बहुत साल पहले, कहीं दूर, एक छोटा सा टापू था, करु नाम का, जिसके निवासी बहुत ही सुखी थे। उनके टापू में सभी आवश्यक चीजें थीं -- भोजन के लिए नारियल के पेड़, जिनके फलों का मीठा जल उनकी प्यास भी बुझाता था, छाया के लिए विशाल टोमानों वृक्ष, मछलियों से भरा समुद्र, और पशु-पक्षियों से भरे-पूरे वन-उपवन।
लगभग दो सौ साल पहले एक नाविक ने करु टापू को खोज निकाला।
एक सदी और बीत गई और करु में अन्वेषकों का एक दल आ उतरा। उन्हें उस टापू में फोस्फेट की चट्टानों की विश्व की सबसे समृद्ध और विशाल खानें मिलीं। फिर क्या था, इस टापू से लाखों टन फोस्फेट निकाल-निकालकर दुनिया के कोने-कोने में स्थित खेतों में भेजा जाने लगा, क्योंकि फोस्फेट एक अच्छा उर्वरक होता है। लगभग एक सदी तक यह चलता रहा।
करु एक नन्हा सा टापू है, मात्र 20 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला। उसमें 7,000 कुरु स्त्री-पुरुष और बाहर से आए हुए 3,000 खदान मजदूर रहते हैं।
करु में एक ही सड़क है, जो टापू की परिक्रमा करती है, फिर भी एक औसत करु परिवार में कम से कम दो मोटर गाड़ियां हैं। हर कुरु परिवार में आपको माइक्रोवेव अवन, स्टीरियो और दो-तीन टेलिविजन भी मिल जाएंगे। दस में से नौ करुवासी मोटापे से पीड़ित हैं -- वहां के कई पुरुषों का वजन 135 किलो से अधिक है। क्यों? क्योंकि पारंपरिक भोजनों के स्थान पर वे अब आयातित भोजन लेने लगे हैं। सरकार करुवासियों को यह भोजन रियायती दामों पर उपलब्ध कराती है। लगभग 3,000 किलोमीटर दूर स्थित देशों से आयातित गोश्त करु में उन मूल देशों से भी सस्ता बिकता है। आज तो करुवासी मछली तक का आयात करते हैं! भोजन की ये बदली आदतें अपना बुरा असर दिखाने लगी हैं। आज एक औसत करुवासी केवल 55 वर्ष जीने की आशा कर सकता है। हाइपरटेन्शन (अति रक्त दाब), हृदरोग और मधुमेह जैसी बीमारियां अब वहां आम हो गई हैं।
करुवासियों को मकान, बिजली, पानी, टेलिफोन, शिक्षा और चिकित्सकीय सुविधाएं निश्शुल्क अथवा बहुत कम कीमतों पर सरकार की तरफ से मुहैया कराया जाता है। इस छोटे टापू में दो अस्पताल हैं और जिन लोगों को विशेष चिकित्सा की आवश्यकता हो, उन्हें सरकार अपने खर्चे पर विमान द्वारा अन्य देशों में भिजवा देती है।
यह सारी समृद्धि कैसे आई? आपने सही सोचा, फोस्फेट की बिक्री से। फिर समस्या क्या है? यही, कि फोस्फेट की खानें चुकती जा रही हैं और आशंका है कि अगली शताब्दी तक पूरी खाली हो जाएं। सरकार अब बड़ी बेचैनी से टापू में और खानें खोज रही है। एक ओर नई खानों की खोज जारी है, दूसरी ओर टापू का एक बहुत बड़ा भाग पुराने खानों के कारण उजाड़ पड़ा है। बात यहां तक पहुंच गई है कि लोग राष्ट्रपति निवास तक को तुड़वाना चाहते हैं क्योंकि जहां वह स्थित है, वहां फोस्फेट की खानों के होने की संभावना है।
कुरुवासी अपने ही हाथों से अपने टापू को नोच-खसोट रहे हैं, मानो उन्हें भविष्य की चिंता ही न हो। कहना न होगा कि यदि यह सब जारी रहा, उनका भविष्य अंधकारमय है।
यह कहानी क्या केवल करु वासियों की है? क्या यह हर समुदाय की कहानी नहीं है? कुदरत ने जो संपदा दी है, वह हमारे हाथ पड़कर बंदर के हाथ की माला बन गई है। क्या बुद्धिमान कहे जानेवाले कुदरत की इस पैदाइश (यानी मनुष्य जाति) में इतनी अकल आएगी कि वह प्रकृति की बहुमूल्य संपदाओं को सही तरह से उपयोग करे और उन्हें दोनों हाथों से लुटाने के बजाए, आनेवाली पीढ़ियों के लिए बचाए रखे?
Thursday, August 13, 2009
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4 comments:
सभी पुराने कालिदास हैं हो सकता है अक्ल आ जाये
पूंजीवाद ऐसी ही व्यवस्था है, वह रह गया तो धरती को बरबाद कर छोड़ेगा।
दिल्ली की स्थिति भी इस टापू से भिन्न नहीं है...यहां भूजलस्तर अब इतना नीचे आ गया है कि इसका कोई इलाज न्रज़र नहीं आ रहा...आने वाले कल में दिल्ली अगर 8वीं बार उजड़ी तो कोई हैरानी नहीं होगी..
श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ। जय श्री कृष्ण!!
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