनेक जंतु स्थायी रूप से उस प्रदेश में रहते हैं अथवा वहां आते-जाते रहते हैं। इन जंतुओं के विकास, गतिविधियों, आदतों आदि के बारे में भी आपको जानकारी मिलेगी।

इन प्राकृतिक स्थलों में पाए जानेवाले सभी पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं का नाम जानना न तो आवश्यक है न संभव ही। यह तो बड़े-बड़े वैज्ञानिकों के लिए भी एक पेचीदा समस्या है। इसलिए यदि आप किसी पौधे या जीव को नाम से पहचान न सकें तो निराश न हों। आप उसे अच्छी तरह देखें और उसकी विशेषताओं, आदतों और आवास-स्थल को समझने की कोशिश करें।

जंतुओं को उनके बड़े-बड़े समूहों में रखने का प्रयत्न करें। ये समूह हैं:-
-कृमि (केंचुए आदि)
-कीट (छह पैर वाले जीव)
-मकड़ी (आठ पैर वाले जीव)
-उभयचर (मेंढ़क और टर्र)
-सरीसृप (कछुए, सांप और छिपकलियां)
-पक्षी
-स्तनधारी

पेड़-पौधों को आप अनेक प्रकार से वर्गीकृत कर सकते हैं, जैसे:-
-पौधा
-झाड़ी
-बेल
-पेड़

क्या इन पेड़-पौधों पर फूल आते हैं? यदि हां तो वर्ष के किस समय आते हैं? फूल आने पर उन पर कौन-कौन से जीव-जंतु दिखाई देते हैं? ये जीव क्या करते हैं?

पेड़ की छाया तले कुकुरमुत्तों, फफूंदी और काई को खोजें। क्या ये उजाले वाले स्थानों पर भी दिखाई देते हैं?

जहां पानी इकटठा होता हो, वहां मेंढ़कों, कछुओं और जलपक्षियों की बहुतायत होती है। पानी में मेंढ़क के बच्चों (बेंगचियों) को खोजें और उनके शारीरिक परिवर्तनों का अध्ययन करें। वे कब पानी से बाहर निकलते हैं? क्या पानी के पास बैठे मेंढ़क पुकार रहे हैं? पानी में रह रहे अन्य जीव-जंतुओं का भी अवलोकन करें। पानी से कुछ दूरी पर आपको टर्र भी दिखाई देगा। इसकी तुलना मेंढ़क से करें। टर्र की पिछली टांगें मेंढ़क की पिछली टांगों से छोटी होती हैं। उसकी खाल भी खुरदुरी और कम गीली होती है। वह उछलता भी कम है। शाम के वक्त टर्र अधिक दिखाई देते हैं। उन्हें बिजली के खंभों के आस-पास खोजें। रोशनी से आकर्षित होकर आनेवाले कीड़ों को खाने ये वहां एकत्र होते हैं। यह भी देखें कि टर्र किन-किन कीड़ों को खाता है। पांच मिनट के अंतराल में वह कितने कीड़ों को पकड़ता है? वह कीड़ों को कैसे पकड़ता है? टर्र और मेंढ़क को किसान का मित्र क्यों कहा जाता है?

सरीसृपों को देखने के लिए भी वर्षाकाल उत्तम समय होता है। तरह-तरह के सांप, छिपकली और कछुए धूप सेंकते नजर आते हैं। वर्षाकाल में बिल पानी से भर जाते हैं और सांप बाहर निकलने पर मजबूर हो जाते हैं। यद्यपि अधिकांश सांप विषहीन होते हैं, परंतु विषैले सांप आपकी जिंदगी को खतरे में डाल सकते हैं। अतः सांपों का अवलोकन करते वक्त अत्यंत सतर्क रहें। सांपों को भी किसान का मित्र कहा जाता है। क्यों?

भ्रमण के दौरान क्या आप कभी किसी चिप-चिपे, धागे जैसे पदार्थ से जा उलझे थे? यह मकड़ी का जाल है। बरसात में अनेक प्रकार की मकड़ियां दिखाई देती हैं। इन्हें जाल बुनते और जाल के जरिए कीड़ों को पकड़ते देखें। क्या सभी मकड़ियां एक जैसा जाल बनाती हैं? मकड़ी और चींटी की शरीर-रचना में क्या अंतर होता है?

पानी के किनारे अनेक जलपक्षी मिलेंगे। यह पता करें कि ये जलपक्षी कब पानी के पास आते हैं और कब वहां से चले जाते हैं। अनेक पक्षी दूर-दूर से यात्रा करके भारत आते हैं। जलपक्षियों की चोंचों और पैरों की आकृति में इतनी भिन्नता क्यों पाई जाती है?

प्रकृति में भ्रमण करते समय इस प्रकार के और अनेक सवाल आपके मन में उठेंगे। इन सबका उत्तर शायद आपको मालूम न हो, परंतु नियमित रूप से अवलोकन करने से प्रकृति के अनेक रहस्य खुलने लगते हैं। इन रहस्यों को समझने के रोमांचक प्रयत्न से जुडने का आनंद ही कुछ और है। इस आनंद से अपने-आपको वंचित न रखें। बिना विलंब प्रकृति की पाठशाला में भर्ती होकर हमारे अद्भुत परिवेश के बारे में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त करें।

Tuesday, July 14, 2009

गांवों की शोभा बढ़ाता है सारस


सूरज डूबने लगा है, परछाइयां लंबा रही हैं। हवा के मंद-मंद बहाव के साथ-साथ रात और खामोशी धीरे-धीरे उतर रही हैं। इसी वक्त सारस का एक जोड़ा अपनी बिगुल जैसी आवाज में पुकार उठता है। कितनी रोमांचक लगती है उसकी यह पुकार। धीमे-धीमे पंख चलाते हुए, जमीन से मानो चिपके हुए से, क्षितिज की ओर उड़ते इन पक्षियों का नजारा कितना भव्य लगता है। इसमें कोई शक नहीं कि सारस हमारे गांवों, खेतों और झीलों की शोभा में चार चांद लगा देता है।

सारस गंभीर स्वभाव का पक्षी है। उसकी चाल धीमी और गौरवपूर्ण होती है। वह भारत में पाया जानेवाला सबसे बड़ा पक्षी है। ऊंचाई में वह औसत कद के मनुष्य की बराबरी कर सकता है। वह दुनिया का सबसे बड़ा उड़नेवाला पक्षी भी है। सारस आमतौर पर जोड़ों में विचरता है। जब चूजे साथ हों तब अथवा प्रजननकाल में ही तीन-चार सारस एक जगह नजर आते हैं।

सारस का सिर राख के रंग का, गले का ऊपरी भाग लाल, टांगें गुलाबी, चोंच हरापन लिए हुए और बाकी शरीर धूसर रंग का होता है। गर्दन, टांगें और चोंच लंबी होती हैं। जब पंख बंद होते हैं, तब उनके पर पूंछ के आगे लटकते रहते हैं। नर और मादा देखने में एक जैसे लगते हैं।

भारत में ऐसे गिने-चुने पक्षी ही हैं, जिन्हें न मारने की परंपरा है। सारस उनमें से एक है। एक बार जोड़ा बांध लेने के बाद नर और मादा मृत्यु-पर्यंत साथ निभाते हैं। यदि उनमें से एक मर जाए तो दूसरा भी उसके वियोग में घुल-घुलकर प्राण त्याग देता है।

सारस शर्मीला पक्षी नहीं है। वह जमीन पर ही रहता है, जहां उसका भोजन भी उसे मिल जाता है -- मेढक, छोटे जीव और जलीय पौधे। वह घोंसला भी जमीन पर ही बनाता है। सामान्यतः वह आहार खोजते हुए खामोश रहता है, पर यदि जोड़े में से एक बोल उठे, तो दूसरा तुरंत जवाब देता है। सारस की पुकार बुलंद और दिशाओं को गुंजा देनेवाली होती है, पर उसमें कोई ऐसी बात होती है कि वह कर्णकटु नहीं लगती। सारस उड़ते-उड़ते भी बोलता है। उसकी उड़ान धीमी और गंभीर होती है। पंख एक लय में चलते जाते हैं। उड़ते समय वह गर्दन को आगे की ओर और टांगों को पीछे की ओर सीधे रखता है। साधारणतः वह बहुत ऊंचाई पर नहीं उड़ता।

बारिश शुरू होते ही सारस का प्रजननकाल शुरू होता है। गर्मियों के मौसम से भी पहले प्रजनन की तैयारी में उनका भव्य नृत्य आरंभ हो जाता है। पहले नर और फिर मादा नपे-तुले अंदाज में छोटी-छोटी फुदकियां लेते हैं। गर्दन आगे तनी हुई और उठी रहती है। एक-दूसरे को सिर नवाकर अभिनंदन करते हुए से वे गर्दन झुकाते हैं और हवा में उछल पड़ते हैं। फिर वे गोल-गोल फुदकते हुए नाचते हैं।

अभी हाल तक सारस हमारे गांवों में आसानी से दिख जाता था। लेकिन कीटनाशक दवाओं के बढ़ते उपयोग, यंत्रीकृत कृषि के चलन और पुरानी परंपराओं के कमजोर पड़ने से यह सुंदर पक्षी भी अब दुर्लभ होता जा रहा है।

Monday, July 13, 2009

बंदर भी तुतलाते हैं!

