Friday, August 14, 2009

रेत के बढ़ते कदम



मरुस्थलीकरण (रेगिस्तान का फैलना) आज विश्व भर में एक विकट समस्या बन गया है। उससे बड़ी संख्या में मनुष्य प्रभावित हो रहे हैं क्योंकि रेत का साम्राज्य बढ़ने से अन्न का उत्पादन घटता है और अनेक प्राकृतिक तंत्रों की धारण क्षमता कम होती है। पर्यावरण भी उसके कुप्रभावों से अछूता नहीं रह पाता।

मरुस्थलीकरण से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिससे विश्व भर के शुष्क क्षेत्रों में उपजाऊ जमीन अनुपजाऊ जमीन में बदल रही है। मानव गतिविधियां और भौगोलिक परिवर्तन, दोनों इसके लिए जिम्मेदार हैं। शुष्क क्षेत्र उन इलाकों को कहते हैं जहां उतनी बारिश नहीं होती कि घनी हरियाली पनप सके। विश्व के कुल स्थल भाग का लगभग 40 प्रतिशत, अथवा 5.4 करोड़ वर्ग किलोमीटर, शुष्क है। मरुस्थलीकरण इन्हीं शुष्क भागों में अधिक देखने में आता है।

भारत का 69.6 प्रतिशत भूभाग (22.83 करोड़ हेक्टेयर) शुष्क माना गया है। यद्यपि इन शुष्क इलाकों की उत्पादकता काफी कम है, फिर भी दूध, मांस, रेशे, चमड़ा आदि के उत्पादन में वे काफी योगदान देते हैं। देश की आबादी का एक बहुत बड़ा भाग शुष्क इलाकों में रहता है।

भारत में 17.36 करोड़ हेक्टेयर, अथवा देश के कुल क्षेत्रफल का 53 प्रतिशत, मरुस्थलीकरण से प्रभावित है। ये इलाके अक्सर सूखे की चपेट में भी रहते हैं। सूखा मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया को तेज कर देता है। राजस्थान का पश्चिमी भाग और गुजरात का कच्छ जिला लगभग सदा सूखे की गिरफ्त में रहते हैं।

मनुष्य तथा उसके पालतू पशु सदा से ही रेगिस्तानी इलाकों में रहते आ रहे हैं। विश्व के अन्य शुष्क इलाकों की तुलना में भारत के शुष्क इलाकों में मानव आबादी का दबाव कहीं ज्यादा है। भारत के पास विश्व के कुल स्थल भाग का मात्र 2.4 प्रतिशत है, लेकिन कुल मानव आबादी का 16.67 प्रतिशत भारत में रहता है। इतना ही नहीं, भारत में विश्व में मौजूद चरागाहों का मात्र 0.5 प्रतिशत ही है, पर यहां विश्व में मौजूद मवेशियों का 18 प्रतिशत पलता है। मनुष्य और मवेशियों का यह असहनीय दबाव मरुस्थलीकरण को बढ़ावा दे रहा है। थार रेगिस्तान के भीतरी भागों तक में खेती और पशुपालन का प्रसार हो रहा है।

रेगिस्तानी इलाकों में पानी की सीमित उपलब्धि वानस्पतिक उत्पादकता की सीमा बांध देती है। वहां वर्षा भी बड़े ही अनियमित ढंग से होती है, जिससे अन्न के उत्पादन में बड़ी-बड़ी अनियमितताएं देखी जाती हैं। इससे पैदा हुई अन्न की किल्लत से गरीब तबके के लोग सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। जीवित रहने के लिए उन्हें रेगिस्तान की वनस्पति पर अत्यधिक निर्भर होना पड़ता है। जैसे-जैसे मनुष्यों और मवेशियों की संख्या बढ़ती जाती है, यह निर्भरता भी बढ़ती है। किसी भी प्राकृतिक-तंत्र की धारण क्षमता सीमित होती है। इस सीमा का उल्लंघन होने पर वह तंत्र बिखरने लगता है। शुष्क इलाकों का प्राकृतिक तंत्र भी मनुष्य द्वारा डाले गए दबाव से आखिरकार चरमरा जाता है। यदि समय रहते इस विघटनकारी प्रक्रिया को रोका नहीं गया, तो सारा तंत्र रेगिस्तान की भेंट चढ़ जाता है, अथवा अत्यधिक चराई और लकड़ी के लिए पेड़ों की छंटाई के कारण उस तंत्र में उपयोगी पौधों की तादाद घट जाती है। उनका स्थान अनुपयोगी और अखाद्य पौधे ले लेते हैं। नतीजा यह होता है कि वह तंत्र अब पहले से भी कम संख्या में मनुष्यों और मवेशियों को पोषित कर पाता है। यही दुश्चक्र मरुस्थलीकरण को गति देता है।

