संभव है कि अगले 20-30 वर्षों में पादपों एवं प्राणियों की 10 लाख से भी अधिक जातियां पृथ्वी पर से विलुप्त हो जाएं। इसका मूल कारण है मानव द्वारा किए जा रहे पर्यावरणीय परिवर्तन। यह दर, यानी प्रतिदिन 100 जातियों का विलुप्त हो जाना, विलोप की अनुमानित "स्वाभाविक" दर से 1,000 गुना अधिक है। लुप्त हो चुकी, संकटग्रस्त और संकट के कगार पर खड़ी जातियों की सूची में प्राणी और पादप दोनों शामिल हैं। समशीतोष्ण क्षेत्रों की पादप-जातियों का 10 प्रतिशत और विश्व के 9,000 पक्षी-जातियों का 11 प्रतिशत किसी हद तक विलोप के खतरे तले जी रहे हैं। उष्णकटिबंधीय प्रदेशों में वनों के विनाश ने ऐसी 130,000 जातियों को जोखिम में डाल रखा है, जो अन्यत्र नहीं पाई जातीं।
विलोप की यह चिंताजनक दर ही वह विश्वव्यापी समस्या है जिसने दुनिया भर में "जैविक विविधता" में रुचि जगाई है। जैविक विविधता का तात्पर्य केवल यह नहीं है कि विश्व में मौजूद सभी जातियों की कुल संख्या कितनी है। इन विविध जातियों के बीच होने वाली आपसी पारिस्थितिकीय क्रियाएं और भौतिक पर्यावरण, ये दोनों मिलकर उन पारिस्थितिक तंत्रों का निर्माण करते हैं जिन पर मानव अपने अस्तित्व के लिए निर्भर है। पृथ्वी पर मौजूद समस्त जीवधारियों की जीन-मूलक विभिन्नता भी जैविक विविधता के अंतर्गत आ जाती है। जीन-मूलक विभिन्नता न रहे तो जीवधारी पर्यावरणीय परिवर्तनों को सहने की वह क्षमता खो बैठते हैं जिसे अनुकूलन कहा जाता है।
जैविक विविधता का मतलब साधारणतः तीन स्तरों की जैविक विभिन्नता से होता हैः- विभिन्न प्रकार के पारिस्थितक तंत्र (यानी कोई पर्यावरणीय इकाई और उसमें जी रहे पादप और प्राणी समुदाय); विभिन्न प्रकार की जीव-जातियां; और पृथक-पृथक जातियों में और प्रत्येक जाति में मौजूद जीन-मूलक विभिन्नताएं। पृथ्वी की जैविक विविधता मनुष्य के लिए अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए, वह आहार, दवा और औद्योगिक कच्चे-माल का संभावित स्रोत है।
जैविक विविधता अनेक जीवन-धारक सेवाएं भी प्रदान करती है, जैसे, पृथ्वी के वायुमंडल का नवीकरण, प्रदूषण को सोखना और मिट्टी के उपजाऊपन को बनाए रखना। उससे अनेक समुदायों को नैतिक और आध्यात्मिक प्रेरणा भी प्राप्त होती है।
बदलते पर्यावरण के साथ सफल अनुकूलन अंततः जैविक विविधता के इन तीन स्तरों पर ही निर्भर है।
ज्यों-ज्यों हम मनुष्य जैविक विविधता में कमी लाते हैं, त्यों-त्यों हम बदलते पर्यावरण के साथ अनुकूलन की जीवधारियों की क्षमता को कम करते हैं। अधिकांश प्राणी और पादप धीमी गति से संपन्न होनेवाली जीन-मूलक शारीरिक, संरचनात्मक एवं सहजवृत्तिक परिवर्तनों के जरिए पर्यावरणीय बदलावों के साथ अपना अनुकूलन करते हैं, जबकि मनुष्य जाति सीखने की प्रक्रिया के जरिए यह काम संपन्न करती है और जीवित रहती है। हम मनुष्यों में यह सामर्थ्य है कि हम एक ही पीढ़ी के अल्प अंतराल में अपनी आदतों में काफी अनुकूलनात्मक परिवर्तन लाएं।
पृथ्वी की जैविक विविधता-मूलक संपदाओं के वितरण एवं उपयोग को लेकर अनेक कठिन प्रश्न उपस्थित होते हैं। विकसित देशों ने, जो कि वस्तुतः जैविक विविधता की दृष्टि से अपेक्षाकृत गरीब हैं, वर्तमान जीवनयापन-स्तर अपनी और बहुधा विकासरत देशों की जैविक विविधता के शोषण से प्राप्त किया है।
जिन देशों ने अपने जैविक विविधता स्रोतों का विकास अभी नहीं किया है, क्या उन्हें इस प्रकार का जैविक विविधता पर आधारित विकास बंद कर देना चाहिए, भले ही इससे उनका दीर्घकालीन आर्थिक विकास बाधित होता हो? संसार की जैविक विविधता को संरक्षित करने का खर्च गरीब और अमीर देशों के बीच किस तरह बांटा जाना चाहिए?