हमारे बच्चे जब पहले-पहल बोलना सीखते हैं तो उनकी तोतली बोली हमारे मन को भा लेती है। अब वैज्ञानिक पा रहे हैं कि बंदर शिशु भी हमारे ही बच्चों के समान तुतलाते हैं, और गलती कर-करके बंदर भाषा सीखते हैं। अतलांटा के इमोरी विश्वविद्यालय के जीव-वैज्ञानिकों द्वारा बंदरों पर किए गए अध्ययनों में यह बात सामने आई है।

बंदरों में भी एक प्रकार की भाषा होती है। अनेक प्रकार की परिस्थितियों की सूचना देने के लिए वे चेहरे के हावभावों और पुकारों का उपयोग करते हैं। इन्हें सब प्रत्येक शिशु-बंदर को सीखना पड़ता है। इसमें वे गललियां भी करते हैं। परंतु अपने से बड़ों को देखकर वे इन गलतियों को सुधार लेते हैं।

हमारे यहां लड़कियां लड़कों की अपेक्षा भाषा अधिक तेजी से सीख जाती हैं। बंदरों में भी यही बात देखी गई है। वैज्ञानिकों के अनुसार इसका मुख्य कारण यह है कि मादाएं टोली के साथ उम्र भर रहती हैं, जबकि नर वयस्क होने पर अपनी अलग टोली बनाते हैं। अतः मादाओं को कम उम्र में ही भाषा पर अधिकार करना आवश्यक हो जाता है। मादा शिशु अन्य बंदरों के साथ अधिक समय गुजारती हैं। इसलिए उन्हें भाषा-संकेत सीखने का अधिक अवसर मिलता है।

Sunday, July 12, 2009

मच्छर मारने की नई विधि

फ्लोरिडा विश्वविद्यालय की कीटविज्ञान प्रयोगशाला के डोव बोरोवस्की ने मच्छरों के डिंभकों (लार्वों) को मारने की नई विधि खोजी है।

मच्छर के लार्वे ठहरे पानी में पनपनेवाले क्लोटेला नामक शैवाल का भक्षण करते हैं। बोरोवस्की इस शैवाल के आनुवांशिकी में परिवर्तन करके उसमें एक नए जीन का प्रत्यारोपण करने में सफल हुए हैं जो शैवाल के शरीर में मच्छरों के लिए घातक हारमोन बनाता है। यह हारमोन डिंभकों के पाचन क्रिया को निष्प्रभावी बना देता है, जिससे वे दो-तीन दिनों में मर जाते हैं।

यह विधि पर्यावरण की दृष्टि से भी अत्यंत साधु है क्योंकि इसमें डीडीटी जैसे पर्यावरणीय प्रदूषण फैलाने वाले कीटनाशकों का उपयोग कम किया जा सकता है। शैवाल अपने-आप बढ़ता जाता है इसलिए उससे अतिरिक्त खर्चा भी नहीं आता।

मच्छर से फैलनेवाला मलेरिया हर साल 1 करोड़ मनुष्यों को मारता है। इस तरह मच्छर मनुष्य का सबसे घातक दुश्मन है।

स्तनपान करानेवाला तिलचट्टा

अधिकांश कीट अंडे देने के बाद उन्हें भगवान भरोसे छोड़कर चले जाते हैं। अब एक ब्रिटिश कीटविद का कहना है कि तिलचट्टों की एक जाति अपने बच्चों को उसी प्रकार स्तनपान कराती है जैसे स्तनधारी।

न्यू साइंटिस्ट पत्रिका के अनुसार पेरिस्फेइरस नामक कुल का यह तिलचट्टा उष्णकटिबंधीय वनों में पाया जाता है। इसमें नर सामान्य तिलचट्टा जैसा ही होता है, पर मादाएं रामघोड़ी (सहस्रपादी) के समान दिखती है। छेड़े जाने पर वह रामघोड़ी के ही समान अपने लंबे शरीर को चवन्नी के आकार में गोल लपेट लेती है।

संग्रहालयों में रखे इस कीट के नमूनों में देखा गया है कि मादाओं के पैरों के साथ इनके बच्चे चिपके हुए हैं। ये बच्चे अंधे हैं जिससे पता चलता है कि ये स्वतंत्र रूप से जीवित नहीं रह सकते। इन बच्चों के मुंह की रचना नली के रूप में है। तिलचट्टों की 4,000 जातियां ज्ञात हैं, पर केवल पेरिस्फेइरस वर्ग में बच्चों का मुंह नली के आकार का होता है।

वयस्क मादाओं में उनके छह में से चार पैरों के आधार पर एक गर्त होता है जिसमें बच्चों का नलीनुमा मुंह एकदम फिट बैठता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस तिलचट्टे के बच्चे मादाओं के शरीर में मौजूद इन गर्तों से पोषक द्रव चूसकर विकसित होते हैं।

Friday, July 10, 2009

बिजली की कहानी


जब किसी जोरदार तूफान के दौरान आकाश में पल-पल बिजली कड़क रही हो और कानों को सुन्न कर देनेवाला मेघ गर्जन हो रहा हो, तब हम एकाएक वायुमंडल में चल रही रहस्यमय एवं विध्वंसकारी प्राकृतिक घटनाओं के प्रति सचेत हो उठते हैं।

हर साल दुनिया भर में हजारों लोग बिजली गिरने से मरते हैं और बिजली के कारण लगी आगों से करोड़ों रुपए की संपत्ति नष्ट होती है। शायद इन्हीं सब कारणों से प्राचीन समय से ही बिजली ने मानव मन में भय और आदर का भाव जगाया है। भारत के मिथकों में वज्र (बिजली) को देवताओं का भयानक एवं अमोघ अस्त्र माना गया है। देवताओं के राजा इंद्र के हाथ में वज्र अनेक विकराल राक्षसों के वध का कारण बना है। जो पौराणिक कथाओं से परिचित हैं, वे जानते हैं कि वज्राघात का शिकार केवल राक्षस-दैत्य ही नहीं बने हैं। स्वयं हनुमान को बचपन में इसका सामना करना पड़ा था जब वे उगते सूरज को पका फल मानकर निगलने के लिए आगे बढ़े थे। हनुमान वज्राघात की निशानी आज तक लिए फिर रहे हैं (वे चिरंजीवी जो हैं!)। वज्र के कारण टूटे जबड़े के कारण ही उनका नाम हनुमान पड़ा है। मिथकों की बात छोड़ दें तो भी बिजली एक अत्यंत रोमांचकारी एवं उपयोगी चीज है।

वायुमंडल में मौजूद स्थिर वैद्युत के अचानक बह निकलने से बिजली प्रकट होती है। बिजली का स्फुलिंग बहुत लंबा, चमकीला और कई शाखाओं वाला होता है और वह दो विपरीत आवेशवाले स्थानों के बीच प्रकट होता है। स्फुलिंग की लंबाई कई किलोमीटर हो सकती है। तड़ित झंझा लानेवाले वर्षा-मेघों के कारण बिजली सर्वाधिक पैदा होती है। कई बार बिजली हिमपात, धूल की आंधियों और ज्वालामुखियों के विस्फोट के दौरान भी प्रकट होती है। एकदम साफ-सुथरे आकाश से भी बिजली प्रकट हुई है। तड़ित झंझाओं के दौरान बिजली एक ही बादल के भीतर या दो बादलों के बीच या बादल और जमीन के बीच या बादल और उसके चारों ओर की हवा के बीच प्रकट हो सकती है। अधिकांश स्फुलिंग एक ही बादल के विपरीत आवेशोंवाले हिस्सों के बीच प्रकट होते हैं, या पास-पास वाले दो बादलों के बीच।

किसी भी समय दुनियाभर में लगभग 2,000 तड़ित झंझाएं चल रही होती हैं। इनमें प्रति सेकेंड 100 से ज्यादा वैद्युतिक स्फुलिंग प्रकट होते रहते हैं। औसतन भारत के किसी भी भाग में साल में चार-पांच तड़ित झंझाएं प्रकट होती हैं। लेकिन तटवर्ती केरल और बंगाल में इस तरह के 50 से अधिक तूफान आते हैं। ये साधारणतः दुपहर के बाद आते हैं। मानसून पूर्व के महीनों में यानी अप्रैल-मई में भारत के अनेक भागों में तड़ित झंझाएं प्रकट होती हैं। पश्चिम बंगाल और असम में इस समय जो तूफान आते हैं, वे काफी उग्र स्वरूप के होते हैं। बंगाल में वे उत्तपूर्वी दिशा से आते हुए प्रतीत होते हैं और उन्हें काल बैसाखी कहा जाता है।

ये तड़ित झंझाएं सशक्त, ऊर्ध्वगामी, संवहनी हवाओं का उदाहरण हैं। उनके कारण बननेवाले वर्षा-मेघों का ऊपरी हिस्सा धनात्मक वैद्युतिक आवेशयुक्त होता है और निचला भाग ऋणात्मक वैद्युतिक आवेशयुक्त। भारत में ये बादल समुद्र-सतह से 16-17 किलोमीटर की ऊंचाई तक बन सकते हैं। इन बादलों के निचले हिस्से से नम वायु प्रवेश करती है और जैसे-जैसे वह बादल के अंदर से ऊपर उठती जाती है, इस हवा की नमी अलग होकर बादल में बदलती जाती है। इस प्रकार बादल के ऊपर से निकलने वाली वायु अपेक्षाकृत शुष्क होती है। इस प्राकृतिक चिमनी में से कई टन नम वायु का परिष्कार होता है।

