मोटरवाहनों के पुराने टायरों का निपटरा एक विकट समस्या है। इन्हें जलाने पर जहरीला धुंआ निकलता है। ये कुदरती तरीकों से नष्ट भी नहीं होते इसलिए इन्हें जमीन में दफनाने से भी कोई लाभ नहीं है। न ही इन्हें नदियों, तालाबों और समुद्र में फेंका जा सकता है, क्योंकि ये तैरते हैं और लहरों के साथ तट पर ही लौट आते हैं। कई विकसित देशों में जहां मोटरवाहनों का अत्यधिक चलन है, टायरों के पहाड़ के पहाड़ इकट्ठे होते जा रहे हैं, और उन्हें फेंकने के लिए जगह कम पड़ती जा रही है।
ऐसे में भारत और जापन में टायरों के पुनरुपयोग की संभावना जगाती दो द्रष्टांत काबिले गौर हैं।
पहले जापान की बात करें। वहां मोटरकारों के पुराने टायरों से भारी किस्म का तेल व कोयला बनाने की एक विधि विकसित कर ली गई है। यह काम जापान के राष्ट्रीय पर्यावरण संरक्षण केंद्र, क्यूशू जे सी ए कंपनी और ओसाका म्युनिसिपल टेक्निकल रिसर्च सेंटर ने मिलकर किया है।
इस विधि में टायरों को गरम करके विघटित किया जाता है, जिससे वाष्प के रूप में तेल प्राप्त होता है। आसवन पद्धति से इस वाष्प को परिशुद्ध करके भारी तेल प्राप्त किया जाता है। एक टन टायरों से 400 लिटर शुद्ध तेल प्राप्त होता है। तेल निकालने के बाद बचे अंशों को 800 अंश सेल्सियस पर पकाकर उसमें मौजूद जस्ते को नष्ट किया जाता है। इस तरह प्राप्त जस्ता-मुक्त कोयले का उपयोग पानी को शुद्ध करने के लिए किया जा सकता है।
तेल तथा इस प्रक्रिया के दौरान उत्पन्न ऊष्मा का उपयोग ऊर्जा के रूप में भी हो सकता है। चूंकि टायरों को जलाया नहीं जाता, इसलिए काला और प्रदूषणकारी धुंआ भी नहीं बनता। जापान इकोटाइम्स नामक पत्रिका के अनुसार इस अप्रदूषणकारी प्रौद्योगिकी ने जापान में काफी रुचि जगाई है और इसके पूरे देश में उपयोग होने की संभावना है।
भारत की देशी बुद्धि इस समस्या से अलग प्रकार से निपट रही है। पुराने मोटर टायरों को सुधरी हुई बैल और ऊंट गाड़ियों में खपाया जा रहा है। ऊंट गाड़ियों के लिए हवाई जाहाजों के पुराने टायर बहुत उपयुक्त रहते हैं।
गुजरात में पुराने टायरों को काटकर उनसे अनेक उपयोगी चीजें बनाने का एक भरा-पूरा व्यवसाय ही चलता है। यदि आप पंचमहल जिले के हलोल गांव में से होकर गुजरें, तो आपको ऐसे अनेक दुकानें मिलेंगी जहां कारीगर विभिन्न आकारों के पुराने टायरों को काटने और उनकी परतों को अलग करने में लगे हुए हैं। इस गांव में पुराने टायर इकट्ठे करनेवाले आठ-दस गोदाम हैं, जो टायरों से विभिन्न उपयोगी चीजें बनवाते हैं।
बड़े और भारी-भरकम टायरों की परतों को काटकर अलग कर लिया जाता है और इन परतों से खनन करनेवाली मशीनों और वाहनों के बेल्ट बनवाए जाते हैं। ये बेल्ट टायर के आकार और हालत के अनुसार विभिन्न चौड़ाइयों, लंबाइयों और मोटाइयों में आते हैं। कम चौड़ाई के बेल्टों को हथ-ठेलों के पहियों पर चढ़ाया जाता है और घोड़ा गाड़ियों में जंपर के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इन परतों से चटाइयां और पायदान भी बनाए जाते हैं। टायरों से प्राप्त रबड़ की चादरों से सस्ते जूते-चप्पल बनाए जाते हैं जिन्हें गरीब तबके के लोग पहनते हैं। बचे-खुचे कतरनों को कारखानेदार ईंधन के रूप में खरीद ले जाते हैं।
यद्यपि टायर अत्यंत कठोर होते हैं, फिर भी उन्हें काटने और परतें अलग करने का सब काम मोची के औजारों से हाथ से ही किया जाता है।
टायरों से बनी बस्तुओं की कीमत टायर की हालत और उन्हें बनाने में लगे श्रम पर निर्भर करता है। आमतौर पर टायर से बने ब्लेट 4-10 रुपए प्रति फुट के हिसाब से बिकते हैं।
यदि इन उद्यमकर्ताओं को सरकार अथवा गैरसरकारी संगठनों की ओर से टायर काटने की मशीनें प्राप्त करने में, सामान लाने-ले जाने में, और बनी चीजों को बेचने में थोड़ी-बहुत सहायता मिल जाए, यह व्यवसाय और बढ़ सकता है और एक विकट पर्यावरणीय समस्या का भी हल हो सकता है।
Sunday, August 2, 2009
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5 comments:
very useful information indeed ! i appreciate ur concern for environment .
जापानी विधि ही ज्यादा उपयुक्त लग रही है. भारतीय रिसाय्क्लर टायर का विघटन नहीं करते, बस अन्य वस्तुओं में उपयोग कर लेते हैं, और नष्ट न होने वाला टायर पर्यावरण में रह ही जाता है.
जापानी विधि में टायर को पूरी तरह विघटित कर लिया जाता है जिससे भारी धातुएं और कार्बन अलग हो जाते हैं. भारत में भी इस तकनीक की ज़रूरत है.
जानकारी पूर्ण आलेख के लिए आभार।
सही बात है। टायरों को जलाने से बचना चाहिए। इन का बिना जलाए किया गया पुनरुपयोग जितनी जल्दी विस्तार पाए हम उतने ही प्रदूषण से मुक्त रहेंगे।
उत्तर प्रदेश में टायरों से बने सस्ते जूते-चप्पल "टायर सोल" के नाम से काफी प्रचलित थे. अमेरिका में कुछ संस्थाओं ने लकडी के बजाय पुराने टायरों से मल्च (mulch - इसकी हिन्दी क्या है?) बना रही हैं.
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