विश्व के जिन देशों पर विदेशी कर्ज का बोझ सबसे अधिक है, उनमें से अग्रणी है दक्षिण अमरीका का विशाल देश ब्राजील। इस पर विदेशी कर्ज का संकट तो है ही, तेल की बढ़ती कीमत के कारण इसकी आर्थिक स्थिति और बिगड़ती गई है। उपलब्ध विदेशी मुद्रा का आधा तो आयातित तेल के भुगतान पर ही खर्च हो जाता है। मोटर कार निर्माण इस देश का प्रमुख उद्योग है। तेल की बढ़ती कीमत के कारण इस उद्योग को भी मंदी का सामना करना पड़ रहा है। साथ ही देश की संपूर्ण अर्थव्यवस्था ही डांवाडोल होने लगी है।
देश के कर्णधारों को स्पष्ट हुआ कि अर्थव्यस्था को स्थिर करने के लिए आयातित तेल पर निर्भरता कम करनी होगी। तेल के विकल्प के रूप में ब्राजील के विशाल गन्ने की फसल से उत्पन्न एल्कहॉल के उपयोग को प्रोत्साहन दिया जाने लगा। एल्कहॉल के उत्पादन और वितरण की विस्तृत प्रणाली अब देश भर में कायम हो गई है। ब्राजील में बिकने वाले नब्बे प्रतिशत कारें एल्कहॉल से चलती हैं।
इस कार्यक्रम का सबसे पहला लाभ आर्थिक था। देश तेल आयातित करने में खर्च होने वाली विदेशी मुद्रा बचा सका। दूसरा लाभ यह था कि एल्कहॉल उद्योग द्वारा पैदा किए गए रोजगार के असंख्य अवसरों से देश में फैली व्यापक बेरोजगारी में कमी आई। तीसरा लाभ था एक ऐसी स्थानीय प्रौद्योगिकी का विकास जिसके लिए किसी भी विदेशी मुल्क का मुंह नहीं जोहना पड़ता था। परंतु सबसे महत्वपूर्ण लाभ तो पर्यावरणीय दृष्टि से मिला। डीजल या पेट्रोल की तुलना में एल्कहॉल अधिक साफ-सुथरा ईंधन है। एल्कहॉल के व्यापक उपयोग से ब्राजील के शहरों में वायु प्रदूषण बहुत कम हो गया है।
किंतु इतने व्यापक पैमाने पर परिवर्तन लाना बहुत आसान काम नहीं था। एल्कहॉल प्राकृतिक तेल के मुकाबले महंगा ईंधन है। अतः उसे आम लोगों के लिए सुलभ बनाने के लिए सरकार को उसे रियायती दरों पर उपलब्ध करना पड़ा।
ईंधन के रूप में एल्कहॉल तैयार करने के लिए एक बहुत बड़े क्षेत्र पर गन्ना उगाने की आवश्यकता हुई। बहुत-सी खेती योग्य जमीन पर जिस पर पहले अन्न उगाया जाता था, अब गन्ना उगाया जा रहा है। दूसरी ओर ब्राजील के दुर्लभ उष्णकटिबंधीय वर्षावनों को जलाकर गन्ने के लिए जमीन तैयार की जाने लगी है।
परंतु एल्कहॉल के पक्ष में यह महत्वपूर्ण तथ्य भी है कि वह खनिज तेल के समान अनवीकरणीय ईंधन नहीं है। अब कृषि-वैज्ञानिक गन्ने के पैदावार बढ़ाने के लिए अनुसंधान कर रहे हैं, ताकि कम से कम जमीन से आवश्यक गन्ना पैदा कर लिया जा सके। एल्कहॉल उद्योग को भी अधिक कार्यक्षम बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं। पहले रस निकालने के बाद गन्ने के डंठलों को फेंक दिया जाता था। अब इसके नए-नए उपयोग खोजे गए हैं, जो ब्राजील की ईंधन की समस्या को सुलझाने में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।
सान मारटिंदो एल्कहॉल बनाने वाले बड़े से बड़े कारखानों में से एक है। इस कारखाने में 1976 से तेल के स्थान पर गन्ने के रस के अवशिष्टों को जलाकर ऊर्जा प्राप्त करने के लिए प्रयोग चल रहा है। अब संपूर्ण बिजली की आवश्यकता गन्ने के अविशिष्टों को जलाकर प्राप्त की जाती है। इसके अलावा दो मेगावाट बिजली अन्य कारखानों को बेची भी जाती है। सच तो यह है कि देश का दस प्रतिशत बिजली का उत्पादन गन्ने के अवशिष्टों को जलाकर होता है।
एक अन्य कारखाने में गन्ने के अविशिष्टों के लिए एक और उपयोग विकसित कर लिया गया है। अवशिष्टों को भाप में पकाकर और उसमें खमीर मिलाकर पशुओं को खिलाने योग्य, उच्च कोटि का प्रोटीनयुक्त चारा तैयार किया जाता है, जिसे विदेशों को बेचकर विदेशी मुद्रा भी कमाई जा सकती है।
ब्राजील का एल्कहॉल कार्यक्रम साबित करता है कि तेल पर आधारित उद्योग प्रणाली को किसी अन्य ऊर्जा स्रोत से भी चलाया जा सकता है। ब्राजील ने जो मार्ग अपनाया है वह शायद हमारे देश के लिए उपयुक्त न हो, क्योंकि इस घने बसे देश में व्यापक पैमाने पर गन्ने की खेती के लिए जमीन न मिल सके, परंतु ब्राजील का उदाहरण हमें सोचने पर मजबूर कर देता है कि जिस प्रकार ब्राजील ने अपनी परिस्थितियों के अनुकूल तेल का विकल्प ढूढ़ने में सफलता पाई है, वैसे ही हम भी अपने देश की परिस्थितियों के अनुकूल तेल का कोई दूसरा विकल्प ढूंढ़ सकते हैं और तेल आयात करने में खर्च होने वाली विदेशी मुद्रा बचा सकते हैं। इतना ही नहीं, एक कम प्रदूषणकारी औद्योगिक व्यवस्था की नींव भी रख सकते हैं। हमारे लिए सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, बयो गैस आदि नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत काफी संभावनाएं लिए हुए हैं।
Wednesday, July 29, 2009
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5 comments:
अच्छी जानकारी.
मोटर ईंधन में एथेनॉल की 5% डोपिंग भारत में भी प्रारम्भ हो चुकी है। सपना तो था इसे पहले 10 और बाद में 25% तक बढ़ाने का। लेकिन सरकार की नियंत्रण नीति, गन्ना कारखानों की अपनी समस्याएँ और जल मिश्रण रोकने में असफलता और सबसे आगे अपने 'बाबू' लोग -वही ब्यूरोक्रेसी!
5% भी अभी तक नियमित नहीं हो पाया है। ब्राजील से सबक हम कब लेंगे?
जब यह काम शुरू हुआ तो एक डीलर ने टिप्पणी किया था,"अब तक ड्राइवर ही दारू पीकर चलाते थे। अब तो गाड़ियाँ भी दारू पी कर चलेंगीं"। ;)
भारत में एसा हुआ तो गुजरात जैसे राज्यों में लोग गाड़ी में 10 लीटर के साथ-साथ 2 लीटर पैट में भी भरवा लेगें
प्रयोग तो हमारे यहाँ भी बहुत हुए है पौधे से तेल बनाने के और सफ़ल भी हुए हैं पर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के चलते भारत में शायद कुछ नहीं हो सकता है।
ब्राजील से हम कुछ तो सीख लें..
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