जब इस तरह का वर्षा-मेघ कुछ 10 किलोमीटर की ऊंचाई तक बढ़ जाता है, तब उसमें वैद्युतिक प्रक्रियाएं शुरू हो जाती हैं। बादल के अंदर हवा का बहाव ऊपर की ओर और नीचे की ओर रहता है। बादल के ऊपरी हिस्से में तापमान शून्य से 40 डिग्री सेल्सियस नीचे होता है। इसलिए बर्फ कण स्वतः ही बन जाते हैं। बारिश की बूंदें भी खूब बड़ी-बड़ी बनती हैं क्योंकि बादल का आकार बहुत बड़ा होता है। वायु प्रवाह बारिश की इन बड़ी बूंदों को तोड़ देता है, जिससे उत्पन्न छोटी बूंदों में वैद्युतीय आवेश प्रकट हो जाता है। हवा के बहाव और विपरीत आवेशवाली बूंदों में परस्पर विकर्षण के सम्मिलित प्रभाव से ऋणात्मक और धनात्मक आवेशवाली बूंदें बादल के अलग-अलग हिस्सों में एकत्र हो जाती हैं। इससे बादल के विभिन्न हिस्सों में वैद्युतिक विभवांतर पैदा हो जाता है जो कई लाख वोल्ट का हो सकता है। जब यह विभवांतर एक सीमा से अधिक हो जाता है, तब बादल के विपरीत आवेशवाले हिस्सों के बीच आंखों को चौंधिया देनेवाली बिजली की चमक प्रकट होती है।

बादल के आधार से जमीन की ओर बढ़नेवाली धारा सबसे अधिक विध्वंसकारी होती है। वह एक अदृश्य, वैद्युत आवेशयुक्त वायु के रूप में शुरू होती है जो बादल से नीचे की ओर 50-50 मीटर के सोपानों में रुक-रुककर आगे बढ़ती है। जब वह जमीन से लगभग 100 मीटर की दूरी तक पहुंच चुकी होती है, तब जमीन की कोई ऊंची वस्तु, जैसे कोई पेड़ या इमारत से विपरीत आवेशवाली धारा ऊपर की ओर उठती है। दोनों धाराएं जमीन से 50 मीटर की ऊंचाई पर मिल जाती हैं। तब बादल में संचित सारी वैद्युत राशि जमीन को बह जाती है। इसके तुरंत बाद बिजली की एक चमकीली विपरीत धारा जमीन से बादल की ओर बह चलती है। इस पलट धारा के पीछे-पीछे एक सेकेंड से भी कम अंतरालों में अनेक छोटी धाराएं जमीन पर से बादल की ओर मुख्य धारा के ही पथ पर चल पड़ती हैं।

बिजली की एक साधारण चमक में बादल और जमीन के बीच कई करोड़ वोल्ट का विभवांतर पैदा हो जाता है। पलट धारा में 20,000 एंपियर जितना वैद्युत बह चलता है। इस वैद्युत धारा के बहने के पथ पर तापमान 30,000 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाता है, यानी सूर्य की सतह से पांच गुना अधिक। इतनी गरमी के कारण उस पथ पर मौजूद हवा लगभग विस्फोटक गति से फैलती है, जिससे जो ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती हैं, वे ही बादल का कर्णविदारी गर्जन होता है, जो बादल के नीचे की जमीन की आकृति के अनुरूप गूंज उठता है।

बिजली अनेक रहस्यमय रूपों में भी प्रकट होती है। इन सबके बारे में वैज्ञानिकों तक को ज्यादा जानकारी नहीं है। ऐसा एक रूप गोलाकार बिजली है। वह आवेशयुक्त गोल अग्नि-पिंड के रूप में प्रकट होती है जो चार-पांच सेकेंड से अधिक समय के लिए नहीं टिकती। जिन्होंने ऐसी बिजली देखी है, वे कहते हैं कि वह जमीन पर धीरे-धीरे लुढ़कती है और उसका धीरे-धीरे क्षय होता जाता है। कभी-कभी उसमें विस्फोट भी होता है।

सन 1749 में अमरीकी वैज्ञानिक बेंजमिन फ्रैंकलिन ने इमारतों को बिजली गिरने के नुक्सान से बचाने के लिए उनके सबसे ऊंचे हिस्से में धातु की एक नुकीली छड़ी लगाने का सुझाव दिया। इस छड़ी को तांबे के एक तार से जोड़कर तार के दूसरे सिरे को जमीन में गाड़ दिया जाता है। चूंकि बिजली आमतौर पर सबसे ऊंचे बिंदु पर ही आ लगती है, इमारत की ओर अग्रसर बिजली को यह छड़ी अपनी ओर आकर्षित कर लेती है, और तार के द्वारा बिजली का आवेश जमीन में उतर जाता है। इससे इमारत को नुकसान नहीं होता।

यद्यपि बिजली से काफी विध्वंस होता है, फिर भी उसके कुछ उपयोग भी हैं। पृथ्वी पर जीवन के बने रहने और उसके फलने-फूलने के लिए बिजली का होना अत्यंत आवश्यक है। बिजली के कारण जो आग लगती है, वह जमीन पर एकत्र हुए जैव-तत्व को पुनर्चक्रित करने के लिए बहुत आवश्यक है। जली वनस्पति की राख मिट्टी में मिलकर उसे उपजाऊ बनाती है। कुछ प्रकार के पेड़ों के बीज आग से झुलसने पर ही अंकुरित होने की स्थिति में आते हैं।

बिजली की एक चमक में इतनी ऊर्जा होती है कि वह हवा में मौजूद ऑक्सीजन और नाइट्रोजन को संयुक्त होने पर मजबूर कर देती है। इससे नाइट्रिक आक्साइड पैदा हो जाता है जो वर्षा जल में घुलकर नाइट्रिक अम्ल बनाता है। यह जमीन के पदार्थों से रासायनिक अभिक्रिया करके नाइट्रेट में बदल जाता है। इस नाइट्रेट को पौधे अपनी जड़ों की सहायता से अवशोषित कर लेते हैं। सभी पौधों के लिए नाइट्रेट आवश्यक है, पर बहुत कम प्रकार के पौधे उसे सीधे हवा से प्राप्त कर सकते हैं। बाकी सब को बिजली पर निर्भर करना पड़ता है।

इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वयं जीवन के उन्मीलन में बिजली की भूमिका रही हो सकती है। सन 1950 में हरोल्ड उरे नामक रसायनविद ने पृथ्वी के आदिम वायुमंडल में जो-जो गैसें मौजूद थीं, उन्हें एक कांच के पात्र में एकत्र करके उस पात्र में बिजली प्रवाहित करके चिंगारियां प्रकट करवाईं। इससे पात्र में अमीनो अम्ल पैदा हुआ, जो जीवित कोशिकाओं का अनिवार्य अंग होता है। इससे पता चलता है कि पृथ्वी पर जीवन सर्वप्रथम तब प्रकट हुआ होगा जब प्रागैतिहासिक वायुमंडल में बिजली चमक उठी होगी और इससे प्रथम जीवित कोशिका उत्पन्न हुई होगी।

मेंढ़क-मेंढ़की की शादी के बहाने जीव विज्ञान की कुछ बातें


कुछ दिन पहले असम के किसानों ने मेंढ़क और मेंढ़की की शादी रचाई ताकि मेघराज प्रसन्न हों और बरसात कराएं।

कई सवाल उठानेवाली घटना है यह। हमारे देश में शिक्षण का प्रचार-प्रसार कितना कम है इस पर यह करारी टिप्पणी करता ही है, लोगों की मूर्खता को भी रेखांकित करता है। सारी दुनिया में हंसी हो रही है हमारी इससे।

चलिए, जब हंसी हो ही रही है, तो थोड़ा और हंस लेते हैं, और इसी बहाने असली विज्ञान की थोड़ी चर्चा भी कर लेते हैं।

सबसे पहला सवाल तो यह है कि इन किसानों ने मालूम कैसे किया कि मेंढ़क कौन सा है और मेंढ़की कौन सी है? यदि आपको एक मेंढ़क दिखाया जाए, तो क्या आप बता पाएंगे कि वह नर है या मादा?

इसकी संभावना अधिक है कि आप तुरंत खिड़की से छलांग लगा देंगे, पर यदि आप हिम्मत वाले जीव निकले, और डटे रहे, तो 99 फीसदी आप नहीं बता पाएंगे कि वह मेंढ़क है या मेंढ़की।

ऐसे मैं मेंढ़क-मेंढ़की की शादी रचानेवालों ने कहीं मेंढ़क-मेंढ़क या मेंढ़की-मेंढ़की को तो नहीं प्रणय-सूत्र में बांध दिया? इससे दिल्ली के अदालत को भले ही कोई आपत्ति न हो, पर संतानोत्पत्ति की दृष्टि से और शायद बारिशोत्पत्ति की दृष्टि से यह विफल प्रयास साबित होगा।

तो आइए देखते हैं, सबसे पहले, कि मेंढ़क और मेंढकी को अलग कैसे पहचाना जा सकता है।

सबसे पहली निशानी यह है कि मेंढ़की मेंढ़क से बड़ी होती है। यह इसलिए क्योंकि वह अंडों को अपने में लिए फिरती है और उनके विकास के लिए उसे अधिक पोषण ग्रहण करना होता है, जिससे वह बड़ी हो जाती है। प्राणी जगत में यह अक्सर देखा जाता है। केवल स्तनधारियों में यह करीब करीब नियम है कि नर बड़ा होता है। कई पक्षियों में, विशेषकर शिकारी पक्षियों में, कीटों में, मकड़ियों में, उभयचरों में और सरीसृपों में मादा ही बड़ी होती है।

अब ऊपर दिए गए वर-वधू के चित्र से तो दोनों मेंढ़क एक ही आकार के लग रहे हैं। निश्चय ही दोनों या तो नर हैं अथवा मादा। अतः इस समलैंगिक विवाह से बारिश तो होने से रही। इसलिए यह प्रयास तो बेकार गया। हमें बारिश के लिए कुछ और करके देखना पड़ेगा। कछुओं का गृह-प्रवेश कराना कैसा रहेगा?! हा, हा, हा!

