Sunday, May 24, 2009

गाय की बहन नीलगाय

नीलगाय एक बड़ा और शक्तिशाली जानवर है। कद में नर नीलगाय घोड़े जितना होता है, पर उसके शरीर की बनावट घोड़े के समान संतुलित नहीं होती। पृष्ठ भाग अग्रभाग से कम ऊंचा होने से दौड़ते समय यह अत्यंत अटपटा लगता है। अन्य मृगों की तेज चाल भी उसे प्राप्त नहीं है। इसलिए वह बाघ, तेंदुए और सोनकुत्तों का आसानी से शिकार हो जाता है, यद्यपि एक बड़े नर को मारना बाघ के लिए भी आसान नहीं होता। छौनों को लकड़बग्घे और गीदड़ उठा ले जाते हैं। परंतु कई बार उसके रहने के खुले, शुष्क प्रदेशों में उसे किसी भी परभक्षी से डरना नहीं पड़ता क्योंकि वह बिना पानी पिए बहुत दिनों तक रह सकता है, जबकि परभक्षी जीवों को रोज पानी पीना पड़ता है। इसलिए परभक्षी ऐसे शुष्क प्रदेशों में कम ही जाते हैं।



वास्तव में "नीलगाय" इस प्राणी के लिए उतना सार्थक नाम नहीं है क्योंकि मादाएं भूरे रंग की होती हैं। नीलापन वयस्क नर के रंग में पाया जाता है। वह लोहे के समान सलेटी रंग का अथवा धूसर नीले रंग का शानदार जानवर होता है। उसके आगे के पैर पिछले पैर से अधिक लंबे और बलिष्ठ होते हैं, जिससे उसकी पीठ पीछे की तरफ ढलुआं होती है। नर और मादा में गर्दन पर अयाल होता है। नरों की गर्दन पर सफेद बालों का एक लंबा और सघन गुच्छा रहता है और उसके पैरों पर घुटनों के नीचे एक सफेद पट्टी होती है। नर की नाक से पूंछ के सिरे तक की लंबाई लगभग ढाई मीटर और कंधे तक की ऊंचाई लगभग डेढ़ मीटर होती है। उसका वजन 250 किलो तक होता है। मादाएं कुछ छोटी होती हैं। केवल नरों में छोटे, नुकीले सींग होते हैं जो लगभग 20 सेंटीमीटर लंबे होते हैं।

नीलगाय भारत में पाई जानेवाली मृग जातियों में सबसे बड़ी है। मृग उन जंतुओं को कहा जाता है जिनमें स्थायी सींग होते हैं, यानी हिरणों के शृंगाभों के समान उनके सींग हर साल गिरकर नए सिरे से नहीं उगते।

नीलगाय दिवाचर प्राणी है। वह घास भी चरती है और झाड़ियों के पत्ते भी खाती है। मौका मिलने पर वह फसलों पर भी धावा बोलती है। उसे बेर के फल खाना बहुत पसंद है। महुए के फूल भी बड़े चाव से खाए जाते हैं। अधिक ऊंचाई की डालियों तक पहुंचने के लिए वह अपनी पिछली टांगों पर खड़ी हो जाती है। उसकी सूंघने और देखने की शक्ति अच्छी होती है, परंतु सुनने की क्षमता कमजोर होती है। वह खुले और शुष्क प्रदेशों में रहती है जहां कम ऊंचाई की कंटीली झाड़ियां छितरी पड़ी हों। ऐसे प्रदेशों में उसे परभक्षी दूर से ही दिखाई दे जाते हैं और वह तुरंत भाग खड़ी होती है। ऊबड़-खाबड़ जमीन पर भी वह घोड़े की तरह तेजी से और बिना थके काफी दूर भाग सकती है। वह घने जंगलों में भूलकर भी नहीं जाती।

सभी नर एक ही स्थान पर आकर मल त्याग करते हैं, लेकिन मादाएं ऐसा नहीं करतीं। ऐसे स्थलों पर उसके मल का ढेर इकट्ठा हो जाता है। ये ढेर खुले प्रदेशों में होते हैं, जिससे कि मल त्यागते समय यह चारों ओर आसानी से देख सके और छिपे परभक्षी का शिकार न हो जाए।