यद्यपि शुष्क इलाकों में बारिश कम होती है, पर जो बारिश होती है, वह काफी तेज और तूफानी ढंग की होती है। इससे इन इलाकों में बारिश अक्सर बाढ़ का रूप धारण करके उपजाऊ मिट्टी को बहा ले जाती है। एक अनुमान के अनुसार बंजर इलाकों में हर हेक्टेयर क्षेत्र से हर साल पानी के कटाव से 16.35 टन मिट्टी बह जाती है। इससे देश के बहुत बड़े-बड़े इलाकों में खड्ड और नाले बन गए हैं और वे खेती के लिए निकम्मे हो गए हैं। काफी इलाकों में रेत के टीलों ने अधिकार जमा लिया है। इस प्रकार अनुपयोगी बनी जमीन को पुनः उपजाऊ बनाने का काम वहां की मिट्टी की जिजीविषा शक्ति पर निर्भर करता है, पर यदि समय रहते कदम न उठाए गए, तो यह मिट्टी ही लुप्त हो जाती है। बार-बार आनेवाला सूखा मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया को त्वरित कर देता है, यद्यपि सूखे का प्रभाव क्षणभंगुर ही होता है।

अभी हाल तक हर गांव में नदी-तालाब होते थे, जिनका पानी फसल उगाने के लिए पर्याप्त था। गांव के गोचरों में मवेशियों के लिए चारा पैदा होता था। आसपास के जंगलों से चूल्हे के लिए लकड़ी मिल जाती थी। आज इन्हीं गांवों का हाल बिलकुल बदल गया है। नदी-तालाब सूख गए हैं, अथवा उनमें पानी बहुत कम रह गया है। जो जलाशय बचे हैं, उनमें से कई तो इतने प्रदूषित हो गए हैं कि उनका पानी पीने लायक नहीं रह गया है। गांव की स्त्रियों को पानी, चारा और ईंधन लाने के लिए मजबूरन कोसों चलना पड़ रहा है। यह दुखद स्थिति गांवों तक सीमित नहीं है, अनेक शहरों की भी यही दशा है।

मिट्टी के कटाव का एक अन्य दुष्परिणाम यह है कि पानी के साथ बह आई मिट्टी जलाशयों में जमा होकर उनके जलधारण क्षमता को घटा रही है। इससे बाढ़ की स्थिति और गंभीर हो जाती है और लाखों लोगों को हर साल बारिश के मौसम में बेघर होना पड़ता है। हमारे देश में ऐसे व्यक्तियों की तादाद बहुत ज्यादा है जिनके लिए बारिश का मौसम अभिशाप बनकर आता है, क्योंकि वह मौत, बीमारी और तबाही का पैगाम भी साथ लाता है। बड़ी-बड़ी पनबिजली योजनाओं के सरोवरों में मिट्टी भर जाने से उनसे निर्मित बिजली की मात्रा घटी है और इन योजनाओं की आयु कम हो गई है। मिट्टी को पहुंची नुकसान से कृषि की उत्पादनशीलता में जो कमी आई है, उसे लगभग 23,200 करोड़ रुपए आंका गया है। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि हमारे जैसे निर्धन देश में बढ़ती आबादी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कृषि की उत्पादकता को बढ़ाने की जरूरत है, न कि घटाने की।

मरुस्थलीकरण एक बहुआयामी समस्या है जिसके जैविक, भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक आदि अनेक पक्ष हैं। इसलिए उससे निपटने में केंद्र और राज्य सरकारों की अनेक संस्थाएं योगदान दे रही हैं। मरुस्थलीकरण से लड़ रहे मुख्य मंत्रालयों में शामिल हैं पर्यावरण और वन मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय, कृषि मंत्रालय और जल संसाधन मंत्रालय।

