Thursday, September 3, 2009

गिद्धों को खाते हैं बपाटला के लोग

खाने के मामले में सहमति प्राप्त करना मुश्किल होता है। जिसे कुछ लोग बड़े चाव से खाते हैं, उसका नाम भर सुन लेने से दूसरे लोगों को कय होने लगता है। फ्रांस के लोग मेंढ़क के पैरों को बड़े उत्साह से खाते हैं, पर क्या आप या मैं इस बेहूदी चीज को मुंह में लाएंगे? एक दूसरा उदाहरण गिद्ध हैं। चाहे आप जितने बड़े पेटू हों, गिद्ध के नाम से आपकी भूख हवा हो जाएगी। ''शव खानेवाले ये घिनौने पक्षी भी कहीं खाने की चीज हो सकते हैं, छि! छि! छि!'', आप घृणा से कह उठेंगे।

यही सवाल आंध्र प्रदेश के बपाटला कसबे के बांदा आदिवासियों से पूछ कर देखिए, उत्तर आपको हां में मिलेगा। उनके लिए गिद्ध वैसे ही खाने लायक चीज है जैसे हममें से कुछ लोगों के लिए मुर्गी! बांदा गिद्ध को ही नहीं, बल्कि कौए जैसे अन्य शवभोजी पक्षियों को भी खाते हैं। खाने के मामले में उनकी पसंद-नापसंद इतनी विलक्षण है कि बत्तख, क्रौंच, हंस आदि पक्षियों को, जिन्हें हम खाने योग्य मानते हैं, ये लोग छूते भी नहीं हैं। ये पक्षी इनके गांवों में खूब संख्या में पाए जाते हैं।

किसी भी गांव या शहर में गिद्ध स्थिर पंखों पर बहुत ऊंचे चक्कर काटते हुए या मरे जानवरों पर भीड़ लगाते हुए दिख जाएंगे। परंतु बपाटला के चारों ओर लगभग 50 किलोमीटर की दूरी तक आपको गिद्ध बिरले ही मिलेंगे। आपका अनुमान सही था। बांदा लोगों ने उन सबको चट कर लिया है।

मजे की बात यह है कि बांदा लोगों ने गिद्ध खाना हाल ही में शुरू किया है। पच्चीस वर्ष पहले बपाटला में भी गिद्ध अन्य जगहों के ही समान पाए जाते थे। किसी को नहीं मालूम कि इन लोगों ने गिद्धों को क्यों खाना शुरू किया।

बांदा वासी गिद्धों को बड़े-बड़े जालों में पकड़ते हैं। बहुत ही मजबूत धागे से बने और लकड़ी के चौखट पर तने ये जाल एक-साथ दस गिद्धों को पकड़ सकते हैं। जाल के छेद बैडमिंटन के जालों के छेद जितने बड़े होते हैं। चमर गिद्ध (वाइटबेक्ड वल्चर), राजगिद्ध (किंग वल्चर) और गोबर गिद्ध (स्केवेंजर वल्चर), गिद्धों की ये तीनों सामान्य जातियां इनका शिकार बनती हैं।

बांदा गिद्धों के घोंसलों से अंडों और चूजों को भी चुराते हैं। इनके लिए वे ऊंचे चट्टानों पर चढ़ जाते हैं जहां ये घोंसले होते हैं। गिद्ध इन मानव शत्रुओं से इतने डरते हैं कि उन्होंने बांदा इलाकों में घोंसला बनाना ही छोड़ दिया है। यहां पिछले दस वर्षों में एक भी घोंसला नहीं मिला है।

इस विचित्र पसंद का एक नकारात्मक पहलू भी है। बपाटला के गांवों में आपको जगह-जगह मरे जानवर पड़े-पड़े सड़ते और दुर्गंध फैलाते मिलेंगे, क्योंकि उन्हें खाने के लिए गिद्ध वहां नहीं हैं।

Wednesday, September 2, 2009

जटिंगा का रहस्य

असम के एक छोटे-से पहाड़ी गांव जटिंगा में हर साल अगस्त-अक्तूबर के दरमियान एक विचित्र एवं रहस्यमयी घटना घटती है, जिसने विश्वभर के वैज्ञानिकों को चकित कर रखा है।

कुछ विशेष परिस्थितियों में जटिंगा में रात में जलाए गए किसी भी रोशनी की ओर बीसियों पक्षी आकर्षित होकर आते हैं, कुछ-कुछ वैसे ही जैसे अन्य जगहों में दिए की ओर पतंगे आते हैं। पक्षियों के आकर्षित होने के लिए निम्नलिखित परिस्थितियों का होना जरूरी हैः- अमावास की रात हो, हल्की बारिश गिर रही हो, धुंध छाया हुआ हो और हवा का बहाव दक्षिण से पश्चिम की ओर हो। पक्षियों का यह अनोखा व्यवहार केवल जटिंगा में देखा जाता है, आसपास के अन्य गांवों में नहीं।

ये पक्षी जटिंगा के स्थानीय पक्षी नहीं होते हैं और इन्हें दिन के समय में शायद ही कभी देखा जाता है। लगभग 45 जातियों के पक्षी रोशनी की ओर आकर्षण महसूस करते हैं। इनमें से अधिकांश जलपक्षी हैं। ये अपना घोंसला जमीन पर ही अथवा छिछले पानी में बनाते हैं।

इतने सारे पक्षी जटिंगा की रोशनियों की ओर खिंचाव क्यों महसूस करते हैं और केवल जटिंगा की रोशनियों की ओर ही क्यों? इसका उत्तर अब भी ठीक-ठीक ज्ञात नहीं है, परंतु इसमें जटिंगा की भौगोलिक एवं मौसमी विशेषताओं और पक्षियों की नीड़न एवं प्रवसन गतिविधियों का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है।

जटिंगा एक पठार पर स्थित है। असम के उत्तर कछार पहाड़ी जिले में स्थित यह पठार बोराइल पर्वत माला से दक्षिण-पश्चिम दिशा में निकला हुआ है। सारा क्षेत्र घने वनों से आच्छादित है और नदी-नालों और ऊबड़-खाबड़ प्रदेशों से भरा है। अगस्त-अक्तूबर के दौरान इस इलाके में भारी मानसूनी वर्षा होती है, जिसकी शुरुआत अप्रैल से ही हो जाती है सितंबर और अगस्त महीनों में तो जटिंगा में अधिकांश समय बारिश होती रहती है और आर्द्रता 85-90 प्रतिशत जितनी रहती है। लगभग निरंतर प्रबल हवाएं चलती रहती हैं। जटिंगा गहरे धुंध में समाया रहता है। आसपास के सभी निचाईवाले इलाके पानी से भर जाते हैं।

निरंतर बारिश और नीड़न स्थलों में पानी भर जाने के कारण जलपक्षियों को घोंसले त्यागकर सुरक्षित स्थानों की खोज में निकलना पड़ता है। सुरक्षित स्थानों की खोज में ये पक्षी किसी निश्चित योजना के अनुसार नहीं निकल पड़ते, जैसा कि वे प्रवास यात्रा के दौरान करते हैं। यह इस बात से स्पष्ट है कि वे पक्षी भी जो साधारणतः झुंडों में रहते हैं, जटिंगा की ओर एक-दो करके ही आते हैं।

पक्षी नदियों, घाटियों और नालों के ऊपर-ऊपर उड़ आते हैं। संभवतः ये ही सर्वाधिक सुगम मार्ग होते हैं। धुंध और बारिश के कारण वे दिग्भ्रमित हो जाते होंगे और अंधेरी रात में दिखाई पड़ने वाली किसी भी रोशनी की ओर बढ़ चलते होंगे। जटिंगा कुछ ऊंचाई पर स्थित है। इसलिए वह पक्षियों के उड़ान मार्ग में अवरोध बनकर आता होगा। खराब मौसम से परेशान पक्षी जटिंगा में पड़ाव डालने के लिए विवश हो जाते होंगे।

रोशनी की ओर पक्षियों का आकर्षण विश्व के अन्य भागों में भी देखा गया है। उदाहरण के लिए अनेक तटीय इलाकों में प्रवासी पक्षी दीपस्तंभों की प्रबल रोशनी से आकर्षित होकर उनसे टकरा जाते हैं। सुप्रसिद्ध पक्षीविद डा सलीम अली ने अपनी आत्मकथा "द फॉल ऑफ ए स्पैरो" में जर्मनी के हेलिगोलोड नामक स्थान का उल्लेख किया है जहां अक्सर ऐसे हादसे होते हैं। संभवतः जटिंगा का प्रसंग भी ऐसी ही कोई घटना है।

Tuesday, September 1, 2009

औषधों की खान नीम

नीम गहरी जड़ वाला, मध्यम ऊंचाई का, साल भर हरा रहनेवाला और मध्यम तेजी से बढ़नेवाला वृक्ष है। उसकी ऊंचाई 18 मीटर तक होती है। उसका ऊपरी घेरा गोलाकार या अंडाकार होता है। उसकी छाल मोटी और भूरे रंग की होती है और अंदर की लकड़ी लाल रंग की होती है।

नीम हर प्रकार की जमीन में अच्छी प्रकार से उग सकता है। उसकी जड़ें काफी गहराई से पानी और पोषक तत्व प्राप्त करने में सक्षम होती हैं। नीम क्षारयुक्त जमीन में भी पैदा हो सकता है। किंतु जहां पानी भरा रहता हो, वहां वह नहीं होता। सूखी जलवायु उसे पसंद है। वह बहुत अधिक ठंड और गरमी (0-45 डिग्री सेल्सियस तक) भी सहन कर सकता है। 1500 मीटर तक की ऊंचाई और 450-1150 मिलीमीटर वर्षा वाले क्षेत्र में वह होता है।

नीम पर सफेद फूल मार्च से अप्रैल के बीच आते हैं। इन फूलों से निंबोली तैयार होती है। कच्ची निंबोली हरे रंग की होती है और पकने पर पीले रंग की हो जाती है। निंबोलियां जून में झड़ जाती हैं। इन निंबोलियों से नीम के बीज प्राप्त होते हैं। ये बीज दो-तीन सप्ताहों तक ही स्फुरण करने की क्षमता बनाए रख पाते हैं। इसलिए हर वर्ष बीजों को नए सिरे से इकट्ठा किया जाता है। ताजे बीजों को कुछ दिनों तक धूप में सुखा लेने से उनकी स्फुरण क्षमता बढ़ती है। बोने के पांच वर्ष बाद पेड़ पर निंबोलियां आने लगती हैं। एक वृक्ष हर वर्ष 50-100 किलो निंबोलियां पैदा कर सकता है। नीम से एक हेक्टेयर में आठ वर्ष बाद 20 से 170 घन मीटर लकड़ी मिलती है।



नीम की लकड़ी का ईंधन के तौर पर उपयोग होता है। वह बहुत सख्त, मजबूत और टिकाऊ होती है, उसे कीट भी नहीं लगते। इस कारण उससे मकान, मेज-कुर्सी और खेती के औजार बनाए जाते हैं। नीम की हरी और पतली टहनियों से दातुन किया जाता है। नीम के पत्तों का हरी खाद के रूप में भी उपयोग होता है। नीम के पत्तों और बीजों में ऐजिडिरेक्ट्रिन नाम का रसायन होता है जो एक कारगर कीटनाशक है। मच्छर भगाने के लिए नीम के पत्तों का धुंआ किया जाता है। कीटों से अनाज की रक्षा के लिए अनाज की बोरियों और गोदामों में नीम के पत्ते रखे जाते हैं। नीम के गोंद से अनेक दवाएं बनाई जाती हैं। नीम के फल से बीज निकालने के बाद जो गूदा बचता है उसे सड़ाकर मिथेन गैस तैयार की जाती है, जिसे ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

नीम के बीजों में करीब 40 प्रतिशत तेल होता है। यह तेल दिए जलाने में, साबुन, दवाइयां कीटनाशक आदि बनाने में और मशीनों की आइलिंग में काम आता है। तेल निकालने के बाद बची खली पशुओं को खिलाई जा सकती है। नीम की छाल में जो टेनिन पाया जाता है उससे चमड़ा पकाया जा सकता है।

नीम आज अंतरराष्ट्रीय विवाद का कारण बना हुआ है। अमरीका की एक कंपनी ने उसके बीजों में मौजूद ऐजिडेरिक्ट्रिन नामक पदार्थ से एक टिकाऊ कीटनाशक बनाने की विधि को पेटेंट कर लिया है। भारत के अनेक वैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ता इससे बहुत नाराज हैं क्योंकि वे कहते हैं कि भारत के किसान सदियों से नीम के बीजों से प्राप्त तेल से कीटों को मारते आ रहे हैं, इसलिए अमरीका की इस कंपनी द्वारा नीम को पेंटट करना अनैतिक है। यह एक प्रकार से भारतीय किसानों के परंपरागत ज्ञान की चोरी है।

Monday, August 17, 2009

पर्यावरण समस्या और समाधान

सामान्य जीवन प्रक्रिया में जब अवरोध होता है तब पर्यावरण की समस्या जन्म लेती है। यह अवरोध प्रकृति के कुछ तत्वों के अपनी मौलिक अवस्था में न रहने और विकृत हो जाने से प्रकट होता है। इन तत्वों में प्रमुख हैं जल, वायु, मिट्टी आदि। पर्यावरणीय समस्याओं से मनुष्य और अन्य जीवधारियों को अपना सामान्य जीवन जीने में कठिनाई होने लगती है और कई बार जीवन-मरण का सवाल पैदा हो जाता है।

प्रदूषण भी एक पर्यावरणीय समस्या है जो आज एक विश्वव्यापी समस्या बन गई है। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और इंसान सब उसकी चपेट में हैं। उद्योगों और मोटरवाहनों का बढ़ता उत्सर्जन और वृक्षों की निर्मम कटाई प्रदूषण के कुछ मुख्य कारण हैं। कारखानों, बिजलीघरों और मोटरवाहनों में खनिज ईंधनों (डीजल, पेट्रोल, कोयला आदि) का अंधाधुंध प्रयोग होता है। इनको जलाने पर कार्बन डाइआक्साइड, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड आदि गैसें निकलती हैं। इनके कारण हरितगृह प्रभाव नामक वायुमंडलीय प्रक्रिया को बल मिलता है, जो पृथ्वी के तापमान में वृद्धि करता है और मौसम में अवांछनीय बदलाव ला देता है। अन्य औद्योगिक गतिविधियों से क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) नामक मानव-निर्मित गैस का उत्सर्जन होता है जो उच्च वायुमंडल के ओजोन परत को नुकसान पहुंचाती है। यह परत सूर्य के खतरनाक पराबैंगनी विकिरणों से हमें बचाती है। सीएफसी हरितगृह प्रभाव में भी योगदान करते हैं। इन गैसों के उत्सर्जन से पृथ्वी के वायुमंडल का तापमान लगातार बढ़ रहा है। साथ ही समुद्र का तापमान भी बढ़ने लगा है। पिछले सौ सालों में वायुमंडल का तापमान 3 से 6 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। लगातार बढ़ते तापमान से दोनों ध्रुवों पर बर्फ गलने लगेगी। अनुमान लगाया गया है कि इससे समुद्र का जल एक से तीन मिमी प्रतिवर्ष की दर से बढ़ेगा। अगर समुद्र का जलस्तर दो मीटर बढ़ गया तो मालद्वीप और बंग्लादेश जैसे निचाईवाले देश डूब जाएंगे। इसके अलावा मौसम में बदलाव आ सकता है - कुछ क्षेत्रों में सूखा पड़ेगा तो कुछ जगहों पर तूफान आएगा और कहीं भारी वर्षा होगी।

प्रदूषक गैसें मनुष्य और जीवधारियों में अनेक जानलेवा बीमारियों का कारण बन सकती हैं। एक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि वायु प्रदूषण से केवल 36 शहरों में प्रतिवर्ष 51,779 लोगों की अकाल मृत्यु हो जाती है। कलकत्ता, कानपुर तथा हैदराबाद में वायु प्रदूषण से होने वाली मृत्युदर पिछले 3-4 सालों में दुगुनी हो गई है। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में प्रदूषण के कारण हर दिन करीब 150 लोग मरते हैं और सैकड़ों लोगों को फेफड़े और हृदय की जानलेवा बीमारियां हो जाती हैं।
उद्योगीकरण और शहरीकरण से जुड़ी एक दूसरी समस्या है जल प्रदूषण। बहुत बार उद्योगों का रासायनिक कचरा और प्रदूषित पानी तथा शहरी कूड़ा-करकट नदियों में छोड़ दिया जाता है। इससे नदियां अत्यधिक प्रदूषित होने लगी हैं। भारत में ऐसी कई नदियां हैं, जिनका जल अब अशुद्ध हो गया है। इनमें पवित्र गंगा भी शामिल है। पानी में कार्बनिक पदार्थों (मुख्यतः मल-मूत्र) के सड़ने से अमोनिया और हाइड्रोजन सलफाइड जैसी गैसें उत्सर्जित होती हैं और जल में घुली आक्सीजन कम हो जाती है, जिससे मछलियां मरने लगती हैं। प्रदूषित जल में अनेक रोगाणु भी पाए जाते हैं, जो मानव एवं पशु के स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा हैं। दूषित पानी पीने से ब्लड कैंसर, जिगर कैंसर, त्वचा कैंसर, हड्डी-रोग, हृदय एवं गुर्दों की तकलीफें और पेट की अनेक बीमारियां हो सकती हैं, जिनसे हमारे देश में हजारों लोग हर साल मरते हैं।

एक अन्य पर्यावरणीय समस्या वनों की कटाई है। विश्व में प्रति वर्ष 1.1 करोड़ हेक्टेयर वन काटा जाता है। अकेले भारत में 10 लाख हेक्टेयर वन काटा जा रहा है। वनों के विनाश के कारण वन्यजीव लुप्त हो रहे हैं। वनों के क्षेत्रफल में लगातार होती कमी के कारण भूमि का कटाव और रेगिस्तान का फैलाव बढ़े पैमाने पर होने लगा है।

फसल का अधिक उत्पादन लेने के लिए और फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को मारने के लिए कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है। अधिक मात्रा में उपयोग से ये ही कीटनाशक अब जमीन के जैविक चक्र और मनुष्य के स्वास्थ्य को क्षति पहुंचा रहे हैं। हानिकारक कीटों के साथ मकड़ी, केंचुए, मधुमक्खी आदि फसल के लिए उपयोगी कीट भी उनसे मर जाते हैं। इससे भी अधिक चिंतनीय बात यह है कि फल, सब्जी और अनाज में कीटनाशकों का जहर लगा रह जाता है, और मनुष्य और पशु द्वारा इन खाद्य पदार्थों के खाए जाने पर ये कीटनाशक उनके लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध होते हैं।

आज ये सब पर्यावरणीय समस्याएं विश्व के सामने मुंह बाए खड़ी हैं। विकास की अंधी दौड़ के पीछे मानव प्रकृति का नाश करने लगा है। सब कुछ पाने की लालसा में वह प्रकृति के नियमों को तोड़ने लगा है। प्रकृति तभी तक साथ देती है, जब तक उसके नियमों के मुताबिक उससे लिया जाए।