यह आकार में फर्क वाली बात बुहत उपयोगी नहीं है, क्योंकि यह तुलनात्मक कसौटी है। जब नर और मादा दोनों हाथ में हों, तो बताया जा सकता है कि छोटावाला नर है और बड़ा वाला मादा। पर जब कोई एक ही मेंढ़क मिला हो या दो मिले हों, और दोनों समान आकार के हों, तो यह कैसे बताएं कि नर कौन सा है मादा कौन सी?

इसके लिए मेंढ़क के अंगूठे की जांच कीजिए। प्रजननकाल में उनके सिरे सूजे हुए और खुरदुरे होते हैं ताकि मैथुन के समय मेढ़की की चिकनी पीठ पर अच्छी पकड़ प्राप्त कर सके। पर यह तरीका भी बहुत उपयोगी नहीं है क्योंकि नर का अंगूठा केवल प्रजननकाल में बड़ा और खुरदुरा हो उठता है, बाकी समय वह सामान्य आकार का रहता है। और, सबसे अहम बात, मेंढ़कों का प्रजननकाल बारिश के आने के बाद आता है जब तालाब-पोखर पानी से भर जाते हैं। इसलिए बारिश के आने से पहले मेंढ़क के अंगूठे को देखकर यह बता पाना संभव नहीं है कि वह नर है या मादा।

तीसरा तरीका उनके व्यवहार का अवलोकन करना है। केवल नर मेंढ़क पुकारते हैं, यद्यपि आवाज निकालने की क्षमता नर और मादा दोनों में होती है, पर नरों के लिए आवाज निकालना अधिक स्वाभाविक है और जरूरी भी, क्योंकि वे आवाज के जरिए न केवल अपने क्षेत्र पर अपना अधिकार जताते हैं, बल्कि अन्य नरों को चेतावनी भी देते हैं कि पास मत फटकना, वरना..., और मादाओं को भी आकर्षित करते हैं। मादाएं केवल खतरे की सूचना देने के लिए बोलती हैं।

चौथा तरीका है कि नर की टोढ़ी के नीचे एक थैली होती है, जिसकी मदद से वह आवाज निकालता है। मादा में यह थैली नहीं होती।

पांचवां तरीका थोड़ा फूहड़ है, पर है सटीक। जब दो मेंढ़क मैथुन-रत हों, तो ऊपर जो मेंढ़क है, वह नर है, और नीचे जो है वह मादा!

मेंढ़कों की बात हो रही है, तो उनके संबंध में दो एक बातें और बता दिया जाए। मेंढ़क उभयचर प्राणी हैं, अर्थात वे जल और थल दोनों में रह सकते हैं। पानी में वे अपनी त्वचा के माध्यम से सांस लेते हैं, और थल में फेफड़ों के जरिए। उनके पैरों की उंगलियां झिल्लियों से जुड़ी रहती हैं, ताकि वे पानी में आसानी से तैर सकें।

उभयचर अत्यंत प्राचीन जीव हैं। वे सरीसृपों से भी पहले के जीव हैं। आप तो जानते ही होंगे, कि पहले जीवन का उद्भव पानी में हुआ था और बाद में कुछ जीव थल की ओर बढ़ आए। मेंढ़क इन जीवों में से एक है। पर उभयचर पूर्णतः पानी से मुक्त नहीं हुए हैं। उनका प्रारंभिक जीवन पानी में ही बीतता है और वयस्क होने पर ही वे थल में रहने लायक होते हैं। इसलिए मेंढ़की को अंडे देने के लिए पानी में जाना ही पड़ता है।

मेंढ़कों के वर्ग में कई तरह के जीव हैं जिनमें से एक भेंक है। यह थल जीवन के लिए मेंढ़कों की तुलना में अधिक अनुकूलित हो गया है। उसके पिछले पैर मेंढ़क की तुलना में कम लंबे होते हैं। उसका शरीर भी अधिक खुरदुरा और फफोलेदार होता है।

कुछ प्रकार के मेंढ़क अत्यंत जहरीले होते हैं। दक्षिण अफ्रीका में मिलनेवाले कुछ मेंढ़कों के शरीर में इतना घातक विष होता है कि उन्हें छू देने भर से आदमी की मृत्यु हो सकती है। वहां के लोग इस विष में अपने तीरों के सिरों को बुझाते हैं। ये तीर बंदूक की गोली से भी अधिक मारक होते हैं। बंदूक की गोली तभी असर करती है जब वह शिकार के किसी मर्म स्थल में लगे, जैसे दिल, फेफड़ा, मस्तिष्क, आदि। पर ये तीर शरीर के किसी भी भाग में हल्का सा घाव भी कर दे, तो वह प्राणांतक साबित होता है क्योंकि विष रक्त प्रवाह के साथ तुरंत शरीर में फैल जाता है।

और अंतिम बात। मेंढ़क-मेंढ़की का बारिश से कोई संबंध नहीं है। यह सब अंध-विश्वास और ढकोसला है। अभी भी विज्ञान इतना विकसित नहीं हुआ है कि मनचाहे वक्त पर और मनचाही जगह पर बारिश करा सके। इसलिए बारिश के मौसम में गिरे बूंद-बूंद पानी को सहेजकर रखना हमें सीखना होगा। सभी उपयुक्त जगहों में चेकडैम बना देना चाहिए। नदियों को जोड़ देना चाहिए और नदियों के मुहाने पर बांध बना देना चाहिए, और पानी बचाने के गुर सीख लेने चाहिए।

यही एकमात्र उपाय है। मेंढ़क-मेंढ़कियों की शादी कराना निरीह प्राणियों पर अपार क्रूरता करना है। यदि अंधविश्वास की ही बात करें तो इस पाप के बदले भगवान हम पर और भी ज्यादा कुपित होंगे और विपत्तियां बरसाएंगे, जैसे दुर्भिक्ष, भुखमरी आदि। इसलिए सावधान!

Thursday, July 9, 2009

भारत में हर साल 50,000 लोग सर्पदंश से मरते हैं

भारत में हर साल 50,000 लोग सांप के डसने से मरते हैं। इनमें से अधिकांश लोग नाग, करैत, दबोइया और फुर्सा, इन चार जहरीले सांपों के द्वारा काटे गए होते हैं। नाग का विष नाड़ी तंत्र को निष्क्रिय करता है, जबकि दबोइया और फुर्सा का विष खून पर असर करता है।

प्रत्येक नाग के मुंह में 200 ग्राम विष होता है। एक मनुष्य को मारने के लिए 20 ग्राम विष पर्याप्त है। दबोइए में 250 ग्राम विष होता है और एक व्यक्ति को मारने के लिए मात्र 70 ग्राम पर्याप्त है। फुर्सा यद्यपि छोटा सांप है (18 इंच) और उसमें मात्र 30 ग्राम विष ही होता है, पर एक मनुष्य को मारने के लिए 15 ग्राम विष पर्याप्त है। इसकी तुलना में नागराज के मुंह में 500 ग्राम विष होता है। यह दुनिया का सबसे बड़ा विषैला सांप है, जो 15 मीटर की लंबाई प्राप्त करता है, जबकि नाग डेढ़-दो मीटर लंबा होता है। नागराज एक दुर्लभ सांप है जो पश्चिमी घाट के घने, नम वनों में और अंदमान निकोबार द्वीपों में पाया जाता है। इस बड़े सांप के काटने से कम लोग मरते हैं क्योंकि यह संख्या में बहुत कम है और यह मनुष्य के रहने के स्थलों से दूर रहता है। नागराज अन्य सांपों का भक्षण करता है।

नागराज के विपरीत नाग, करैत आदि विषैले सांप गांवों और खेतों के आसपास रहते हैं जहां मनुष्य का आनाजाना बहुत रहता है। ये सांप चूहे आदि छोटे जीवों को खाते हैं, जो भी मनुष्य की बस्तियों और खेतों के आसपास खूब होते हैं।

इन सबसे भी खतरनाक कुछ प्रकार के समुद्री सांप होते हैं जो नाग से पांच गुना अधिक घातक होते हैं। उनके विष का एक बूंद 5 मनुष्यों को हमेशा के लिए सुलाने के लिए पर्याप्त होता है। परंतु ये सांप अत्यंत शांत स्वभाव के होते हैं और जल्दी काटते नहीं है। उनके शिकार समुद्री मछुआरे बनते हैं। जब उनके जालों में ये सांप फंस जाते है और वे उन्हें हाथ से निकालकर बाहर फेंकने की कोशिश करते हैं या छिछले पानी में वे इन सर्पों को पैरों से अनजाने में रौंद देते हैं, तब वे उनके द्वारा डस लिए जाते हैं।

भारत में सर्पदंश की वारदातें बरसात के महीनों में सर्वाधिक होती हैं। इस समय सांपों के बिलों में पानी भर जाता है और सांपों को बाहर निकल आना पड़ता है। बरसात आते ही अधिकांश ग्रामीण लोग खेती के कामों में लग जाते हैं और उन्हें खुले में काम करना पड़ता है। बरसात पड़ते ही पेड़-पौधे और घास-फूस भी बहुत बढ़ जाते हैं और उनके बीच सांप दिखाई नहीं देते और लोग उन पर अनजाने में पैर रख देते हैं या उनका हाथ उन पर लग जाता है। भारत में गांवों में बहुत से लोग जमीन पर सोते हैं, इससे भी सांपों द्वारा काटे जाने की संभावना बढ़ती है।

