Thursday, July 23, 2009

प्लास्टिक -- कचरा भी संसाधन भी

आधुनिक समाज प्लास्टिक पर उत्तरोत्तर निर्भर होता जा रहा है। पिछले वर्ष भारत में 29 लाख टन प्लास्टिक बना था। इसमें से लगभग 15 लाख टन प्लास्टिक को कचरे के रूप में फेंक दिया गया। साल-दर-साल यही प्रक्रिया दुहराई जाती है। नगरपालिकाओं द्वारा एकत्र किए गए शहरी कचरे में 4 प्रतिशत प्लास्टिक होता है। चूंकि प्लास्टिक कुदरती प्रक्रियाओं से नष्ट नहीं होता और उसे जलाने पर जहरीला धुंआ निकलता है, प्लास्टिक कचरे की समस्या एक दुस्साध्य रूप धारण करती जा रही है। गनीमत यही है कि अधिकांश प्लास्टिक का पुनश्चक्रण हो सकता है।

भारत में हर साल लगभग 7.5 लाख टन प्लास्टिक का पुनश्चक्रण होता है। इस व्यवसाय का मूल्य 25 अरब रुपए है और वह एक वर्धमान उद्योग है। एक औसत मध्यवर्गीय भारतीय नागरिक साल भर में लगभग 3 किलो प्लास्टिक का उपयोग करता है। इस दर से हर साल 30-40 लाख टन प्लास्टिक इस देश में पैदा होता है। इसमें से 20 लाख टन पुनश्चक्रण के लिए उपलब्ध होता है।

भारत में प्लास्टिक का पुनश्चक्रण करनेवाली 20,000 से भी ज्यादा इकाइयां हैं। दिल्ली का नंद नगरी मुहल्ला प्लास्टिक के पुनश्चक्रण की दृष्टि से एशिया का सबसे ब़ड़ा केंद्र है। यहां रोजाना 1,000 टन प्लास्टिक का पुनश्चक्रण होता है।

प्लास्टिक के संग्रह कार्य में भारत में लगभग 10 लाख निम्नवर्गीय व्यक्ति लगे हुए हैं। कागज जैसे अन्य कचरे की तुलना में प्लास्टिक का पुनश्चक्रण तीन गुना अधिक मुनाफेदार है। पोलिस्टेरीन कप जैसे कुछ तरह की प्लास्टिक वस्तुओं का पुनश्चक्रण पांच गुना मुनाफेदार है।

परंतु यह व्यवसाय सुसंगठित ढंग से नहीं चलता है, जिससे प्लास्टिक एकत्र करनेवाले लाखों व्यक्तियों को अनेक स्वास्थ्य संबंधी जोखिम उठाने पड़ते हैं और उन्हें उनके श्रम का पूरा मुआवजा भी नहीं मिल पाता। शायद इसी वजह से आज भारत में निर्मित कुल प्लास्टिक के लगभग आधे का ही पुनश्चक्रण के लिए संग्रह हो पाता है।

पर्यावरण और वन मंत्रालय ने देश में प्लास्टिक कचरे के उचित प्रबंध के लिए नीतियां सुझाने के लिए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के नेतृत्व में एक राष्ट्रीय प्लास्टिक कचरा प्रबंध टास्क फोर्स गठित किया है।

3 comments:

Udan Tashtari said...

आभार जानकारी का...आपका ब्लॉग खजाना बनता जा रहा है जानकारी का!! बधाई.

दिनेशराय द्विवेदी said...

प्लास्टिक के पुनर्चक्रण का काम कचरे के संग्रह और उस से प्लास्टिक को अलग करने से आरंभ होता है। सब से अधिक श्रम इसी काम में लगता है। यह काम पूरी तरह से अनियोजित तरीके से होता है। यही कारण है कि इस काम में मजदूरी न्यूनतम दी जाती है। यही इस में बड़े लाभ की जनक है। लाभ का तो फारमूला ही यही है, जितनी कम मजदूरी उतना ही अधिक मुनाफा।

संगीता पुरी said...

बहुत ज्ञानवर्द्धक आलेख .. हर प्रकार के ज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए धन्‍यवाद !!

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