Sunday, June 7, 2009

जंगली बिड़ालों का परिचय

जागुआर से संबंधित कुदरतनामा के पोस्ट पर श्री पी एन सुब्रमण्यम ने सुझाव दिया था कि जंगली बिड़ालों का परिचय करानेवाला एक पोस्ट लिखूं क्योंकि बहुत से लोगों को चीता, बाघ, शेर, तेंदुआ, बघेरा आदि को लेकर काफी गफलत होती है।

यह सुझाव सचमुच अच्छा है क्योंकि प्रतिष्ठित अखबारों तक में इन नामों को लेकर गड़बड़ियां देखने में आती हैं, जैसे तमिल टाइगरों को कई अखबारों और टीवी चैनलों में तमिल चीता कह दिया जाता है, जबकि टाइगर (बाघ) और चीते में जमीन-आसमान का फर्क है।

इसलिए इस पोस्ट में प्रमुख बड़े बिड़ालों का संक्षिप्त परिचय दे रहा हूं।

जंगली बिड़ालों में सर्वोपरि स्थान वे चार बिड़ाल रखते हैं, जिन्हें अंग्रेजी में बिग कैट कहा जाता है। इनमें शामिल हैं – सिंह, बाघ, तेंदुआ और जगुआर। इनमें से प्रथम तीन भारत में पाए जाते हैं, जबकि जगुआर दक्षिण अमरीका का निवासी है।

बिग कैट यानी बृहद बिड़ाल इस नाम के धनी इसलिए नहीं हुए हैं कि वे आकार में बड़े होते हैं, हालांकि इस कसौटी पर भी वे खरे उतरते हैं, बल्कि इसलिए कि इन्हीं चार बिड़ालों में दहाड़ने की क्षमता पाई जाती है। इनके स्वरयंत्र की संरचना इस तरह की होती है कि वे फेफड़े की हवा को गूंजानेवाली आवाज निकालते हुए खास रीति से बाहर फेंक सकते हैं। सिंह और बाघ के खौफनाक गर्जन की ध्वनि पांच किलोमीटर की दूरी तक सुनाई दे सकती है। बाघ और सिंह की तुलना में तेंदुए और जगुआर कम दहाड़ते हैं।

यह रहा इन चार महा बिड़ालों का संक्षिप्त परिचय।

सिंह


(भारतीय सिंह)

सिंह को शेर, बब्बर शेर, केसरी, अरी, वनराज मृगेश, मृगपति आदि अनेक नामों से जाना जाता है। उसे जंगल के राजा की पदवी भी मिली हुई है, जो ठीक भी है, क्योंकि जिस जंगल में सिंह रहता है, उस जंगल की खाद्य शृंखला की चोटी का प्राणी वही होता है। सिंह समूहों में रहता है, और शिकार करता है, यद्यपि यह आदत अफ्रीकी सिंहों में अधिक देखी जाती है, भारतीय सिंहों में कम। अफ्रीकी सिंहों में शिकार करने का काम मुख्य रूप से सिंहनियां करती हैं, सिंह आलसी होता है, और शिकार हो जाने के बाद ही उसमें अपना हिस्सा बंटाने आ पहुंचता है। भारतीय सिंहों में सिंह भी खूब शिकार करते हैं।

सिंहों के झुंड में कई मादाएं और एक या दो प्रमुख नर और बहुत सारे बच्चे होते हैं। नर का काम झुंड के इलाके से अन्य नरों को दूर रखना होता है। यह काम वह चार-पांच साल तक करता रहता है, जिसके बाद वह बूढ़ा हो जाता है और कोई जवान सिंह उसे हराकर झुंड पर कब्जा कर लेता है। हारा हुआ सिंह या तो लड़ाई में मारा जाता है, या फिर झुंड से खदेड़ दिया जाता है। उसके बाद उसे अकेला जीवन बिताना पड़ता है, और वह अधिक समय जीवित भी नहीं रह पाता। नया नर अपदस्थ नर के सभी बच्चों को मार देता है, ताकि सिंहनियों के साथ वह तुरंत सहवास कर सके। छोटे दूध-पीते शावक साथ रहने पर सिंहनियां सहवास के लिए राजी नहीं होतीं।