सांप के काटने का एकमात्र इलाज प्रतिविष है जो सांप के विष से ही बनाया जाता है। यह सभी बड़े अस्पतालों में उपलब्ध रहता है। इसे खून के प्रवाह में सुई द्वारा पहुंचाना होता है, तभी डसे गए व्यक्ति की जान बच सकती है। बहुत से सांपों का विष मिनटों में अपना काम कर देता है, इसलिए दंशित व्यक्ति को तुरंत अस्पताल पहुंचाना निहायत जरूरी है। झाड़-फूक आदि में समय बर्बाद करने से उसकी जान चली जा सकती है।

Wednesday, July 8, 2009

मानवभक्षी हाथी

असम के स्थानीय अखबारों में छप रही खबरें यदि सही हैं तो वहां के जंगली हाथियों ने एक डरावनी आदत डाल ली है, मानव-भक्षण की।

अब तक हाथी को शुद्ध शाकाहारी पशु माना जाता था, लेकिन असम के एक वन्यजीव विशेषज्ञ श्री के के शर्मा कहते हैं कि उन्होंने दो अवसरों पर हाथियों को मनुष्यों को मारते और उनके शवों को खाते देखा है। इनमें से पहली घटना कर्बी ऐंग्लोंग जिले के उमरानग्सु नामक स्थान पर घटी और दूसरी सोनितपुर जिले के रंगगोरा नामक स्थान पर। दोनों ही अवसरों पर हाथियों ने लगभग आधा शव खा डाला।

श्री शर्मा के अनुसार असम में हाथियों के प्राकृतिक आवासस्थलों को मनुष्य ने हथिया लिया है। इसलिए हाथी भोजन-पानी के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं। लगता है इस परेशानी ने उनके मानसिक संतुलन को हिला दिया है। यही उनके आदमखोर हो उठने का कारण है।

दिल्ली से प्रकाशित होनेवाली अंतरराष्ट्रीय विज्ञान एवं पर्यावरण पत्रिका डाउन टु एर्थ ने भी यह सनसनीखेज खबर छापी है। उसके अनुसार पिछले वर्ष असम में हाथियों ने 20 लोगों को कुचल डाला था। स्थानीय अखबारों ने हाथियों द्वारा आदमी को खाने के कम से कम तीन खबरें छापी हैं। ये सब वारदातें काजीरंगा अभयारण्य के इर्द-गिर्द के गांवों में घटीं।

Monday, July 6, 2009

पक्षी जगत के धोखेबाज


प्रकृति में सभी प्राणी एक-दूसरे पर आश्रित होते हैं। इसका मतलब यह भी है कि लगभग सभी प्राणी किसी-न-किसी अन्य प्राणी की आहार-सूची में शामिल होते हैं। पक्षी भी इसके अपवाद नहीं हैं। अनेक हिंसक जीव पक्षियों का शिकार करते हैं। परंतु प्रकृति ने पक्षियों को निस्सहाय नहीं रखा है। कुछ उड़ने में तेज हैं, तो कुछ तैरने में या डुबकी लगाने में। कुछ उग्र प्रकृति वाले हैं। परंतु बहुत से पक्षी परभक्षियों की क्रूर नजरों से अपने-आपको जहां तक हो सके बचाए रखने में ही खैरियत समझते हैं।

प्रकृति किसी पर पक्षपात नहीं करती। जहां वह शिकार बननेवाले प्राणियों की सुरक्षा का उचित प्रबंध करती है, वहीं वह इसका भी खयाल रखती है कि शिकारी जीव भूखों न मर जाएं। उन्हें भी वह लुकने-छिपने की कला में दीक्षा देती है ताकि वे अहेर प्राणियों की पैनी दृष्टियों से बचकर उन पर अचानक और सफल वार कर सकें।

अन्य प्राणियों की नजरों में धूल झोंकने की कला को छद्मावरण कहा जाता है। अनेक पक्षी इस कला में प्रवीण होते हैं। कुछ शिकारियों से बचने के लिए छद्मावरण धारण करते हैं, तो कुछ शिकारी पक्षी शिकार करने के लिए उसे अपनाते हैं।

अनेक पक्षी मत्स्यभोजी होते हैं। उनका शरीर नीचे से हल्के रंग का होता है और ऊपर से अधिक गहरे रंग का। यह इसलिए कि उनके नीचे तैर रही मछलियों को उनकी मौजूदगी का पता न चल सके। मछलीमार, किलकिला आदि पक्षियों में निचला शरीर सफेद होता है, ताकि मछलि पकड़ने के लिए हवा से पानी में गोता लगाते समय वे आसानी से दिखाई न दें। किलकिले का शरीर नीले रंग का होता है, जिससे नीले आसमान की पृष्ठभूमि में वे मछलियों को आसानी से दिखाई नहीं देते।

कुछ प्रकार के बगुले बहुत ही शर्मीले स्वभाव के होते हैं। वे हिंस्र जंतुओं की नजरों से बचने के लिए सदा प्रयत्नशील रहते हैं। उनके शरीर की रचना और रंग-विन्यास ऐसा होता है कि वे अपनी पृष्ठभूमि में पूरा-पूरा विलीन हो जाते हैं। ये पक्षी जलीय घास के झुरमुटों में लुक-छिपकर आहार खोजते हैं। खतरा महसूस होने पर वे अपनी लंबी और पतली गर्दन और चोंच को आसमान की ओर करके निश्चल खड़े हो जाते हैं। उनके शरीर का रंग भी सूखी घास के रंग से मिलता-जुलता होता है। शरीर पर गाढ़े रंग की धारियां बनी होती हैं। शरीर की ये धारियां और ऊपर की ओर बढ़ी हुई गर्दन और चोंच घास के डंठलों में इस खूबी से मिल जाती हैं कि आप उन्हें दो हाथ की दूरी पर से भी देख नहीं सकते। यदि हवा चल रही हो और घास लहरा रही हो, तो वे भी अपने शरीर को घास की लय में हिलाते हैं ताकि कोई उन्हें हवा में झूम रही घास का ही एक गुच्छा समझ ले। पानी पर तैरते पौधों में अधिकांश समय बितानेवाली जलमखानी, जलमोर आदि पक्षियों में भी अपने परिवेश में विलीन होने की अद्भुत क्षमता होती है।

छिछले पानी में आहार खोजनेवाले अनेक पक्षी जमीन पर ही घोंसला बनाते हैं। उनके अंडों और चूजों का रंग इस प्रकार का होता है कि वे उनके परिवेश में घुल-मिल जाते हैं। ये पक्षी स्वयं भड़कीले रंग के होते हैं। इससे हिंस्र पशुओं का ध्यान सबसे पहले इन पक्षियों की ओर जाता है न कि उनके निस्सहाय अंडों और चूजों की ओर। ये पक्षी उड़ने और दौड़ने में कुशल होते हैं और हिंस्र पशुओं के चंगुल में आसानी से नहीं फंसते। जब वे घोंसलों पर बैठे होते हैं तो वे परभक्षी को दूर से ही देख लेते हैं और चुपके से घोंसले से कुछ दूर चले जाते हैं। इसके बाद वे बहुत शोर करते हुए परभक्षी की ओर उड़ते हैं और उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं। इस तरह वे अपने घोसलों को परभक्षी की कुदृष्टि से बचा लेते हैं। कुछ पक्षी इससे भी बढ़कर चालाकी करते हैं। वे घोंसले से दूर जाकर जोर-जोर से चीखने-बिलखने लगते हैं और ऐसा अभिनय करते हैं मानो उनका एक पंख टूट गया हो। यह देखकर परभक्षी सोचता है कि उसे आसानी से पकड़ा जा सकता है। इस गलतफहमी में वह उनकी ओर बढ़ने लगता है। पक्षी उसे बहुत पास आने देती है और फिर कुछ दूर और भाग जाती है। इस तरह वह परभक्षी को घोंसले से उसी प्रकार दूर ले जाती है जिस प्रकार पंचवटी के पास दिखा स्वर्ण हिरण श्री राम को गहन वन में लिवा ले गया था। जब हिंस्र पशु घोंसले से काफी दूर पहुंच जाए, तब पक्षी चुपके से उड़ जाती है। बेवकूफ बना परभक्षी खिसियाकर रह जाता है।

बत्तख आदि कुछ पक्षियों के शरीर का रंग इस प्रकार का होता है कि उन्हें उनके परिवेश से अलग पहचानना कठिन होता है, पर वे सफेद अंडे देते हैं, जो आसानी से दिख जाते हैं। इसलिए ये पक्षी अपने अंडों पर हमेशा बैठे रहते हैं, ताकि परभक्षियों की निगाहों से अंडे बचे रहें। परभक्षी के बहुत पास आने तक ये पक्षी घोंसला नहीं छोड़ते, क्योंकि उन्हें अपने छद्मावरण पर पूरा भरोसा होता है कि परभक्षी उन्हें देख नहीं पाएगा। जब परभक्षी उनको कुचलने ही वाला होता है तब कहीं जाकर वे हड़बड़ाकर उड़ चलते हैं।

