आजकल ऐसे-ऐसे अंतर्राष्ट्रीय समझौते हो रहे हैं जिनकी कल्पना करना ही मुश्किल है। भारत भी ऐसे समझौतों में शामिल है। इन समझौतों में कई ऐसी शर्तें रखी गई हैं जो कि भारत के हित में नहीं हैं। ये शर्तें खासतौर से हमारे आदिवासी और ग्रामीण समाज के हितों के खिलाफ हैं।
कुछ साल पहले डंकल प्रस्ताव नाम का एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता हुआ था। इसी डंकल प्रस्ताव को अब विश्व व्यापार संगठन के नाम से जाना जाता है। विश्व व्यापार संगठन अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का संगठन है। यही पहले गैट के नाम से जाना जाता था। भारत भी इसका सदस्य है। 1983 में गैट के मंच से एक बहुत खतरनाक दावा किया गया, जिसमें विदेशी सरकारों ने भारत में बीजों पर पेटेंट करने के अधिकार की मांग की। इससे वे भारत के खेतों के बीजों पर विदेशी बीज कंपनियों का एकाधिकार स्थापित करना चाहते हैं। ये अधिकार वे पेटेंट के माध्यम से चाहते हैं। पेटेंट उस कानूनी अधिकार को कहते हैं जो कि पेटेंटधारक को पेटेंट की हुई वस्तु पर एकमात्र अधिकार प्रदान करता है। पश्चिमी देश भारत में बीजों पर पेटेंट की मांग इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि इस तरह भारत के बीज बाजार पर वे विदेशी बीज कंपनियों का कब्जा स्थापित कर सकते हैं।
यदि भारत सरकार ने विदेशी दबाव में आकर बीजों पर पेटेंट स्वीकार कर लिया तो भारत का किसान अपने अधिकारों से वंचित हो जाएगा। उसकी खेती उससे छिन जाएगी। भारत का किसान समुदाय बर्बाद हो जाएगा और बीजों के साथ-साथ, भारत की खेती विदेशियों के हाथों चली जाएगी। यह सब इसलिए हो जाएगा क्योंकि बीजों पर पेटेंट लागू होने के बाद किसान अपनी फसल में से अपनी अगली बुवाई के लिए बीज बचा कर नहीं रख पाएगा। उसे हर बुवाई के लिए पेटेंटधारी विदेशी बीज कंपनी से नया और महंगा बीज खरीदना पड़ेगा।
पेटेंट कानून लागू करने से किसान के जो परंपरागत अधिकार हैं, बीज के उत्पादक और बीज के व्यापारी होने के, उससे छीन कर विदेशी कंपनियों को दे दिए जाएंगे। आज की तारीख में हर साल भारत के खेतों में कुल मिला कर 60 लाख टन बीज बोया जाता है। इस 60 लाख टन में से किसान अपने आप ही करीब 50 लाख टन बीज तैयार कर लेता है। बाकी 10 लाख टन उसको सरकारी संस्थाएं उपलब्ध कराती हैं। यदि बीजों पर पेटेंट लागू हुआ तो इस 60 लाख टन के बीज व्यापार पर पूर्ण रूप से विदेशी कंपनियों का कब्जा हो जाएगा।
गैट की तरह 1992 में जैविक संपदा समझौता के नाम से एक और अंतरराष्ट्रीय समझौता हुआ था। इसमें विकासशील देशों ने मांग की थी कि उनकी जैविक संपदा पर केवल उन्हीं का अधिकार माना जाए। इस संबंध में भारत का दृष्टिकोण यह होना चाहिए कि उसके खेतों के बीजों पर और उसके जंगलों में जो औषधीय पौधे, महुआ, नीम, तुलसी, हल्दी, पालश, महुलान पत्ती की लताएं जैसे जितने भी जैविक संसाधन हैं, उस पर भारत के लोगों का मालिकाना हक स्वीकार किया जाए। आज तो जो चाहता है हमारे जंगलों में से पेड़-पौधे या जीव-जंतु ले जाता है। अगर हम अपना मालिकाना हक इन चीजों पर स्थापित कर लेंगे तो हम अपने जंगलों का शोषण बंद कर पाएंगे। इस मालिकाना हक को स्थापित करने के लिए भारत सरकार को एक कानून बनाना होगा जो यह कहे कि हमारे खेतों और वनों की संपत्ति पर केवल हमारा अधिकार है। कानून यह भी कहे कि ग्रामीण व आदिवासी समुदाय से बिना पूछे कोई भी विदेशी व्यक्ति या कंपनी जंगल और खेत की संपदा को छू नहीं सकता है।