सिंह धूसर पीले रंग का होता है। नरों में गर्दन पर अयाल होता है। सिंह की लंबाई 9-10 फुट होती है। मादाएं कुछ छोटी होती हैं। पूंछ के सिरे पर बालों का गुच्छा होता है। भारतीय और अफ्रीकी सिंहों में फर्क यह है कि भारतीय सिंह में कुहनी के पास और पेट के मध्य भाग में घने बाल होते हैं। आदत में भी दोनों में अंतर है। जैसा कि पहले बताया गया है, भारतीय सिंह खुद भी शिकार करता है, जबकि अफ्रिकी सिंह यह काम सिंहनियों पर छोड़ देता है।

एक समय सिंह भारत के समस्त उत्तर भारत में पाया जाता था, पर अब वह केवल गुजरात के गिर वनों में सिमटकर रह गया है, जहां कुछ 350 सिंह हैं। सिंहों के लिए दूसरा शरणगाह मध्य प्रदेश के कुना अभायारण्य में बनाया गया है, पर गुजरात सरकारी के हठ के कारण वहां सिंहों को पहुंचाया नहीं जा सका है। गुजरता सरकार सिंहों को अपनी संपत्ति मानती है, और नहीं चाहती कि देश में और कहीं सिंहों का अभयारण्य बने।

बाघ



बाघ भारत का राष्ट्रीय पशु है। इसके भी अनेक नाम हैं – शार्दूल, व्याघ्र, नाहर (राजस्थान में), इत्यादि। शेर नाम बाघ के लिए भी खूब चलता है। बाघ और सिंह में अंतर करने के लिए बाघ को शेर और सिंह को बब्बर शेर कहा जाता है। बाघ नारंगी या पीले रंग का होता है और उसके शरीर पर काली धारियां बनी होती हैं। वह भी सिंह जितना ही लंबा-चौड़ा होता है, यही 9-10 फुट। उसकी पूंछ के सिरे पर बालों का गुच्छा नहीं होता। सभी बिड़ालों में बाघ को पानी सर्वाधिक प्रिय है। कुछ लोगों का मानना है कि इसका कारण यह है कि बाघ सिंह की तरह भारत का मूल निवासी नहीं है, बल्कि साईबीरिया जैसे ठंडे इलाकों से आया है। इसलिए उसे यहां की भीषण गरमी सहने में तकलीफ होती है। इसीलिए वह पानी में बहुत समय बिताता है, खास करके गर्मियों में।

सिंह के विपरीत बाघ अकेले ही शिकार करता है। वह बड़े से बड़े शिकारों को भी मार गिरा सकता है। इनमें हाथी, गौर, भैंसे, सांभर आदि शामिल हैं। हाथी जैसे बड़े शिकारों को मारने के लिए दो बाघ साथ मिलकर प्रयास करते हैं। एक बड़े दंतैल हाथी और दो बाघ के बीच रात भर चलनेवाले एक युद्ध का “बॉल-बाय-बॉल” कमेंटरी जिम कोर्बेट ने अपनी पुस्तक जंगल लोर में दी है। इस लड़ाई में हाथी मारा जाता है, पर दोनों बाघ भी इतने घायल हो जाते हैं कि वे हाथी को बिना खाए ही जंगल में विलीन हो जाते हैं। पर ऐसी घटनाएं बहुत कम घटती हैं। बाघ हाथी जैसे बड़े और ताकतवर जानवर पर हमला बोलकर जोखिम नहीं उठाता। हां हाथी के बच्चों का वह शिकार करता है। इसके विपरीत सिंहों के लिए हाथी का शिकार करना अधिक आसान है, क्योंकि वे झुंडों में शिकार करते हैं। अफ्रीकी सिंह हाथियों का शिकार करते भी हैं, पर अवयस्क या शिशु हाथियों का ही। छह टन भारी बड़े स्वस्थ नर हाथी का सिंही की पूरी पलटन भी कुछ नहीं बिगाड़ सकती।

