Wednesday, May 27, 2009

हाथी संकट में


हाथी जिसका भारत के लोक मानस, धर्म, संस्कृति और अर्थव्यवस्था में प्रमुख स्थान है, जल्द ही भारत से सदा-सदा के लिए समाप्त हुए प्राणियों की सूची में भी प्रमुख स्थान प्राप्त कर लेगा! हाथी दांत के लिए उसके अंधाधुंध शिकार, उसके आवास्थल के बड़े पैमाने पर विनाश और फसलों पर चढ़ आने के लिए उसके वध के कारण भारत में हाथियों की संख्या तेजी से घट रही है और इस विशाल जंतु की नस्ल लगभग समाप्त होने को है।

एक समय एशियाई हाथी भारत के सभी भागों में पाया जाता था। आज उसके केवल चार पृथक-पृथक समूह शेष रह गए हैं जो उत्तरी, मध्य, उत्तरपूर्वी और दक्षिणी भारत में किसी प्रकार जीवित बचे हैं। इनमें से प्रत्येक समूह के हाथियों का अन्य समूहों के हाथियों के साथ कोई संपर्क नहीं रह गया है। इस कारण से भारत के जंगली हाथियों में आनुवांशिक सामग्री का आदान-प्रदान बहुत सीमित हद तक ही होता है, जो उसके भावी अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा देता है। ऊपर उल्लिखित चार हाथी-बहुल क्षेत्रों में भी ऐसे अनेक झुंड हैं जो उसी क्षेत्र के अन्य झुंडों से बिलकुल अलग-थलग पड़ गए हैं।

एशियाई हाथी (ऐलफास मेक्सिमस) अफ्रीकी हाथी (लोक्सोडोन्टा अफ्रीकाना) से कुछ छोटा होता है। फिर भी उसका वजन लगभग 5 टन और ऊंचाई 2.5-3 मीटर होती है। वह भारतीय जंगलों का सबसे बड़ा पशु है। वयस्क हाथी को रोजाना 150 किलो चारे की जरूरत पड़ती है। उसकी खुराक में घास, बांस, वृक्षों की छाल, फल आदि वानस्पतिक सामग्री शामिल हैं। अफ्रीकी हाथी के विपरीत, जिसमें नर-मादा दोनों में दंत होते हैं, एशियाई हाथी में केवल नरों में दंत पाए जाते हैं। कभी-कभी दंतहीन नर भी देखने में आते हैं, जिन्हें ''मखना'' कहा जाता है।

हाथी के झुंडों का सामाजिक ढांचा मातृसत्तात्मक होता है और कोई बूढ़ी हथिनी झुंड का संचालन करती है। नर प्रायः एकांत में रहना पसंद करते हैं और मैथुन के लिए ही झुंडों में आते हैं। हथिनी दो साल में एक बार केवल एक बच्चा जनमती है और इसलिए इस जानवर की प्रजनन-दर काफी धीमी है।


हाथी पर जो खतरे मंडरा रहे हैं, वे सब मनुष्य-जनित हैं, चाहे वे आवास-स्थलों का विनाश हो, शिकार हो या मनुष्यों से सीधी टक्कर हो। ऐसे बहुत से भू-भाग जहां हाथी पहले स्वच्छंद विचरा करते थे, अब खेती-बाड़ी, पनबिजली परियोजनाएं, शहरीकरण, बागान, रेलमार्ग या सड़क निर्माण और झूम खेती जैसी मानवीय गतिविधियों की चपेट में आ गए हैं। चूंकि जीवित रहने के लिए हाथियों को बहुत बड़ा भू-भाग चाहिए, आवास-स्थलों के सिकुड़ने से उनकी उत्तरजीविता पर बहुत बुरा असर पड़ता है। भारत में बहुत कम ऐसे अभयारण्य हैं, जिनका विस्तार हाथियों के संरक्षण की दृष्टि से पर्याप्त है। यदि आवास-स्थल का विस्तार बहुत कम हो, तो उसमें रह रहे हाथी धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं।

हाथियों के आवास-स्थलों को प्रभावित करनेवाली बहुत-सी मानव गतिविधियों के परिणामस्वरूप हाथियों के झुंड एक-दूसरे से बिलकुल कट गए हैं। बांधों के सरोवरों और नहरों के कारण हाथियों के झुंड एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं क्योंकि इन अवरोधों को हाथी तैरकर पार नहीं कर सकते। राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के बीच से गुजरनेवाली गंगा नदी से निकाली गई एक नहर इस उद्यान के हाथियों के झुडों के लिए एक दुर्गम्य बाधा बन गई है। इसी प्रकार कार्बट राष्ट्रीय उद्यान में बनाई गई रामगंगा झील और काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में से गुजरती एक सड़क भी उधर के हाथियों के लिए एक विकट समस्या हैं।

विलायती वृक्षों के रोपण पर आजकल बहुत अधिक जोर दिया जाता है। इन वृक्षों को हाथी नहीं खाते। अनेक क्षेत्रों में जहां ये पेड़ बड़े पैमाने पर लगाए गए हैं, वहां हाथियों को पर्याप्त खुराक जुटाना अधिकाधिक कठिन होता जा रहा है।




