Friday, July 31, 2009

क्षीण हो रही है ओजोन परत

ऊपर आसमान में कुछ विचित्र सा घट रहा है। मनुष्यों को हानिकारक पराबैंगनी किरणों से सुरक्षा प्रदान करनेवाली ओजोन परत पतली होती जा रही है। पराबैंगनी किरणों के लगने के कारण चर्मकैंसर हो सकता है। संघातिक प्रकार के चर्मकैंसरों में ३० प्रतिशत रोगी पांच साल के अंदर मर जाते हैं। पराबैंगनी किरणों के कारण मोतियाबिंद भी होता है। अधिक संगीन मामलों में लोग इसके कारण अंधे हो सकते हैं। ओजोन परत क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) नामक मानव-निर्मित रसायनों के कारण पतली हो रही है।

पहले हम यही समझते थे कि सीएफसी एक वरदान हैं और वे मनुष्य के जीवन को समृद्ध और आरामदायक बना सकते हैं। सीएफसी कृत्रिम यौगिक होते हैं, जो क्लोरीन, कार्बन और फ्लोरीन से बने होते हैं। उनका न कोई रंग होता है न गंध। हमने दैनंदिन के कई कार्यों में सीएफसी का उपयोग किया है। मुख्यतः सीएफसी का उपयोग शीतलक के रूप में होता है। जब वे वाष्पीकृत होते हैं, वे आसपास से ऊष्मा ग्रहण करते हैं। इससे फ्रिजों में खाना ठंडा रहता है। वातानुकूलक सीएफसी के वाष्पीकरण ऊर्जा का उपयोग करके कमरों और वाहनों को ठंडा रखते हैं। विकासशील देशों में सीएफसी से यूरीथेन फोम बनाया जाता है जो कारों की सीटें आदि बनाने के काम आता है। सीएफसी का उपयोग सेमीकंडक्टरों को धोने के लिए विलायक के रूप में और ड्राइक्लीनिंग में भी होता है।

ओजोन परत का उद्गम प्राचीन महासागरों से हुआ है और वह धीरे-धीरे दो अरब वर्षों में पूरा बनकर तैयार हुआ है। ओजोन परत में जो ओजोन है उसका मूल स्रोत महासागरों के पादपों द्वारा किए गए प्रकाशसंश्लेषण के दौरान पैदा हुई आक्सीजन है। महासागरों से निकली आक्सीजन के अणु ऊपर उठते-उठते वायुमंडल के समताप मंडल में पहुंच जाते हैं। वहां वे परमाणुओं में टूट जाते हैं। ये परमाणु दुबारा जुड़कर ओजोन का निर्माण करते हैं। आक्सीजन के अणुओं के बिखरने और आक्सीजन के परमाणुओं के जुड़कर ओजन बनने के लिए आवश्यक ऊर्जा सूर्य से आनेवाली पराबैंगनी किरणों से प्राप्त होती है। ओजोन परत सूर्य से आनेवाली अधिकांश पराबैंगनी किरणों को इन क्रियाओं के लिए अवशोषित कर लेती है, जिससे ये अत्यंत घातक पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह तक पहुंचने नहीं पातीं।

लगभग ४० करोड़ वर्ष पूर्व ओजोन परत पूर्ण रूप से बन गई थी। उसके बन जाने से महासागरीय जीव-जंतु जमीन की ओर बढ़ सके क्योंकि वे अब ओजोन परत के कारण पराबैंगनी किरणों से सुरक्षित थे। इससे पूर्व केवल महासागरों में ही जीवन का अस्तित्व था, क्योंकि वही इन घातक किरणों से मुक्त था।

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में बड़ी मात्रा में सीएफसी वायुमंडल में छोड़े जाने लगे। समताप मंडल में पहुंचकर सीएफसी टूट जाते हैं, जिससे उनमें मौजूद क्लोरीन मुक्त हो जाती है। यह क्लोरीन ओजोन परत के लिए घातक होती है। जब ओजोन परत नष्ट हो जीती है, पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह तक फिर से पहुंचने लगती है। इससे चर्मकैंसर, मोतियाबिंद आदि होने लगते हैं, और मनुष्य सहित सभी जीव-जंतुओं का स्वास्थ्य संकट में पड़ जाता है।