शिकार को पकड़ने के लिए बाघ घात लगाकर हमला करता है या लुक-छिपकर शिकार के निकट पहुंचकर उस पर छलांग लगा देता है। शिकार पर हावी होने के बाद वह उसकी गर्दन तोड़ देता है, या गर्दन को दबोचकर दम घोंटकर शिकार को मार देता है। गौर या भैंसे जैसे बड़े शिकारों को काबू में करने के लिए वह उनके पिछले पैर की मांसपेशियों को काटकर उन्हें लंगड़ा बना देता है।

तेंदुआ



यह बड़े बिड़ालों में सबसे छोटा है, पर कई लोगों का मानना है कि वह उनमें से सबसे सुंदर और सबसे कुशल शिकारी है। वह उसी प्रदेश में रहता है जहां बाघ और सिंह जैसे अन्य बड़े बिड़ाल रहते हैं। इसलिए उसे जरा सतर्क रहना पड़ता है, क्योंकि बाघ और सिंह देखते ही तेंदुए को मारने को झपट पड़ते हैं। गनीमत है कि तेंदुआ पेड़ चढ़ने में कुशल होता है, जिस कला में सिंह और बाघ कच्चे होते हैं।

तेंदुए के भी अनेक नाम हैं, जैसे बघेरा, गुलबाघ, गुलदार आदि। अंग्रेजी में भी तेंदुए के लिए दो नाम प्रचलित हैं - लेपर्ड और पैंथर। ये दोनों नाम समानार्थी हैं।

तेंदुए का शरीर पीला-नारंगी होता है, जिसमें काले चिकत्तों का गुच्छा सा बना होता है। ये छोटे-छोटे चिकत्ते गोलाकर में सजे होते हैं। इन गुच्छों के बीच के स्थान में चिकत्ते नहीं होते हैं।

शिकार करने की उसकी पद्धति भी बाघ के समान ही होती है। वह पेड़ों पर से भी शिकार करता है। बड़े तेंदुए चीतल, सांभर, नीलगाय आदि बड़े जानवरों का शिकार करते हैं। आम तौर पर तेंदुए छोटे जानवरों का अधिक शिकार करते हैं। उन्हें लंगूर विशेष प्रिय हैं। वे गांव के जानवरों को भी खूब मारते हैं, जैसे बकरी, भेड़, बछड़े, कुत्ते, आदि। कुत्तों का स्वाद उन्हें विशेषरूप से प्रिय है।

ये तीनों बिड़ाल भारत में पाए जाते हैं, पर यह कहना मुश्किल है कि बाघ कितने और दिनों का महमान है, क्योंकि उस पर गंभीर खतरे मंडरा रहे हैं। अभी हाल में की गई गणना से पता चलता है कि भारत में केवल 1,400 बाघ वन्य अवस्था में बचे हुए हैं।

जगुआर



चौथा महा बिड़ाल जगुआर है, जो केवल दक्षिण अमरीका में पाया जाता है। वह लगभग तेंदुआ जितना बड़ा होता है, पर कुछ अधिक गठीला होता है। उसका सिर तेंदुए के सिर से बड़ा होता है, और ताकत में भी वह तेंदुए से बढ़-चढ़कर ही है। वह अमेजन नदी के किनारे के जंगलों में खूब मिलता है। वहां वह जल और जमीन दोनों में शिकार करने में कुशल है।

जगुआर भी पीले-नारंगी रंग का होता है, और उसके शरीर पर भी चिकत्ते गुच्छों में सजे होते हैं, जिस तरह तेंदुए में। पर तेंदुए के गुच्छों की तुलना में, ये गुच्छे अधिक बड़े होते हैं, और उनके बीच में भी चिकत्ते होते हैं।