जातियों और पारिस्थितिक तंत्रों का एकसार बंटवारा न जमीन पर हुआ है न सागरों में, यद्यपि कुछ क्रम अवश्य प्रतीत होता है। पारिस्थितिकीविदों ने पाया है कि ध्रुवों से भूमध्यरेखा की ओर जाते-जाते स्थलजीवियों की विविधता बढ़ती है। परंतु समुद्री जीवों की विविधधा के संबंध में ऐसा कोई क्रम नहीं देखा जाता।
उष्णकटिबंधीय प्रदेशों के अधिकांश निम्न-भागों में फैले हुए उष्णकटिबंधीय वर्षावन धरती की लगभग 7 प्रतिशत सतह को ढंके हुए हैं और संभवतः समस्त पृथ्वी की 50 प्रतिशत स्थलजीवी जातियां उनमें रहती हैं। जैविक विविधता और उसके महत्व की चर्चा करते समय उष्णकटिबंधीय वर्षावनों पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित करने की प्रवृत्ति देखी जाती है। बेशक उष्णकटिबंधीय वर्षावन सर्वाधिक वैविध्यपूर्ण स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र हैं और कई बार वे सर्वाधिक संकटग्रस्त भी माने जाते हैं। परंतु कम जातीय विविधता वाले पारिस्थितिक तंत्रों की जैविक विवधता का संरक्षण भी उतना ही महत्वपूर्ण और आवश्यक है।
मनुष्य द्वारा उपयोग किए जानेवाले विभिन्न प्रकार के आहार, दवा, ऊर्जा-स्रोत और औद्योगिक उत्पाद लगभग सभी पारिस्थितिकी तंत्रों से और पृथ्वी के हर कोने से आते हैं। इन उत्पादों के अनेक स्रोतों की पूरी क्षमता का उपयोग अभी तक नहीं हुआ है। भविष्य में उपयोग किए जा सकनेवाले ये स्रोत अगर नष्ट हो गए तो उससे हमारा जीवनयापन-स्तर प्रभावित होगा, और कुछ मामलों में तो मनुष्य का भावी अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।
अनुमान लगाया गया है कि आज उपलब्ध सभी दवाओं का एक-चौथाई हिस्सा उष्णकटिबंधीय पौधों से प्राप्त होता है। विकासरत देशों के 80 प्रतिशत बाशिंदे परंपरागत दवाइयों पर निर्भर हैं और इन दवाइयों में से अधिकांश उष्णकटिबंधीय पौधों से बनाई जाती हैं। अमरीका में उपलब्ध दवाइयों का 40 प्रतिशत प्राकृतिक स्रोतों पर आधारित है।
इस समय सारे संसार में खाए जानेवाले कुल आहार का लगभग 80 प्रतिशत केवल दो दर्जन पादप-जातियों और प्राणी-जातियों से प्राप्त होता है। इतनी कम जातियों पर अपने आपको निर्भर रखकर हम अपनी फसलों की जीन-मूलक विभिन्नता को संकुचित कर रहे हैं, विभिन्नतापूर्ण प्राकृतिक स्थलों को जातीय एकरूपता वाले क्षेत्रों में बदल रहे हैं, फसलों और पालतू पशुओं के ज्ञात एवं अज्ञात पूर्वजों की संख्या घटा रहे हैं, जो इनकी नस्ल सुधारने के लिए आवश्यक जीनों के स्रोत हैं, और अपनी बढ़ती हुई आबादी की अन्न सुरक्षा को डांवाडोल कर रहे हैं।
आज उगाई जा रही अधिकांश फसलें किसी भौगोलिक क्षेत्र-विशेष के लिए विकसित हुई हैं। जलवायु के बदल जाने अथवा नए पीड़कों या रोगों के प्रकट होने पर इन नस्लों की उत्पादकता शायद पहले जैसी न रह जाए। लिहाजा जैविक विविधता को बचाए रखना और भी आवश्यक हो जाता है क्योंकि उसके बिना हम नई परिस्थित्यों के अनुकूल फसलों की नस्लें विकसित नहीं कर सकेंगे।
Saturday, August 15, 2009
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