नीलगाय राजस्थान, मध्य प्रदेश के कुछ भाग, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, बिहार और आंध्र प्रदेश में पाई जाती है। वह सूखे और पर्णपाती वनों का निवासी है। वह सूखी, खुरदुरी घास-तिनके खाती है और लंबी गर्दन की मदद से वह पेड़ों की ऊंची डालियों तक भी पहुंच जाती है। लेकिन उसके शरीर का अग्रभाग पृष्ठभाग से अधिक ऊंचा होने के कारण उसके लिए पहाड़ी क्षेत्रों के ढलान चढ़ना जरा मुश्किल है। इस कारण से वह केवल खुले वन प्रदेशों में ही पाई जाती है, न कि पहाड़ी इलाकों में।

नीलगाय में नर और मादाएं अधिकांश समय अलग झुंडों में विचरते हैं। अकेले घूमते नर भी देखे जाते हैं। इन्हें अधिक शक्तिशाली नरों ने झुंड से निकाल दिया होता है। मादाओं के झुंड में छौने भी रहते हैं।

नीलगाय निरापद जीव प्रतीत हो सकती है पर नर अत्यंत झगड़ालू होते हैं। वे मादाओं के लिए अक्सर लड़ पड़ते हैं। लड़ने का उनका तरीका भी निराला होता है। अपनी कमर को कमान की तरह ऊपर की ओर मोड़कर वे धीरे-धीरे एक-दूसरे का चक्कर लगाते हुए एक-दूसरे के नजदीक आने की चेष्टा करते हैं। पास आने पर वे आगे की टांगों के घुटनों पर बैठकर एक-दूसरे को अपनी लंबी और बलिष्ठ गर्दनों से धकेलते हैं। यों अपनी गर्दनों को उलझाकर लड़ते हुए वे जिराफों के समान लगते हैं। अधिक शक्तिशाली नर अपने प्रतिद्वंद्वी के पृष्ठ भाग पर अपने पैने सींगों की चोट करने की कोशिश करता है। जब कमजोर नर भागने लगता है, तो विजयी नर अपनी झाड़ू-जैसी पूंछ को हवा में झंडे के समान फहराते हुए और गर्दन को झुकाकर मैदान छोड़कर भागते प्रतिद्वंद्वी के पीछे दौड़ पड़ता है। यों लड़ते नर आस-पास की घटनाओं से बिलकुल बेखबर रहते हैं, और उनके बहुत पास तक जाया जा सकता है।

प्रत्येक नर कम-से-कम दो मादाओं पर अधिकार जमाता है। नीलगाय बहुत कम आवाज करती है, लेकिन मादा कभी-कभी भैंस के समान रंभाती है। नीलगाय साल के किसी भी समय जोड़ा बांधती है, पर मुख्य प्रजनन समय नवंबर-जनवरी होता है, जब नरों की नीली झाईवाली खाल सबसे सुंदर अवस्था में होती है।

मैथुन के बाद नर मादाओं से अलग हो जाते हैं और अपना अलग झुंड बना लेते हैं। इन झुंडों में अवयस्क नर भी होते हैं, जिनकी खाल अभी नीली और चमकीली नहीं हुई होती है। मादाओं के झुंडों में 10-12 सदस्य होते हैं, पर नर अधिक बड़े झुंडों में विचरते हैं, जिनमें 20 तक नर हो सकते हैं। इनमें छोटे छौनों से लेकर वयस्क नरों तक सभी उम्रों के नर होते हैं। ये नर अत्यंत झगड़ालू होते हैं, और आपस में बार-बार जोर आजमाइश करते रहते हैं। जब झगड़ने के लिए कोई नहीं मिलता तो ये अपने सींगों को झाड़ियों में अथवा जमीन पर ही दे मारते हैं।

नीलगाय चरते या सुस्ताते समय अत्यंत सतर्क रहती है। सुस्ताने के लिए वह खुली जमीन चुनती है और एक-दूसरे से पीठ सटाकर लेटती है। यों लेटते समय हर दिशा पर झुंड का कोई एक सदस्य निगरानी रखता है। कोई खतरा दिखने पर वह तुरंत खड़ा हो जाता है और दबी आवाज में पुकारने लगता है।

छौने सितंबर-अक्तूबर में पैदा होते हैं जब घास की ऊंचाई उन्हें छिपाने के लिए पर्याप्त होती है। ये छौने पैदा होने के आठ घंटे बाद ही खड़े हो पाते हैं। कई बार जुड़वे बच्चे पैदा होते हैं। छौनों को झुंड की सभी मादाएं मिलकर पालती हैं। भूख लगने पर छौने किसी भी मादा के पास जाकर दूध पीते हैं।