सन 1985 में राष्ट्रीय भूमि-उपयोग एवं परती विकास परिषद को उच्चतम नीति-निर्धारक एवं समायोजक एजेंसी के रूप में गठित किया गया। यह परिषद देश भर की जमीनों के प्रबंध से जुड़ी समस्याओं पर विचार करती है तथा नीतियां बनाती है। इस परिषद के अध्यक्ष स्वयं प्रधान मंत्री हैं। यह परिषद राष्ट्रीय भूमि-उपयोग एवं संरक्षण बोर्ड, राष्ट्रीय परती भूमि विकास बोर्ड और राष्ट्रीय वनीकरण एवं पारिस्थितिकी-विकास बोर्ड के कामों की देखरेख करती है। राज्य स्तर पर राज्य-स्तरीय भूमि-उपयोग बोर्ड गठित किए गए हैं। इनके अध्यक्ष संबंधित राज्य के मुख्य मंत्री होते हैं। ये बोर्ड भूमि विकास संबंधी कार्यक्रम चलाते हैं।

पिछले कई सालों से शोध संस्थाएं कृषि विश्वविद्यालयों के सहयोग से मरुस्थलीकरण और सूखे के प्रभावों पर गहन अनुसंधन कार्यों में लगी हुई हैं। इन अनुसंधानों की प्राथमिकता रही है मरुस्थलीकरण रोकना और सूखा-पीड़ित इलाकों की उत्पादकता बढ़ाने की कार्यक्षम विधियां विकसित करना। इन अनुसंधान कार्यों को आर्थिक मदद देने के लिए केंद्रीय और राज्य स्तर की अनेक अनुसंधान संस्थान गठित किए गए हैं। इनमें शामिल हैं, हैदराबाद का केंद्रीय शुष्क खेती अनुसंधान संस्थान, जोधपुर का केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, करनाल का केंद्रीय क्षारीय जमीन अनुसंधान संस्थान, देहरादून का केंद्रीय मृदा एवं जल संरक्षण अनुसंधान संस्थान, झांसी का भारतीय वन एवं चरागाह अनुसंधान संस्थान और नई दिल्ली में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के परिसर में स्थित जल प्रौद्योगिकी केंद्र। देहरादून के भारतीय वन अनुसंधान एवं शिक्षण परिषद के मार्गदर्शन में अनेक शोध संस्थाएं शुष्क प्रदेशों के वनों के पुनरुद्धार के कार्य में लगी हैं तथा इन वनों की उत्पादकता में वृद्धि लाने के तरीके खोज रही हैं। ये सब संस्थाएं शुष्क क्षेत्रों के लिए उपयुक्त प्रौद्योगिकियां विकसित करने के साथ-साथ कर्मचारियों को विभिन्न विषयों में प्रशिक्षण भी देती हैं। इन संस्थाओं के कार्यों को समर्थन देने के लिए काफी धनराशि उपलब्ध कराई गई है और नीतिमूलक संरचनाएं एवं विधि-कानून बनाए गए हैं।

सन 1992 में ब्राजील के रियो द जनेरियो में हुए पृथ्वी सम्मेलन में विश्व समुदाय ने मरुस्थलीकरण रोकने के लिए एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षर किए। 15 जून 1994 को इस संधि को कानूनी स्वरूप दिया गया। भारत ने उसे 17 दिसंबर 1996 को अनुमोदित किया। इस संधि का उद्देश्य है मरुस्थलीकरण रोकना तथा मरुस्थलीकरण और सूखे के कारण मानव समुदायों पर पड़ रहे विपरीत प्रभावों को कम करने के लिए सभी देशों के बीच सभी स्तरों पर सहयोग बढ़ाना।

मरुस्थलीकरण रोकने के भगीरथ कार्य में पारंपरिक ज्ञान की अहम भूमिका है क्योंकि वह समयसिद्ध ही नहीं है, बल्कि साधारण जनता की दैनंदिन की समस्याओं को सुलझाने में कामयाब भी रहा है। इनमें से कुछ पारंपरिक विधियों का संक्षिप्त विवरण आगे दिया जा रहा है।

थार रेगिस्तान में वर्ष के कुछ ही महीने फसल उगाने के लिए उपयुक्त होते हैं। अतः वहां के लोगों ने अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए खेती के साथ पशुपालन भी करना सीख लिया है। गर्मियों में वे बाजरा आदि खुरदुरे अनाजों की खेती करते हैं, जिन्हें बहुत कम पानी चाहिए होता है। लेकिन पालीवाल नामक एक काश्तकार समुदाय वर्षाजल संचित करके सर्दियों की फसल भी उगाने में सफल हुआ है। इस विधि को खदीन प्रणाली कहते हैं। आज 500 से भी ज्यादा छोटे-बड़े खदीन हैं जो 12,140 हेक्टेयर क्षेत्र को सिंचित कर रहे हैं। बिहार में इससे मिलता-जुलता एक दूसरा तरीका है जिसे अहर कहा जाता है।