एक बार गांधीजी ने दातुन मंगवाई। किसी ने नीम की पूरी डाली तोड़कर उन्हें ला दिया। यह देखकर गांधीजी उस व्यक्ति पर बहुत बिगड़े। उसे डांटते हुए उन्होंने कहा, ''जब छोटे से टुकड़े से मेरा काम चल सकता था तो पूरी डाली क्यों तोड़ी? यह न जाने कितने व्यक्तियों के उपयोग में आ सकती थी।'' गांधीजी की इस फटकार से हम सबको भी सीख लेनी चाहिए। प्रकृति से हमें उतना ही लेना चाहिए जितने से हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है। पर्यावरणीय समस्याओं से पार पाने का यही एकमात्र रास्ता है।

Sunday, August 16, 2009

पुरा गांव की गोबर गैस परियोजना

पुरा दक्षिण भारत में स्थित एक छोटा सा गांव है। यहां एक अनोखा प्रयोग चल रहा है जो लोगों की जीवन-शैली में क्रांतिकारी परिवर्तन ला रहा है। न तो इस गांव में विकास के नाम पर बड़े-बड़े कारखाने लगाए गए हैं, न उद्योग, परंतु स्थानीय संसाधनों के बेहतर उपयोग पर ध्यान देकर लोगों का जीवन स्तर उठाया जा रहा है। फलतः न तो यहां बड़े उद्योग से संबंधित प्रदूषण आदि की समस्याएं हैं और न ही लोगों को उद्योगों और बांधों के लिए विस्थापित होना पड़ा है।

इस परियोजना में मवेशियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। सारे गांव में लगभग ढाई सौ गाएं हैं, यानी प्रति व्यक्ति दो गाएं। गोबर का उपयोग पहले खेतों में मिलाने और ईंधन के रूप में किया जाता था। परंतु अब प्रत्येक घर से गोबर इकट्ठा करके दो पूर्व नियुक्त प्रतिनिधियों को सौंप दिया जाता है। इस गोबर के लिए गांववालों को एक रुपया प्रति पचास किलो गोबर के हिसाब से पैसे भी मिलते हैं। परंतु गांव वालों को मिलने वाला असली मूल्य इस पैसे में नहीं है। हर सुबह सभी घरों से गोबर आ जाने के बाद ये पूर्व नियुक्त प्रतिनिध गोबर को पानी में घोलकर साइफन पद्धति से पांच-पांच मीटर गहरे गर्तों में उंड़ेलते हैं। ये गर्त धातु के ढक्कनों से ढके हैं। गोबर इन गर्तों में सड़ता है और इससे उत्पन्न होती है मीथेन या गोबर गैस।

गोबर गैस का उपयोग एक छोटे विद्युत जनित्र को चलाने के लिए होता है। गांव वालों को सुबह और शाम दो-तीन घंटे के लिए बिजली प्राप्त होती है।

बिजली के आने से गांव वालों को बहुत लाभ हुआ है। पहले महिलाओं को दूर-दूर से पानी लाना पड़ता था। अब बिजली की सहायता से पानी पंप करके एक टंकी में भरा जाता है। इस टंकी के साथ आठ नल जुड़े हैं जिनसे लोगों और मवेशियों को पानी उपलब्ध होता है। घरों में बिजली आ जाने से बच्चे देर रात तक पढ़ सकते हैं। समय-समय पर गर्तों से खाद निकाल लिया जाता है। इसकी उर्वरक क्षमता गोबर से कहीं अधिक होती है। इसे खेतों में मिलाकर पुरा के गांववालों की जमीन अच्छी और उपजाऊ हो गई है।

पुरा गांव की गोबर गैस परियोजना अमुल्या रेड्डी नामक वैज्ञानिक द्वारा विकसित की गई है। उन्होंने पहले गांव वालों की जीवन-शैली का अध्ययन किया और फिर उनकी आवश्यकताओं के अनुसार परियोजना तैयार की। उन्होंने इसका भी ध्यान रखा कि परियोजना के हर स्तर पर लोगों को शामिल किया जाए। पुरा गांव को इस परियोजना के लिए चुने जाने के पीछे तर्क यह था कि यह गांव भारत के एक औसत गांव का प्रतिनिधित्व करता था। इसलिए पुरा की सफलता भारत के हर गांव में दुहराई जा सकती है।

आवश्यकता है तो केवल लोगों को संगठित करने के लिए रेड्डी के समान दृढ़-निश्चयी कार्यकर्ताओं की।

Saturday, August 15, 2009

क्यों महत्वपूर्ण है जैविक विविधता

संभव है कि अगले 20-30 वर्षों में पादपों एवं प्राणियों की 10 लाख से भी अधिक जातियां पृथ्वी पर से विलुप्त हो जाएं। इसका मूल कारण है मानव द्वारा किए जा रहे पर्यावरणीय परिवर्तन। यह दर, यानी प्रतिदिन 100 जातियों का विलुप्त हो जाना, विलोप की अनुमानित "स्वाभाविक" दर से 1,000 गुना अधिक है। लुप्त हो चुकी, संकटग्रस्त और संकट के कगार पर खड़ी जातियों की सूची में प्राणी और पादप दोनों शामिल हैं। समशीतोष्ण क्षेत्रों की पादप-जातियों का 10 प्रतिशत और विश्व के 9,000 पक्षी-जातियों का 11 प्रतिशत किसी हद तक विलोप के खतरे तले जी रहे हैं। उष्णकटिबंधीय प्रदेशों में वनों के विनाश ने ऐसी 130,000 जातियों को जोखिम में डाल रखा है, जो अन्यत्र नहीं पाई जातीं।

विलोप की यह चिंताजनक दर ही वह विश्वव्यापी समस्या है जिसने दुनिया भर में "जैविक विविधता" में रुचि जगाई है। जैविक विविधता का तात्पर्य केवल यह नहीं है कि विश्व में मौजूद सभी जातियों की कुल संख्या कितनी है। इन विविध जातियों के बीच होने वाली आपसी पारिस्थितिकीय क्रियाएं और भौतिक पर्यावरण, ये दोनों मिलकर उन पारिस्थितिक तंत्रों का निर्माण करते हैं जिन पर मानव अपने अस्तित्व के लिए निर्भर है। पृथ्वी पर मौजूद समस्त जीवधारियों की जीन-मूलक विभिन्नता भी जैविक विविधता के अंतर्गत आ जाती है। जीन-मूलक विभिन्नता न रहे तो जीवधारी पर्यावरणीय परिवर्तनों को सहने की वह क्षमता खो बैठते हैं जिसे अनुकूलन कहा जाता है।

जैविक विविधता का मतलब साधारणतः तीन स्तरों की जैविक विभिन्नता से होता हैः- विभिन्न प्रकार के पारिस्थितक तंत्र (यानी कोई पर्यावरणीय इकाई और उसमें जी रहे पादप और प्राणी समुदाय); विभिन्न प्रकार की जीव-जातियां; और पृथक-पृथक जातियों में और प्रत्येक जाति में मौजूद जीन-मूलक विभिन्नताएं। पृथ्वी की जैविक विविधता मनुष्य के लिए अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए, वह आहार, दवा और औद्योगिक कच्चे-माल का संभावित स्रोत है।

जैविक विविधता अनेक जीवन-धारक सेवाएं भी प्रदान करती है, जैसे, पृथ्वी के वायुमंडल का नवीकरण, प्रदूषण को सोखना और मिट्टी के उपजाऊपन को बनाए रखना। उससे अनेक समुदायों को नैतिक और आध्यात्मिक प्रेरणा भी प्राप्त होती है।

बदलते पर्यावरण के साथ सफल अनुकूलन अंततः जैविक विविधता के इन तीन स्तरों पर ही निर्भर है।

ज्यों-ज्यों हम मनुष्य जैविक विविधता में कमी लाते हैं, त्यों-त्यों हम बदलते पर्यावरण के साथ अनुकूलन की जीवधारियों की क्षमता को कम करते हैं। अधिकांश प्राणी और पादप धीमी गति से संपन्न होनेवाली जीन-मूलक शारीरिक, संरचनात्मक एवं सहजवृत्तिक परिवर्तनों के जरिए पर्यावरणीय बदलावों के साथ अपना अनुकूलन करते हैं, जबकि मनुष्य जाति सीखने की प्रक्रिया के जरिए यह काम संपन्न करती है और जीवित रहती है। हम मनुष्यों में यह सामर्थ्य है कि हम एक ही पीढ़ी के अल्प अंतराल में अपनी आदतों में काफी अनुकूलनात्मक परिवर्तन लाएं।

पृथ्वी की जैविक विविधता-मूलक संपदाओं के वितरण एवं उपयोग को लेकर अनेक कठिन प्रश्न उपस्थित होते हैं। विकसित देशों ने, जो कि वस्तुतः जैविक विविधता की दृष्टि से अपेक्षाकृत गरीब हैं, वर्तमान जीवनयापन-स्तर अपनी और बहुधा विकासरत देशों की जैविक विविधता के शोषण से प्राप्त किया है।

जिन देशों ने अपने जैविक विविधता स्रोतों का विकास अभी नहीं किया है, क्या उन्हें इस प्रकार का जैविक विविधता पर आधारित विकास बंद कर देना चाहिए, भले ही इससे उनका दीर्घकालीन आर्थिक विकास बाधित होता हो? संसार की जैविक विविधता को संरक्षित करने का खर्च गरीब और अमीर देशों के बीच किस तरह बांटा जाना चाहिए?

जातियों और पारिस्थितिक तंत्रों का एकसार बंटवारा न जमीन पर हुआ है न सागरों में, यद्यपि कुछ क्रम अवश्य प्रतीत होता है। पारिस्थितिकीविदों ने पाया है कि ध्रुवों से भूमध्यरेखा की ओर जाते-जाते स्थलजीवियों की विविधता बढ़ती है। परंतु समुद्री जीवों की विविधधा के संबंध में ऐसा कोई क्रम नहीं देखा जाता।

उष्णकटिबंधीय प्रदेशों के अधिकांश निम्न-भागों में फैले हुए उष्णकटिबंधीय वर्षावन धरती की लगभग 7 प्रतिशत सतह को ढंके हुए हैं और संभवतः समस्त पृथ्वी की 50 प्रतिशत स्थलजीवी जातियां उनमें रहती हैं। जैविक विविधता और उसके महत्व की चर्चा करते समय उष्णकटिबंधीय वर्षावनों पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित करने की प्रवृत्ति देखी जाती है। बेशक उष्णकटिबंधीय वर्षावन सर्वाधिक वैविध्यपूर्ण स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र हैं और कई बार वे सर्वाधिक संकटग्रस्त भी माने जाते हैं। परंतु कम जातीय विविधता वाले पारिस्थितिक तंत्रों की जैविक विवधता का संरक्षण भी उतना ही महत्वपूर्ण और आवश्यक है।

मनुष्य द्वारा उपयोग किए जानेवाले विभिन्न प्रकार के आहार, दवा, ऊर्जा-स्रोत और औद्योगिक उत्पाद लगभग सभी पारिस्थितिकी तंत्रों से और पृथ्वी के हर कोने से आते हैं। इन उत्पादों के अनेक स्रोतों की पूरी क्षमता का उपयोग अभी तक नहीं हुआ है। भविष्य में उपयोग किए जा सकनेवाले ये स्रोत अगर नष्ट हो गए तो उससे हमारा जीवनयापन-स्तर प्रभावित होगा, और कुछ मामलों में तो मनुष्य का भावी अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।

अनुमान लगाया गया है कि आज उपलब्ध सभी दवाओं का एक-चौथाई हिस्सा उष्णकटिबंधीय पौधों से प्राप्त होता है। विकासरत देशों के 80 प्रतिशत बाशिंदे परंपरागत दवाइयों पर निर्भर हैं और इन दवाइयों में से अधिकांश उष्णकटिबंधीय पौधों से बनाई जाती हैं। अमरीका में उपलब्ध दवाइयों का 40 प्रतिशत प्राकृतिक स्रोतों पर आधारित है।

इस समय सारे संसार में खाए जानेवाले कुल आहार का लगभग 80 प्रतिशत केवल दो दर्जन पादप-जातियों और प्राणी-जातियों से प्राप्त होता है। इतनी कम जातियों पर अपने आपको निर्भर रखकर हम अपनी फसलों की जीन-मूलक विभिन्नता को संकुचित कर रहे हैं, विभिन्नतापूर्ण प्राकृतिक स्थलों को जातीय एकरूपता वाले क्षेत्रों में बदल रहे हैं, फसलों और पालतू पशुओं के ज्ञात एवं अज्ञात पूर्वजों की संख्या घटा रहे हैं, जो इनकी नस्ल सुधारने के लिए आवश्यक जीनों के स्रोत हैं, और अपनी बढ़ती हुई आबादी की अन्न सुरक्षा को डांवाडोल कर रहे हैं।

आज उगाई जा रही अधिकांश फसलें किसी भौगोलिक क्षेत्र-विशेष के लिए विकसित हुई हैं। जलवायु के बदल जाने अथवा नए पीड़कों या रोगों के प्रकट होने पर इन नस्लों की उत्पादकता शायद पहले जैसी न रह जाए। लिहाजा जैविक विविधता को बचाए रखना और भी आवश्यक हो जाता है क्योंकि उसके बिना हम नई परिस्थित्यों के अनुकूल फसलों की नस्लें विकसित नहीं कर सकेंगे।

Friday, August 14, 2009

रेत के बढ़ते कदम



मरुस्थलीकरण (रेगिस्तान का फैलना) आज विश्व भर में एक विकट समस्या बन गया है। उससे बड़ी संख्या में मनुष्य प्रभावित हो रहे हैं क्योंकि रेत का साम्राज्य बढ़ने से अन्न का उत्पादन घटता है और अनेक प्राकृतिक तंत्रों की धारण क्षमता कम होती है। पर्यावरण भी उसके कुप्रभावों से अछूता नहीं रह पाता।

मरुस्थलीकरण से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिससे विश्व भर के शुष्क क्षेत्रों में उपजाऊ जमीन अनुपजाऊ जमीन में बदल रही है। मानव गतिविधियां और भौगोलिक परिवर्तन, दोनों इसके लिए जिम्मेदार हैं। शुष्क क्षेत्र उन इलाकों को कहते हैं जहां उतनी बारिश नहीं होती कि घनी हरियाली पनप सके। विश्व के कुल स्थल भाग का लगभग 40 प्रतिशत, अथवा 5.4 करोड़ वर्ग किलोमीटर, शुष्क है। मरुस्थलीकरण इन्हीं शुष्क भागों में अधिक देखने में आता है।

भारत का 69.6 प्रतिशत भूभाग (22.83 करोड़ हेक्टेयर) शुष्क माना गया है। यद्यपि इन शुष्क इलाकों की उत्पादकता काफी कम है, फिर भी दूध, मांस, रेशे, चमड़ा आदि के उत्पादन में वे काफी योगदान देते हैं। देश की आबादी का एक बहुत बड़ा भाग शुष्क इलाकों में रहता है।

भारत में 17.36 करोड़ हेक्टेयर, अथवा देश के कुल क्षेत्रफल का 53 प्रतिशत, मरुस्थलीकरण से प्रभावित है। ये इलाके अक्सर सूखे की चपेट में भी रहते हैं। सूखा मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया को तेज कर देता है। राजस्थान का पश्चिमी भाग और गुजरात का कच्छ जिला लगभग सदा सूखे की गिरफ्त में रहते हैं।

मनुष्य तथा उसके पालतू पशु सदा से ही रेगिस्तानी इलाकों में रहते आ रहे हैं। विश्व के अन्य शुष्क इलाकों की तुलना में भारत के शुष्क इलाकों में मानव आबादी का दबाव कहीं ज्यादा है। भारत के पास विश्व के कुल स्थल भाग का मात्र 2.4 प्रतिशत है, लेकिन कुल मानव आबादी का 16.67 प्रतिशत भारत में रहता है। इतना ही नहीं, भारत में विश्व में मौजूद चरागाहों का मात्र 0.5 प्रतिशत ही है, पर यहां विश्व में मौजूद मवेशियों का 18 प्रतिशत पलता है। मनुष्य और मवेशियों का यह असहनीय दबाव मरुस्थलीकरण को बढ़ावा दे रहा है। थार रेगिस्तान के भीतरी भागों तक में खेती और पशुपालन का प्रसार हो रहा है।

रेगिस्तानी इलाकों में पानी की सीमित उपलब्धि वानस्पतिक उत्पादकता की सीमा बांध देती है। वहां वर्षा भी बड़े ही अनियमित ढंग से होती है, जिससे अन्न के उत्पादन में बड़ी-बड़ी अनियमितताएं देखी जाती हैं। इससे पैदा हुई अन्न की किल्लत से गरीब तबके के लोग सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। जीवित रहने के लिए उन्हें रेगिस्तान की वनस्पति पर अत्यधिक निर्भर होना पड़ता है। जैसे-जैसे मनुष्यों और मवेशियों की संख्या बढ़ती जाती है, यह निर्भरता भी बढ़ती है। किसी भी प्राकृतिक-तंत्र की धारण क्षमता सीमित होती है। इस सीमा का उल्लंघन होने पर वह तंत्र बिखरने लगता है। शुष्क इलाकों का प्राकृतिक तंत्र भी मनुष्य द्वारा डाले गए दबाव से आखिरकार चरमरा जाता है। यदि समय रहते इस विघटनकारी प्रक्रिया को रोका नहीं गया, तो सारा तंत्र रेगिस्तान की भेंट चढ़ जाता है, अथवा अत्यधिक चराई और लकड़ी के लिए पेड़ों की छंटाई के कारण उस तंत्र में उपयोगी पौधों की तादाद घट जाती है। उनका स्थान अनुपयोगी और अखाद्य पौधे ले लेते हैं। नतीजा यह होता है कि वह तंत्र अब पहले से भी कम संख्या में मनुष्यों और मवेशियों को पोषित कर पाता है। यही दुश्चक्र मरुस्थलीकरण को गति देता है।

यद्यपि शुष्क इलाकों में बारिश कम होती है, पर जो बारिश होती है, वह काफी तेज और तूफानी ढंग की होती है। इससे इन इलाकों में बारिश अक्सर बाढ़ का रूप धारण करके उपजाऊ मिट्टी को बहा ले जाती है। एक अनुमान के अनुसार बंजर इलाकों में हर हेक्टेयर क्षेत्र से हर साल पानी के कटाव से 16.35 टन मिट्टी बह जाती है। इससे देश के बहुत बड़े-बड़े इलाकों में खड्ड और नाले बन गए हैं और वे खेती के लिए निकम्मे हो गए हैं। काफी इलाकों में रेत के टीलों ने अधिकार जमा लिया है। इस प्रकार अनुपयोगी बनी जमीन को पुनः उपजाऊ बनाने का काम वहां की मिट्टी की जिजीविषा शक्ति पर निर्भर करता है, पर यदि समय रहते कदम न उठाए गए, तो यह मिट्टी ही लुप्त हो जाती है। बार-बार आनेवाला सूखा मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया को त्वरित कर देता है, यद्यपि सूखे का प्रभाव क्षणभंगुर ही होता है।

अभी हाल तक हर गांव में नदी-तालाब होते थे, जिनका पानी फसल उगाने के लिए पर्याप्त था। गांव के गोचरों में मवेशियों के लिए चारा पैदा होता था। आसपास के जंगलों से चूल्हे के लिए लकड़ी मिल जाती थी। आज इन्हीं गांवों का हाल बिलकुल बदल गया है। नदी-तालाब सूख गए हैं, अथवा उनमें पानी बहुत कम रह गया है। जो जलाशय बचे हैं, उनमें से कई तो इतने प्रदूषित हो गए हैं कि उनका पानी पीने लायक नहीं रह गया है। गांव की स्त्रियों को पानी, चारा और ईंधन लाने के लिए मजबूरन कोसों चलना पड़ रहा है। यह दुखद स्थिति गांवों तक सीमित नहीं है, अनेक शहरों की भी यही दशा है।