चीता



एक अन्य प्रमुख बिड़ाल चीता है, जिसे बड़े बिड़ालों में नहीं गिना जाता क्योंकि उसमें दहाड़ने की क्षमता नहीं होती है। वह अनेक दृष्टियों में एक विचित्र बिड़ाल है, जिसकी आदतें काफी हद तक कुत्तों से मिलती-जुलती हैं। वह अन्य बिड़ालों की तरह घात लगाकर शिकार को नहीं पकड़ता बल्कि दौड़ाकर। दौड़ने में चीते को कोई नहीं हरा सकता। वह 100 मील प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ सकता है। वह मुख्य रूप से कृष्णसार, चिंकारा आदि तेज भागनेवाले मृगों का शिकार करता है। अन्य बिड़ाल आवश्यकता न रहने पर अपने नाखूनों को ऊपर खींचकर मोड़कर रख सकते हैं, पर चीता ऐसा नहीं कर सकता है। उसके नाखून, कुत्तों के नाखूनों के समान सदा आगे की ओर निकले हुए ही रहते हैं।

चीता अब भारत में नहीं पाया जाता। वह 1964 के आस-पास विलुप्त हो गया। वह खुले मैदानों का प्राणी था, जिन्हें खेती के लिए हथिया लिया गया। इसलिए चीते के रहने लायक जगह कम हो गई।

चीता उन वन्य बिड़ालों में से एक है जिसे पालतू बनाकर उनसे शिकार कराया जाता था। कहा जाता है कि अकबर के पास एक हजार से भी ज्यादा पालतू चीते थे।

चीते के शरीर का गठन तेज दौड़ने के लिए बना है। उसका छरहरा लंबा शरीर पीले रंग का होता है और उस पर बड़े-बड़े काले चिकत्ते होते हैं। ये चिकत्ते अलग-अलग होते हैं, तेंदुए के चिकत्तों के समान गुच्छों में नहीं। इसलिए चीते और तेंदुए में फर्क करना आसान है। चीते की पूंछ के चिकत्ते परस्पर मिलकर काले छल्ले जैसे बन जाते हैं। उसके चेहरे पर आंखों के सिरे से एक काली धारी होंठों तक निकली हुई रहती है, जो उसकी खास पहचान है।

इन बड़े बिड़ालों के अलावा भी भारत में दर्जनों वन्य बिल्लियां हैं, जैसे साह (स्नो लेपर्ड या हिम तेंदुआ), लमचीता, सिकमार, मछलीमार, जंगली बिल्ली, स्याहगोश, इत्यादि। भारत के बाहर भी अनेक वन्य बिल्लियां हैं, जैसे माउंटन लायन, काउगार, प्यूमा, लिंक्स, ओसेलोट, आदि।

इन सबके बारे में किसी अन्य लेख में।

5 comments:

Arvind Mishra said...

बहुत अच्छी और स्पष्ट जानकारी -चार्ल्स डार्विन ने ओरिजिन में लिखा है कि अमूमन बाघ/शेर हांथी के बच्चे का भी शिकार करना अवयाड करते हैं !

Urmi said...

मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! आपने बहुत ही सुंदर लिखा है!
मैंने आपकी टिपण्णी पड़ी जो आपने मेरी लिखी हुई पोस्ट पर दिया है! अगर देखा जाए तो भारत में भी कम रेसिस्म नहीं है! अगर लोग नॉर्थ इंडिया से साउथ इंडिया में घुमने जाते हैं तो उनकी भाषा बिल्कुल समझ में नहीं आयेगी तो तब तो हम ये नहीं कहते कि रेसिस्म है ! मैं ऑस्ट्रेलिया में रहती हूँ इसलिए इस बात से पूरी तरह से वाकिफ हूँ कि यहाँ कोई रेसिस्म नहीं है! सब लोगों के बिच में अगर आप अपनी भाषा में बात करें तो दूसरे लोगों को लग्न स्वाभाविक है कि आख़िर क्या बात कर रहे हैं! इसका मतलब ये नहीं कि हम डरे हुए रहते हैं! जो भी हो मैं तो यही कहूँगी कि ऑस्ट्रेलिया रेसिस्ट देश नहीं है और ये ग़लत फैमी है ज्यादातर लोगों का!

नीरज मुसाफ़िर said...

साहब जी,
बड़े ही काम की जानकारी है.
ये तो आपने चार पोस्ट मिलाकर एक पोस्ट कर दी ताकि इन सभी में फर्क सहजता से समझा जा सके.

Unknown said...

nice

raj&raj said...

Good

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