बहुत से जलपक्षियों की उड़ने की क्षमता कमजोर होती है। उड़ने से अधिक वे तैरने और डुबकी लगाने में कुशल होते हैं। ये पक्षी खतरे से बचने के लिए भी पानी की शरण में ही जाते हैं। उदाहरण के लिए जलमुर्गी खतरा महसूस करते ही पानी के नीचे चली जाती है। केवल उसका सिर पानी के ऊपर रहता है। अपने-आपको इस स्थिति में रखने के लिए वह किसी जल-वनस्पति को पैरों से पकड़ लेती है। पनडुब्बी और बानवर भी खतरे से बचने के लिए गोता लगाते हैं। जब डूबना हो तो वे अपने शरीर को दबाकर पेट में मौजूद वायु को बाहर निकाल देते हैं। इससे उनका वजन पानी से अधिक हो जाता है और वे अनायास ही डूब जाते हैं। वे इतनी सफाई से पानी के नीचे जाते हैं कि सतह पर जरा सी भी हलचल नहीं दिखाई देती। एक पल तो वे तालाब पर इत्मीनान से तैर रहे होंगे, दूसरे ही पल वे पानी के नीचे हो जाएंगे और आप सोच में पड़ जाएंगे कि क्या उन्हें हवा लील गई? अंग्रेजों के जमाने में जब जलपक्षियों का बंदूकों से बड़े पैमाने पर शिकार होता था, तब पनडुब्बियों के कारण गरों को काफी झुंझलाहट होती थी। बंदूक से निकली आग की लपट को ये जलपक्षी दूर से ही देख लेते थे और तुरंत पानी के नीचे चले जाते थे। निशाना अचूक होने पर भी गोली उनका बाल भी बांका नहीं कर पाती थी। कुछ देर बाद वे शिकारी को मुंह चिढ़ाते से पुनः पानी पर कल्लोल करने लगते, मानो कुछ हुआ ही न हो!

चहा को लेकर भी गोरे काफी परेशान रहते थे। जो चहा को मार गिरा सकता था, उसकी बंदूकअंदाजी का लोहा सब मानते थे। शत्रु से बचने के लिए चहा सीधा न उड़कर पल-पल दिशा बदलते हुए उड़ती है, जिससे शत्रु हमेशा धोखे में रहता है कि वह अगले पल कहां होगी। इस तरह उड़नेवाले पक्षी पर निशाना बांधना हंसी-खेल नहीं है।

Sunday, July 5, 2009

पक्षी जगत के लैला-मजनू



समस्त प्राणी जगत में यदि किसी प्राणी-समूह की प्रणय चेष्टाएं मनुष्यों की जितनी वैविध्यपूर्ण और आह्लादकारी कही जा सकती हैं, तो वह है पक्षियों की और खासकर जल-पक्षियों की। पक्षी भी हम मनुष्यों की ही तरह सज-धजकर अपने संगी-संगिनी को रिझाते हैं और उनके सामने तरह-तरह की चेष्टाएं करके उन्हें मुग्ध करने की कोशिश करते हैं। प्रणय-युगल एक-दूसरे में ऐसे रम जाते हैं कि बाहरी दुनिया की सुध-बुध खो देते हैं। ऐसे ही प्रणय-मग्न सारस युगलों में से एक को बहेलिए ने बाण से बींध दिया था और अपने संगी के वियोग में कातर विलाप करती सारसी को देखकर आदिकवि वाल्मीकी का हृदय द्रवित हो उठा था और उनके मुख से अनुष्टुप छंद में उद्गार निकले थे। आगे चलकर इसी छंद में संपूर्ण रामायण की रचना हुई। इस प्रकार जल-पक्षियों की प्रणय-क्रीड़ाएं साहित्य एवं कला को प्रेरणा देती हैं। इतना ही नहीं, वे स्वयं अपने-आप में अध्ययन एवं आस्वादन का एक अच्छा विषय हैं।

जैसा कि मनुष्यों में है, पक्षियों में भी प्रणय-चेष्टाओं में नर ही प्रायः पहल करता है। बहुत से पक्षी मधुर ध्वनि में गाकर, या नृत्य की छटा दिखाकर अथवा प्रजनन-काल में विशेष रूप से उग आए आकर्षक परों को उभाड़कर, या फिर मादा को किसी आकर्षक वस्तु (मछली, टहनी, पत्थर, पर आदि) की भेंट देकर, या उड़ने, तैरने या दौड़ने में कौशल दिखाकर मादा का दिल जीतने का प्रयत्न करते हैं।

चहा पानी के किनारे दिखने वाला एक आकर्षक पक्षी है, जिसकी लंबी चोंच और पंखनुमा पूंछ हमारा ध्यान बरबस आकर्षित कर लेती है। नर चहा अपनी संगिनी को एक विचित्र प्रकार से आकर्षित करता है। वह बड़ी ऊंचाई तक उड़कर तेजी से दिशा बदलते हुए नीचे की ओर कुछ दूर उड़ता है और फिर एकदम सीधा जमीन की ओर झपट पड़ता है। झपटते वक्त उसकी पूंछ के पर पंखे की तरह खुल जाते हैं और पंख बड़ी तेजी से कंपित होने लगते हैं। इस प्रकार झपटते समय पूंछ के दो लंबे पर शरीर के पीछे फड़फड़ाते हैं। इन परों के ऊपर से जब हवा गुजरती है तो वे थर्रा उठते हैं जिससे एक विशिष्ट प्रकार की ध्वनि होती है, जिसे अंगरेजी में "ड्रमिंग" कहा जाता है। चहा जब "ड्रमिंग" करते हुए उड़ रहा होता है, तो पुकारता भी जाता है, और उसकी पुकार का जवाब मादा देती है।

सारसों की अनेक जातियां विदेशों से हमारे यहां आती हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध साइबीरियाई सारस है। भारतीय सारस, जो हमारे यहां स्थानीय तौर पर पाया जाता है, भारत का सबसे ऊंचा पक्षी है। वह आदमी जितना ऊंचा एक भव्य पक्षी है। सारस वर्ग के सभी पक्षियों में प्रणय नृत्य अत्यंत मनोहारी एवं नाटकीय होता है। उनके झुंड किसी जलाशय में उतरकर प्रेमी-युगलों में बंट जाते हैं और अपने मनमोहक नृत्यों से अपनी प्रेमिकाओं और सभी देखनेवालों का मन जीत लेते हैं। सारस उम्र भर के लिए जोड़ा बनाते हैं। यदि किसी वजह से जोड़े में से एक मर जाए तो अनेक बार दूसरा भी उसके वियोग में प्राण त्याग देता है। लोक-मानस में इसी कारण इन पक्षियों के प्रति बड़ी श्रद्धा है। ग्रामीण लोग उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाते। प्रणय क्रीड़ा में रत नर सारस मादा के सामने नमन करता है और गर्दन आगे की ओर करके पंखों को अधखुला रखते हुए बड़ी नजाकत से मादा की ओर अपनी लंबी-लंबी टांगों को उठाकर बढ़ता है। यों बढ़ते समय वह एक-दो बार हवा में काफी ऊपर तक छलांग भी लगाता है और निरंतर तुरही की जैसी आवाज में पुकारता जाता है। यह आवाज दूर-दूर तक सुनाई देती है। मादा भी इस नृत्य में शामिल होती है और उल्लास में आकर नर के ही समान उछल-कूद मचाती है। इनकी यह प्रणय-क्रीड़ा चित्ताकर्षक होती है। एक तो इतने बड़े आकार के पक्षियों का यों पंख फैलाकर उछलना-कूदना बरबस ही हमारा ध्यान आकर्षित कर लेता है, दूसरे इनका व्यवहार एक-दूसरे के प्रति अत्यंत कोमल एवं प्रेमपूर्वक होता है। अनेक बार शाम ढलते ही नर और मादा सारस आकाश में कम ऊंचाई पर साथ-साथ गगन-विहार के लिए निकल पड़ते हैं और उड़ते-उड़ते पुकारते भी जाते हैं। क्षीण होती रोशनी, मंद-मंद बहती बयार और सारसों की खूबसूरत उड़ान एवं उनकी मनमोहक पुकार से जो समा बंधता है, उसके आकर्षण को वे ही समझ सकते हैं जिन्होंने यह दृश्य देखा हो।

बत्तखों में भी प्रणय-क्रीड़ा अत्यंत लुभावनी होती है। नीलसर में नर अपने सिर को नीचे की ओर दबाकर रखते हुए और परों को फुलाकर मादा के चारों ओर तैरता है। बार-बार सिर और पूंछ को इधर-उधर झटकता है। फिर वह गर्दन को खूब आगे बढ़ाकर अनियमित ढंग से तैरते हुए चोंच को बार-बार पानी में डालता है और छाती के परों को सहेजता है। चोंच को झटके से पानी में से बाहर निकालकर वह पानी को ऊपर हवा में उछालता है। इन सबके दौरान वह सीटी बजाता जाता है। मादा इसके प्रत्युत्तर में बोल पड़ती है, और शर्मीले अंदाज में सिर को दूसरी ओर करके नर के पीछे हो लेती है। अन्य बत्तखों में भी इससे मिलता-जुलता व्यवहार पाया जाता है।

पनडुब्बियों का प्रणय-नृत्य शायद समस्त जलपक्षियों में सर्वाधिक आकर्षक होता है। प्रजनन काल में इन छोटे, गोल-मटोल पक्षियों के सिर और गर्दन पर रंगीन पर उग आते हैं और वे एक कलगी भी विकसित कर लेते हैं। इनकी शोभा का प्रदर्शन करते हुए छोटे-बड़े ताल-तलैयों में तैरते हुए ये पक्षी आमतौर पर देखे जा सकते हैं। उनमें दो तरह के नृत्य देखे जाते हैं। एक में दोनों पक्षी पांव की उंगलियों पर पानी में पास-पास खड़े होकर इतनी तेजी से दौड़ते हैं कि पानी में किसी नाव के बड़ने पर बननेवाली तरंगों के समान तरंगें प्रकट होती हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो पैंग्वीन बर्फ पर दौड़ रहे हों। दौड़ के अंत में वे छाती के बल पानी में गिर पड़ते हैं जिससे पानी की एक छोटी लहर ऊपर उठ आती है।