मिट्टी के कटाव का एक अन्य दुष्परिणाम यह है कि पानी के साथ बह आई मिट्टी जलाशयों में जमा होकर उनके जलधारण क्षमता को घटा रही है। इससे बाढ़ की स्थिति और गंभीर हो जाती है और लाखों लोगों को हर साल बारिश के मौसम में बेघर होना पड़ता है। हमारे देश में ऐसे व्यक्तियों की तादाद बहुत ज्यादा है जिनके लिए बारिश का मौसम अभिशाप बनकर आता है, क्योंकि वह मौत, बीमारी और तबाही का पैगाम भी साथ लाता है। बड़ी-बड़ी पनबिजली योजनाओं के सरोवरों में मिट्टी भर जाने से उनसे निर्मित बिजली की मात्रा घटी है और इन योजनाओं की आयु कम हो गई है। मिट्टी को पहुंची नुकसान से कृषि की उत्पादनशीलता में जो कमी आई है, उसे लगभग 23,200 करोड़ रुपए आंका गया है। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि हमारे जैसे निर्धन देश में बढ़ती आबादी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कृषि की उत्पादकता को बढ़ाने की जरूरत है, न कि घटाने की।

मरुस्थलीकरण एक बहुआयामी समस्या है जिसके जैविक, भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक आदि अनेक पक्ष हैं। इसलिए उससे निपटने में केंद्र और राज्य सरकारों की अनेक संस्थाएं योगदान दे रही हैं। मरुस्थलीकरण से लड़ रहे मुख्य मंत्रालयों में शामिल हैं पर्यावरण और वन मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय, कृषि मंत्रालय और जल संसाधन मंत्रालय।

सन 1985 में राष्ट्रीय भूमि-उपयोग एवं परती विकास परिषद को उच्चतम नीति-निर्धारक एवं समायोजक एजेंसी के रूप में गठित किया गया। यह परिषद देश भर की जमीनों के प्रबंध से जुड़ी समस्याओं पर विचार करती है तथा नीतियां बनाती है। इस परिषद के अध्यक्ष स्वयं प्रधान मंत्री हैं। यह परिषद राष्ट्रीय भूमि-उपयोग एवं संरक्षण बोर्ड, राष्ट्रीय परती भूमि विकास बोर्ड और राष्ट्रीय वनीकरण एवं पारिस्थितिकी-विकास बोर्ड के कामों की देखरेख करती है। राज्य स्तर पर राज्य-स्तरीय भूमि-उपयोग बोर्ड गठित किए गए हैं। इनके अध्यक्ष संबंधित राज्य के मुख्य मंत्री होते हैं। ये बोर्ड भूमि विकास संबंधी कार्यक्रम चलाते हैं।

पिछले कई सालों से शोध संस्थाएं कृषि विश्वविद्यालयों के सहयोग से मरुस्थलीकरण और सूखे के प्रभावों पर गहन अनुसंधन कार्यों में लगी हुई हैं। इन अनुसंधानों की प्राथमिकता रही है मरुस्थलीकरण रोकना और सूखा-पीड़ित इलाकों की उत्पादकता बढ़ाने की कार्यक्षम विधियां विकसित करना। इन अनुसंधान कार्यों को आर्थिक मदद देने के लिए केंद्रीय और राज्य स्तर की अनेक अनुसंधान संस्थान गठित किए गए हैं। इनमें शामिल हैं, हैदराबाद का केंद्रीय शुष्क खेती अनुसंधान संस्थान, जोधपुर का केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, करनाल का केंद्रीय क्षारीय जमीन अनुसंधान संस्थान, देहरादून का केंद्रीय मृदा एवं जल संरक्षण अनुसंधान संस्थान, झांसी का भारतीय वन एवं चरागाह अनुसंधान संस्थान और नई दिल्ली में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के परिसर में स्थित जल प्रौद्योगिकी केंद्र। देहरादून के भारतीय वन अनुसंधान एवं शिक्षण परिषद के मार्गदर्शन में अनेक शोध संस्थाएं शुष्क प्रदेशों के वनों के पुनरुद्धार के कार्य में लगी हैं तथा इन वनों की उत्पादकता में वृद्धि लाने के तरीके खोज रही हैं। ये सब संस्थाएं शुष्क क्षेत्रों के लिए उपयुक्त प्रौद्योगिकियां विकसित करने के साथ-साथ कर्मचारियों को विभिन्न विषयों में प्रशिक्षण भी देती हैं। इन संस्थाओं के कार्यों को समर्थन देने के लिए काफी धनराशि उपलब्ध कराई गई है और नीतिमूलक संरचनाएं एवं विधि-कानून बनाए गए हैं।

सन 1992 में ब्राजील के रियो द जनेरियो में हुए पृथ्वी सम्मेलन में विश्व समुदाय ने मरुस्थलीकरण रोकने के लिए एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षर किए। 15 जून 1994 को इस संधि को कानूनी स्वरूप दिया गया। भारत ने उसे 17 दिसंबर 1996 को अनुमोदित किया। इस संधि का उद्देश्य है मरुस्थलीकरण रोकना तथा मरुस्थलीकरण और सूखे के कारण मानव समुदायों पर पड़ रहे विपरीत प्रभावों को कम करने के लिए सभी देशों के बीच सभी स्तरों पर सहयोग बढ़ाना।

मरुस्थलीकरण रोकने के भगीरथ कार्य में पारंपरिक ज्ञान की अहम भूमिका है क्योंकि वह समयसिद्ध ही नहीं है, बल्कि साधारण जनता की दैनंदिन की समस्याओं को सुलझाने में कामयाब भी रहा है। इनमें से कुछ पारंपरिक विधियों का संक्षिप्त विवरण आगे दिया जा रहा है।

थार रेगिस्तान में वर्ष के कुछ ही महीने फसल उगाने के लिए उपयुक्त होते हैं। अतः वहां के लोगों ने अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए खेती के साथ पशुपालन भी करना सीख लिया है। गर्मियों में वे बाजरा आदि खुरदुरे अनाजों की खेती करते हैं, जिन्हें बहुत कम पानी चाहिए होता है। लेकिन पालीवाल नामक एक काश्तकार समुदाय वर्षाजल संचित करके सर्दियों की फसल भी उगाने में सफल हुआ है। इस विधि को खदीन प्रणाली कहते हैं। आज 500 से भी ज्यादा छोटे-बड़े खदीन हैं जो 12,140 हेक्टेयर क्षेत्र को सिंचित कर रहे हैं। बिहार में इससे मिलता-जुलता एक दूसरा तरीका है जिसे अहर कहा जाता है।

अर्ध-शुष्क इलाकों में खेती की नींव खेत-तालाब होते हैं। ये वर्षाजल को संचित करते हैं और इन्हें या तो जमीन खोदकर बनाया जाता है अथवा पानी के बहाव के मार्ग में दीवार बनाकर। तमिलनाड में नंगै-मेल-पंगै (नमभूमि पर कम पानी मांगनेवाली फसलों की खेती) नामक विधि का प्रचलन है। यदि फसल बोने के समय वर्षा होने के आसार नजर न आए, तो किसान तालाब की सिंचाई पर पनपने वाले बाजरा, रागी आदि फसल बोते हैं, जो कम पानी मिलने पर भी अच्छी पैदावार देते हैं। यदि वर्षा होने के आसार अच्छे हों, तो किसान धान की खेती करते हैं।

मध्य भारत में वर्षाजल संचित करने का एक बहुत प्राचीन तरीका प्रचलित है, जिसे हवेली प्रणाली कहते हैं। भीलों ने एक अन्य विधि विकसित की है जिसे पट्टा कहा जाता है। इसके अंतर्गत नदी-नालों की धारा को रोककर 30-60 सेंटीमीटर गहरा सरोवर बनाया जाता है। यह गहराई खेतों को पानी ले जानेवाली नहरों में पानी पहुंचाने के लिए पर्याप्त होती है। इस विधि की सहायता से साल में दो फसल उगाना संभव हो जाता है।

शुष्क इलाकों की प्रकृति खेती से भी ज्यादा पशुपालन के अनुकूल होती है क्योंकि जहां खेती नहीं हो सकती वहां अच्छे चरागाह हो सकते हैं। इसीलिए शुष्क प्रदेशों के अधिकांश किसान मिश्रित खेती करते हैं, जिसमें पशुपालन को भी महत्वपूर्ण स्थान है। इससे प्राकृतिक संसाधनों से अधिकतम लाभ प्राप्त होता है।

थार रेगिस्तान के अधिक रेतीले भागों के गांवों में वर्षाजल एकत्र करने का एक स्थानीय विधि कुंड है। राजस्थान के गांवों के कुंड, कुंडी (छोटे आकार के कुंड) और टंका और गुजरात की बावड़ियां पेय जल भी उपलब्ध कराते हैं।

रेगिस्तान के निवासियों ने कृषिवानिकी भी बड़े पैमाने पर अपनाया है। इसके अंतर्गत उपयोगी पेड़ों की कतारों के बीच फल-तरकारी आदि उगाए जाते हैं। उदाहरण के लिए राजस्थान में खेतों में खेजड़ी वृक्ष (प्रोसोपिस सिनेरेरिआ) और चरागाहों में बेर (जिजिफस मौरिटिआना) के कुंज अक्सर उगाए जाते हैं। यहां के निवासियों का दृढ़ विश्वास है कि पेड़ों के नीचे फसल अच्छी पनपती है और उनसे ढोरों के लिए चारा भी मिलता है। शुष्क प्रदेशों में सड़कों, नहरों और सरोवरों के किनारे छायादार पेड़ लगाना एक धार्मिक परंपरा रही है।

देश भर में ऐसे अनेक पवित्र वन हैं जो किसी-न-किसी देवी-देवता अथवा मंदिर-मठ से जुड़े हैं। समुदाय इन पवित्र वनों की रक्षा करता है और वहां पेड़ काटने या जंगली जानवरों को सताने नहीं देता। इन पवित्र वनों का महत्व जैविक विविधता के संरक्षण की दृष्टि से बहुत अधिक है। राजस्थान के बारमेर, जैसलमेर, नागौर, जोधपुर, पाली , सीकर, झुंझुनु और जालोर जिलों में इस प्रकार के 400 से अधिक पवित्र वन हैं, जिन्हें वहां ओरान (संस्कृत के अरण्य शब्द का बिगड़ा रूप) कहा जाता है। इनका कुल क्षेत्रफल 1,00,140 हेक्टेयर जितना है। राजस्थान और हरियाणा के बिशनोई समुदाय की कुछ प्रथाओं से भी जंगलों और जीव-जंतुओं का संरक्षण होता है।

सिंचाई की एक रोचक पारंपरिक विधि में मिट्टी के सुपरिचित घड़ों का उपयोग होता है। इन घड़ों में एक ओर छेद बने होते हैं, जिनसे पानी रिसता रहता है। इन घड़ों को पेड़ों की जड़ों के पास जमीन में दबा दिया जाता है और समय-समय पर उनमें पानी भरा जाता है। जमीन की सतह पर पानी छिड़कने से अधिकांश जल वाष्पीकृत हो जाता है और पौधों को उसका थोड़ा अंश ही मिल पाता है। घड़ों से सिंचाई करने की इस विधि में सारा पानी धीरे-धीरे पौधे को मिलता है। इसे आधुनिक टपक-सिंचाई का एक घरेलू विकल्प माना जा सकता है। देश के अनेक भागों में इस अनोखी विधि को वनीकरण कार्यक्रमों में अपनाया गया है। अन्य देशों में भी इसका प्रसार हो रहा है।

शुष्क प्रदेशों के किसान अपनी फसल को झुलसाती, शुष्क हवाओं से बचाने के लिए खेत के चारों ओर पेड़ों की आड़ खड़ी करते हैं। घरों की सुरक्षा के लिए भी ऐसी हरित दीवारें उगाई जाती हैं।

ऊपर वर्णित पारंपरिक विधियां पर्यावरण की दृष्टि से बहुत अधिक महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे पर्यावरण को किसी भी प्रकार से नुकसान नहीं पहुंचातीं। मरुस्थलीकरण रोकने में उनका उपयोग असंदिग्ध है। शुष्क प्रदेशों में विकास कार्यक्रम शुरू करने में भी ये उपयोगी हैं, क्योंकि स्थानीय लोग इन परंपरागत विधियों के प्रति विश्वास रखते हैं और इसलिए उन्हें आसानी से अपना लेते हैं।

राजस्थान के अलवर जिले में कार्य कर रहे स्वयंसेवी संगठन तरुण भारत संघ ने सैकड़ों चेकडैम बनाकर एक मृत नदी को जीवित किया है। इस चमत्कार का पूरा लाभ उठाने के लिए नदी के किनारे स्थित गांवों के निवासियों ने एक नदी संसद बनाई है ताकि पुनरुज्जीवित नदी की हिफाजत और उसके पानी का समान बंटवारा हो सके। गुजरात के सुरेंद्रनगर जिले के सायला तालुके के निवासियों ने 10 छोटे तालाब खोदकर आसपास के भूमिगत जलभंडारों को भरने में सफलता प्राप्त की है। इन तालाबों की क्षमता 5,00,000 गैलन है। अन्य अनेक स्वयंसेवी संगठनों ने भी जल और मृदा संरक्षण के क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया है, मसलन, अण्णा साहब हजारे द्वारा शुरू किया गया संगठन, जो महाराष्ट्र के रालेगांव सिद्धि में हरियाली लौटाने में सफल हुआ है, और गुजरात के सदगुरु जल एवं मृदा विकास प्रतिष्ठान और आगा खान ग्रामीण समर्थन कार्यक्रम। इन सब संगठनों ने समुदायों के साथ मिलकर काम किया है और पारंपरिक ज्ञान से भरपूर फायदा उठाया है।

हमारा देश बहुत बड़ा है और उसमें विविधता भी बहुत अधिक है। दूसरी ओर मरुस्थलीकरण जैसी समस्या बहुत ही जटिल है और बड़े पैमाने पर दुष्प्रभाव डालती है। उससे लड़ने के साधन सीमित हैं। इस वस्तुस्थिति को ध्यान में रखते हुए यही उचित है कि अधिक ध्यान उन क्षेत्रों की ओर दिया जाए जहां मरुस्थलीकरण का प्रभाव सर्वाधिक दृष्टिगोचर होता हो। मरुस्थलीकरण से निपटने के किसी भी कार्यक्रम में स्थानीय समुदायों की सक्रिय भागीदारी अनिवार्य मानी जानी चाहिए। मरुस्थलीकरण एक विश्वव्यापी समस्या है और इसलिए सभी देशों को मिलकर उसका सामना करना चाहिए। इसमें गैरसरकारी संगठनों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। स्पष्ट ही मरुस्थलीकरण के विरुद्ध सबसे सफल रणनीति वह होगी जिसमें स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय समुदाय, राष्ट्र सरकारें और गैरसरकारी संगठन सब साथ मिलकर काम करें।

Thursday, August 13, 2009

बह गया बहिश्त!

बहुत साल पहले, कहीं दूर, एक छोटा सा टापू था, करु नाम का, जिसके निवासी बहुत ही सुखी थे। उनके टापू में सभी आवश्यक चीजें थीं -- भोजन के लिए नारियल के पेड़, जिनके फलों का मीठा जल उनकी प्यास भी बुझाता था, छाया के लिए विशाल टोमानों वृक्ष, मछलियों से भरा समुद्र, और पशु-पक्षियों से भरे-पूरे वन-उपवन।

लगभग दो सौ साल पहले एक नाविक ने करु टापू को खोज निकाला।

एक सदी और बीत गई और करु में अन्वेषकों का एक दल आ उतरा। उन्हें उस टापू में फोस्फेट की चट्टानों की विश्व की सबसे समृद्ध और विशाल खानें मिलीं। फिर क्या था, इस टापू से लाखों टन फोस्फेट निकाल-निकालकर दुनिया के कोने-कोने में स्थित खेतों में भेजा जाने लगा, क्योंकि फोस्फेट एक अच्छा उर्वरक होता है। लगभग एक सदी तक यह चलता रहा।

करु एक नन्हा सा टापू है, मात्र 20 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला। उसमें 7,000 कुरु स्त्री-पुरुष और बाहर से आए हुए 3,000 खदान मजदूर रहते हैं।

करु में एक ही सड़क है, जो टापू की परिक्रमा करती है, फिर भी एक औसत करु परिवार में कम से कम दो मोटर गाड़ियां हैं। हर कुरु परिवार में आपको माइक्रोवेव अवन, स्टीरियो और दो-तीन टेलिविजन भी मिल जाएंगे। दस में से नौ करुवासी मोटापे से पीड़ित हैं -- वहां के कई पुरुषों का वजन 135 किलो से अधिक है। क्यों? क्योंकि पारंपरिक भोजनों के स्थान पर वे अब आयातित भोजन लेने लगे हैं। सरकार करुवासियों को यह भोजन रियायती दामों पर उपलब्ध कराती है। लगभग 3,000 किलोमीटर दूर स्थित देशों से आयातित गोश्त करु में उन मूल देशों से भी सस्ता बिकता है। आज तो करुवासी मछली तक का आयात करते हैं! भोजन की ये बदली आदतें अपना बुरा असर दिखाने लगी हैं। आज एक औसत करुवासी केवल 55 वर्ष जीने की आशा कर सकता है। हाइपरटेन्शन (अति रक्त दाब), हृदरोग और मधुमेह जैसी बीमारियां अब वहां आम हो गई हैं।

करुवासियों को मकान, बिजली, पानी, टेलिफोन, शिक्षा और चिकित्सकीय सुविधाएं निश्शुल्क अथवा बहुत कम कीमतों पर सरकार की तरफ से मुहैया कराया जाता है। इस छोटे टापू में दो अस्पताल हैं और जिन लोगों को विशेष चिकित्सा की आवश्यकता हो, उन्हें सरकार अपने खर्चे पर विमान द्वारा अन्य देशों में भिजवा देती है।

यह सारी समृद्धि कैसे आई? आपने सही सोचा, फोस्फेट की बिक्री से। फिर समस्या क्या है? यही, कि फोस्फेट की खानें चुकती जा रही हैं और आशंका है कि अगली शताब्दी तक पूरी खाली हो जाएं। सरकार अब बड़ी बेचैनी से टापू में और खानें खोज रही है। एक ओर नई खानों की खोज जारी है, दूसरी ओर टापू का एक बहुत बड़ा भाग पुराने खानों के कारण उजाड़ पड़ा है। बात यहां तक पहुंच गई है कि लोग राष्ट्रपति निवास तक को तुड़वाना चाहते हैं क्योंकि जहां वह स्थित है, वहां फोस्फेट की खानों के होने की संभावना है।

कुरुवासी अपने ही हाथों से अपने टापू को नोच-खसोट रहे हैं, मानो उन्हें भविष्य की चिंता ही न हो। कहना न होगा कि यदि यह सब जारी रहा, उनका भविष्य अंधकारमय है।

यह कहानी क्या केवल करु वासियों की है? क्या यह हर समुदाय की कहानी नहीं है? कुदरत ने जो संपदा दी है, वह हमारे हाथ पड़कर बंदर के हाथ की माला बन गई है। क्या बुद्धिमान कहे जानेवाले कुदरत की इस पैदाइश (यानी मनुष्य जाति) में इतनी अकल आएगी कि वह प्रकृति की बहुमूल्य संपदाओं को सही तरह से उपयोग करे और उन्हें दोनों हाथों से लुटाने के बजाए, आनेवाली पीढ़ियों के लिए बचाए रखे?

