Thursday, September 3, 2009

गिद्धों को खाते हैं बपाटला के लोग

खाने के मामले में सहमति प्राप्त करना मुश्किल होता है। जिसे कुछ लोग बड़े चाव से खाते हैं, उसका नाम भर सुन लेने से दूसरे लोगों को कय होने लगता है। फ्रांस के लोग मेंढ़क के पैरों को बड़े उत्साह से खाते हैं, पर क्या आप या मैं इस बेहूदी चीज को मुंह में लाएंगे? एक दूसरा उदाहरण गिद्ध हैं। चाहे आप जितने बड़े पेटू हों, गिद्ध के नाम से आपकी भूख हवा हो जाएगी। ''शव खानेवाले ये घिनौने पक्षी भी कहीं खाने की चीज हो सकते हैं, छि! छि! छि!'', आप घृणा से कह उठेंगे।

यही सवाल आंध्र प्रदेश के बपाटला कसबे के बांदा आदिवासियों से पूछ कर देखिए, उत्तर आपको हां में मिलेगा। उनके लिए गिद्ध वैसे ही खाने लायक चीज है जैसे हममें से कुछ लोगों के लिए मुर्गी! बांदा गिद्ध को ही नहीं, बल्कि कौए जैसे अन्य शवभोजी पक्षियों को भी खाते हैं। खाने के मामले में उनकी पसंद-नापसंद इतनी विलक्षण है कि बत्तख, क्रौंच, हंस आदि पक्षियों को, जिन्हें हम खाने योग्य मानते हैं, ये लोग छूते भी नहीं हैं। ये पक्षी इनके गांवों में खूब संख्या में पाए जाते हैं।

किसी भी गांव या शहर में गिद्ध स्थिर पंखों पर बहुत ऊंचे चक्कर काटते हुए या मरे जानवरों पर भीड़ लगाते हुए दिख जाएंगे। परंतु बपाटला के चारों ओर लगभग 50 किलोमीटर की दूरी तक आपको गिद्ध बिरले ही मिलेंगे। आपका अनुमान सही था। बांदा लोगों ने उन सबको चट कर लिया है।

मजे की बात यह है कि बांदा लोगों ने गिद्ध खाना हाल ही में शुरू किया है। पच्चीस वर्ष पहले बपाटला में भी गिद्ध अन्य जगहों के ही समान पाए जाते थे। किसी को नहीं मालूम कि इन लोगों ने गिद्धों को क्यों खाना शुरू किया।

बांदा वासी गिद्धों को बड़े-बड़े जालों में पकड़ते हैं। बहुत ही मजबूत धागे से बने और लकड़ी के चौखट पर तने ये जाल एक-साथ दस गिद्धों को पकड़ सकते हैं। जाल के छेद बैडमिंटन के जालों के छेद जितने बड़े होते हैं। चमर गिद्ध (वाइटबेक्ड वल्चर), राजगिद्ध (किंग वल्चर) और गोबर गिद्ध (स्केवेंजर वल्चर), गिद्धों की ये तीनों सामान्य जातियां इनका शिकार बनती हैं।

बांदा गिद्धों के घोंसलों से अंडों और चूजों को भी चुराते हैं। इनके लिए वे ऊंचे चट्टानों पर चढ़ जाते हैं जहां ये घोंसले होते हैं। गिद्ध इन मानव शत्रुओं से इतने डरते हैं कि उन्होंने बांदा इलाकों में घोंसला बनाना ही छोड़ दिया है। यहां पिछले दस वर्षों में एक भी घोंसला नहीं मिला है।

इस विचित्र पसंद का एक नकारात्मक पहलू भी है। बपाटला के गांवों में आपको जगह-जगह मरे जानवर पड़े-पड़े सड़ते और दुर्गंध फैलाते मिलेंगे, क्योंकि उन्हें खाने के लिए गिद्ध वहां नहीं हैं।

Wednesday, September 2, 2009

जटिंगा का रहस्य

असम के एक छोटे-से पहाड़ी गांव जटिंगा में हर साल अगस्त-अक्तूबर के दरमियान एक विचित्र एवं रहस्यमयी घटना घटती है, जिसने विश्वभर के वैज्ञानिकों को चकित कर रखा है।

कुछ विशेष परिस्थितियों में जटिंगा में रात में जलाए गए किसी भी रोशनी की ओर बीसियों पक्षी आकर्षित होकर आते हैं, कुछ-कुछ वैसे ही जैसे अन्य जगहों में दिए की ओर पतंगे आते हैं। पक्षियों के आकर्षित होने के लिए निम्नलिखित परिस्थितियों का होना जरूरी हैः- अमावास की रात हो, हल्की बारिश गिर रही हो, धुंध छाया हुआ हो और हवा का बहाव दक्षिण से पश्चिम की ओर हो। पक्षियों का यह अनोखा व्यवहार केवल जटिंगा में देखा जाता है, आसपास के अन्य गांवों में नहीं।

ये पक्षी जटिंगा के स्थानीय पक्षी नहीं होते हैं और इन्हें दिन के समय में शायद ही कभी देखा जाता है। लगभग 45 जातियों के पक्षी रोशनी की ओर आकर्षण महसूस करते हैं। इनमें से अधिकांश जलपक्षी हैं। ये अपना घोंसला जमीन पर ही अथवा छिछले पानी में बनाते हैं।