अर्ध-शुष्क इलाकों में खेती की नींव खेत-तालाब होते हैं। ये वर्षाजल को संचित करते हैं और इन्हें या तो जमीन खोदकर बनाया जाता है अथवा पानी के बहाव के मार्ग में दीवार बनाकर। तमिलनाड में नंगै-मेल-पंगै (नमभूमि पर कम पानी मांगनेवाली फसलों की खेती) नामक विधि का प्रचलन है। यदि फसल बोने के समय वर्षा होने के आसार नजर न आए, तो किसान तालाब की सिंचाई पर पनपने वाले बाजरा, रागी आदि फसल बोते हैं, जो कम पानी मिलने पर भी अच्छी पैदावार देते हैं। यदि वर्षा होने के आसार अच्छे हों, तो किसान धान की खेती करते हैं।

मध्य भारत में वर्षाजल संचित करने का एक बहुत प्राचीन तरीका प्रचलित है, जिसे हवेली प्रणाली कहते हैं। भीलों ने एक अन्य विधि विकसित की है जिसे पट्टा कहा जाता है। इसके अंतर्गत नदी-नालों की धारा को रोककर 30-60 सेंटीमीटर गहरा सरोवर बनाया जाता है। यह गहराई खेतों को पानी ले जानेवाली नहरों में पानी पहुंचाने के लिए पर्याप्त होती है। इस विधि की सहायता से साल में दो फसल उगाना संभव हो जाता है।

शुष्क इलाकों की प्रकृति खेती से भी ज्यादा पशुपालन के अनुकूल होती है क्योंकि जहां खेती नहीं हो सकती वहां अच्छे चरागाह हो सकते हैं। इसीलिए शुष्क प्रदेशों के अधिकांश किसान मिश्रित खेती करते हैं, जिसमें पशुपालन को भी महत्वपूर्ण स्थान है। इससे प्राकृतिक संसाधनों से अधिकतम लाभ प्राप्त होता है।

थार रेगिस्तान के अधिक रेतीले भागों के गांवों में वर्षाजल एकत्र करने का एक स्थानीय विधि कुंड है। राजस्थान के गांवों के कुंड, कुंडी (छोटे आकार के कुंड) और टंका और गुजरात की बावड़ियां पेय जल भी उपलब्ध कराते हैं।

रेगिस्तान के निवासियों ने कृषिवानिकी भी बड़े पैमाने पर अपनाया है। इसके अंतर्गत उपयोगी पेड़ों की कतारों के बीच फल-तरकारी आदि उगाए जाते हैं। उदाहरण के लिए राजस्थान में खेतों में खेजड़ी वृक्ष (प्रोसोपिस सिनेरेरिआ) और चरागाहों में बेर (जिजिफस मौरिटिआना) के कुंज अक्सर उगाए जाते हैं। यहां के निवासियों का दृढ़ विश्वास है कि पेड़ों के नीचे फसल अच्छी पनपती है और उनसे ढोरों के लिए चारा भी मिलता है। शुष्क प्रदेशों में सड़कों, नहरों और सरोवरों के किनारे छायादार पेड़ लगाना एक धार्मिक परंपरा रही है।

देश भर में ऐसे अनेक पवित्र वन हैं जो किसी-न-किसी देवी-देवता अथवा मंदिर-मठ से जुड़े हैं। समुदाय इन पवित्र वनों की रक्षा करता है और वहां पेड़ काटने या जंगली जानवरों को सताने नहीं देता। इन पवित्र वनों का महत्व जैविक विविधता के संरक्षण की दृष्टि से बहुत अधिक है। राजस्थान के बारमेर, जैसलमेर, नागौर, जोधपुर, पाली , सीकर, झुंझुनु और जालोर जिलों में इस प्रकार के 400 से अधिक पवित्र वन हैं, जिन्हें वहां ओरान (संस्कृत के अरण्य शब्द का बिगड़ा रूप) कहा जाता है। इनका कुल क्षेत्रफल 1,00,140 हेक्टेयर जितना है। राजस्थान और हरियाणा के बिशनोई समुदाय की कुछ प्रथाओं से भी जंगलों और जीव-जंतुओं का संरक्षण होता है।