Wednesday, August 12, 2009

पक्षी प्रवास -- प्रकृति का अद्भुत रहस्य

हमारी झीलों-तालाबों में हर साल जाड़ों में तरह-तरह के जो असंख्य जलपक्षी दिखाई देते हैं, उनमें से अनेक हजारों किलोमीटर की कठिन यात्रा करके यूरोप, उत्तरी एशिया आदि ठंडे प्रदेशों से हमारे देश में आते हैं। इन आगंतुकों में दुर्लभ साइबीरियाई सारस, दुनिया का सबसे तेज उड़नेवाला पक्षी बहरी, आकर्षक शिकारी पक्षी मछलीमार, गुलाबी मैना और अनेक प्रकार की बत्तखें शामिल हैं।

प्रवासी पक्षी जाड़ों में हमारे यहां इसलिए आते हैं क्योंकि इस समय उनके अपने देश में जलक्षेत्रों की सतह पर बर्फ जम जाती है और ठिठुरानेवाली ठंड के कारण इन पक्षियों का आहार बनने वाले जीव या तो मर जाते हैं या जमीन में दुबककर शीत-निद्रा में चले जाते हैं, जिससे वे सर्दियों के समाप्त होने के बाद ही जागते हैं। इन इलाकों में सर्दियों में रातें भी लंबी हो जाती हैं और दिन छोटे। इन सब कारणों से पक्षियों के लिए आहार खोजना और जिंदा रहना बहुत मुश्किल हो जाता है और वे उड़ने की अपनी क्षमता का लाभ उठाते हुए भारत जैसे गरम देशों में चले आते हैं जहां बर्फ नहीं जमती और इसलिए आहार की प्रचुरता रहती है। भारत में इस समय वर्षा ऋतु अभी-अभी समाप्त हुई होती है और सभी जलाशय पानी से लबालब भरे होते हैं और सभी जगह हरियाली छाई रहती है। अतः पक्षियों को खुराक आसानी से मिल जाती है।

प्रवास की दिशा मुख्यतः उत्तर से दक्षिण की ओर रहती है। परंतु कुछ पक्षी पूर्व से पश्चिम की ओर भी जाते हैं। नवंबर-दिसंबर तक सभी पक्षी आ जाते हैं। भारत में दो-एक महीना रहकर वे अपने देश लौट पड़ते हैं या आगे बढ़ जाते हैं। सितंबर-अक्तूबर के दौरान पक्षियों का आना और फरवरी-मार्च के दौरान उनका लौट पड़ना युगों-युगों से चली आ रही एक परंपरा है। सितंबर से लेकर मार्च तक हमारे देश के सभी छोटे-बड़े जलाशयों में पक्षियों की तादाद सबसे अधिक होती है।

इन हजारों लाखों पक्षियों को देखकर हमारा मन विस्मित हुए बिना नहीं रहता। ये पक्षी कब और कैसे यहां पहुंचे, यह सवाल हमारे मन में बार-बार कौंधता है। इतनी तादाद में पक्षियों के स्थानांतरण की ओर हमारा ध्यान क्यों नहीं गया? बात दरअसल यह है कि अधिकांश पक्षी रात के समय ही प्रवासी उड़ान भरते हैं। अतः उनके बड़े-बड़े झुंडों की ओर हमारा ध्यान जाता ही नहीं है।

प्रकृति में यह देखा जाता है कि पक्षी अपने प्रवास क्षेत्रों में से जो क्षेत्र ऊंचे अक्षांश पर स्थित होते हैं, वहीं प्रजनन करते हैं। अतः जाड़ों में यहां आनेवाले पक्षी यहां घोंसला बनाते नहीं देखे जाते।

जिस प्रकार जाड़ों के शुरू होते ही असंख्य प्रवासी पक्षी हमारे यहां के झीलों में प्रकट होने लगते हैं, वैसे ही जाड़े के समाप्त होते ही वे वापिस भी जाने लगते हैं। वापिस जाते समय पहले नर चल पड़ते हैं, क्योंकि उन्हें ठंडे प्रदेशों में लौटकर प्रजनन करने के क्षेत्रों पर कब्जा करना होता है। उनके जाने के कुछ समय बाद मादाएं चल पड़ती हैं। सबके बाद में अवयस्क चल पड़ते हैं। जाड़ों में हमारे यहां जब ये पक्षी आने लगते हैं, तो यह क्रम उलट जाता है।

वैज्ञानिकों के लिए यह हमेशा से कौतूहल का विषय रहा है कि हजारों किलोमीटर की यात्रा करनेवाले पक्षी दिशा-निर्धारण कैसे करते होंगे। आधुनिक अध्ययनों से पता चला है कि जो पक्षी दिन के समय उड़ते हैं, वे सूर्य द्वारा पृथ्वी के साथ बनाए गए कोण से और जो पक्षी रात में उड़ते हैं, वे तारों की स्थिति से दिशा-निर्धारण करते हैं। दिशाज्ञान हेतु पक्षी पर्वत, नदी, वन, झील आदि की स्थिति का भी उपयोग करते हैं। परंतु घने बादलों के बीच से उड़ते समय पक्षियों को न तो आकाश ही दिखाई देता है न जमीन।

फिर भी पक्षी दिगभ्रमित नहीं होते। स्पष्ट ही उनकी बनावट में ऐसी कोई विशेषता है जो इन बाहरी चीजों की मदद के बिना भी दिशा-निर्धारण में सहायता करती हैं। इस विशेषता की वैज्ञानिकों को अभी भी ठीक-ठीक समझ नहीं है।

प्रवासी पक्षियों को प्रवास यात्रा आरंभ करने की प्रेरणा दिन के घटते अंतराल से मिलती है। यानी, जब दिन इतने छोटे हो जाते हैं कि पक्षियों को आहार खोजने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पाता तो वे प्रवास यात्रा आरंभ करते हैं। प्रवासी पक्षियों के शरीर में समय आने पर कुछ विशेष प्रकार के होरमोन भी प्रकट होते हैं, जो उन्हें प्रवास यात्रा पर चल निकलने के लिए उकसाते हैं।

उड़ान भरना एक श्रम-साध्य क्रिया है जिसमें काफी ऊर्जा खर्च होती है। फिर भी प्रवासी पक्षी आकाश में बड़ी ऊंचाइयों पर बेफिक्री से उड़ते पाए जाते हैं। इतनी ऊंचाइयों पर आक्सीजन की मात्रा भू-तल पर आक्सीजन की मात्रा से कहीं कम होती है। पर्वतारोही जानते हैं कि एवरेस्ट जैसे ऊंचे पर्वतों का आरोहण अधिक ऊंचाइयों पर आक्सीजन की कमी के कारण बहुत मुश्किल हो जाता है। लेकिन कम आक्सीजन का शायद पक्षियों पर कोई असर नहीं होता। उदाहरण के लिए हंस 10,000 मीटर से भी अधिक ऊंचाई पर उड़कर नियमित रूप से हिमालय पर्वत शृंखला को पार करते हैं। इतनी ऊंचाई पर आक्सीजन की मात्रा भू-तल पर मौजूद आक्सीजन की मात्रा का 30 प्रतिशत ही होती है।

एक अन्य विवादास्पद पहलू प्रवासी पक्षियों की रफ्तार है। जमीन से हजारों मीटर की ऊंचाई पर उड़ रहे पक्षियों की रफ्तार का अनुमान लगाना अत्यंत कठिन है। यह रफ्तार वास्तव में इस ऊंचाई पर वायु की रफ्तार और पक्षी की निजी रफ्तार का जोड़ होता है। उसका ठीक-ठीक आकलन कर पाना अत्याधुनिक उपकरणों की सहायता के बिना असंभव है। फिर भी प्रवासी पक्षियों की रफ्तार का अंदाजा इससे मिल जाता है कि कई बार प्रवासी पक्षियों के झुंड 150 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ रहे हवाई जहाजों के आगे निकल जाते हैं।

सबसे लंबी दूरी तक और सबसे श्रमसाध्य प्रवास यात्रा पर आर्टिक कुररी निकलती है। वह उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव हर साल जाती है। इस प्रकार वह प्रतिदिन 150-200 किलोमीटर की यात्रा करती हुई कुछ ही हफ्तों में 10,000 किलोमीटर की दूर तय करती है, यानी वह हर साल पृथ्वी की परिक्रमा करती है।

Tuesday, August 11, 2009

खून का प्यासा पिस्सू


बहादुर से बहादुर आदमी भी मामूली-सा पिस्सू देखकर पसीना-पसीना हो जाएगा क्योंकि प्लेग महामारी इसी तुच्छ कीट की सवारी पर चढ़कर मनुष्यों में तांडव मचाती है।

पिस्सू की सैंकड़ों जातियां ज्ञात हैं। ये बिना पंखवाले छोटे कीट हैं जिनकी औसत लंबाई 2 मिलीमीटर होती है। पिस्सू गरम खूनवाले जीवों में परजीवी के रूप में रहकर उनका खून चूसते हैं। मनुष्यों के अलावा वे चूहों, पक्षियों, सूअरों, कुत्तों तथा अन्य जानवरों पर अपनी कृपा दृष्टि बरसाते हैं।

उनके शरीर की रचना इस भूमिका के लिए खास उपयुक्त होती है। मेजबान जीव की खाल अथवा परों के बीच से आने-जाने में सहूलियत के लिए उनका शरीर दोनों बग़लों से चपटा होता है, यानी लंबाई और ऊंचाई की तुलना में उनकी चौड़ाई बहुत ही कम होती है। इस कारण वे दो बालों के बीच के कम फासले में से भी आसानी से गुजर सकते हैं। उनके शरीर पर बहुत से कांटे होते हैं जो बालों अथवा परों में उलझकर पिस्सू को मेजबान जीव के शरीर से गिरने नहीं देते। उनका चपटा शरीर अत्यंत कठोर होता है जो उन्हें मेजबान जीव द्वारा काटे या खुजलाए जाने से बचाता है। उनका मुंह त्वचा को भेदने और खून चूसने के लिए बना होता है।

पिस्सुओं का जीवन-चक्र काफी रोचक होता है। मादा पिस्सू मेजबान जीव के मल-मूत्र या उसकी मांद में इकट्ठी गंदगी में अंडे देती है। ये अंडे दो-चार दिनों में फूट जाते हैं। उनसे निकले डिंभक अंधे होते हैं। वे मल-मूत्र और गंदगी खाकर बढ़ते हैं। मौका मिलने पर अन्य छोटे कीटों का भी वे शिकार कर लेते हैं। समय आने पर ये डिंभक रेशम जैसे धागे से एक कोष बुनकर उसमें प्रविष्ठ हो जाते हैं। इस निष्क्रिय अवस्था में उनका आगे का विकास होता है। वयस्क कीट कोष से बाहर तभी निकलते हैं जब उन्हें कोई जीवित प्राणी का संकेत मिले। यह संकेत है उस प्राणी के चलने-फिरने से होनेवाले कंपन। इसे सुनते ही पिस्सू झट से कोष से निकल आते हैं और उस अभागे प्राणी का खून चूसने लगते हैं। इसी कारण से बहुत दिनों से खाली पड़े मकान में घुसने पर एकाएक पिस्सू निकल आते हैं। आप सोचते होंगे कि खाली मकान में पिस्सू कहां से आए। वास्तव में पिस्सू अपने कोषों में आपके ही इंतजार में बैठे थे!

पिस्सुओं की सबसे अधिक वीभत्स पहलू प्लेग जैसी भयंकर महामारियां फैलाने में उनकी भूमिका है। प्लेग महामारी से मनुष्य बड़ी तादाद में मरे हैं। चौदहवीं सदी में यूरोप में प्लेग ने ढाई करोड़ लोगों की जान ली थी। परंतु प्लेग मनुष्य पर आश्रित पिस्सुओं के कारण नहीं फैलता। प्लेग के लिए जिम्मेदार हैं चूहों के पिस्सू। प्लेग बीमारी सबसे पहले चूहों में फैलती है। इस बीमारी से जब चूहे बड़ी संख्या में मर जाते हैं, तब उनके पिस्सुओं को मजबूरन अन्य प्राणियों का खून चूसना पड़ता है। इन अन्य प्राणियों में मनुष्य भी होता है, क्योंकि मनुष्यों के मकानों में चूहे अनिवार्यतः पाए जाते हैं।

पिस्सुओं की एक खासियत है कूदने की उनकी अद्भुत क्षमता। दो मिलीमीटर लंबा पिस्सू 35 सेंटीमीटर लंबी और 20 सेंटीमीटर ऊंची कूद लगा सकता है, यानी अपनी लंबाई से 125 गुना दूर अथवा 100 गुना ऊंचा कूद सकता है। इसीलिए प्लेग के समय लोगों को दो फुट ऊंचे पलंग पर सोने की सलाह दी जाती है, ताकि पिस्सू उन तक न पहुंच पाएं। अपनी लंबी-लंबी टांगों और नदारद पंखों की मांसपेशियों की सहायता से पिस्सू यह आश्चर्यजनक कलाबाजी करता है।

अधिकांश विकसित देशों में पिस्सुओं का सफाया कम-से-कम घरों में से लगभग पूर्णतः हो गया है। वहां ऊंचे दर्जे की स्वच्छता होने के कारण पिस्सुओं के पनपने के लिए आवश्यक गंदगी नहीं होती। परंतु अधिकांश विकासशील देशों में अब भी सामुदायिक एवं घरेलू स्वच्छता निम्न स्तर की होने के कारण पिस्सुओं को अनुकूल वातावरण मिल जाता है। स्वच्छता की ओर अधिक ध्यान देकर हम भी इन पीड़ादायक जंतुओं से पिंड छुड़ा सकते हैं।

Monday, August 10, 2009

चीते की वापसी

भारत के वन्य प्राणियों से परिचित सभी व्यक्ति इस खेदजनक बात से अवगत होंगे कि भारतीय उपमहाद्वीप से चीता विलुप्त हो चुका है। 1948 में कोरवाई रियासत के महाराजा ने तीन अवयस्क चीतों का शिकार किया था, जो संभवतः इस नस्ल के आखिरी तीन नमूने थे।

बंबई नेचरल हिस्ट्री सोसाइटी नामक संस्था के एक प्रकाशन में छपी रिपोर्ट से अब यह आशा बंधती है कि इस शानदार जीव के कुछ नमूने आज भी दक्षिण बलूचिस्तान एवं ईरान के फार्स सूबे के बीच के सीमावर्ती क्षेत्रों में जीवित बचे हो सकते हैं।

रोयल स्काटिश म्यूजियम ने 1972 में चीते की एक खाल प्राप्त की थी जिसके बारे में कहा गया था कि वह बलूचिस्तान के पास तुरबट नामक स्थान से है। इसके अलावा भी ईरान के सीमावर्ती प्रदेशों में चीतों के देखे जाने के अनेक समाचार हाल में प्राप्त हुए हैं। परंतु यह सारा इलाका सैनिक उथल-पुथल के कारण वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुकूल नहीं है। इसलिए यदि चीता जीवित भी हो तो उसकी नस्ल को बचाने के लिए कोई ठोस कदम शायद ही उठाए जा सकें।

ऐसे में अफ्रीका से चीते के कुछ जोड़े भारत लाकर उनकी नई आबादी शुरू करने की वन विभाग की हाल की परियोजना अधिक आशाजनक है। इसके लिए वेलावदर राष्ट्रीय उद्यान को चुना गया है जहां चीते के माफिक पड़नेवाले खुले मैदान हैं, और कृष्णसार, चिंकारा जैसे तृणभक्षी मृगों की तादाद काफी है, जिनका चीता शिकार कर सकता है। यदि यह परियोजना सफल हो सके, तो भारतीय वन्यजीवन निश्चय ही अपने पूर्व वैभव के कुछ कदम और निकट आ जाएगा।

पर क्या यह परियोजना सफल हो सकेगी? भारत अपने कई मौजूदा वन्यजीवों को संरक्षण देने में असफल होता जा रहा है। इनमें शामिल हैं, बाघ, हाथी, सिंह, गैंडा, बनैल भैंसा, भालू, इत्यादि। ये सब नस्लांत की कगार पर लड़खड़ा रहे हैं। क्या भारत जैसा घना-बसा, साधन-हीन, शासन में अकुशल देश चीते को जीवित रखने के लिए आवश्यक सुविधाएं प्रदान कर पाएगा?

