Friday, July 10, 2009

मेंढ़क-मेंढ़की की शादी के बहाने जीव विज्ञान की कुछ बातें


कुछ दिन पहले असम के किसानों ने मेंढ़क और मेंढ़की की शादी रचाई ताकि मेघराज प्रसन्न हों और बरसात कराएं।

कई सवाल उठानेवाली घटना है यह। हमारे देश में शिक्षण का प्रचार-प्रसार कितना कम है इस पर यह करारी टिप्पणी करता ही है, लोगों की मूर्खता को भी रेखांकित करता है। सारी दुनिया में हंसी हो रही है हमारी इससे।

चलिए, जब हंसी हो ही रही है, तो थोड़ा और हंस लेते हैं, और इसी बहाने असली विज्ञान की थोड़ी चर्चा भी कर लेते हैं।

सबसे पहला सवाल तो यह है कि इन किसानों ने मालूम कैसे किया कि मेंढ़क कौन सा है और मेंढ़की कौन सी है? यदि आपको एक मेंढ़क दिखाया जाए, तो क्या आप बता पाएंगे कि वह नर है या मादा?

इसकी संभावना अधिक है कि आप तुरंत खिड़की से छलांग लगा देंगे, पर यदि आप हिम्मत वाले जीव निकले, और डटे रहे, तो 99 फीसदी आप नहीं बता पाएंगे कि वह मेंढ़क है या मेंढ़की।

ऐसे मैं मेंढ़क-मेंढ़की की शादी रचानेवालों ने कहीं मेंढ़क-मेंढ़क या मेंढ़की-मेंढ़की को तो नहीं प्रणय-सूत्र में बांध दिया? इससे दिल्ली के अदालत को भले ही कोई आपत्ति न हो, पर संतानोत्पत्ति की दृष्टि से और शायद बारिशोत्पत्ति की दृष्टि से यह विफल प्रयास साबित होगा।

तो आइए देखते हैं, सबसे पहले, कि मेंढ़क और मेंढकी को अलग कैसे पहचाना जा सकता है।

सबसे पहली निशानी यह है कि मेंढ़की मेंढ़क से बड़ी होती है। यह इसलिए क्योंकि वह अंडों को अपने में लिए फिरती है और उनके विकास के लिए उसे अधिक पोषण ग्रहण करना होता है, जिससे वह बड़ी हो जाती है। प्राणी जगत में यह अक्सर देखा जाता है। केवल स्तनधारियों में यह करीब करीब नियम है कि नर बड़ा होता है। कई पक्षियों में, विशेषकर शिकारी पक्षियों में, कीटों में, मकड़ियों में, उभयचरों में और सरीसृपों में मादा ही बड़ी होती है।

अब ऊपर दिए गए वर-वधू के चित्र से तो दोनों मेंढ़क एक ही आकार के लग रहे हैं। निश्चय ही दोनों या तो नर हैं अथवा मादा। अतः इस समलैंगिक विवाह से बारिश तो होने से रही। इसलिए यह प्रयास तो बेकार गया। हमें बारिश के लिए कुछ और करके देखना पड़ेगा। कछुओं का गृह-प्रवेश कराना कैसा रहेगा?! हा, हा, हा!

यह आकार में फर्क वाली बात बुहत उपयोगी नहीं है, क्योंकि यह तुलनात्मक कसौटी है। जब नर और मादा दोनों हाथ में हों, तो बताया जा सकता है कि छोटावाला नर है और बड़ा वाला मादा। पर जब कोई एक ही मेंढ़क मिला हो या दो मिले हों, और दोनों समान आकार के हों, तो यह कैसे बताएं कि नर कौन सा है मादा कौन सी?

इसके लिए मेंढ़क के अंगूठे की जांच कीजिए। प्रजननकाल में उनके सिरे सूजे हुए और खुरदुरे होते हैं ताकि मैथुन के समय मेढ़की की चिकनी पीठ पर अच्छी पकड़ प्राप्त कर सके। पर यह तरीका भी बहुत उपयोगी नहीं है क्योंकि नर का अंगूठा केवल प्रजननकाल में बड़ा और खुरदुरा हो उठता है, बाकी समय वह सामान्य आकार का रहता है। और, सबसे अहम बात, मेंढ़कों का प्रजननकाल बारिश के आने के बाद आता है जब तालाब-पोखर पानी से भर जाते हैं। इसलिए बारिश के आने से पहले मेंढ़क के अंगूठे को देखकर यह बता पाना संभव नहीं है कि वह नर है या मादा।

तीसरा तरीका उनके व्यवहार का अवलोकन करना है। केवल नर मेंढ़क पुकारते हैं, यद्यपि आवाज निकालने की क्षमता नर और मादा दोनों में होती है, पर नरों के लिए आवाज निकालना अधिक स्वाभाविक है और जरूरी भी, क्योंकि वे आवाज के जरिए न केवल अपने क्षेत्र पर अपना अधिकार जताते हैं, बल्कि अन्य नरों को चेतावनी भी देते हैं कि पास मत फटकना, वरना..., और मादाओं को भी आकर्षित करते हैं। मादाएं केवल खतरे की सूचना देने के लिए बोलती हैं।

चौथा तरीका है कि नर की टोढ़ी के नीचे एक थैली होती है, जिसकी मदद से वह आवाज निकालता है। मादा में यह थैली नहीं होती।

पांचवां तरीका थोड़ा फूहड़ है, पर है सटीक। जब दो मेंढ़क मैथुन-रत हों, तो ऊपर जो मेंढ़क है, वह नर है, और नीचे जो है वह मादा!