सिंचाई की एक रोचक पारंपरिक विधि में मिट्टी के सुपरिचित घड़ों का उपयोग होता है। इन घड़ों में एक ओर छेद बने होते हैं, जिनसे पानी रिसता रहता है। इन घड़ों को पेड़ों की जड़ों के पास जमीन में दबा दिया जाता है और समय-समय पर उनमें पानी भरा जाता है। जमीन की सतह पर पानी छिड़कने से अधिकांश जल वाष्पीकृत हो जाता है और पौधों को उसका थोड़ा अंश ही मिल पाता है। घड़ों से सिंचाई करने की इस विधि में सारा पानी धीरे-धीरे पौधे को मिलता है। इसे आधुनिक टपक-सिंचाई का एक घरेलू विकल्प माना जा सकता है। देश के अनेक भागों में इस अनोखी विधि को वनीकरण कार्यक्रमों में अपनाया गया है। अन्य देशों में भी इसका प्रसार हो रहा है।

शुष्क प्रदेशों के किसान अपनी फसल को झुलसाती, शुष्क हवाओं से बचाने के लिए खेत के चारों ओर पेड़ों की आड़ खड़ी करते हैं। घरों की सुरक्षा के लिए भी ऐसी हरित दीवारें उगाई जाती हैं।

ऊपर वर्णित पारंपरिक विधियां पर्यावरण की दृष्टि से बहुत अधिक महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे पर्यावरण को किसी भी प्रकार से नुकसान नहीं पहुंचातीं। मरुस्थलीकरण रोकने में उनका उपयोग असंदिग्ध है। शुष्क प्रदेशों में विकास कार्यक्रम शुरू करने में भी ये उपयोगी हैं, क्योंकि स्थानीय लोग इन परंपरागत विधियों के प्रति विश्वास रखते हैं और इसलिए उन्हें आसानी से अपना लेते हैं।

राजस्थान के अलवर जिले में कार्य कर रहे स्वयंसेवी संगठन तरुण भारत संघ ने सैकड़ों चेकडैम बनाकर एक मृत नदी को जीवित किया है। इस चमत्कार का पूरा लाभ उठाने के लिए नदी के किनारे स्थित गांवों के निवासियों ने एक नदी संसद बनाई है ताकि पुनरुज्जीवित नदी की हिफाजत और उसके पानी का समान बंटवारा हो सके। गुजरात के सुरेंद्रनगर जिले के सायला तालुके के निवासियों ने 10 छोटे तालाब खोदकर आसपास के भूमिगत जलभंडारों को भरने में सफलता प्राप्त की है। इन तालाबों की क्षमता 5,00,000 गैलन है। अन्य अनेक स्वयंसेवी संगठनों ने भी जल और मृदा संरक्षण के क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया है, मसलन, अण्णा साहब हजारे द्वारा शुरू किया गया संगठन, जो महाराष्ट्र के रालेगांव सिद्धि में हरियाली लौटाने में सफल हुआ है, और गुजरात के सदगुरु जल एवं मृदा विकास प्रतिष्ठान और आगा खान ग्रामीण समर्थन कार्यक्रम। इन सब संगठनों ने समुदायों के साथ मिलकर काम किया है और पारंपरिक ज्ञान से भरपूर फायदा उठाया है।

हमारा देश बहुत बड़ा है और उसमें विविधता भी बहुत अधिक है। दूसरी ओर मरुस्थलीकरण जैसी समस्या बहुत ही जटिल है और बड़े पैमाने पर दुष्प्रभाव डालती है। उससे लड़ने के साधन सीमित हैं। इस वस्तुस्थिति को ध्यान में रखते हुए यही उचित है कि अधिक ध्यान उन क्षेत्रों की ओर दिया जाए जहां मरुस्थलीकरण का प्रभाव सर्वाधिक दृष्टिगोचर होता हो। मरुस्थलीकरण से निपटने के किसी भी कार्यक्रम में स्थानीय समुदायों की सक्रिय भागीदारी अनिवार्य मानी जानी चाहिए। मरुस्थलीकरण एक विश्वव्यापी समस्या है और इसलिए सभी देशों को मिलकर उसका सामना करना चाहिए। इसमें गैरसरकारी संगठनों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। स्पष्ट ही मरुस्थलीकरण के विरुद्ध सबसे सफल रणनीति वह होगी जिसमें स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय समुदाय, राष्ट्र सरकारें और गैरसरकारी संगठन सब साथ मिलकर काम करें।

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