जैविक संपदा समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद भी सरकार ने अभी तक ऐसा कोई कानून नहीं बनाया है। कानून न होने की वजह से विदेशी कंपनियां और कुछ देशी कंपनियां भी अपने ऐजेंटों के माध्यम से हमारे जंगलों से बहुमूल्य पौधों व जीव-जंतुओं को लूट रही हैं। इन पौधों से वे तरह-तरह की दवाएं व अन्य वस्तुएं बनाकर करोड़ों का मुनाफा कमा रही हैं। ऐसी वस्तुएं व दवाएं आदिवासी और ग्रामीण समाज के ज्ञान पर आधारित हैं और उन्हीं की संपत्ति से बन रही हैं। परंतु जो लाखों करोड़ों का मुनाफा कमाया जाता है, उसमें से पांच पैसे का भी हिस्सा आदिवासी समाज को नहीं मिलता है। उनकी संपत्ति व उनके ज्ञान के इस लूट को रोकना जरूरी है।
हमारे औषधीय पौधों पर विदेशी दवा कंपनियों का आक्रमण तेजी से बढ़ रहा है। यह इस लिए है कि विदेश में बढ़ती महंगाई व अत्यंत महंगे श्रम की वजह से कोई नई दवा तैयार करने में 10-15 साल लग जाते हैं और कई लाख डालर खर्च हो जाते हैं। इन विदेशी कंपनियों की निगाह अब हमारे जंगलों में पाए जानेवाले औषधीय पौधों पर आ टिकी है। वह इसलिए कि इन पौधों में प्रकृति ने ही दवा तैयार कर दी है। अगर वे इन्हें चुरा लें तो उन्हें बिना कुछ खर्च किए कीमती दवाएं मिल जाती हैं। साथ-ही-साथ आदिवासी व ग्रामीण लोगों से इसका ज्ञान भी मिल जाता है कि इन दवाओं का किस बीमारी में प्रयोग होता है। जब उनको दवा के रूप में प्रयोग होनेवाले पौधे मिल जाएंगे, तो बस थोड़ा सा पैसा खर्च करके वे इनसे गोली, कैप्यूल, मलहम या मिक्शर बनाकर हमारी चीज को अपने नाम से हमारे ही बाजार में तथा विश्व भर के बाजारों में बेचकर खूब रुपए कमाएंगे।
अमरीका ने तो हमारे नीम और हल्दी की दवा बनाकर उस पर पेटेंट भी कर लिया है। इस लूट को रोकने का एक ही तरीका है। हम सब को सचेत हो जाना होगा और इन मुद्दों को लेकर एक अभियान चलाना होगा। हमें जन जागरण पैदा करना होगा कि हमारे खेतों व जंगलों में जो कुछ भी पाया जाता है, वह हमारी संपत्ति है और हम ही तय करेंगे कि इसका उपयोग किस तरह से कौन कर सकता है।
Saturday, August 8, 2009
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6 comments:
विरोध कर पाना एक किसान के सामर्थ्य की बात तो शायद है नहीं .. हमारे कृषि वैज्ञानिकों को तो एकजुट होकर इसका विरोध करना चाहिए !!
आप 'जगे हुए' लोगों को जगाने के प्रयास कर रहे हैं। शुभकामनाएँ। इस लेख का अंग्रेजी अनुवाद जयहिन्दी के अंग्रेजी संस्करण पर डालें।
पहले ये अतिक्रमण चोरी छुपे हो रहा था अब खुले आम . कोई उम्मीद की जा सकती है क्या हमारे बिकाऊ कर्णधारों से ?
हम कितनी ही चिल्ल-पौं मचा लें...हमारे नेता घुटने टेके बैठे हैं
agar bharat sarkaar videshiyon ke is atikraman ko nahi rokegi to kuch bhi bachna mushkil hai.. America ek Octopus ka naam hai iske panje se khud ko bachana hi hoga....aapki koshish sarahneey hain..
मेरा नाम प्रदुमन है आप मुझे कृपया फोन करें मेरा नंबर है 9971096615 या आप मुझे अपना नंबर दें जिससे कि मैं आपसे कांटेक्ट कर सकूं
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