देश-विदेश के बहुत से चिड़ियाघर सफेद बाघों को प्रदर्शित करते हैं। इन प्रकृति के अजूबों को देखने अपार भीड़ जुटती है। ये भव्य जानवर होते भी हैं बड़े ही आकर्षक - विशाल आकार, श्वेत चर्म पर गहरी भूरी धारियां, हल्के गुलाबी होंठ और नाक, तथा कठोर नीली आंखें। इन विलक्षण जानवरों की कहानी अत्यंत रोचक है।
देश-विदेश के चिड़ियाघरों में प्रदर्शित सभी सफेद बाघों का पूर्वज मोहन नाम का सफेद बाघ है। उसे १९५१ में रीवा के बाग्री वनों में अपनी मां के साथ विचरते समय पकड़ा गया था। उसकी मां तो शिकारियों की गोलियों की भेंट चढ़ गई पर मोहन, जो उस समय एक निरा दूध-पीता बच्चा था, जिंदा पकड़ लिया गया। उसके विलक्षण रंग को देखकर रीवा के महाराजा ने उसके विशेष परवरिश की व्यवस्था कर दी। जब वह बड़ा हुआ तो बेगम नाम की एक साधारण बाघिन से उसका जोड़ा बांधा गया। बेगम ने १९५३-५६ के दौरान तीन बार बच्चे जने और कुल १० शावक पैदा किए। ये सब साधारण रंग के बाघ थे। वर्ष १९५८ में उनमें से एक बाघिन राधा से, जो मोहन की ही पुत्री थी, मोहन के चार बच्चे हुए, जो सभी श्वेत रंग के निकले। आज चिड़ियाघरों में दिख रहे बीसियों सफेद बाघ सब इन्हीं चार शावकों के वंशज हैं। इन सबके पितामह मोहन ने २० वर्ष की लंबी आयु पाई और १९६९ में मध्य प्रदेश में रीवा नरेश के एक महल में उसका देहांत हुआ।
यद्यपि मोहन से पहले भी जंगलों में सफेद बाघ देखे गए हैं, लेकिन उनमें और मोहन में एक खास अंतर है। मोहन इन सफेद बाघों के समान "एलबिनो" नहीं था। एलबिनो जानवरों की आंखें गुलाबी रंग की होती हैं। वे बहुधा कमजोर एवं कद में छोटे होते हैं और अधिक समय जीवित नहीं रहते। मनुष्य समेत अनेक प्राणियों में एलबिनो पैदा होते हैं। मनुष्यों में उन्हें सूर्यमुखी मनुष्य कहा जाता है। उनके शरीर - बाल समेत - सफेद रंग का होता है क्योंकि उनमें रंजक पदार्थ नहीं होते। इसके विपरीत मोहन की आंखें नीली थीं और वह सामान्य बाघों से बड़ा और शक्तिशाली था। बंदी अवस्था में भी वह स्वस्थ रहा और उसने प्रजनन किया।
सच तो यह है कि मोहन एक "रिसेसिव म्यूटेंट" था। बाघों की चमड़ी, नाक और आंख के रंग को एक खास जीन निर्धारित करता है जिसे 'क' नाम दिया जा सकता है। इसके प्रभाव को निष्क्रिय बनानेवाला एक दूसरा जीन भी होता है, जिसे इसका रिसेसिव जीन कहा जाता है। इसे 'ख' से अभिहित किया जा सकता है। यदि किसी जीव में 'क' जीन न हो तो यह रिसेसिव जीन 'ख' सक्रिय हो उठता है और उस जीव को एलबिनो बना देता है। सामान्य रंग वाले बाघों में 'क-क' अथवा 'क-ख' का जीन-संयोजन पाया जाता है, जबकि सफेद बाघ में अनिवार्यतः 'ख-ख' का जीन-संयोजन होता है, यानी उनमें 'क' जीन का अभाव होता है। इस तरह यदि बाघ-बाघिन में से एक भी 'क-क' हो, तो सभी शावक सामान्य पैदा होंगे, परंतु यदि दोनों 'क-ख' हों तो एक-आध शावक सफेद पैदा हो सकते हैं। परंतु यदि दोनों ही 'ख-ख' हों, तो उनके सभी बच्चे सफेद पैदा होंगे। यद्यपि १९५१ से पहले भी शिकारियों द्वारा सफेद बाघ मारे गए हैं, लेकिन मोहन पहला सफेद बाघ था जिसे जिंदा पकड़ा गया और उसने बंदी अवस्था में प्रजनन भी किया। उसकी संतति के कारण सफेद बाघ विश्व-प्रसिद्ध हो गए।
उनके विलक्षण रंग और विशाल आकार के अलावा सफेद बाघों और अन्य बाघों में कोई भी अंतर नहीं होता है। परंतु चिड़ियाघरों के लिए उनका अद्भुत रूप-रंग ही महत्व रखता है। इसलिए चिड़ियाघर सफेद बाघों के लिए मुंह मांगी कीमत देने को तैयार रहते हैं। एक स्वस्थ सफेद बाघ के लिए एक लाख डालर तो आसानी से मिल जाता है। दुर्भाग्य से अत्यधिक अंतरप्रजनन के कारण इस विलक्षण जीव की नस्ल बहुत क्षीण हो गई है। मोहन की वंश परंपरा में ११४ सफेद बाघ पैदा हुए, जिनमें से केवल २५ आज भारत और अन्य देशों में जीवित हैं।
Tuesday, July 28, 2009
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3 comments:
अंतः प्रजनन और रिसेसिव जीन वाले स्पेसिमेन की जीवन क्षमता का कम होना स्वाभाविक है। कितने ही प्रयत्न करने पर भी इस तरह के बाघों की कमी तो बनी ही रहेगी। इस आलेख ने मुझे साइटोलॉजी की क्लास याद दिला दी।
यकीनन अजूबे हैं।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
"आज चिड़ियाघरों में दिख रहे बीसियों सफेद बाघ सब इन्हीं चार शावकों के वंशज हैं। "
यह वास्तब ही में मेरे लिए नई जानकारी रही...धन्यवाद.
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