दूसरे प्रकार के नृत्य में नर और मादा विपरीत दिशाओं से एक-दूसरे की ओर तैरते हैं और इतने पास आ जाते हैं कि सीने से सीना छूने लगता है। फिर वे एकाएक डुबकी लगाते हैं और काफी समय तक पानी के नीचे तैरते रहते हैं। जब वे पुनः ऊपर आते हैं, तो दोनों की चोंच में कोई-न-कोई जल-वनस्पति होती है। उनके पैर चप्पू के समान बड़ी तेजी से चलते हैं, जिससे संपूर्ण शरीर पानी के ऊपर उठ जाता है। इस तरह दोनों एक-दूसरे के नजदीक तैरते हैं और फिर अलग हो जाते हैं। ऐसा वे कई बार करते हैं। उनका हाव-भाव मनुष्यों जितना भाव-प्रवण एवं आकर्षक होता है।

मछारंग, मछलीमार, पनचील आदि शिकारी पक्षी जो उड़ने में अत्यंत दक्ष होते हैं, हवाई कलाबाजी दिखाकर मादा को रिझाने की कोशिश करते हैं। नर और मादा एक साथ उड़ान भरते हैं। शुरू में नर मादा के कुछ पीछे उड़ता है, पर कुछ ही समय में वह बड़ी तेजी से मादा के आगे निकल जाता है। फिर वह चक्कर काटते हुए आसमान में खूब ऊंचाई तक पहुंचकर वहां से तीर के वेग से नीचे की ओर लपकता है।

बलाक वर्ग के पक्षी जैसे चमरगेंच, घोंघिल, जांघिल आदि अपनी विशाल चोंच को चिमटे के समान बजाकर और अपनी लंबी-लंबी टांगों पर नृत्य करके मादा को रिझाते हैं। वे एक-दूसरे को टहनी, मछली, तिनका आदि की भेंट देकर उन्हें खुश करने की कोशिश करते हैं।

बगुलों में प्रजनन काल में आकर्षक पर उनकी गर्दन, सिर और छाती पर उग आते हैं। एक जमाने में इन परों के लिए उन्हें बड़े पैमाने पर मारा जाता था, क्योंकि इन परों को यूरोप और अमरीका की महिलाएं अपने हैट में लगाती थीं। बत्तखों जैसे कुछ पक्षियों में प्रजनन काल में संपूर्ण शरीर का रंग-विन्यास ही बदल जाता है।

प्रणय की ये विभिन्न चेष्टाएं प्रयोजनहीन नहीं होतीं। इनसे नर और मादा के बीच गाढ़ा संबंध पैदा हो जाता है। यह संबंध नर-मादा को समस्त प्रजनन काल में एक-दूसरे के साथ रहकर घोंसला बनाने, अंडों की देखभाल करने और चूजों को खिलाने-पिलाने की प्रेरणा देता है। सारस जैसे कुछ पक्षियों में यह बंधन उम्र भर का होता है। इतने लंबे समय तक एक-दूसरे के प्रति लगाव बनाए रखने के लिए साल-दर-साल दुहराई जानेवाली प्रणय-क्रीड़ाएं महत्वपूर्ण होती हैं।

मनुष्य का बराबर का साथी घोड़ा

पालतू किए गए सभी जानवरों में से केवल घोड़े को मनुष्य बराबरी की हैसियत देता है, क्योंकि घोड़ा युद्ध जैसे गंभीर मामलों से लेकर यातायात, सैर-सपाटा, खेती-बाड़ी, खेल-कूद, धर्म-कर्म, शिकार-मनोरंजन आदि सभी गतिविधियों में शरीक होता है। प्राचीन काल में अनेक क्षेत्रों में मनुष्य की सफलता-विफलता उसके घोड़े की शक्ति, बुद्धि एवं कुशलता पर निर्भर करती थी। इसलिए मनुष्य घोड़े को बहुत सम्मान देता था। चूंकि घोड़े सदा मनुष्यों के साथ रहते थे और काम करते थे, वे अपने मालिकों की बहुत सी आदतों को जान लेते थे। उनके मालिक भी उनके स्वभाव के बारे में काफी कुछ जानकारी प्राप्त कर लेते थे। इससे दोनों में एक खास तरह का रिश्ता और सम्मान की भावना पनपने लगती थी।

ऐसे बहुत कम जानवर होंगे जिन्होंने घोड़े के समान इतिहास में स्थान पाया हो। महाराणा प्रताप के शौर्य पराक्रम का उल्लेख आते ही उनके चेतक का भी सहसा स्मरण किया जाता है। सिकंदर का बुसिफालस नामक घोड़ा उसके सभी अभियानों में उसके साथ रहा। वह सिकंदर जितना ही साहसी और शक्तिशाली था। झेलम नदी के किनारे राजा पोरस के साथ हुए घमासान युद्ध के बाद बुसिफालस की मृत्यु हो गई। अपने प्रिय घोड़े के मरने से सिकंदर उतना ही दुखी हुआ जितना किसी बहुत प्यारे मनुष्य-मित्र के चल बसने पर होता। उसने बुसिफालस की याद में एक शहर बसाकर उसका नाम बुसिफाला रखा।

आर्य जाति के लोग आर्यावर्त के विशाल भूखंड पर अपने शक्तिशाली घोड़ों की सहायता से ही फैल पाए। वेद जैसे प्राचीन ग्रंथों में अनेक स्थलों पर घोड़ों का उल्लेख हुआ है। महाभारत युद्ध में कृष्ण ने अर्जुन के रथ के साथ जुते अश्वों के कुशल संचालन से पांडवों को विजयी बनाया। पांडवों में से नकुल और सहदेव अश्वपालन में बहुत कुशल थे।

प्राचीन काल में बिना युद्ध किए दिग्विजय करने के लिए राजा लोग अश्वमेध यज्ञ करते थे। वे अपने अस्तबल के सबसे बलिष्ठ घोड़े को स्वच्छंत विचरने के लिए खोल देते थे। उस घोड़े के साथ सेना भी चलती थी। घोड़ा किसी भी राज्य में घुस जाता था। यदि कोई उसे पकड़ने की कोशिश करता तो सेना उसे युद्ध के लिए ललकारती थी।

गंगाजी के भूलोक में अवतरण के पीछे भी घोड़े का हाथ है। राजा सगर ने अश्वमेध का घोड़ा मुक्त किया तो उसे इंद्र ने चुराकर पाताल लोक में महाविष्णु कपिलदेव के पास छोड़ दिया। सगर के 60 हजार पुत्र घोड़े को खोजते-खोजते कपिलदेव के पास पहुंचे। उस समय कपिलदेव ध्यान मग्न अवस्था में थे। घोड़े को उनके पास देखकर सगर के पुत्र समझ बैठे कि कपिलदेव ने ही उसे चुराया है और उन्हें बुरा भला कहने लगे। इससे कपिलदेव की समाधि टूटी और गुस्से में आकर उन्होंने जो हुंकार भरी, उससे सगर के सारे पुत्र जलकर राख हो गए। इसके अनेक साल बाद सगर के ही वंशज भगीरथ ने दैवलोक से गंगाजी को पृथ्वी पर लाकर राख में बदले अपने पूर्वजों को मोक्ष दिलाया।

भगवान श्री राम सगर के इसी कुल में पैदा हुए। रावण वध के बाद उन्होंने भी एक बार अश्वमेध यज्ञ किया और तब उनके द्वारा छोड़े गए घोड़े को उनके ही जुड़वे पुत्र लव-कुश ने कैद कर लिया। हनुमान और लक्ष्मण जैसे रणवीर भी उनसे घोड़ा छुड़ाने में असफल रहे और स्वयं राम को आना पड़ा। पुराणों के अनुसार सूर्य भगवान के रथ के साथ सात तीव्रगामी अश्व जुते हुए हैं, जो शायद इंद्रधनुष के सात रंगों के प्रतीक हैं। जब क्षीर सागर का मंथन हुआ तब उसमें से जो अनेक दिव्य पदार्थ निकले उनमें से एक घोड़ा भी था। घोड़े को लेकर इस प्रकार की अनेक कथाएं हमारे वेद-पुराणों में मौजूद हैं, जिससे यही पता चलता है कि घोड़ा हमारे पूर्वजों लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण पशु था।

घोड़ा मनुष्य के लिए इतना महत्वपूर्ण होते हुए भी उसे उसने कुत्ते, बकरी, गाय आदि को पालतू बनाने के बहुत दिनों बाद पालतू बनाया। सबसे पहले चीन में आज से हजारों साल पहले घोड़े पालतू बनाए गए। चीन के उत्तरी इलाकों के विस्तृत खुले मैदानों में घोड़े की जंगली जातियां रहती हैं। ईसा पूर्व 2000 की चित्रकला, मिट्टी के बर्तनों और अन्य कलाकृतियों में घोड़ों को दर्शाया गया है। पालतू घोड़ों का उपयोग सबसे पहले रथों को खींचने के लिए किया गया। मनुष्य ने घोड़े की सवारी करना लगाम, जीन आदि के आविष्कार के बाद ही सीखा।

