गर्मियों की छुट्टी हो गई थी। चुन्नू-मुन्नू घर बैठे-बैठे बोर हो रहे थे। तभी उन्हें दादाजी की याद आई। दादजी बगीचे में आम के पेड़ की छाया में आरामकुर्सी डलवाकर अखबार पढ़ रहे थे। दोनों बच्चे दौड़कर उनके पास पहुंच गए।
"दादाजी, दादाजी, बैठे-बैठे बोर लगता है। कुछ करने-धरने को भी नहीं है। आप ही सुझाइए न कि हम क्या करें।"
अखबार को तहाकर जमीन पर रखते हुए दादाजी मुसकुराए और बोले, "अच्छा तो यह बात है। बोलो तुम लोग क्या करना चाहते हो?"
चुन्नू ने कहा, "दादाजी, क्यों न हम कुछ खेलें, जैसे छुपा-छुपी या पकड़म-पकड़!"
अपने चश्मे के मोटे-मोटे कांचों को धोती के किनारे से पोंछते हुए, मूंछों में मुस्कुराकर दादाजी बोले, "न बाबा, दौड़ने-खेलने की तो मेरी उम्र रही ही नहीं। हां, जब मैं तुम लोगों जैसा था तब जरूर खूब धमा-चौकड़ी मचाया करता था। मुझे इसके लिए बड़ों की डांट और मार भी मिली है।"
"तब फिर हम कहीं घूमने चलते हैं," मुन्नू ने कहा।
जेठ की चिलचिलाती धूप देखकर दादाजी ने यह प्रस्ताव भी अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा, "नहीं बेटा इस धूप में घूमेंगे तो बीमार पड़ जाएंगे।"
तभी आम के पेड़ पर से कोयल कूक उठी। उसे सुनकर दादाजी को जैसे कुछ याद आ गया। वे कहने लगे, "तुम दोनों यहां मेरे सामने घास पर बैठ जाओ। मैं तुम्हें अपने बचपन की एक बात बताता हूं, जो कोयल की कूक सुनकर मुझे सहसा याद आ गई है।"
दोनों बच्चे दादाजी के सामने जम गए। दादाजी बोलने लगे, "यह तब की बात है जब मैं तुम लोगों के जितना ही था। उस दिन मेरा ग्यारहवां जनमदिन था। मेरे माता-पिता, बड़े भाई, मामा, चाचा आदि सबने मुझे तरह-तरह के तोहफे दिए--किसी ने खिलौना, किसी ने किताब, किसी ने मिठाई। मुझे याद है, उस दिन एक साइकिल और एक कैरमबोर्ड भी मुझे मिला था। पर सब से विचित्र तोहफा मुझे मेरे नानाजी ने दिया। जानते हो वह क्या था?"
चुन्नू-मुन्नू ने कई अटकलें लगाईं। पर सभी पर दादाजी ने 'न' में सिर हिला दिया।
"चलो मैं ही बता देता हूं," आखिर उन्होंने कहा, "वह था एक पौधा।"
दादाजी ने देखा कि दोनों बच्चों के चेहरे पर जो उत्सुकता दिखाई पड़ी थी, वह बुझ गई है।
हंसते हुए वे बोले, "जिस तरह तुम लोगों को इस तोहफे का नाम सुनकर निराशा हुई, वैसे ही मुझे भी उस दिन उस विचित्र तोहफे को देखकर बड़ी निराशा हुई थी। दूसरे सब लोगों से जो-जो रंग-बिरंगे, आकर्षक, कीमती तोहफे मिले थे, उनके सामने वह पौधा निश्चय ही फीका था। न तो उससे खेल सकते थे, न उसे खा या पढ़ ही सकते थे।
"मेरे नानाजी ने मेरी निराशा ताड़ ली। उन्होंने मुझे समझाकर कहा, 'बेटा दीनानाथ, इस तोहफे को तुच्छ मत समझ। आ मेरे साथ। अपने हाथों से इसे बगीच में रोप। यह तुझे वर्षों तक साथ देगा।'
"और वे मुझे अपने साथ बगीचे में ले गए और हमने उस पौधे को सावधानी से रोप दिया। नानाजी ने मुझे हिदायत दी कि मैं उसे रोज पानी दूं और उसकी देखभाल करूं।
"कुछ ही सालों में वह पौधा एक बड़ा पेड़ बन गया और आज भी वह मेरा अभिन्न साथी है। जब भी मैं उसे देखता हूं, मुझे नानाजी की याद आती है कि उन्होंने कितना उपयोगी और टिकाऊ तोहफा दिया। उस दिन जो खिलौने, किताबें आदि मुझे मिले थे, वे सब कब के खो-खा या टूट-फूट गए। पर वह पौधा आज भी है मेरे साथ। जानते हो वह कौन-सा पौधा है?"
चुन्नू-मुन्नू ने जानने की इच्छा जताई। तब दादाजी अपनी आरामकुर्सी से उठे और उसी आम के पेड़ के पास गए जिसकी छाया में वे सब बैठे थे और उसके तने को प्यार से सहलाते हुए बोले, "यही है वह पौधा।"
चुन्नू-मुन्नू ने बड़े अचरज से आम के उस विशाल पेड़ को देखा। वे कितनी ही बार उस पर चढ़े-उतरे थे, उसकी छाया में खेले थे, उसकी डालियों में उन्होंने झूले टांगे थे और उसके मीठे-खट्टे फल चखे थे। एक प्रकार से वह उनके परिवार का सदस्य ही था। अब उसकी कहानी सुनकर वह उनका और भी अधिक आत्मीय हो उठा।
कुछ सोचकर चुन्नू ने दादाजी से कहा, "दादाजी, अबकी बार मेरे जनमदिन पर मुझे भी एक पौधा ही दीजिए। मैं उसे रोपकर इस पेड़ के जैसा बढ़ा करूंगा।"
"हां दादाजी, मुझे भी जनमदिन पर पौधा ही चाहिए," मुन्नू भी चहक उठा।
"अवश्य दूंगा बेटा," दादाजी आंखों ही आंखों में हंसते हुए बोले।
Tuesday, June 16, 2009
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2 comments:
achhi kahani pesh ki hai aapne
So good. I will learn this story and present in my school. Yes we save the earth and plants etc. 🌲🌳🌾🌺🏵️
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