विश्व भर की मौसम वेधशालाएं उपग्रहों और मौसम गुब्बारों के उपयोग से ओजोन परत का निरीक्षण कर रही हैं। उनके निरीक्षणों से चिंताजनक तथ्य सामने आए हैं। भूमध्यरेखीय प्रदेशों के अलावा बाकी सब स्थानों में ओजोन परत पतली हो रही है। ओजोन परत पतली तब आती है जब समताप मंडल में तापमान कम हो। ऊंचाई जितनी अधिक हो, ओजोन परत उतनी ही अधिक क्षीण हो रही है। सबसे अधिक नुक्सान अंटार्क्टिका के ऊपर देखा गया है। वहां ओजोन इतना कम हो गया है कि ओजोन परत में एक बड़ा छिद्र ही बन गया है। यह छिद्र वर्ष १९८० में प्रथम बार प्रकट हुआ था। यह छिद्र बढ़ता ही जा रहा है। यदि ओजोन की मात्रा 1 प्रतिशत घट जाए, तो पराबैंगनी किरणों के आतपन में १.५ प्रतिशत का इजाफा हो जाता है। पराबैंगनी किरणों के कारण होनेवाले रोग विश्व भर में बढ़ रहे हैं। सबसे अधिक चिंता चर्मकैंसर है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार २२ लाख व्यक्तियों को हर साल चर्मकैंसर हो जाता है। इनमें से २,००,००० व्यक्तियों में यह कैंसर संघातिक होता है। क्योटो विश्र्वविद्यालय में एक प्रयोग किया गया, जिसके अंतर्गत चूहों को सप्ताह में तीन दिन पराबैंगनी किरणों के सामने रखा गया। लगभग ४० सप्ताह बाद सभी चूहों में चर्मकैंसर के लक्षण देखे गए। जब शोधकर्ताओं ने इन चूहों के जीनों का परीक्षण किया, तो उन्होंने देखा कि कैंसर को रोकने वाले जीन इन चूहों में नदारद थे।

पराबैंगनी किरणें जीनों में उत्परिवर्तन लाती हैं, जिससे कैंसर हो जाता है। पराबैंगनी किरणें आंखों के लेन्स को भी नुक्सान पहुंचाती हैं, जिससे मोतियाबिंद हो जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार हर साल ३२ लाख व्यक्ति पराबैंगनी किरणों के कारण बने मोतियाबिंद से अंधे हो जाते हैं। पराबैंगनी किरणें फसलों को भी नुक्सान पहुंचाती हैं। यदि पराबैंगनी किरणों का आतपन बढ़ जाए, तो विश्व भर में पैदावार घट सकती है और पृथ्वी का संपूर्ण पारिस्थितिकीय तंत्र प्रभावित हो सकता है।

सीएफसी के कारण ओजोन परत का पतला होना एक गंभीर विश्व स्तरीय समस्या है। वर्ष १९८७ में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने मांट्रियल प्रोटोकोल अपनाकर सीएफसी में कमी लाने का निश्चय किया। इस प्रोटोकोल में शामिल देशों ने तय किया कि वर्ष १९९६ तक वे सीएफसी का उपयोग पूर्णतः बंद कर देंगे।

पश्चिमी देशों में उपयोग किए हुए सीएफसी की पुनर्प्राप्ति के कड़े नियम हैं। इससे वहां इन्हें हवा में छोड़े जाने की समस्या उतनी संगीन नहीं है। परंतु जापान तथा विकासशील देशों में ऐसे नियमों की कमी है। इन देशों का कहना है कि सीएफसी की पुनर्प्राप्ति अव्यावहारिक है। सबसे बड़ी समस्या इसमें आनेवाली ऊंची लागत है, जो हर वर्ष लगभग २६ अरब रुपए के बराबर है।

तेजी से विकसित होते एशिया में सीएफसी की मांग बढ़ती ही जा रही है। आज विश्व भर में जितना सीएफसी उपयोग किए जाते हैं, उसका आधा एशिया में होता है, मुख्यत चीन, जापान, भारत और आसियान देशों में। मांट्रियल प्रोटोकोल की धारा ५, १२२ विकासशील देशों को सीएफसी का उपयोग समाप्त करने के लिए कुछ अधिक समय देता है, ताकि उनका आर्थिक विकास न रुके। इन देशों को २०१० तक सीएफसी का उपयोग बंद करना है, जबकि समृद्ध देशों के लिए यह सीमा १९९६ है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने विकासशील देशों को सीएफसी के उपयोग में कमी लाने में मदद देने के लिए एक बहुपक्षीय कोष स्थापित किया है।

ओजोन परत के पूर्णत स्वस्थ होने के लिए काफी लंबा समय लगनेवाला है। इसका मतलब यह है कि हम सबको अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए आज इसी समय निर्णय लेना होगा कि हम सीएफसी का उपयोग नहीं करेंगे।

1 comments:

Himanshu Pandey said...

निश्चय ही सीएफसी का प्रयोग ओजोन परत के लिये घातक है । हमें सचेत होकर आवश्यक कदम उठाने ही होंगे ।
महत्वपूर्ण आलेख के लिये आभार ।

Post a Comment

 

हिन्दी ब्लॉग टिप्सः तीन कॉलम वाली टेम्पलेट