घोड़ों का सबसे अधिक उपयोग युद्ध में हुआ है। टैंकों और जीपों के पहले सैनिकों को तेजी से एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए और शत्रु पर झपट पड़ने के लिए घोड़ों का उपयोग होता था। युद्ध में घोड़ों के उपयोग की कला में सबसे प्रवीण मध्य एशिया के कबीले थे। इन्हीं कबीलों में से एक के सरदार चंगेस खान ने मध्य युग में समस्त एशिया और यूरोप पर कब्जा जमा लिया था। इस दिग्विजय में उसके चुस्त दुरुस्त घोड़ों की निर्णायक भूमिका रही थी।

इसी प्रकार स्पेनवासी समस्त दक्षिण अमरीका पर घोड़ों की सहायता से ही कब्जा कर पाए। आज वहां जो लाखों घोड़े पाए जाते हैं, वे सब आज से चार-पांच सदी पहले स्पेनियों द्वारा यूरोप से जहाजों में भरकर वहां लाए गए घोड़ों के वंशज हैं। अमरीका के दोनों महाद्वीपों में प्राकृतिक रूप से घोड़े नहीं पाए जाते। जब यूरोपियों ने उत्तरी अमरीका के विशाल मैदानों में कृषि एवं पशुपालन करना शुरू किया तो घोड़ों ने इसमें उनकी बहुत मदद की। वहां के काउबॉय नामक अश्वारोहियों के साहस-पराक्रम पर अनेक पुस्तकें और फिल्में बनी हैं।

यों तो पालतू घोड़ों की अनेक नस्लें हैं, पर सबसे प्रसिद्ध अरब के घोड़े हैं। वे ईरान और अरब प्रायद्वीप में मूल रूप से पाए जाते हैं और इस्लाम धर्म के साथ विश्वभर में फैल गए। उनका शरीर छरहरा और खाल चिकनी होती है। खाल के नीचे नसें और पेशियां उभरी रहती हैं। सिर छोटा होता है। गर्दन घुमावदार होती है। वे काफी सहनशील और चुलबुले स्वभाव के होते हैं। आजकल घुड़दौड़ में जो घोड़े दौड़ाए जाते हैं, वे इसी नस्ल से विकसित किए गए घोड़े हैं। छोटी दूरियों के लिए वे आसानी से 60 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से दौड़ सकते हैं। आठ मीटर के फासलों को छलांग लगाकर पार करना उनके लिए मामूली बात है। वे 18 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से लगातार 150-200 किलोमीटर की दूरी तय कर सकते हैं। इसे देखते हुए यह समझना कठिन नहीं है कि मध्य युगों में जब न तो रेलें थीं न मोटरकारें, यातायात एवं सूचना-विनिमय में घोड़ों की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण थी।

भार खींचने में भी घोड़ा अद्भुत क्षमता रखता है। जिस प्रकार भारत में हल और गाड़ी खींचने के लिए बैलों का उपयोग होता है, उसी प्रकार यूरोप के ठंडे इलाकों में कृषि में और सामान की ढुलाई के लिए घोड़े उपयोग किए जाते थे। ये घोड़े एक भिन्न नस्ल के घोड़े थे। पहले इस नस्ल के घोड़ों का उपयोग युद्ध में होता था। यूरोप में उस समय योद्धा धातु के भारी-भरकम कवच पहनकर लंबे-लंबे भालों से युद्ध करते थे। इन भारी-भरकम कवचधारी योद्धाओं को नाइट कहा जाता था। उनके और उनके भारी कवच के भार को साधारण घोड़े संभाल नहीं सकते थे। इसलिए विशेष प्रकार के भारी एवं अधिक शक्तिशाली घोड़े विकसित किए गए। एसे घोड़ों को चार्जर कहा जाता था और यूरोपीय इतिहास में उनका बहुत महत्व है। बाद में कवचधारी योद्धाओं का प्रचलन बंद हो गया। तब इस तरह के शक्तिशाली घोड़ों को कृषि में और वाहन खींचने में लगाया गया। ये घोड़े बहुत ही विशाल आकार के होते हैं और उतने ही शक्तिशाली भी। उनके बाल लंबे और खुरदुरे होते हैं। वे अत्यंत शांत स्वभाव के होते हैं, कुछ-कुछ हमारे यहां के बैलों के समान।

जंगली अवस्था में घोड़े छोटे झुंडों में विचरते हैं जिनमें एक नर, अनेक घोड़ियां और उनके बच्चे होते हैं। नर झुंड का नेतृत्व करता है। वह अन्य नरों को झुंड में रहने नहीं देता और उन्हें दूर खदेड़ देता है। ये नर झुंड से कुछ दूर अलग से विचरते हैं और सरदार को हराकर झुंड को हथियाने या उसकी कुछ घोड़ियों को चुराने की फिराक में रहते हैं।

जिस खुले प्रदेश में घोड़ा रहता है, वहां उसका मुख्य शत्रु भेड़िए होते हैं। जब भेड़िए आते हैं तब कई बार नर सरदार आगे बढ़कर उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेता है और उन्हें झुंड से दूर ले जाता है। पीछे रह गई घोड़ियां एक वृत्त बना लेती हैं और बच्चों को बीच में रख लेती हैं। यदि नर झुंड के साथ रहा तो वह भेड़ियों पर झपट कर उन्हें तितर-बितर करने की चेष्टा करता है। इसके लिए वह पीछे के पैरों पर खड़ा होकर आगे के पैरों से प्रहार करता है। कभी-कभी झुंड से अलग किए गए अवयस्क नर भी उसकी सहायता के लिए आ जाते हैं। घोड़े आत्मरक्षा करते हुए दुलत्ती भी झाड़ते हैं और अपने आगे के बड़े-बड़े कृंतक दांतों से काटते भी हैं।

जब झुंड चर रहा होता है, तो सरदार कभी-कभी किसी ऊंची जगह पर चढ़कर चारों ओर दृष्टि घुमा लेता है। पानी पीते समय घोड़ियां और उनके बच्चे सबसे पहले जलाशय में उतरते हैं। नर सरदार अलग खड़ा रहकर पहरा देता है। जब वे सब पी चुके होते हैं, तब नर पानी पीता है।

सुस्ताते समय घोड़े एक वृत्त बनाकर खड़े हो जाते हैं। उनका मुंह वृत्त के अंदर की ओर रहता है और पूंछ बाहर की ओर। बच्चे वृत्त के अंदर रहते हैं। इससे झुंड को हिंस्र पशुओं से सुरक्षा मिल जाती है। सभी घोड़ों के एक साथ पूंछ हिलाने से मक्खी आदि कीड़े भी उन्हें अधिक परेशान नहीं कर पाते। बीच में बैठे बच्चों को न केवल सुरक्षा का एहसास होता है, बल्कि चारों ओर खड़े बड़े घोड़ों के शरीर की गरमी के कारण उन्हें मैदानों की कड़ाके की ठंड से भी राहत मिलती है। जब बर्फ की आंधियां आती हैं, तब भी घोड़े इस प्रकार वृत्त बनाकर खड़े होकर आंधी के थपेड़ों को झेलते हैं।

हाथियों के समान घोड़े भी खड़े-खड़े सो सकते हैं, यद्यपि लेटकर सोने में भी उन्हें कोई परहेज नहीं है। उनका गर्भाधान काल लगभग 336 दिन होता है। घोड़ी रात को ही ब्याती है। सामान्यतः घोड़े 25-30 साल जीवित रहते हैं। अमरीकी सेना का एक घोड़ा 44 साल जीवित रहा था। सबसे लंबी आयु प्राप्त घोड़ा 62 साल जिया।

घोड़ों की देखने की शक्ति कमजोर होती है, पर वे रंगों की पहचान कर सकते हैं। वे सुनने और सूंघने की शक्ति पर अधिक निर्भर करते हैं।

घोड़े खुले मैदानों के प्राणी हैं और घने जंगलों में अधिक नहीं जाते। खुले एवं विस्तृत मैदानों में रहने के कारण उनका दिशाज्ञान बहुत प्रबल होता है, वे आसानी से रास्ता नहीं भटकते। कई बार पालतू घोड़ों के सवार रास्ता भूल जाते हैं, पर उनके घोड़े उन्हें सही-सलामत घर पहुंचा देते हैं।


घोड़े की विकास यात्रा के पड़ाव

आज का शानदार एवं शक्तिशाली घोड़ा कुछ 5.5 करोड़ वर्ष पूर्व इस पृथ्वी पर प्रकट हुआ। तब वह कुत्ते के आकार का एक निरीह प्राणी था जिसके पैरों में उंगलियां थीं न कि खुर-- आगे के पैरों में चार उंगलियां और पीछे के पैरों में तीन। उसकी कंधे तक की ऊंचाई मात्र 38 सेंटीमीटर थी। लाखों वर्षों तक उसका विकास होता रहा और उसके आकार एवं शक्ति में वृद्धि होती रही। दौड़ने में सुविधा के लिए पैरों की उंगलियां खुर में बदल गईं। वास्तव में यह खुर बीच की ऊंगली का विकसित रूप ही है। बाकी ऊंगलियां लुप्त हो गई हैं। घोड़े को जिस रूप में हम आज जानते हैं, उस रूप में वह सर्वप्रथम मध्य एशिया के खुले विस्तृत घास के मैदानों में प्रकट हुआ।

मोटरकार के आविष्कार के बाद युद्ध, यातायात, कृषि आदि में घोड़ों का व्यावहारिक महत्व काफी घट गया है। फिर भी मनुष्य अपने प्रिय साथी को अंतिम विदाई देना नहीं चाहता। वह उसे घुड़-दौड़, खेल-कूद और शौक के नाम पर पालता है और उस पर प्यार बरसाता है।
 

हिन्दी ब्लॉग टिप्सः तीन कॉलम वाली टेम्पलेट