हाथी दांत के लिए शिकार से भी हाथियों को भारी क्षति पहुंची है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में हाथी दांत की कीमत बहुत अधिक है, और उससे आभूषण और कलाकृतियां बनाई जाती हैं। चूंकि एशियाई हाथी में केवल नरों में दंत पाए जाते हैं, नर बड़े पैमाने पर मारे गए हैं, जिससे इस प्राणी का लैंगिक संतुलन गड़बड़ा गया है। ऐसा दक्षिण भारत में, खासकर केरल में, अधिक हुआ है। इन जगहों में अधिकतर तंदुरुस्त और वयस्क नर मारे जा चुके हैं, और वहां लैंगिक अनुपात एक नर के पीछे 500 मादाएं हैं, जो इस जाति के कायमी अस्तित्व के लिए एक भारी चुनौती है। ऐसी स्थिति में यदि वनैल झुंडों को पूर्ण संरक्षण दिया जाए, तो भी यह जरूरी नहीं है कि वे अपने अस्तित्व को लंबे समय तक बनाए रख पाएंगे।

यद्यपि हाथी को वन्यजीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972, की प्रथम सूची में रखा गया है और उसका शिकार गैरकानूनी है, फिर भी हाथी दांत की ऊंची कीमत पकड़े जाने की जोखिम उठाने के लिए चोर शिकारियों को प्रोत्साहन देती है।

चूंकि देश के अनेक भागों में हाथियों के प्राकृतिक आवास स्थल नष्ट हो गए हैं, हाथी जीवित रहने के लिए कभी-कभार खेतों पर उग रहे फसलों पर धावा बोल देते हैं। बहुधा ऐसा एकला नर करते हैं, पर कभी-कभी पूरा-पूरा झुंड फसलों को लूटने आ जुटता है। इससे खेतों के मालिकों और हाथियों के बीच तीव्र संघर्ष छिड़ जाता है। दक्षिण भारत, पश्चिम बंगाल और बिहार में यह समस्या बहुत प्रखर हो उठी है। वहां के लोगों में हाथी के विरुद्ध बहुत अधिक दुर्भावना पाई जाती है, जो इस पशु के संरक्षण में बाधक है।


हाथी को नस्लांत से बचाने के लिए उसके संरक्षण की योजना बहुत सोच-समझकर बनानी होगी। वन्य अवस्था में हाथियों के संरक्षण के लिए भारत सरकार ने हाथी परियोजना शुरू की है। यह परियोजना तभी सफल हो सकेगी जब हाथियों के कायमी अस्तित्व को लक्ष्य बनाकर संरक्षण कार्य किए जाए। हाथी परियोजना के अंतर्गत हाथियों के उन आवास-स्थलों को पहचानना होगा, जो अब भी अच्छी हालत में हैं। यह चुनाव इन आवास-स्थलों के क्षेत्रफल, चारा एवं पानी की उपलब्धि और इनमें मानव गतिविधियों के स्तर को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए। इन चुनिंदा आवास-स्थलों को संपूर्ण संरक्षण देने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। संरक्षण में लगे संगठनों को अनुसंधान और निगरानी के लिए पर्याप्त संख्या में अधिकारी मिलने चाहिए। हाथियों के सभी आवास-स्थलों का प्रबंध हाथियों के हित को केंद्र में रखकर किया जाना चाहिए। ऐसी ही नीति बाघ परियोजना के अंतर्गत बाघ के संरक्षण के लिए भी अपनाई गई थी। जहां भी संभव हो बंदनावस्था में जन्मे नर हाथियों को जंगली झुंडों में छोड़कर इन झुंडों की लैंगिक असमानता को दूर करने की चेष्टा की जानी चाहिए।

अपनी फसलों और गांवों से हाथियों को दूर रखने में स्थानीय निवासियों को हाथी परियोजना के कर्मचारियों से पूरा सहयोग मिलना चाहिए और हाथियों से जो जान-माल की हानि गांववालों को सहनी पड़ती है, उसका तत्काल एवं पर्याप्त मुआवजा उन्हें दिलाना चाहिए। स्थानीय निवासियों और पर्यटकों में हाथी के संरक्षण की आवश्यकता के बारे में चेतना जगाने के प्रयासों को विशेष महत्व देना चाहिए।


लोक मानस में हाथी की छवि एक दयालु एवं सौम्य स्वभाव के प्राणी की भी है जिसकी पूजा विघ्नेश या गणेश के रूप में होती है, और शक्ति एवं पराक्रम के प्रतिक के रूप में भी है जो युद्ध में शत्रुओं पर कहर ढाता है। इन दोनों धारणाएं आज हाथी पर समान रूप से लागू हो सकती हैं। यह मनुष्य पर निर्भर करता है कि वह हाथी को एक सौम्य मित्र बनाता है या एक विध्वंसकारी शत्रु। यदि हम उसे शत्रु बना लेते हैं तो हाथी का नस्लांत निश्चित है और आनेवाली पीढ़ियां फिल्मों, चित्रों और हाथी दांत की कलाकृतियों को देखकर ही यह विश्वास कर पाएंगी कि ऐसा भव्य एवं विशाल प्राणी भी इस धरती पर कभी रहता था।

चित्रों के शीर्षक (जिस क्रम में वे आए हैं)

- हाथियों को पानी बहुत पसंद है।
- रेलगाड़ी से टकराने से मरा हाथी।
- हाथी द्वारा तोड़ा गया घर।
- हाथी उत्पात का अखबारी रपट।
- हाथियों को खेतों में घुसने से रोकने के लिए बनाया जा रहा हाथीरोधी खंदक।

3 comments:

डॉ. मनोज मिश्र said...

बहुत सही समस्या पर आपनें ध्यान आकृष्ट किया है ,बेहतरीन पोस्ट बधाई .

Udan Tashtari said...

बहुत अच्छी पोस्ट..सर्वरुप दर्शाती.

P.N. Subramanian said...

हाथी के संभावित विनाश के लिए आदमी ही जिम्मेदार होगा. वैसे यह बात जंगलों के विनाश से भी जुडी है. आप ने ठीक लिखा. आभार. .

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