मेंढ़कों की बात हो रही है, तो उनके संबंध में दो एक बातें और बता दिया जाए। मेंढ़क उभयचर प्राणी हैं, अर्थात वे जल और थल दोनों में रह सकते हैं। पानी में वे अपनी त्वचा के माध्यम से सांस लेते हैं, और थल में फेफड़ों के जरिए। उनके पैरों की उंगलियां झिल्लियों से जुड़ी रहती हैं, ताकि वे पानी में आसानी से तैर सकें।

उभयचर अत्यंत प्राचीन जीव हैं। वे सरीसृपों से भी पहले के जीव हैं। आप तो जानते ही होंगे, कि पहले जीवन का उद्भव पानी में हुआ था और बाद में कुछ जीव थल की ओर बढ़ आए। मेंढ़क इन जीवों में से एक है। पर उभयचर पूर्णतः पानी से मुक्त नहीं हुए हैं। उनका प्रारंभिक जीवन पानी में ही बीतता है और वयस्क होने पर ही वे थल में रहने लायक होते हैं। इसलिए मेंढ़की को अंडे देने के लिए पानी में जाना ही पड़ता है।

मेंढ़कों के वर्ग में कई तरह के जीव हैं जिनमें से एक भेंक है। यह थल जीवन के लिए मेंढ़कों की तुलना में अधिक अनुकूलित हो गया है। उसके पिछले पैर मेंढ़क की तुलना में कम लंबे होते हैं। उसका शरीर भी अधिक खुरदुरा और फफोलेदार होता है।

कुछ प्रकार के मेंढ़क अत्यंत जहरीले होते हैं। दक्षिण अफ्रीका में मिलनेवाले कुछ मेंढ़कों के शरीर में इतना घातक विष होता है कि उन्हें छू देने भर से आदमी की मृत्यु हो सकती है। वहां के लोग इस विष में अपने तीरों के सिरों को बुझाते हैं। ये तीर बंदूक की गोली से भी अधिक मारक होते हैं। बंदूक की गोली तभी असर करती है जब वह शिकार के किसी मर्म स्थल में लगे, जैसे दिल, फेफड़ा, मस्तिष्क, आदि। पर ये तीर शरीर के किसी भी भाग में हल्का सा घाव भी कर दे, तो वह प्राणांतक साबित होता है क्योंकि विष रक्त प्रवाह के साथ तुरंत शरीर में फैल जाता है।

और अंतिम बात। मेंढ़क-मेंढ़की का बारिश से कोई संबंध नहीं है। यह सब अंध-विश्वास और ढकोसला है। अभी भी विज्ञान इतना विकसित नहीं हुआ है कि मनचाहे वक्त पर और मनचाही जगह पर बारिश करा सके। इसलिए बारिश के मौसम में गिरे बूंद-बूंद पानी को सहेजकर रखना हमें सीखना होगा। सभी उपयुक्त जगहों में चेकडैम बना देना चाहिए। नदियों को जोड़ देना चाहिए और नदियों के मुहाने पर बांध बना देना चाहिए, और पानी बचाने के गुर सीख लेने चाहिए।

यही एकमात्र उपाय है। मेंढ़क-मेंढ़कियों की शादी कराना निरीह प्राणियों पर अपार क्रूरता करना है। यदि अंधविश्वास की ही बात करें तो इस पाप के बदले भगवान हम पर और भी ज्यादा कुपित होंगे और विपत्तियां बरसाएंगे, जैसे दुर्भिक्ष, भुखमरी आदि। इसलिए सावधान!

2 comments:

Alpana Verma said...

लेख में रोचक जानकारी है और पानी की कमी की आपूर्ति के लिए सुझाव aur साथ ही अंधविश्वासों में घिरे लोगों के लिए एक सन्देश भी है.

Anonymous said...

बाकी सब तो सही है पर आप बारिश की समस्या से निबटने के लिए नदियों को जोने की बात क्यों कर रहे हैं? अगर मरुथलीकरण को रोकने के लिए खाली पड़ी एक एक इंच भूमि पर पेड़ लगा दिए जाएँ तो बादल अपने आप ही रुकेंगे और बरसेंगे, साथ ही भूजल स्तर में असंतुलन और बाढ़ से भी बचाव होगा.

वहीँ नदियों को जोड़ने और कई बड़े बाँध बनाने से भारी विस्थापन का सामना करना होगा, जो भारत जैसे घनी आबादी और विरल संसाधन वाले देश के लिए अभिशाप साबित होगा. जहाँ आज एक कावेरी विवाद है तो नदियों को जोड़ने के बाद हमें बीस और विवादों के लिए तैयार हो जाना चाहिए. इस गरीब देश में इतनी बड़ी सरकारी योजना में कितना पैसा खाया जायेगा और कितना स्तरीय काम होगा वह उपरवाला जाने.

सही तरीका यह होगा की सरकार खाली पड़ी ज़मीनों पर वृक्षारोपण के लिए प्रोत्साहन दे, जैसे निश्चित क्षेत्र में वन लगाने पर व्यक्ति, फर्म, कोर्पोरेट्स और ट्रस्ट के लिए करों में छूट. वृक्ष काटने की अनुमति की प्रक्रिया जटिल करना और वन विभाग में भ्रष्टाचार हटाना.

जहाँ जहाँ जंगल और वृक्ष कम हुए हैं वहां भूजल स्तर और बारिश में काफी कमी आई है. और सरकार में बैठे लोग कभी भी मूल समस्या का समाधान नहीं चाहेंगे.

पर दुःख तो इस बात का है की पढ़े लिखे लोग भी मीडिया और सरकारी प्रचार के झांसे में आकर समस्या का वही समाधान देखते हैं जो नेता और सरकारी बाबू तय करते हैं. यह लोग समस्या को लम्बा खींचना चाहते हैं जिससे भ्रष्टाचार की गुंजाईश अधिक से अधिक रहे.

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