नीलगाय अत्यंत गरमी भी बरदाश्त कर सकती है और दुपहर की कड़ी धूप से बचने के लिए भर थोड़ी देर छांव का सहारा लेती है। उसे पानी अधिक पीने की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि अपनी खुराक से ही वह आवश्यक नमी प्राप्त कर लेती है।

नीलगाय भारत के उन अनेक खुशनसीब प्राणियों में से एक है जिन्हें लोगों की धार्मिक मान्यताओं के कारण सुरक्षा प्राप्त है। चूंकि इस जानवर के नाम के साथ "गाय" शब्द जुड़ा है, उसे लोग गाय की बहन समझकर मारते नहीं है, हालांकि नीलगाय खड़ी फसल को काफी नुक्सान करती है। उसे पालतू बनाया जा सकता है और नर नीलगाय से बैल के समान हल्की गाड़ी खिंचवाई जा सकती है।

8 comments:

Anil Pusadkar said...

रोचक और ज्ञानवर्धक्। नीलगाय हमारे छत्तीसगढ मे भी मिलती है।

Arvind Mishra said...

बहुत विस्तार सेआपने एशिया के सबसे बड़े मृग की जानकारी दी ! शुक्रिया !!

RAJ SINH said...

sirf yah bhee bataate ki usakaa gomaata se kitanaa sambandh hai . kitanaa prajaati antar hai ?

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

" नीलगाय भारत में पाई जानेवाली मृग जातियों में सबसे बड़ी है। मृग उन जंतुओं को कहा जाता है जिनमें स्थायी सींग होते हैं, यानी हिरणों के शृंगाभों के समान उनके सींग हर साल गिरकर नए सिरे से नहीं उगते। " - जानकारी के लिए धन्यवाद.

"सभी नर एक ही स्थान पर आकर मल त्याग करते हैं, लेकिन मादाएं ऐसा नहीं करतीं।" - प्राइवेसी का ध्यान तो रखना ही पड़ता है ! :)

"उसे पालतू बनाया जा सकता है और नर नीलगाय से बैल के समान हल्की गाड़ी खिंचवाई जा सकती है।" - यह तो ग़जब का इंफॉर्मेसन है. कोई प्रमाण है क्या? बैलों की तरह उसे बधिया तो नहीं करना पड़ेगा ?

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

गिरिजेश: जानवरों को बधिया इसलिए किया जाता है ताकि उनके स्वभाव को शांत किया जाए। यदि नीलगाय को भी बड़े पैमाने पर गाड़ी खींचने या खेत जोतने के लिए उपयोग किया जाने लगे, तो उसे भी बधिया करने की आवश्यकता हो सकती है। लेकिन इसकी संभावना कम है क्योंकि अभि वह बैलों का मुकाबला नहीं कर सकता है। हमने हजारों सालों के प्रयत्न से बैल जैसे खेती-योग्य जानवर तैयार किया है। जंगली नीलगाय में वे सब गुण लाने के न जाने कितनी सदियां लगेंगी।

यह जानकारी मैंने वाइल्ड एनिमल्स ओफ सेंट्रल इंडिया, ए ए डनबर ब्रैंडर, तथा इस तरह की अन्य पुस्तकों से ली है।

रोचक बात यह है कि अफ्रीका में जेबरे को भी पालतू बनाया गया है और उससे कुछ बागानों में हल्के-फुल्के काम कराए गए हैं। पर वहां भी उसे घोड़ों से निकृष्ट ही पाया गया है। घोड़े को भी हजारों सालों में हमने तैयार किया है, और अश्व जाति के अन्य प्राणी उसका मुकाबला नहीं कर सकते।

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

गिरिजेश: एक जगह पर मल त्यागने की आदत अनेक जानवारों में पाई जाती है, जैसे गैंडे में। इसकी कोई-न-कोई उपयोगिता जरूर होगी। वन्य जीवों की आदतों के बारे में जानकारी रखनेवाले पाठक इस पर प्रकाश डालें। मुझे ऐसा लगता है कि इससे वे अपने प्रभाव क्षेत्र की सीमा को निर्धारित करते होंगे, जैसे कुत्ते अपने मूत्र से अपने प्रभाव क्षेत्र की सीमा को अंकित करते हैं।

vvinayak said...

बहुत अच्छी जानकारी.... आभार !!!

Anonymous said...

नील गाय की जय !

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