इस सवाल का जवाब आनेवाले दिन ही दे सकेंगे।

Sunday, August 9, 2009

बस्तीवालों से समझौता

विकासशील देशों के सभी भागों में अनधिकृत बस्तियां एक गंभीर समस्या हैं। कई बार इन्हें सरकारों द्वारा जबरन हटाया जाता है, जिससे काफी सामाजिक तनाव पैदा होता है।

इस समस्या का एक संभव समाधान थाइलैंड के बैंकोक शहर के अनुभव से प्राप्त होता है। इस शहर के अधिकांश उत्कृष्ठ जमीन पर गरीब तबके के लोगों की बस्तियां हैं। 1985-86 में सड़कों को चौड़ा करने, नई इमारतें बनाने व अन्य विकास कार्यों के लिए इनमें से 5,000 परिवारों को जबरदस्ती हटाया गया।

इससे घबराकर अनेक बस्तियों के निवासियों ने अपने संगठन खड़े कर लिए हैं, जो विकास परियोजनाओं के अधिकारियों से बातचीत करके उनकी बस्तियों द्वारा घेरी हुई जमीन पर इन परियोजनाओं के लिए जगह देने का समझौता करते हैं। इस समझौते के तहत बस्तियों के परिवारों को परियोजना के बाद बची हुई जमीन में नई आवासीय कोलनियां बनाने और उनमें मकान मिलने का प्रावधान रहता है।

अब तक बैंकोक में इस प्रकार के पांच समझौते हो चुके हैं। सबसे प्रमुख क्लोंक टोइ नामक स्थान पर हुआ, जहां पोर्ट अथोरिटी ने 1,300 परिवारों के रहने के लिए जमीन का एक बड़ा टुकड़ा दिया। इन परिवारों ने एक नया कंटेनर पोर्ट बनाने के लिए जमीन खाली कर दी थी।

चूंकि बस्तियों को जबर्दस्ती उजाड़ने से काफी तनाव उत्पन्न होता है, और उसका राजनीतिक दृष्टि से प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, अब इस प्रकार के समझौते बैंकोक में अधिक लोकप्रिय होते जा रहे हैं।

भारत भी एक घना बसा देश है और शहरों में गंदी बस्तियों में रहनेवालों की तादाद काफी ज्यादा है। इनमें से अधिकांश बस्तियां रेल पटरियों, पुलों, सड़कों आदि के निकट सार्वजनिक जमीन पर पनपी हैं। इन्हें विकास कार्यों के नाम पर कभी भी उजाड़ा जा सकता है, और पुलिसकर्मी आदि इन्हें हफ्ते के लिए शोषण करते रहते हैं। ऐसे में यदि ये बस्तीवाले भी बैंकोक के अपने भाइयों के समान संगठित हो जाएं, तो सरकारी तंत्रों के साथ वे मोल-तोल करके अपने लिए वैकल्पिक स्थान और सुविधाएं प्राप्त कर सकते हैं।

Saturday, August 8, 2009

भारत के बीज और परंपरागत-ज्ञान पर विदेशी आक्रमण

आजकल ऐसे-ऐसे अंतर्राष्ट्रीय समझौते हो रहे हैं जिनकी कल्पना करना ही मुश्किल है। भारत भी ऐसे समझौतों में शामिल है। इन समझौतों में कई ऐसी शर्तें रखी गई हैं जो कि भारत के हित में नहीं हैं। ये शर्तें खासतौर से हमारे आदिवासी और ग्रामीण समाज के हितों के खिलाफ हैं।

कुछ साल पहले डंकल प्रस्ताव नाम का एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता हुआ था। इसी डंकल प्रस्ताव को अब विश्व व्यापार संगठन के नाम से जाना जाता है। विश्व व्यापार संगठन अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का संगठन है। यही पहले गैट के नाम से जाना जाता था। भारत भी इसका सदस्य है। 1983 में गैट के मंच से एक बहुत खतरनाक दावा किया गया, जिसमें विदेशी सरकारों ने भारत में बीजों पर पेटेंट करने के अधिकार की मांग की। इससे वे भारत के खेतों के बीजों पर विदेशी बीज कंपनियों का एकाधिकार स्थापित करना चाहते हैं। ये अधिकार वे पेटेंट के माध्यम से चाहते हैं। पेटेंट उस कानूनी अधिकार को कहते हैं जो कि पेटेंटधारक को पेटेंट की हुई वस्तु पर एकमात्र अधिकार प्रदान करता है। पश्चिमी देश भारत में बीजों पर पेटेंट की मांग इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि इस तरह भारत के बीज बाजार पर वे विदेशी बीज कंपनियों का कब्जा स्थापित कर सकते हैं।

यदि भारत सरकार ने विदेशी दबाव में आकर बीजों पर पेटेंट स्वीकार कर लिया तो भारत का किसान अपने अधिकारों से वंचित हो जाएगा। उसकी खेती उससे छिन जाएगी। भारत का किसान समुदाय बर्बाद हो जाएगा और बीजों के साथ-साथ, भारत की खेती विदेशियों के हाथों चली जाएगी। यह सब इसलिए हो जाएगा क्योंकि बीजों पर पेटेंट लागू होने के बाद किसान अपनी फसल में से अपनी अगली बुवाई के लिए बीज बचा कर नहीं रख पाएगा। उसे हर बुवाई के लिए पेटेंटधारी विदेशी बीज कंपनी से नया और महंगा बीज खरीदना पड़ेगा।

पेटेंट कानून लागू करने से किसान के जो परंपरागत अधिकार हैं, बीज के उत्पादक और बीज के व्यापारी होने के, उससे छीन कर विदेशी कंपनियों को दे दिए जाएंगे। आज की तारीख में हर साल भारत के खेतों में कुल मिला कर 60 लाख टन बीज बोया जाता है। इस 60 लाख टन में से किसान अपने आप ही करीब 50 लाख टन बीज तैयार कर लेता है। बाकी 10 लाख टन उसको सरकारी संस्थाएं उपलब्ध कराती हैं। यदि बीजों पर पेटेंट लागू हुआ तो इस 60 लाख टन के बीज व्यापार पर पूर्ण रूप से विदेशी कंपनियों का कब्जा हो जाएगा।

गैट की तरह 1992 में जैविक संपदा समझौता के नाम से एक और अंतरराष्ट्रीय समझौता हुआ था। इसमें विकासशील देशों ने मांग की थी कि उनकी जैविक संपदा पर केवल उन्हीं का अधिकार माना जाए। इस संबंध में भारत का दृष्टिकोण यह होना चाहिए कि उसके खेतों के बीजों पर और उसके जंगलों में जो औषधीय पौधे, महुआ, नीम, तुलसी, हल्दी, पालश, महुलान पत्ती की लताएं जैसे जितने भी जैविक संसाधन हैं, उस पर भारत के लोगों का मालिकाना हक स्वीकार किया जाए। आज तो जो चाहता है हमारे जंगलों में से पेड़-पौधे या जीव-जंतु ले जाता है। अगर हम अपना मालिकाना हक इन चीजों पर स्थापित कर लेंगे तो हम अपने जंगलों का शोषण बंद कर पाएंगे। इस मालिकाना हक को स्थापित करने के लिए भारत सरकार को एक कानून बनाना होगा जो यह कहे कि हमारे खेतों और वनों की संपत्ति पर केवल हमारा अधिकार है। कानून यह भी कहे कि ग्रामीण व आदिवासी समुदाय से बिना पूछे कोई भी विदेशी व्यक्ति या कंपनी जंगल और खेत की संपदा को छू नहीं सकता है।

जैविक संपदा समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद भी सरकार ने अभी तक ऐसा कोई कानून नहीं बनाया है। कानून न होने की वजह से विदेशी कंपनियां और कुछ देशी कंपनियां भी अपने ऐजेंटों के माध्यम से हमारे जंगलों से बहुमूल्य पौधों व जीव-जंतुओं को लूट रही हैं। इन पौधों से वे तरह-तरह की दवाएं व अन्य वस्तुएं बनाकर करोड़ों का मुनाफा कमा रही हैं। ऐसी वस्तुएं व दवाएं आदिवासी और ग्रामीण समाज के ज्ञान पर आधारित हैं और उन्हीं की संपत्ति से बन रही हैं। परंतु जो लाखों करोड़ों का मुनाफा कमाया जाता है, उसमें से पांच पैसे का भी हिस्सा आदिवासी समाज को नहीं मिलता है। उनकी संपत्ति व उनके ज्ञान के इस लूट को रोकना जरूरी है।

हमारे औषधीय पौधों पर विदेशी दवा कंपनियों का आक्रमण तेजी से बढ़ रहा है। यह इस लिए है कि विदेश में बढ़ती महंगाई व अत्यंत महंगे श्रम की वजह से कोई नई दवा तैयार करने में 10-15 साल लग जाते हैं और कई लाख डालर खर्च हो जाते हैं। इन विदेशी कंपनियों की निगाह अब हमारे जंगलों में पाए जानेवाले औषधीय पौधों पर आ टिकी है। वह इसलिए कि इन पौधों में प्रकृति ने ही दवा तैयार कर दी है। अगर वे इन्हें चुरा लें तो उन्हें बिना कुछ खर्च किए कीमती दवाएं मिल जाती हैं। साथ-ही-साथ आदिवासी व ग्रामीण लोगों से इसका ज्ञान भी मिल जाता है कि इन दवाओं का किस बीमारी में प्रयोग होता है। जब उनको दवा के रूप में प्रयोग होनेवाले पौधे मिल जाएंगे, तो बस थोड़ा सा पैसा खर्च करके वे इनसे गोली, कैप्यूल, मलहम या मिक्शर बनाकर हमारी चीज को अपने नाम से हमारे ही बाजार में तथा विश्व भर के बाजारों में बेचकर खूब रुपए कमाएंगे।

अमरीका ने तो हमारे नीम और हल्दी की दवा बनाकर उस पर पेटेंट भी कर लिया है। इस लूट को रोकने का एक ही तरीका है। हम सब को सचेत हो जाना होगा और इन मुद्दों को लेकर एक अभियान चलाना होगा। हमें जन जागरण पैदा करना होगा कि हमारे खेतों व जंगलों में जो कुछ भी पाया जाता है, वह हमारी संपत्ति है और हम ही तय करेंगे कि इसका उपयोग किस तरह से कौन कर सकता है।

Friday, August 7, 2009

किसान और पशुपालक का परस्पर लाभदायी संबंध

सौराष्ट्र में राजकोट के पास रहनेवाले भारवाड़ पशुपालकों की रेवड़ों में 90 प्रतिशत भेड़ और 10 प्रतिशत बकरियां रहती हैं। एक रेवड़ में 50-250 जानवर होते हैं। भेड़ों से ऊन प्राप्त होता है जो कंबल और गलीचे बनाने के लिए उत्तम होते हैं। भेड़ों से दूध, मांस और मींगनियां भी प्राप्त होती हैं जिनकी बिक्री से भी आमदनी होती है। बकरियों के दूध का उपयोग भारवाड़ स्वयं कर लेते हैं।

सूखे के मौसम में भारवाड़ पशुपालक उत्तर गुजरात के पानी बहुल इलाकों में अपनी भेड़-बकरियों के साथ चले जाते हैं। यहां के किसानों के पास सामान्यतः 1-3 हेक्टेयर की भूमि होती है। वे वर्षा पर ही अधिकतर निर्भर करते है। यद्यपि लगभग सभी गावों में ट्रेक्टर दिख जाएंगे, परंतु बहुत से किसान बैलों से जुताई करना पसंद करते हैं। खरीफ फसल के रूप में वे मूंगफली बोते हैं, और रबी फसल के रूप में कपास, गेहूं, बाजरा, आदि। ये किसान गोबर खाद मिलाकर ही खेतों की उर्वरता बनाए रखते हैं। कारखाना-निर्मित खाद बहुत कम उपयोग किए जाते हैं। भारवाड़ पशुपालकों के साथ इन किसानों के अच्छे संबंध रहते हैं।

भारवाड़ अपने जानवरों को थोर की जिंदा झाड़ियों से बने बाड़ों में रखते हैं। प्रत्येक बाड़ का क्षेत्रफल 300-600 वर्ग मीटर रहता है। ये बाड़ जानवरों की लीद व मींगनियां एकत्र करने की दृष्टि से बने होते हैं। बाड़ों की फर्श समतल होती है और उस में एक या दो कम-गहरे गड्ढे बने होते हैं, जिनमें पशुओं का मल-मूत्र इकट्ठा किया जाता है।

ये पशुपालक पशुओं को शाम 6 बजे चरागाहों से लाकर इन बाड़ो में बंद करते हैं। अगले दिन सुबह 10 बजे तक ये पशु वहीं रहते हैं। जब पशु सुबह चरागाह जा चुके होते हैं, तब बाड़े की फर्श पर पड़ी मींगनियों को बुहारकर गड्ढों में डाल दिया जाता है। इसे बाद में किसान खरीद ले जाते हैं। सूखे के मौसम के अंत में जब खेत खाली होते हैं, किसान भारवाड़ों की भेड़ों को खेतों में ठहरवाते हैं। इसके बदले किसान या तो भारवाड़ों को नकद में भुगतान करते हैं अथवा जानवरों को फसलों का अवशेष खाने को देते हैं। जानवरों का मल-मूत्र सीधे खेतों में ही गिरता है। इससे खाद को भारवाड़ो के बाड़ों से खेतों तक पहुंचाने का खर्चा बच जाता है। एक अन्य फायदा भी है। फसल अवशिष्टों में मौजूद पोषक तत्वों को कुदरती रूप से यानी जीवाणु, फफूंदी, केंचुए आदि जीवों द्वारा पचाने के बाद मिट्टी में पुनः लौट आने में कई साल लग सकते हैं, लेकिन उन्हीं अवशिष्टों को भेड़-बकरियां अपने पेट में पचाकर चौबीस घंटे में अच्छे खाद में बदलकर खेतों में लौटा देती हैं।

पशुपालक एक बैलगाड़ी मींगियां तीन दिनों में 200 भेड़-बकरियों से जमा कर सकते हैं। इसका वजन 100 किलो के आसपास होता है। इसे वे किसानों को एक बैलगाड़ी बाजरे अथवा गेहूं के भूसे के बदले दे देते हैं। यह 200 छोटे मवेशियों के लिए एक दिन के चारे के बराबर होता है। यह इंतजाम पशुपालकों और किसानों दोनों के लिए लाभदायक है। जहां किसानों को तैयार खाद मिलता है, वहीं भारवाड़ों को नकद और चारा मिल जाता है। किसानों को एक ही बात की शिकायत रहती है। मींगनियों के साथ खरपतवारों के बीज भी खेतों मे पहुंच जाते हैं।

पशु-मल का यह सौदा काफी संगठित तरीके से चलता है। इसे वैज्ञानिक आधार देकर और अधिक कार्यक्षम बनाया जा सकता है। खरपतवारों के बीजों को नष्ट करने के लिए मींगनियों को कंपोस्ट किया जा सकता है। खाद में नाइट्रोजन तत्व की वृद्धि करने के लिए अमोनिया मिलाया जा सकता है, इत्यादि।

बहुत से छोटे किसान रासायनिक उर्वरक खरीद नहीं सकेंगे। उनके लिए देशी खाद का ही आसरा है। इसलिए भारवाड़ और किसान के बीच का जो लाभदायी संबंध है, वह अनुकरणीय है।

Thursday, August 6, 2009

दुनिया का सबसे बड़ा बाघ अभयारण्य

म्यानमार में अभी हाल में दुनिया का सबसे बड़ा बाघ अभयारण्य स्थापित किया गया है, जिसका कुल क्षेत्रफल 21,750 वर्ग किलोमीटर है। यह अभयारण्य एक दुर्गम वन्य स्थली में स्थित है जिसे द्वितीय विश्व युद्ध के समय मौत की घाटी के नाम से जाना जाता था। वहां लगभग 100 बाघों का निवास है, लेकिन बेहतर प्रबंधन और सुरक्षा से आनेवाले वर्षों में यह संख्या दस गुना बढ़ने की संभावना है। अभयारण्य का नाम हुकवांग अभयारण्य रखा गया है।

विश्व के सभी भागों से बाघ तेजी से विलुप्त हो रहे हैं। इसका मुख्य वजह है चीन, कोरिया, जापान आदि पूर्वी एशिया के देशों में उसकी हड्डियों, खून, नाखून, व अन्य अंगों का औषधि के रूप में उपयोग, जो बाघों के बड़े पैमाने पर शिकार का कारण बना है।

अनुमानतः अब विश्व में वन्य अवस्था में केवल 5,000 बाघ ही बचे हैं। ताजा आंकड़ों के अनुसार भारत में वन्य अवस्था में लगभग 1,500 बाघ हैं। भारत में बाघ के संरक्षण के लिए लगभग 35 बाघ रिजर्व और 500 से अधिक अभयारण्य स्थापित किए गए हैं। भारत सरकार द्वारा चलाई जा रही बाघ परियोजना, जिसके अंतर्गत बाघ की नस्ल को बचाने के प्रयास किए जा रहे हैं, अब तीन दशक पूरी कर चुकी है। अभी हाल में सरकार ने बाघ परियोजना को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए उसे पुनर्गठित करके बाघ संरक्षण अधिकरण का रूप दिया है।

Wednesday, August 5, 2009

हिंद महासागर - एक अनोखा महासागर

हिंद महासागर एशिया के दक्षिण में अफ्रीका और आस्ट्रेलिया के बीच फैला हुआ है। उसका अधिकांश भाग पृथ्वी के दक्षिणी गोलार्ध में आता है। उसके उत्तरी छोर पर भारतीय उपमहाद्वीप है, दक्षिण में अंटार्टिका, पश्चिम में अफ्रीका, और पूर्व में इंडोनीशिया और आस्ट्रेलिया। पश्चिम में उसका पानी अतलांतिक महासागर में मिल जाता है, और पूर्व में प्रशांत महासागर में।

हिंद महासागर विश्व का तीसरा सबसे बड़ा महासागर है। अफ्रीका और आस्ट्रेलिया के बीच वह 10,000 किलोमीटर तक फैला है। उसका कुल क्षेत्रफल 7.4 करोड़ वर्ग किलोमीटर है, जो सभी महासागरों के कुल क्षेत्रफल का 20 प्रतिशत है। हिंद महासागर की औसत गहराई 4 किलोमीटर है।

प्रशांत और अतलांतिक महासागर दोनों ध्रुवों को छूते हुए फैले हैं, पर हिंद महासागर केवल दक्षिण ध्रुव को स्पर्श करता है। उत्तर दिशा में वह जमीन से घिरा है।

हिंद महासगर में ही दुनिया का सबसे अधिक नमकीन सागर (लाल सागर) और सबसे अधिक गरम सागर (फारस की खाड़ी) स्थित हैं। भौगौलिक काल पैमाने की दृष्टि से हिंद महासागर एक युवा महासागर है, उसने केवल 3.6 करोड़ वर्ष पहले अपना वर्तमान रूप ग्रहण किया है।

इस महासागर में पानी का बहाव कुछ-कुछ विलक्षण ढंग से होता है। बाकी महासागरों में पानी साल भर एक ही दिशा में बहता है, पर हिंद महासागर में पानी का बहाव साल में दो बार दिशा बदलता है। गर्मियों में मानसूनी हवाओं के कारण पानी भारत की ओर बहता है, जबकि सर्दियों में, जब मानसूनी हवाएं उल्टी दिशा पकड़ लेती हैं, पानी अफ्रीका की ओर बहने लगता है।

विश्व की दो महानतम नदियां, ब्रह्मपुत्र और गंगा, हिंद महासागर में जल-समाधि लेती हैं। ये नदियां अपने साथ ढेर सारी गाद भी ले आती हैं, जो वे 2,000 किलोमीटर दूर स्थित हिमालय पर्वतमाला से ही ढोती आ रही होती हैं। इस गाद के कारण इन नदियों के मुहानों के आगे महासागर में अनेक टापू बन गए हैं।

Tuesday, August 4, 2009

पृथ्वी के लिए टानिक

जब आप बीमारी से कमजोर हो जाते हैं तो डाक्टर कोई शक्तिवर्द्धक टानिक लेने को कहता है। जब स्वयं पृथ्वी कमजोर हो जाए तो क्या यही नुस्खा आजामाया जा सकता है? अमरीकी वैज्ञानिकों की मानें तो उत्तर है "हां"।

वायुमंडल में कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढ़ने के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ता जा रहा है। कुछ भावुक वैज्ञानिकों ने इसे पृथ्वी को बुखार आना कहा है। उन्होंने इलाज स्वरूप दवाई भी सुझाई है। उनका मानना है कि यदि पृथ्वी को लौह-युक्त टानिक पिला दिया जाए तो उसका बुखार उतर सकता है।

अमरीकी पत्रिका नेशनल वाइल्डलाइफ में प्रकाशित एक समाचार के मुताबिक यदि सागरों में भारी मात्रा में लोहा छितरा दिया जाए तो इससे सागर जल में रह रहे शैवालों में जनसंख्या विस्फोट हो जाएगा।

शैवाल एक प्रकार के सूक्ष्म पादप हैं जो सभी पौधों के समान वायुमंडल से कार्बन डाइआक्साइड सोखकर अपने लिए भोजन बनाते हैं। सागर जल में लौह तत्व की कमी होती है, जिसके कारण शैवालों की संख्या नियंत्रण में रहती है। इस कमी को कृत्रिम उपायों से पूरा करके उनकी संख्या में वृद्धि की जा सकती है। इससे वायुमंडल के कार्बन डाइआक्साइड में भी कमी होगी, और साथ-साथ पृथ्वी का तापमान भी नहीं बढ़ेगा, यानी पृथ्वी के बुखार पर काबू हो जाएगा।

