चावल उगाने वाले देशों में इंडोनीशिया प्रमुख है। पिछले कई सदियों से यह देश चावल के मामले में आत्म-निर्भर था। पिछले कुछ दशाब्दियों से इंडोनीशिया की आबादी तेजी से बढ़ने लगी है और बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए उसने पारंपरिक खेती को त्याग कर उर्वरकों, कीटनाशकों और सिंचाई जल पर आधारित सघन खेती को अपनाया है।
कुछ वर्षों के लिए तो इसके परिणाम आशाजनक निकले। उत्पादन कई गुना बढ़ गया और लोग मानने लगे कि सघन खेती हमेशा के लिए सफल होती रहेगी। यह मात्र भुलावा साबित हुआ।
1960 में इंडोनीशिया को बाहर के देशों से चावल आयात करना पड़ा। इंडोनीशिया सरकार ने चावल के उत्पादन को बढ़ाने के लिए अनेक कदम उठाए। सर्वप्रथम साल में एक से अधिक फसल निकालने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया गया। इसके लिए सिंचाई आवश्यक प्रतीत हुई और अनेक बांध बनाए गए।
पहले किसान अपने खेतों में चावल के अलावा भी अन्य फसलें बोते थे। परंतु देश में जब चावल की किल्लत महसूस की गई तो उन्हें साल में तीन-चार बार चावल की फसल निकालने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि चावल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को सुवर्ण अवसर मिल गया। चावल की फसल यदि इन कीटों से संपूर्ण रूप से नष्ट न हुई तो इसका कारण था चावल की परंपरागत नस्लों में इन कीटों से बचने की नैसर्गिक शक्ति का होना।
परंतु यह सहारा भी जल्द जाता रहा। फिलिपाइन की अंतरराष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्था के वैज्ञानिकों ने धान की एक ऐसी नस्ल विकसित की जो उर्वरकों को अधिक सहन कर सकती थी। इसके कारण वह अधिक चावल दे सकती थी। यह नस्ल साल के बारहों महीने बढ़ सकती थी। आईआर 8 के नाम से जानी जाने वाली इस नस्ल को बहुत जल्द इंडोनीशिया सहित संपूर्ण दक्षिण एशिया में उगाया जाने लगा। परंतु आइआर 8 में चावल को नुकसान करने वाले कीटों के आक्रमण को सहन करने की शक्ति परंपरागत नस्लों से बहुत कम थी।
परिणाम भयंकर सिद्ध हुआ। फसलों को इन कीटों से बचाने के लिए कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग आवश्यक हुआ। परंतु इससे भी पर्याप्त सफलता प्राप्त न हो सकी। कीटनाशकों से कुछ सीमा तक कीट मर जाते थे, परंतु संपूर्ण रूप से नष्ट नहीं होते थे। कीटों को पूर्णतः नष्ट करने के लिए किसान कीटनाशकों का अधिक से अधिक उपयोग करने लगे। दिन में दो-दो बार दवाई छिड़कने लगे, परंतु परिणाम संतोषजनक नहीं निकला।
इस चिंताजनक स्थिति का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों को इसका कारण बहुत जल्द स्पष्ट हो गया। कीटनाशक चावल के पौधों को नुकसान पहुंचानेवाले कीटों को ही नहीं मारते थे, परंतु मकड़ी आदि उन जीवों को भी, जो चावल के पौधों को खानेवाले कीटों के प्राकृतिक शत्रु होते थे।
अब कृषि वैज्ञानिकों ने चावल की कृषि के लिए नई रणनीति अपनाई है। सबसे पहले तो उन्होंने किसानों को अपने खेतों में साल भर केवल चावल की फसलें बोने से मना किया है। इसके स्थान पर उन्हें चावल की एक फसल के बाद किसी अन्य फसल बोने की सलाह दी है। इससे चावल के कीटों पर कुछ हद तक नियंत्रण मिला है।
इसके बाद कीटनाशकों के अनियंत्रित छिड़काव पर रोक लगा दी गई है। बहुत से कीटनाशकों का उपयोग देशभर में निषिद्ध कर दिया है। ऐसे कीटनाशक चावल के कीटों के साथ-साथ उनके शत्रुओं को भी मार डालते थे। केवल नौ प्रकार के कीटनाशकों के उपयोग की अनुमति दी गई है। इन्हें भी इस ढंग से छिड़का जाता है जिससे चावल के कीट तो मरें, परंतु मकड़ी आदि जीव नष्ट न हों।
लाखों वैज्ञानिकों और कार्यकर्ता देश के कोने-कोने में फैलकर लोगों को इस नई तकनीक के लाभों को समझाने में व्यस्त हैं। स्वयं राष्ट्रपति ने राष्ट्र को संबोधित करके कीटनाशकों के दुरुपयोग पर नियंत्रण लगाया।
इन सब कदमों का फायदा कुछ ही दिनों में स्पष्ट होने लगा। चावल का उत्पादन फिर बढ़ने लगा। कीटों का उपद्रव कम हुआ। चावल की खेती की यह नई विधि अन्य फसलों के लिए भी उतनी ही अनुकूल है क्योंकि यह विधि प्रकृति के संतुलन को बिगाड़े बगैर प्रकृति के साथ तालमेल बनाए रखते हुए फसलों को नुक्सान करनेवाले जीवों पर नियंत्रण पाती है।
Saturday, July 18, 2009
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2 comments:
उत्पादन की स्थाई प्रक्रिया वही हो सकती है जो पर्यावरण से तालमेल बिठा सके।
इस चावलगाथा और माइकल जैक्सन की ज़िंदगी एक समान हैं दोनों को ही दवा ने दगा दिया. हमारे खेतों का भी यही हाल हो गया था कृत्रिम खाद डाल डाल कर. जब से organic खाद दोबारा शुरू की है, ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है.
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