अमरीका के राष्ट्रीय अनुसंधान परिषद की एक बैठक पर बोल रहे वैज्ञानिकों ने इस अनूठे नुस्खे को "संभावनीय" बताया है। केलिफोर्निया के मोस लैंडिंग मरीन लेबरटरी के निदेशक कहते हैं कि इस दशक के अंत तक इस ओर ठोस कार्रवाई की जाएगी। उनका कहना है कि दक्षिण ध्रुव के चारों ओर के सागरों में और प्रशांत महासागर के लगभग 20 प्रतिशत क्षेत्र पर लोहा फैलाना होगा, तभी कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा में उल्लेखनीय प्रभाव पड़ेगा।

अन्य वैज्ञानिक इस प्रकार की कार्रवाइयों का यह कहकर विरोध करते हैं कि इतने बड़े पैमाने पर किए गए प्रयोगों का सागरीय जीवतंत्र और पृथ्वी की जलवायु पर विपरीत असर पड़े बिना नहीं रहेगा। अतः महासागरों की प्रकृति पर किसी भी प्रकार के मानवी हस्तक्षेप के पहले दो बार सोच लेना लाभकारी होगा। वरना एक गंभीर समस्या से बचने के चक्कर में हम कोई अन्य महागंभीर समस्या को जन्म दे बैठेंगे।

Monday, August 3, 2009

मल-मूत्र से भोजन

जापानी वैज्ञानिकों ने शहरों के नालों में बहते मल-मूत्र को प्रोटीन-युक्त पदार्थ में बदलने में सफलता हासिल की है। यह पदार्थ देखने में मांस के समान लगता है और उन्हें आशा है कि वे जल्द ही उसमें मांस की जैसी सुगंध भी भर सकेंगे। इन वैज्ञानिकों ने इस विश्वास को लेकर काम आरंभ किया था कि जो चीज हमारे शरीर से निकलती है, उसे पुनश्चक्रित करके शरीर में ही लौटाना संभव होना चाहिए।

मल-मूत्र को पहले खाद में बदल लिया जाता है, फिर उसमें सोयाबीन, नमक, मिर्च, हींग आदि स्वादवर्धक पदार्थ मिलाए जाते हैं। इन वैज्ञानिकों का मानना है कि यह पदार्थ मनुष्य के खाने लायक न भी बन सके, इसे मवेशियों को खिलाया जा सकेगा।

Sunday, August 2, 2009

पुराने टायरों का पुनरुपयोग

मोटरवाहनों के पुराने टायरों का निपटरा एक विकट समस्या है। इन्हें जलाने पर जहरीला धुंआ निकलता है। ये कुदरती तरीकों से नष्ट भी नहीं होते इसलिए इन्हें जमीन में दफनाने से भी कोई लाभ नहीं है। न ही इन्हें नदियों, तालाबों और समुद्र में फेंका जा सकता है, क्योंकि ये तैरते हैं और लहरों के साथ तट पर ही लौट आते हैं। कई विकसित देशों में जहां मोटरवाहनों का अत्यधिक चलन है, टायरों के पहाड़ के पहाड़ इकट्ठे होते जा रहे हैं, और उन्हें फेंकने के लिए जगह कम पड़ती जा रही है।

ऐसे में भारत और जापन में टायरों के पुनरुपयोग की संभावना जगाती दो द्रष्टांत काबिले गौर हैं।

पहले जापान की बात करें। वहां मोटरकारों के पुराने टायरों से भारी किस्म का तेल व कोयला बनाने की एक विधि विकसित कर ली गई है। यह काम जापान के राष्ट्रीय पर्यावरण संरक्षण केंद्र, क्यूशू जे सी ए कंपनी और ओसाका म्युनिसिपल टेक्निकल रिसर्च सेंटर ने मिलकर किया है।

इस विधि में टायरों को गरम करके विघटित किया जाता है, जिससे वाष्प के रूप में तेल प्राप्त होता है। आसवन पद्धति से इस वाष्प को परिशुद्ध करके भारी तेल प्राप्त किया जाता है। एक टन टायरों से 400 लिटर शुद्ध तेल प्राप्त होता है। तेल निकालने के बाद बचे अंशों को 800 अंश सेल्सियस पर पकाकर उसमें मौजूद जस्ते को नष्ट किया जाता है। इस तरह प्राप्त जस्ता-मुक्त कोयले का उपयोग पानी को शुद्ध करने के लिए किया जा सकता है।

तेल तथा इस प्रक्रिया के दौरान उत्पन्न ऊष्मा का उपयोग ऊर्जा के रूप में भी हो सकता है। चूंकि टायरों को जलाया नहीं जाता, इसलिए काला और प्रदूषणकारी धुंआ भी नहीं बनता। जापान इकोटाइम्स नामक पत्रिका के अनुसार इस अप्रदूषणकारी प्रौद्योगिकी ने जापान में काफी रुचि जगाई है और इसके पूरे देश में उपयोग होने की संभावना है।

भारत की देशी बुद्धि इस समस्या से अलग प्रकार से निपट रही है। पुराने मोटर टायरों को सुधरी हुई बैल और ऊंट गाड़ियों में खपाया जा रहा है। ऊंट गाड़ियों के लिए हवाई जाहाजों के पुराने टायर बहुत उपयुक्त रहते हैं।

गुजरात में पुराने टायरों को काटकर उनसे अनेक उपयोगी चीजें बनाने का एक भरा-पूरा व्यवसाय ही चलता है। यदि आप पंचमहल जिले के हलोल गांव में से होकर गुजरें, तो आपको ऐसे अनेक दुकानें मिलेंगी जहां कारीगर विभिन्न आकारों के पुराने टायरों को काटने और उनकी परतों को अलग करने में लगे हुए हैं। इस गांव में पुराने टायर इकट्ठे करनेवाले आठ-दस गोदाम हैं, जो टायरों से विभिन्न उपयोगी चीजें बनवाते हैं।

बड़े और भारी-भरकम टायरों की परतों को काटकर अलग कर लिया जाता है और इन परतों से खनन करनेवाली मशीनों और वाहनों के बेल्ट बनवाए जाते हैं। ये बेल्ट टायर के आकार और हालत के अनुसार विभिन्न चौड़ाइयों, लंबाइयों और मोटाइयों में आते हैं। कम चौड़ाई के बेल्टों को हथ-ठेलों के पहियों पर चढ़ाया जाता है और घोड़ा गाड़ियों में जंपर के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इन परतों से चटाइयां और पायदान भी बनाए जाते हैं। टायरों से प्राप्त रबड़ की चादरों से सस्ते जूते-चप्पल बनाए जाते हैं जिन्हें गरीब तबके के लोग पहनते हैं। बचे-खुचे कतरनों को कारखानेदार ईंधन के रूप में खरीद ले जाते हैं।

यद्यपि टायर अत्यंत कठोर होते हैं, फिर भी उन्हें काटने और परतें अलग करने का सब काम मोची के औजारों से हाथ से ही किया जाता है।

टायरों से बनी बस्तुओं की कीमत टायर की हालत और उन्हें बनाने में लगे श्रम पर निर्भर करता है। आमतौर पर टायर से बने ब्लेट 4-10 रुपए प्रति फुट के हिसाब से बिकते हैं।

यदि इन उद्यमकर्ताओं को सरकार अथवा गैरसरकारी संगठनों की ओर से टायर काटने की मशीनें प्राप्त करने में, सामान लाने-ले जाने में, और बनी चीजों को बेचने में थोड़ी-बहुत सहायता मिल जाए, यह व्यवसाय और बढ़ सकता है और एक विकट पर्यावरणीय समस्या का भी हल हो सकता है।

Saturday, August 1, 2009

हाथी के मल से कागज

केनिया के माइक बुगारा नामक उत्साही संरक्षणविद ने अफ्रीकी हाथी की दयनीय स्थिति के बारे में चेतना जगाने के लिए एक विलक्षण विधि अपनाई है - वे हाथियों के मल से कागज बनाते हैं।

हाथियों के पसंदीदा विहार स्थल माउंट केनिया नामक पर्वत की ढलानों में पले-बढ़े बुगारा जानते हैं कि हाथियों के मल में रेशे का अंश काफी अधिक होता है। उन्होंने उन किसानों से हाथी का मल प्राप्त किया जिनके खेतों में ये जानवर घुस आए थे, और कुछ प्रयोगों के बाद कागज बनाने की एक कारगर प्रक्रिया खोज निकाली।

यद्यपि उनके द्वारा बनाया गया कागज कुछ खुरदुरा होता है और दफ्तरों आदि में शायद ही उसका उपयोग हो सके, लेकिन बुगारा का कहना है कि वन्यजीवों के जो चित्र वे बनाते हैं, उनके लिए यह कागज उत्तम हैं। इन चित्रों को बेचकर वे जो पैसा बना पाते हैं, उसे हाथियों को बचाने की आवश्यकता के बारे में जागरूकता लाने में खर्च करते हैं।

अब केनिया की वन्यजीवन सेवा उन्हें मल उपलब्ध कराने लगी है। हाल ही में इस सेवा ने अपने पचासवें वर्षगांठ के लिए इस कागज पर निमंत्रण पत्र बनाने के लिए बुगारा से कहा तथा इस अवसर पर देश के राष्ट्रपति को बुगारा द्वारा हाथी के मल से बनाए गए कागज पर तैयार किया गया केनिया का मानचित्र भेंट किया।

हमारे यहां के हाथियों की हालत भी पतली है। पता नहीं वे इस पृथ्वी पर कितने और दिनों के मेहमान हैं। ऐसे में यदि उन्हें भी बुगारा जैसा कोई देशी समर्थक मिल सके, तो कुछ बात बन सकती है।

Friday, July 31, 2009

क्षीण हो रही है ओजोन परत

ऊपर आसमान में कुछ विचित्र सा घट रहा है। मनुष्यों को हानिकारक पराबैंगनी किरणों से सुरक्षा प्रदान करनेवाली ओजोन परत पतली होती जा रही है। पराबैंगनी किरणों के लगने के कारण चर्मकैंसर हो सकता है। संघातिक प्रकार के चर्मकैंसरों में ३० प्रतिशत रोगी पांच साल के अंदर मर जाते हैं। पराबैंगनी किरणों के कारण मोतियाबिंद भी होता है। अधिक संगीन मामलों में लोग इसके कारण अंधे हो सकते हैं। ओजोन परत क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) नामक मानव-निर्मित रसायनों के कारण पतली हो रही है।

पहले हम यही समझते थे कि सीएफसी एक वरदान हैं और वे मनुष्य के जीवन को समृद्ध और आरामदायक बना सकते हैं। सीएफसी कृत्रिम यौगिक होते हैं, जो क्लोरीन, कार्बन और फ्लोरीन से बने होते हैं। उनका न कोई रंग होता है न गंध। हमने दैनंदिन के कई कार्यों में सीएफसी का उपयोग किया है। मुख्यतः सीएफसी का उपयोग शीतलक के रूप में होता है। जब वे वाष्पीकृत होते हैं, वे आसपास से ऊष्मा ग्रहण करते हैं। इससे फ्रिजों में खाना ठंडा रहता है। वातानुकूलक सीएफसी के वाष्पीकरण ऊर्जा का उपयोग करके कमरों और वाहनों को ठंडा रखते हैं। विकासशील देशों में सीएफसी से यूरीथेन फोम बनाया जाता है जो कारों की सीटें आदि बनाने के काम आता है। सीएफसी का उपयोग सेमीकंडक्टरों को धोने के लिए विलायक के रूप में और ड्राइक्लीनिंग में भी होता है।

ओजोन परत का उद्गम प्राचीन महासागरों से हुआ है और वह धीरे-धीरे दो अरब वर्षों में पूरा बनकर तैयार हुआ है। ओजोन परत में जो ओजोन है उसका मूल स्रोत महासागरों के पादपों द्वारा किए गए प्रकाशसंश्लेषण के दौरान पैदा हुई आक्सीजन है। महासागरों से निकली आक्सीजन के अणु ऊपर उठते-उठते वायुमंडल के समताप मंडल में पहुंच जाते हैं। वहां वे परमाणुओं में टूट जाते हैं। ये परमाणु दुबारा जुड़कर ओजोन का निर्माण करते हैं। आक्सीजन के अणुओं के बिखरने और आक्सीजन के परमाणुओं के जुड़कर ओजन बनने के लिए आवश्यक ऊर्जा सूर्य से आनेवाली पराबैंगनी किरणों से प्राप्त होती है। ओजोन परत सूर्य से आनेवाली अधिकांश पराबैंगनी किरणों को इन क्रियाओं के लिए अवशोषित कर लेती है, जिससे ये अत्यंत घातक पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह तक पहुंचने नहीं पातीं।

लगभग ४० करोड़ वर्ष पूर्व ओजोन परत पूर्ण रूप से बन गई थी। उसके बन जाने से महासागरीय जीव-जंतु जमीन की ओर बढ़ सके क्योंकि वे अब ओजोन परत के कारण पराबैंगनी किरणों से सुरक्षित थे। इससे पूर्व केवल महासागरों में ही जीवन का अस्तित्व था, क्योंकि वही इन घातक किरणों से मुक्त था।

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में बड़ी मात्रा में सीएफसी वायुमंडल में छोड़े जाने लगे। समताप मंडल में पहुंचकर सीएफसी टूट जाते हैं, जिससे उनमें मौजूद क्लोरीन मुक्त हो जाती है। यह क्लोरीन ओजोन परत के लिए घातक होती है। जब ओजोन परत नष्ट हो जीती है, पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह तक फिर से पहुंचने लगती है। इससे चर्मकैंसर, मोतियाबिंद आदि होने लगते हैं, और मनुष्य सहित सभी जीव-जंतुओं का स्वास्थ्य संकट में पड़ जाता है।

विश्व भर की मौसम वेधशालाएं उपग्रहों और मौसम गुब्बारों के उपयोग से ओजोन परत का निरीक्षण कर रही हैं। उनके निरीक्षणों से चिंताजनक तथ्य सामने आए हैं। भूमध्यरेखीय प्रदेशों के अलावा बाकी सब स्थानों में ओजोन परत पतली हो रही है। ओजोन परत पतली तब आती है जब समताप मंडल में तापमान कम हो। ऊंचाई जितनी अधिक हो, ओजोन परत उतनी ही अधिक क्षीण हो रही है। सबसे अधिक नुक्सान अंटार्क्टिका के ऊपर देखा गया है। वहां ओजोन इतना कम हो गया है कि ओजोन परत में एक बड़ा छिद्र ही बन गया है। यह छिद्र वर्ष १९८० में प्रथम बार प्रकट हुआ था। यह छिद्र बढ़ता ही जा रहा है। यदि ओजोन की मात्रा 1 प्रतिशत घट जाए, तो पराबैंगनी किरणों के आतपन में १.५ प्रतिशत का इजाफा हो जाता है। पराबैंगनी किरणों के कारण होनेवाले रोग विश्व भर में बढ़ रहे हैं। सबसे अधिक चिंता चर्मकैंसर है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार २२ लाख व्यक्तियों को हर साल चर्मकैंसर हो जाता है। इनमें से २,००,००० व्यक्तियों में यह कैंसर संघातिक होता है। क्योटो विश्र्वविद्यालय में एक प्रयोग किया गया, जिसके अंतर्गत चूहों को सप्ताह में तीन दिन पराबैंगनी किरणों के सामने रखा गया। लगभग ४० सप्ताह बाद सभी चूहों में चर्मकैंसर के लक्षण देखे गए। जब शोधकर्ताओं ने इन चूहों के जीनों का परीक्षण किया, तो उन्होंने देखा कि कैंसर को रोकने वाले जीन इन चूहों में नदारद थे।

पराबैंगनी किरणें जीनों में उत्परिवर्तन लाती हैं, जिससे कैंसर हो जाता है। पराबैंगनी किरणें आंखों के लेन्स को भी नुक्सान पहुंचाती हैं, जिससे मोतियाबिंद हो जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार हर साल ३२ लाख व्यक्ति पराबैंगनी किरणों के कारण बने मोतियाबिंद से अंधे हो जाते हैं। पराबैंगनी किरणें फसलों को भी नुक्सान पहुंचाती हैं। यदि पराबैंगनी किरणों का आतपन बढ़ जाए, तो विश्व भर में पैदावार घट सकती है और पृथ्वी का संपूर्ण पारिस्थितिकीय तंत्र प्रभावित हो सकता है।

सीएफसी के कारण ओजोन परत का पतला होना एक गंभीर विश्व स्तरीय समस्या है। वर्ष १९८७ में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने मांट्रियल प्रोटोकोल अपनाकर सीएफसी में कमी लाने का निश्चय किया। इस प्रोटोकोल में शामिल देशों ने तय किया कि वर्ष १९९६ तक वे सीएफसी का उपयोग पूर्णतः बंद कर देंगे।

पश्चिमी देशों में उपयोग किए हुए सीएफसी की पुनर्प्राप्ति के कड़े नियम हैं। इससे वहां इन्हें हवा में छोड़े जाने की समस्या उतनी संगीन नहीं है। परंतु जापान तथा विकासशील देशों में ऐसे नियमों की कमी है। इन देशों का कहना है कि सीएफसी की पुनर्प्राप्ति अव्यावहारिक है। सबसे बड़ी समस्या इसमें आनेवाली ऊंची लागत है, जो हर वर्ष लगभग २६ अरब रुपए के बराबर है।

तेजी से विकसित होते एशिया में सीएफसी की मांग बढ़ती ही जा रही है। आज विश्व भर में जितना सीएफसी उपयोग किए जाते हैं, उसका आधा एशिया में होता है, मुख्यत चीन, जापान, भारत और आसियान देशों में। मांट्रियल प्रोटोकोल की धारा ५, १२२ विकासशील देशों को सीएफसी का उपयोग समाप्त करने के लिए कुछ अधिक समय देता है, ताकि उनका आर्थिक विकास न रुके। इन देशों को २०१० तक सीएफसी का उपयोग बंद करना है, जबकि समृद्ध देशों के लिए यह सीमा १९९६ है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने विकासशील देशों को सीएफसी के उपयोग में कमी लाने में मदद देने के लिए एक बहुपक्षीय कोष स्थापित किया है।

ओजोन परत के पूर्णत स्वस्थ होने के लिए काफी लंबा समय लगनेवाला है। इसका मतलब यह है कि हम सबको अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए आज इसी समय निर्णय लेना होगा कि हम सीएफसी का उपयोग नहीं करेंगे।

Thursday, July 30, 2009

कोमोडो ड्रैगन


कोमोडो ड्रैगन दुनिया की सबसे बड़ी छिपकली है। उसकी लंबाई 3 मीटर (10 फुट) और वजन 180 किलो होता है।

कोमोडो ड्रैगन की जीभ सांप की जीभ के समान फटी हुई होती है। उसके नाखून और दांत बहुत पैने और जबड़े बहुत ही मजबूत होते हैं। अपनी लंबी मांसल पूंछ की कोड़े जैसी मार से वह अपने शत्रुओं को घायल कर सकता है। उसका शरीर कठोर शल्कों से ढका होता है।

कोमोडो ड्रैगन इंदोनीशिया के चार छोटे टापुओं में ही पाया जाता है। उनमें से सबसे बड़े टापू का नाम कोमोडो टापू है।

कोमोडो ड्रैगन एक प्रकार की गोह है। वह मांस-भक्षी है जो मरे जानवरों का मांस भी खाता है और खुद भी शिकार करता है। छोटे कोमोडो ड्रैगन छिपकली, कीड़े-मकोड़े, पक्षी, सांप आदि खाते हैं। जब वे लंबाई में 30 सेंटीमीटर के और उम्र में लगभग एक साल के हो जाते हैं, तो वे मरे जानवरों का मांस खाने लगते हैं। बड़े कोमोडो ड्रैगन हिरण, बकरी, जंगली सूअर आदि का शिकार करते हैं। वे 500 किलो वजन की भैंस तक को मार सकते हैं। कभी-कभी इन खूंखार छिपकलियों ने बच्चों, बूढ़ों और बीमार मनुष्यों पर भी हमला किया है।

कमोडो ड्रैगन एक अत्यंत सफल शिकारी है। उसके लचीले मसूड़ो में 60 से अधिक आरीदार किनारोंवाले, मुंह के अंदर की ओर मुड़े हुए, उस्तरे के समान तेज धारवाले दांत होते हैं। ये दांत उसके जीवनकाल में पांच बार नए सिरे से उगते हैं, इसलिए दांत टूटने से कोमोडो ड्रैगन को अधिक परेशानी नहीं होती। कोमोडो ड्रैगन के दांत शार्क मछली के दांतों के समान होते हैं। कहते हैं कि कोमोडो ड्रैगन के द्वरा जरा सा काटे जाने पर भी मृत्यु हो जाती है। चूंकि वह सड़ा-गला मांस खाता है, इसलिए सड़े-गले मांस में मौजूद अनेक घातक जीवाणु उसके मुंह में होते हैं। काटे जाने पर ये जीवाणु घाव में मिल जाते हैं और इससे काटे गए प्राणी के शरीर में जहर फैल जाता है। कोमोडो ड्रैगन को इससे फायदा ही होता है। यदि शिकार उसकी पकड़ से बच भी गया, तो कुछ ही दिनों में अपने घावों में जहर फैलने से वह मर जाएगा और कोमोडो ड्रैगन उसके शव को ढूंढकर खा जाएगा। कोमोडो ड्रैगन की सूंघने की शक्ति इतनी प्रबल होती है कि वह सड़े मांस को 8 किलोमीटर की दूरी से सूंघ सकता है।

यह खूंखार छिपकली ताकतवर ही नहीं, अत्यंत बुद्धिशाली भी होता है। वह हिरण, सूअर आदि चौकन्ने प्राणियों को भी धोखा देकर पकड़ लेता है। कोमोडो ड्रैगन शिकार करने के लिए जंगली मार्गों के पास लेटा रहता है। मिट्टी के रंग का होने के कारण वह बिलकुल छिपा रहता है। शिकार के मार्ग पर से गुजरने पर वह उसे लपककर पकड़ लेता है।

कोमोडो ड्रैगन भोजन को बड़ी तेजी से निगलता है। सांप की तरह वह भी अपने जबड़ों को खूब फैला सकता है। वह एक बार में पूरे छौने को या सूअर के पूरे सिर को या बकरी के आधे शरीर को निगल सकता है। 50 किलो वजन का कोमोडो ड्रैगन 40 किलो वजन के हिरण को 20 मिनट में चट कर सकता है। कोमोडो ड्रैगन अपने वजन के 80 प्रतिशत जितना मांस एक बार में खा सकता है।

मादा गर्मियों में 30 जितने अंडे देती है। आठ महीने बाद अंडों से आधे मीटर (डेढ़ फुट) लंबे बच्चे निकल आते हैं। पैदा होते ही वे पेड़ों पर चढ़ जाते हैं, वरना बड़े कोमोडो ड्रैगन उन्हें पकड़कर खा जाएंगे। ये बच्चे लगभग एक साल तक पेड़ों पर ही रहते हैं और वहीं से आहार खोजते हैं।

कोमोडो ड्रैगन की आयु लगभग 50 वर्ष होती है।

कोमोडो ड्रैगन दिन भर धीमे-धीमे चलते हुए आहार खोजता रहता है। सामान्यतः वह अकेले ही रहता और शिकार करता है। उसे तटीय इलाकों के वनों में शिकार करना पसंद है। वह सागरतटों पर भी आहार खोजता है और लहरों के साथ बह आई मछलियों और अन्य समुद्री जीवों को खाता है। वह अच्छा तैराक है और एक टापू से दूसरे टापू को तैरकर जाता है। कोमोडो ड्रैगन 15 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से कुछ दूरी तक दौड़ सकता है।

रात को सोने के लिए और दिन में तेज धूप से बचने के लिए कोमोडो ड्रैगन जमीन पर बिल खोदता है। कभी-कभी वह अन्य जानवरों द्वारा खोदे गए बिलों को भी हथिया लेता है।

कोमोडो ड्रैगन 2 कोरड़ वर्षों से इस पृथ्वी पर रहता आ रहा है। पर लगता है कि अब उसके दिन पूरे होते जा रहे हैं। आज उसे एक संकटग्रस्त प्राणी माना जाता है। वन्य अवस्था में केवल 5,000 कोमोडो ड्रैगन ही जीवित बचे हैं। उसे सबसे अधिक खतरा उसके रहने लायक जंगलों के कम होने से है।

Wednesday, July 29, 2009

एल्कहॉल से दौड़ती ब्राजील की कारें

विश्व के जिन देशों पर विदेशी कर्ज का बोझ सबसे अधिक है, उनमें से अग्रणी है दक्षिण अमरीका का विशाल देश ब्राजील। इस पर विदेशी कर्ज का संकट तो है ही, तेल की बढ़ती कीमत के कारण इसकी आर्थिक स्थिति और बिगड़ती गई है। उपलब्ध विदेशी मुद्रा का आधा तो आयातित तेल के भुगतान पर ही खर्च हो जाता है। मोटर कार निर्माण इस देश का प्रमुख उद्योग है। तेल की बढ़ती कीमत के कारण इस उद्योग को भी मंदी का सामना करना पड़ रहा है। साथ ही देश की संपूर्ण अर्थव्यवस्था ही डांवाडोल होने लगी है।

देश के कर्णधारों को स्पष्ट हुआ कि अर्थव्यस्था को स्थिर करने के लिए आयातित तेल पर निर्भरता कम करनी होगी। तेल के विकल्प के रूप में ब्राजील के विशाल गन्ने की फसल से उत्पन्न एल्कहॉल के उपयोग को प्रोत्साहन दिया जाने लगा। एल्कहॉल के उत्पादन और वितरण की विस्तृत प्रणाली अब देश भर में कायम हो गई है। ब्राजील में बिकने वाले नब्बे प्रतिशत कारें एल्कहॉल से चलती हैं।

इस कार्यक्रम का सबसे पहला लाभ आर्थिक था। देश तेल आयातित करने में खर्च होने वाली विदेशी मुद्रा बचा सका। दूसरा लाभ यह था कि एल्कहॉल उद्योग द्वारा पैदा किए गए रोजगार के असंख्य अवसरों से देश में फैली व्यापक बेरोजगारी में कमी आई। तीसरा लाभ था एक ऐसी स्थानीय प्रौद्योगिकी का विकास जिसके लिए किसी भी विदेशी मुल्क का मुंह नहीं जोहना पड़ता था। परंतु सबसे महत्वपूर्ण लाभ तो पर्यावरणीय दृष्टि से मिला। डीजल या पेट्रोल की तुलना में एल्कहॉल अधिक साफ-सुथरा ईंधन है। एल्कहॉल के व्यापक उपयोग से ब्राजील के शहरों में वायु प्रदूषण बहुत कम हो गया है।

किंतु इतने व्यापक पैमाने पर परिवर्तन लाना बहुत आसान काम नहीं था। एल्कहॉल प्राकृतिक तेल के मुकाबले महंगा ईंधन है। अतः उसे आम लोगों के लिए सुलभ बनाने के लिए सरकार को उसे रियायती दरों पर उपलब्ध करना पड़ा।

ईंधन के रूप में एल्कहॉल तैयार करने के लिए एक बहुत बड़े क्षेत्र पर गन्ना उगाने की आवश्यकता हुई। बहुत-सी खेती योग्य जमीन पर जिस पर पहले अन्न उगाया जाता था, अब गन्ना उगाया जा रहा है। दूसरी ओर ब्राजील के दुर्लभ उष्णकटिबंधीय वर्षावनों को जलाकर गन्ने के लिए जमीन तैयार की जाने लगी है।

परंतु एल्कहॉल के पक्ष में यह महत्वपूर्ण तथ्य भी है कि वह खनिज तेल के समान अनवीकरणीय ईंधन नहीं है। अब कृषि-वैज्ञानिक गन्ने के पैदावार बढ़ाने के लिए अनुसंधान कर रहे हैं, ताकि कम से कम जमीन से आवश्यक गन्ना पैदा कर लिया जा सके। एल्कहॉल उद्योग को भी अधिक कार्यक्षम बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं। पहले रस निकालने के बाद गन्ने के डंठलों को फेंक दिया जाता था। अब इसके नए-नए उपयोग खोजे गए हैं, जो ब्राजील की ईंधन की समस्या को सुलझाने में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।

सान मारटिंदो एल्कहॉल बनाने वाले बड़े से बड़े कारखानों में से एक है। इस कारखाने में 1976 से तेल के स्थान पर गन्ने के रस के अवशिष्टों को जलाकर ऊर्जा प्राप्त करने के लिए प्रयोग चल रहा है। अब संपूर्ण बिजली की आवश्यकता गन्ने के अविशिष्टों को जलाकर प्राप्त की जाती है। इसके अलावा दो मेगावाट बिजली अन्य कारखानों को बेची भी जाती है। सच तो यह है कि देश का दस प्रतिशत बिजली का उत्पादन गन्ने के अवशिष्टों को जलाकर होता है।

एक अन्य कारखाने में गन्ने के अविशिष्टों के लिए एक और उपयोग विकसित कर लिया गया है। अवशिष्टों को भाप में पकाकर और उसमें खमीर मिलाकर पशुओं को खिलाने योग्य, उच्च कोटि का प्रोटीनयुक्त चारा तैयार किया जाता है, जिसे विदेशों को बेचकर विदेशी मुद्रा भी कमाई जा सकती है।

ब्राजील का एल्कहॉल कार्यक्रम साबित करता है कि तेल पर आधारित उद्योग प्रणाली को किसी अन्य ऊर्जा स्रोत से भी चलाया जा सकता है। ब्राजील ने जो मार्ग अपनाया है वह शायद हमारे देश के लिए उपयुक्त न हो, क्योंकि इस घने बसे देश में व्यापक पैमाने पर गन्ने की खेती के लिए जमीन न मिल सके, परंतु ब्राजील का उदाहरण हमें सोचने पर मजबूर कर देता है कि जिस प्रकार ब्राजील ने अपनी परिस्थितियों के अनुकूल तेल का विकल्प ढूढ़ने में सफलता पाई है, वैसे ही हम भी अपने देश की परिस्थितियों के अनुकूल तेल का कोई दूसरा विकल्प ढूंढ़ सकते हैं और तेल आयात करने में खर्च होने वाली विदेशी मुद्रा बचा सकते हैं। इतना ही नहीं, एक कम प्रदूषणकारी औद्योगिक व्यवस्था की नींव भी रख सकते हैं। हमारे लिए सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, बयो गैस आदि नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत काफी संभावनाएं लिए हुए हैं।

Tuesday, July 28, 2009

प्रकृति के अजूबे सफेद बाघ

देश-विदेश के बहुत से चिड़ियाघर सफेद बाघों को प्रदर्शित करते हैं। इन प्रकृति के अजूबों को देखने अपार भीड़ जुटती है। ये भव्य जानवर होते भी हैं बड़े ही आकर्षक - विशाल आकार, श्वेत चर्म पर गहरी भूरी धारियां, हल्के गुलाबी होंठ और नाक, तथा कठोर नीली आंखें। इन विलक्षण जानवरों की कहानी अत्यंत रोचक है।

देश-विदेश के चिड़ियाघरों में प्रदर्शित सभी सफेद बाघों का पूर्वज मोहन नाम का सफेद बाघ है। उसे १९५१ में रीवा के बाग्री वनों में अपनी मां के साथ विचरते समय पकड़ा गया था। उसकी मां तो शिकारियों की गोलियों की भेंट चढ़ गई पर मोहन, जो उस समय एक निरा दूध-पीता बच्चा था, जिंदा पकड़ लिया गया। उसके विलक्षण रंग को देखकर रीवा के महाराजा ने उसके विशेष परवरिश की व्यवस्था कर दी। जब वह बड़ा हुआ तो बेगम नाम की एक साधारण बाघिन से उसका जोड़ा बांधा गया। बेगम ने १९५३-५६ के दौरान तीन बार बच्चे जने और कुल १० शावक पैदा किए। ये सब साधारण रंग के बाघ थे। वर्ष १९५८ में उनमें से एक बाघिन राधा से, जो मोहन की ही पुत्री थी, मोहन के चार बच्चे हुए, जो सभी श्वेत रंग के निकले। आज चिड़ियाघरों में दिख रहे बीसियों सफेद बाघ सब इन्हीं चार शावकों के वंशज हैं। इन सबके पितामह मोहन ने २० वर्ष की लंबी आयु पाई और १९६९ में मध्य प्रदेश में रीवा नरेश के एक महल में उसका देहांत हुआ।

यद्यपि मोहन से पहले भी जंगलों में सफेद बाघ देखे गए हैं, लेकिन उनमें और मोहन में एक खास अंतर है। मोहन इन सफेद बाघों के समान "एलबिनो" नहीं था। एलबिनो जानवरों की आंखें गुलाबी रंग की होती हैं। वे बहुधा कमजोर एवं कद में छोटे होते हैं और अधिक समय जीवित नहीं रहते। मनुष्य समेत अनेक प्राणियों में एलबिनो पैदा होते हैं। मनुष्यों में उन्हें सूर्यमुखी मनुष्य कहा जाता है। उनके शरीर - बाल समेत - सफेद रंग का होता है क्योंकि उनमें रंजक पदार्थ नहीं होते। इसके विपरीत मोहन की आंखें नीली थीं और वह सामान्य बाघों से बड़ा और शक्तिशाली था। बंदी अवस्था में भी वह स्वस्थ रहा और उसने प्रजनन किया।

सच तो यह है कि मोहन एक "रिसेसिव म्यूटेंट" था। बाघों की चमड़ी, नाक और आंख के रंग को एक खास जीन निर्धारित करता है जिसे 'क' नाम दिया जा सकता है। इसके प्रभाव को निष्क्रिय बनानेवाला एक दूसरा जीन भी होता है, जिसे इसका रिसेसिव जीन कहा जाता है। इसे 'ख' से अभिहित किया जा सकता है। यदि किसी जीव में 'क' जीन न हो तो यह रिसेसिव जीन 'ख' सक्रिय हो उठता है और उस जीव को एलबिनो बना देता है। सामान्य रंग वाले बाघों में 'क-क' अथवा 'क-ख' का जीन-संयोजन पाया जाता है, जबकि सफेद बाघ में अनिवार्यतः 'ख-ख' का जीन-संयोजन होता है, यानी उनमें 'क' जीन का अभाव होता है। इस तरह यदि बाघ-बाघिन में से एक भी 'क-क' हो, तो सभी शावक सामान्य पैदा होंगे, परंतु यदि दोनों 'क-ख' हों तो एक-आध शावक सफेद पैदा हो सकते हैं। परंतु यदि दोनों ही 'ख-ख' हों, तो उनके सभी बच्चे सफेद पैदा होंगे। यद्यपि १९५१ से पहले भी शिकारियों द्वारा सफेद बाघ मारे गए हैं, लेकिन मोहन पहला सफेद बाघ था जिसे जिंदा पकड़ा गया और उसने बंदी अवस्था में प्रजनन भी किया। उसकी संतति के कारण सफेद बाघ विश्व-प्रसिद्ध हो गए।

उनके विलक्षण रंग और विशाल आकार के अलावा सफेद बाघों और अन्य बाघों में कोई भी अंतर नहीं होता है। परंतु चिड़ियाघरों के लिए उनका अद्भुत रूप-रंग ही महत्व रखता है। इसलिए चिड़ियाघर सफेद बाघों के लिए मुंह मांगी कीमत देने को तैयार रहते हैं। एक स्वस्थ सफेद बाघ के लिए एक लाख डालर तो आसानी से मिल जाता है। दुर्भाग्य से अत्यधिक अंतरप्रजनन के कारण इस विलक्षण जीव की नस्ल बहुत क्षीण हो गई है। मोहन की वंश परंपरा में ११४ सफेद बाघ पैदा हुए, जिनमें से केवल २५ आज भारत और अन्य देशों में जीवित हैं।

Monday, July 27, 2009

दुनिया का सबसे बड़ा सांप अनाकोंडा


अनाकोंडा विश्व का सबसे बड़ा सांप माना जाता है। उसके विशाल आकार और आक्रामक स्वभाव को लेकर अनेक अतिशयोक्तिपूर्ण बातें कही गई हैं। इन मनगढ़ंत बातों के आधार पर बनी फिल्म "अनाकोंडा" अभी कुछ दिनों पहले काफी चर्चे में रही। इस फिल्म में इस सांप को काफी खतरनाक और मानवभक्षी दर्शाया गया है, जो सचाई से कोसों दूर है। आइए, इस विशाल सांप के बारे में कुछ विज्ञान-सिद्ध, सच्ची बातें जानें।

दिलचस्प बात यह है कि इस सांप का नाम अनाकोंडा एक तमिल शब्द से उपजा है और उसका अर्थ होता है "हाथियों को मारने वाला" (आनै (हाथी) + कोलरा (मारनेवाला) = अनाकोंडा)। पर कोई भी सांप हाथी को मार नहीं सकता, अनाकोंडा भी नहीं। इसलिए "हाथियों को मारने वाला" का अर्थ यही लेना होगा कि यह सांप अन्य सांपों से बहुत बड़ा होता है।

अनाकोंडा की औसत लंबाई 20 फुट होती है। पर बहुत से खोजी यात्रियों ने 150 फुट लंबे अनाकोंडा के होने की बातें कही हैं। उनके दावों में कितनी सचाई है, इसका पता लगाने के लिए अमरीका के राष्ट्रीय चिड़ियाघर ने कई साल पहले 30 फुट से ज्यादा लंबा अनाकोंडा लाने वाले को 5000 डालर का पुरस्कार घोषित किया था। इस पुरस्कार को आज तक किसी ने नहीं पाया है। इससे यह सिद्ध होता है कि इस सांप की लंबाई 20-25 फुट से अधिक नहीं होती और 100-150 फुट लंबे अनाकोंडा केवल खोजी यात्रियों के खयालों में होते हैं। इस दृष्टि से अनाकोंडा विश्व का सबसे लंबा सांप भी नहीं ठहरता क्योंकि भारतीय अजगर कभी-कभी उससे भी लंबा हो जाता है। पर अनाकोंडा निश्चय ही विश्व का सबसे भारी सांप है। उसके शरीर का घेराव आसानी से तीन फुट हो सकता है।

उसके हल्के हरे रंग के शरीर पर बड़े-बड़े काले धब्बे बने होते हैं। सिर पर नाक से लेकर गर्दन तक दो काली धारियां होती हैं। अनाकोंडा समस्त दक्षिण अमरीका में पाया जाता है, खासकर के अमेजन नदी के घने जंगलों में। अजगर के समान ही अनाकोंडा के शरीर के निचले भाग में गुदा-द्वार के पास पिछली टांगों के अवशेष-स्वरूप दो कांटे रहते हैं। ये मैथुन के समय मादा को उकसाने में काम आते हैं। यद्यपि अनाकोंडा भी अजगर के ही कुल का सांप है, पर मादा अनाकोंडा अजगर के समान अंडे नहीं देती बल्कि जीवित बच्चों को जन्म देती है। नवजात अनाकोंडा 2-3 फुट लंबे होते हैं। वन्य अवस्था में अनाकोंडा 40-50 साल जीवित रहते हैं। अमरीका के एक चिड़ियाघर में यह सांप 28 वर्ष जीवित रहा।

अनाकोंडा का अधिकांश समय पानी में बीतता है। वह धीमी गति से बहनेवाली नदियों और दलदलों में रहता है। तेज बहाववाली नदियां उसे पसंद नहीं हैं। सामान्यतः वह अकेले ही रहता है। बिरले ही 3-4 अनाकोंडा एक-साथ दिखते हैं। प्रत्येक अनाकोंडा का एक निश्चित शिकारगाह होता है जहां वह अन्य सजातीय सर्पों को आने नहीं देता।

अनाकोंडा सामान्यतः रात को सक्रिय रहता है। शिकार फंसाने के लिए वह छिछले पानी में बिना हिले-डुले लेटा रहता है। शरीर को पानी में डूबने से रोकने के लिए वह हवा निगल लेता है। किसी प्राणी के पानी पीने आने पर वह पानी से उछल कर उसे अपने मजबूत जबड़ों में पकड़ लेता है और अपने शरीर की कुंड़लियां उसके ऊपर डालकर उसे पानी में खींच लेता है। शिकार की मृत्यु पानी में डूबने अथवा कुंड़लियों के दबाव के कारण दम घुटने से होती है। अनाकोंडा द्वारा भींचे जाने से शिकार की हर हड्डी के चूर-चूर होने की बातें केवल किस्से-कहानियों में मिलती हैं और उनमें कोई सचाई नहीं है। वह मछली, छोटे-बड़े पक्षी, हिरण, सूअर, बड़े आकार के कृंतक (चूहे के वर्ग के जीव), पानी के कच्छुए और कभी-कभी मगर का शिकार करता है।

सभी सांपों के समान वह अपने शरीर के घेराव से कहीं बड़े शिकार को निगल सकता है। एक बार एक 25 फुट लंबे अनाकोंडा ने 6 फुट लंबा मगर निगल लिया था। इतना बड़ा शिकार खाने के बाद उसे हफ्तों तक खाने की आवश्यकता नहीं रहती। वह चुपचाप किसी सुरक्षित जगह कुंड़लियों के बीच सिर छिपाए पड़ा रहता है। कभी-कभी अनाकोंडा जमीन पर आकर भी शिकार करता है। जमीन पर वह धीमी गति से ही रेंग सकता है। उसे पानी के ऊपर निकल आई वृक्ष-शाखाओं में लेटकर धूप सेंकना भी अच्छा लगता है।

इस सांप की दृष्टि बहुत कमजोर होती है और वह काफी पास की चीजें ही साफ-साफ देख पाता है, यद्यपि उसके शिकार के हलचलों को वह तुरंत भांप लेता है। शिकार खोजने में उसकी तीव्र घ्राण शक्ति अधिक सहायक बनती है। अधिकांश सांपों के समान उसकी नाक के पास एक अन्य अवयव भी होता है जो शिकार के शरीर से उत्पन्न गरमी को ताड़ने में सहायता करता है। इसी से अनाकोंडा रात के अंधेर में भी शिकार खोज लेता है।

इतने बड़े और शक्तिशाली सांप के बारे में अनेक कहानी-किंवदंतियां बनना स्वाभाविक ही है। दक्षिण अमरीका के आदिवासी उसे देवता मानकर उसकी पूजा करते हैं। कुछ आदिवासी उसे अपना पूर्वज मानते हैं। आदिवासियों में यह धारणा भी प्रचलित है कि रात को अनाकोंडा एक नाव में बदल जाता है और उसके शरीर पर पाल जैसे अवयव बन जाते हैं।

जिस प्रकार भारत में अजगर के संबंध में यह धारणा काफी आम है कि वह मनुष्यों को पकड़कर निगल जाता है, दक्षिण अमरीका के लोग अनाकोंडा के संबंध में ऐसा मानते हैं। यह सही है कि कुछ मनुष्य इस विशाल सांप द्वारा मारे गए हैं, पर यह कहना कि वह उन्हें खाता भी है, कोरी कल्पना है। मनुष्य के कंधे की चौड़ाई इतनी अधिक होती है कि वह बड़े से बड़े अनाकोंडा के भी गले से नहीं उतर सकता। मनुष्य के साथ अचानक मुठभेड़ हो जाने पर घबराहट में अथवा आत्मरक्षा में उसकी कुंड़लियों में कुछ मनुष्य आए हैं और उनका दम घुटा है। इन मौतों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह सांप खाने के इरादे से मनुष्यों का शिकार करता है।

Sunday, July 26, 2009

ह्वेल कभी चल सकती थीं

लंबे समय से जलजीवन बिताते आने के कारण आजकल की ह्वेलों की शरीर-रचना में अनेक परिवर्तन हो गए हैं। इनमें से प्रमुख पिछली टांगों का लुप्त हो जाना है। परंतु इंटरनेशनल वाइल्डलाइफ नामक अमरीकी पत्रिका के अनुसार मिस्र के सागर तट से चार करोड़ वर्ष पुरानी ह्वेल की जो हड्डियां मिली हैं, उनसे प्रकट होता है कि पहले के जमाने की ह्वेलों में टांगें हुआ करती थीं। 18 मीटर लंबे इन प्राचीन ह्वेलों में लगभग 60 सेंटीमीटर लंबी पिछली टांगें पाई गई हैं। इन टांगों में घुटने, ऐड़ियां और अंगुलियां मौजूद हैं।

कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि ये टांगें ह्वेलों को सागर के तल पर चलने और छिछले पानी में आगे बढ़ने में सहायता करती होंगी। मैथुन के समय भी ये उपयोगी रही होंगी।

Saturday, July 25, 2009

सांप

आज नागपंचमी है, भारत का एक महत्वपूर्ण त्योहार। यद्यपि यह त्यौहार सांप जैसे महत्वपूर्ण और खौफनाक कुदरती जीवों के साथ तादात्मय स्थापित करने के इरादे से मनाया जाता है, लेकिन हमारे जैसे कम साक्षर देश में यह त्यौहार सांपों के संबंध में अनेक अंध विश्वास भी फैलाता है। आइए सांपों के संबंध में कुछ सच्ची बातें जानें, जो भी उनके संबंध में फैली अनेक निराधार विश्वासों और कल्पित बातों जितनी ही रोचक हैं।

सांप उत्तेजित करनेवाले और डरावने प्राणी होते हैं। सांपों के प्रति हमारी प्रतिक्रिया कभी भी उदासीनतापूर्ण नहीं होती, बल्कि उनके विषय में हम और अधिक जानना चाहते हैं।

भारत में 200 प्रकार के सांप पाए जाते हैं, जबकि विश्वभर में 2,500 प्रकार के सांप हैं। भारत में लगभग 50 प्रकार के विषैले सांप हैं, परंतु ये शायद ही कभी मनुष्य के संपर्क में आते हैं क्योंकि ये ऐसे स्थानों में बसते हैं जहां जनसंख्या बहुत कम होती है। अनेक विषैले सांप मनुष्य के लिए घातक नहीं होते, क्योंकि उनके जहर में केवल चूहे, मेंढ़क आदि छोटे जीवों को मारने की क्षमता ही होती है।

हमें चिंतित करनेवाले केवल चार सांप हैं--नाग, करैत, फुर्सा और दबोइया--जो बड़े खतरनाक हैं और मानव बस्तियों के आसपास पाए जाते हैं। गनीमत है कि इन चार मुख्य सांपों का प्रत्येक दंश घातक नही होता। दंश की तीव्रता दंशित व्यक्ति के स्वास्थ्य, उसके शरीर के आकार और शरीर में गए विष की मात्रा आदि पर निर्भर करती है।

सर्पदंश के संबंध में जो रहस्यमयता तथा अधूरी और गलत जानकारी प्रवर्तमान है, उसके परिणामस्वरूप वह एक भयानक और कल्पनातीत घटना बन जाता है। याद रखने योग्य बात यह है कि विषैले सांप के दंश का एकमात्र इलाज प्रतिविष सीरम है जो अस्पतालों में उपलब्ध रहता है। विषैले सांप के दंश से बचने के लिए जो व्यक्ति मंत्रों और जड़ी-बूटियों की शरण में जाता है वह मृत्यु को वरण करता है।

सांपों के विषय में अनेक किंवदंतियां प्रचलित हैं। सबसे अधिक प्रचलित किंवदंति यह है कि सांप बदला लेते हैं। लोग मानते हैं कि यदि आप किसी सांप को मार डालेंगे तो उसकी मादा आपको अवश्य काटेगी। यह सच नहीं है। बदला लेने की भावना सिर्फ मनुष्य में पाई जाती है।

सपेरे ने अपनी बीन को लेकर एक और किंवदंती गढ़ रखी है। तमाशाबीन सोचते हैं कि सांप सपेरे की बीन के स्वरों पर थिरकता है। लेकिन सांप के तो कान ही नहीं होते और वे सुन ही नहीं सकते। नाग का डोलना बीन की गति के प्रति उसकी प्रतिक्रिया है, आवाज के प्रति नहीं।

प्रचलित विश्वास के विपरीत नाग के सिर पर कोई मणि नहीं होता। यदि होता तो सपेरे कंगाल क्यों होते, वे राजा-महाराजा के समान धनवान न हो गए होते?

सांपों को लेकर और भी अनेक किंवदंतियां बढ़ा-चढ़ाकर कही गई हैं, जिनका कोई आधार नहीं। कदाचित सांप विश्व में सर्वाधिक गलत समझे जानेवाले प्राणी हैं। सच तो यह है कि सांप मनुष्यों के सच्चे मित्र हैं जो प्रतिवर्ष अनाज का लगभग 20 प्रतिशत नष्ट करनेवाले और प्लेग जैसी भयंकर बीमारियां फैलानेवाले चूहों को खाकर हमारा बड़ा उपकार करते हैं।

कुदरती तटरक्षक मैंग्रोव वन

आज 26 जुलाई है, विश्व मैंग्रोव एक्शन दिवस। इस दिन दुनिया भर में बहुमूल्य मैंग्रोव वनों की रक्षा करने के लिए और उनकी उपयोगिता के बारे में जागरूकता लाने के लिए प्रयास किए जाते हैं। आइए हम भी इन कुदरती तटरक्षकों के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त करें।



महाद्वीपों के किनारे समुद्रों की लहरों के प्रचंड थपेड़ों से निरंतर टूटते-बिखरते रहते हैं। इन्हीं किनारों पर अनेक बड़ी-बड़ी नदियां समुद्र-समाधि लेती हैं। इसलिए वहां खारे और मीठे पानी का अद्भुत संगम होता है। इन विशिष्ट प्रकार के जलों में एक अनोखी वनस्पति उगती है, जिसे मैंग्रोव अथवा कच्छ वनस्पति कहते हैं। बंगलादेश और पश्चिम बंगाल के दक्षिणी भागों में स्थित सुंदरबन इस प्रकार की वनस्पति का अच्छा उदाहरण है। वस्तुतः इस प्रदेश का नाम सुंदरबन इसलिए पड़ा है क्योंकि वहां सुंदरी नामक कच्छ वनस्पति के वन पाए जाते हैं।

मैंग्रोव वन पृथ्वी के गरम जलवायु वाले प्रदेशों में ही मिलते हैं। उनके पनपने के लिए कुछ मूलभूत परिस्थितियों का होना अत्यंत आवश्यक है, जैसे जल का निरंतर प्रवाह, मिट्टी में आक्सीजन कम मात्रा में होना, और सर्दियों में औसत तापमान 16 डिग्री से अधिक रहना। इस सदी के पहले वर्षों में जितने मैंग्रोव वन थे, आज उनका 60 प्रतिशत नष्ट हो चुका है। फिर भी पृथ्वी पर इस प्रकार के जंगलों का विस्तार 1 लाख वर्ग किलोमीटर है। मैंग्रोव वन मुख्य रूप से ब्राजील (25,000 वर्ग किलोमीटर पर), इंडोनीशिया (21,000 वर्ग किलोमीटर पर) और आस्ट्रेलिया (11,000 वर्ग किलोमीटर पर) में हैं। केवल ब्राजील में विश्वभर में पाए जाने वाले मैंग्रोव वनों का लगभग आधा मौजूद है। भारत में 6,740 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर इस प्रकार के वन फैले हुए हैं। यह विश्व भर में मौजूद मैंग्रोव वनों का 7 प्रतिशत है। इन वनों में 50 से भी अधिक जातियों के मैंग्रोव पौधे पाए जाते हैं। भारत के मैंग्रोव वनों का 82 प्रतिशत देश के पश्चिमी भागों में पाया जाता है।

मैंग्रोव वृक्षों के बीजों का अंकुरण एवं विकास मातृ-वृक्ष के ऊपर ही होता है। जब समुद्र में ज्वार आता है और पानी जमीन की ओर फैलता है, तब कुछ अंकुरित बीज पानी के बहाव से टूटकर मातृ-वृक्ष से अलग हो जाते हैं और पानी के साथ बहने लगते हैं। ज्वार के उतरने पर ये जमीन पर यहां-वहां बैठ जाते हैं और जड़ें निकालकर वहीं जम जाते हैं। मैंग्रोव वनों का विस्तार इसी प्रक्रिया से होता है। इसी कारण उन्हें जरायुज कहा जाता है, यानी सजीव संतानों को उत्पन्न करने वाला। जरायुज प्राणियों के बच्चे माता के गर्भ में से जीवित पैदा होते हैं।

चूंकि ये पौधे अधिकतर क्षारीय पानी से ही काम चलाते हैं, इसलिए उनके लिए यह आवश्यक होता है कि इस पानी में मौजूद क्षार उनके शरीर में एकत्र न होने लगे। इन वृक्षों की जड़ों और पत्तियों पर खास तरह की क्षार ग्रंथियां होती हैं, जिनसे क्षार निरंतर तरल रूप में चूता रहता है। बारिश का पानी इस क्षार को बहा ले जाता है। इन पेड़ों की एक अन्य विशेषता उनकी श्वसन जड़ें हैं। सागरतट के पानी पर काई, शैवाल आदि की मोटी परत होती है, जिससे पानी में बहुत कम ऑक्सीजन होती है। इसलिए इन पेड़ों की जड़ों को पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिल पाता। इस समस्या से निपटने के लिए उनमें विशिष्ट प्रकार की जड़ें होती हैं, जो सामान्य जड़ों के विपरीत ऊपर की ओर जमीन फोड़कर निकलती हैं। ये जड़ें अपने चारों ओर की हवा से आक्सीजन सोखकर उसे नीचे की जड़ों को पहुंचाती हैं। इन जड़ों को श्वसन जड़ कहा जाता है। उनका एक दूसरा काम वृक्ष को टेक देना भी है।

मैंग्रोव वृक्षों की जड़ें अंदर से खोखली होने के कारण जल्दी सड़ जाती हैं। वृक्ष के नीचे पत्तों का कचरा भी बहुत इकट्ठा हो जाता है। मैंग्रोव वनों की भूमि में हर साल 8-10 टन जैविक कचरा प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में बन जाता है। उन्हें सब मैंग्रोव वनों के वृक्षों की जड़ें बांधे रखती हैं। इस कारण जहां मैंग्रोव वन होते हैं, वहां तट धीरे-धीरे समुद्र की ओर बढ़ने लगता है। यह कृत्रिम तट पीछे की जमीन को समुद्र के क्षरण से बचाता है। लेकिन यह सब क्षेत्र अत्यंत नाजुक होता है और मैंग्रोव वृक्षों के काटे जाने पर बहुत जल्द बिखर जाता है। मैंग्रोव क्षेत्र के विनाश के बाद उनके पीछे की जमीन भी समुद्र के क्षरण का शिकार हो जाती है।

मैंग्रोव क्षेत्र का एक अन्य उपयोग यह है कि वह अनेक प्रकार के प्राणियों को आश्रय प्रदान करता है। चिरकाल से मछुआरे इन समुद्री जीवों को पकड़कर आजीविका कमाते आ रहे हैं। मैंग्रोवों से पीट नामक ज्वलनशील पदार्थ भी प्राप्त होता है, जो कोयला जैसा होता है। मैंग्रोव टेनिन, औषधीय महत्व की वस्तुओं आदि का भी अक्षय स्रोत है। आजकल इन जंगलों से कागज के कारखानों, जहाज-निर्माण, फर्नीचर निर्माण आदि के लिए लकड़ी प्राप्त की जाने लगी है। खेती योग्य जमीन तैयार करने के लिए भी मैंग्रोव वनों को साफ किया जा रहा है। मैंग्रोव वृक्षों के पत्ते चारे के रूप में भी काम आते हैं। इन वनों में शहद का उत्पादन भी हो सकता है। जलावन की लकड़ी भी प्राप्त हो सकती है। लकड़ी का कोयला बनाने वाले उद्योग भी मैंग्रोव वनों का दोहन करते हैं।

आजकल मैंग्रोव वनों के सामने अनेक खतरे मंडरा रहे हैं। विदेशी मुद्रा कमाने का एक सरल जरिया झींगा आदि समुद्री जीवों को कृत्रिम जलाशयों में पैदा करके उन्हें निर्यात करना है। आज तटीय इलाकों में जगह-जगह इन जीवों के लिए जल-खेती (एक्वाकल्चर) होने लगी है। इसके दौरान जो प्रदूषक पदार्थ निकलते हैं, वे मैंग्रोवों को बहुत नुकसान करते हैं। मोटरीकृत नावों से मछली पकड़ने की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण भी मैंग्रोव नष्ट हो रहे हैं। पर्यटन भी मैंग्रोव के नाजुक पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहा है। पृथ्वी के तापमान में वृद्धि के कारण इस सदी में ही सागर तल 10-15 सेंटीमीटर ऊपर उठ आया है। इससे पानी के प्रवाह, क्षारीयता, तापमान आदि में जो परिवर्तन आया है वह मैंग्रोव वृक्षों की वृद्धि पर प्रतिकूल असर डाल सकता है। औद्योगिक प्रदूषण भी उन्हें नष्ट कर रहा है। आज गुजरात का तटीय इलाका, जहां सबसे अधिक मैंग्रोव वन हैं, तेजी से उद्योगीकृत हो रहा है। वहां कई सिमेंट कारखाने, तेल शोधक कारखाने, पुराने जहाजों को तोड़ने की इकाइयां, नमक बनाने की इकाइयां, आदि उठ खड़े हो गए हैं। इनके आसपास अच्छी खासी बस्ती भी आ गई है, जो अपनी ईंधन-जरूरतें मैंग्रोवों को काट कर पूरा करती हैं। इन सब गतिविधियों से मैंग्रोव धीरे-धीरे मिटते जा रहे हैं। इन विशिष्ट प्रकार के वनों को विनाश से बचाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए, क्योंकि उनके अनेक पारिस्थितिकीय उपयोग हैं। उनका आर्थिक मूल्य भी कुछ कम नहीं है।
 

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