इतने सारे पक्षी जटिंगा की रोशनियों की ओर खिंचाव क्यों महसूस करते हैं और केवल जटिंगा की रोशनियों की ओर ही क्यों? इसका उत्तर अब भी ठीक-ठीक ज्ञात नहीं है, परंतु इसमें जटिंगा की भौगोलिक एवं मौसमी विशेषताओं और पक्षियों की नीड़न एवं प्रवसन गतिविधियों का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है।

जटिंगा एक पठार पर स्थित है। असम के उत्तर कछार पहाड़ी जिले में स्थित यह पठार बोराइल पर्वत माला से दक्षिण-पश्चिम दिशा में निकला हुआ है। सारा क्षेत्र घने वनों से आच्छादित है और नदी-नालों और ऊबड़-खाबड़ प्रदेशों से भरा है। अगस्त-अक्तूबर के दौरान इस इलाके में भारी मानसूनी वर्षा होती है, जिसकी शुरुआत अप्रैल से ही हो जाती है सितंबर और अगस्त महीनों में तो जटिंगा में अधिकांश समय बारिश होती रहती है और आर्द्रता 85-90 प्रतिशत जितनी रहती है। लगभग निरंतर प्रबल हवाएं चलती रहती हैं। जटिंगा गहरे धुंध में समाया रहता है। आसपास के सभी निचाईवाले इलाके पानी से भर जाते हैं।

निरंतर बारिश और नीड़न स्थलों में पानी भर जाने के कारण जलपक्षियों को घोंसले त्यागकर सुरक्षित स्थानों की खोज में निकलना पड़ता है। सुरक्षित स्थानों की खोज में ये पक्षी किसी निश्चित योजना के अनुसार नहीं निकल पड़ते, जैसा कि वे प्रवास यात्रा के दौरान करते हैं। यह इस बात से स्पष्ट है कि वे पक्षी भी जो साधारणतः झुंडों में रहते हैं, जटिंगा की ओर एक-दो करके ही आते हैं।

पक्षी नदियों, घाटियों और नालों के ऊपर-ऊपर उड़ आते हैं। संभवतः ये ही सर्वाधिक सुगम मार्ग होते हैं। धुंध और बारिश के कारण वे दिग्भ्रमित हो जाते होंगे और अंधेरी रात में दिखाई पड़ने वाली किसी भी रोशनी की ओर बढ़ चलते होंगे। जटिंगा कुछ ऊंचाई पर स्थित है। इसलिए वह पक्षियों के उड़ान मार्ग में अवरोध बनकर आता होगा। खराब मौसम से परेशान पक्षी जटिंगा में पड़ाव डालने के लिए विवश हो जाते होंगे।

रोशनी की ओर पक्षियों का आकर्षण विश्व के अन्य भागों में भी देखा गया है। उदाहरण के लिए अनेक तटीय इलाकों में प्रवासी पक्षी दीपस्तंभों की प्रबल रोशनी से आकर्षित होकर उनसे टकरा जाते हैं। सुप्रसिद्ध पक्षीविद डा सलीम अली ने अपनी आत्मकथा "द फॉल ऑफ ए स्पैरो" में जर्मनी के हेलिगोलोड नामक स्थान का उल्लेख किया है जहां अक्सर ऐसे हादसे होते हैं। संभवतः जटिंगा का प्रसंग भी ऐसी ही कोई घटना है।

Tuesday, September 1, 2009

औषधों की खान नीम

नीम गहरी जड़ वाला, मध्यम ऊंचाई का, साल भर हरा रहनेवाला और मध्यम तेजी से बढ़नेवाला वृक्ष है। उसकी ऊंचाई 18 मीटर तक होती है। उसका ऊपरी घेरा गोलाकार या अंडाकार होता है। उसकी छाल मोटी और भूरे रंग की होती है और अंदर की लकड़ी लाल रंग की होती है।

नीम हर प्रकार की जमीन में अच्छी प्रकार से उग सकता है। उसकी जड़ें काफी गहराई से पानी और पोषक तत्व प्राप्त करने में सक्षम होती हैं। नीम क्षारयुक्त जमीन में भी पैदा हो सकता है। किंतु जहां पानी भरा रहता हो, वहां वह नहीं होता। सूखी जलवायु उसे पसंद है। वह बहुत अधिक ठंड और गरमी (0-45 डिग्री सेल्सियस तक) भी सहन कर सकता है। 1500 मीटर तक की ऊंचाई और 450-1150 मिलीमीटर वर्षा वाले क्षेत्र में वह होता है।

नीम पर सफेद फूल मार्च से अप्रैल के बीच आते हैं। इन फूलों से निंबोली तैयार होती है। कच्ची निंबोली हरे रंग की होती है और पकने पर पीले रंग की हो जाती है। निंबोलियां जून में झड़ जाती हैं। इन निंबोलियों से नीम के बीज प्राप्त होते हैं। ये बीज दो-तीन सप्ताहों तक ही स्फुरण करने की क्षमता बनाए रख पाते हैं। इसलिए हर वर्ष बीजों को नए सिरे से इकट्ठा किया जाता है। ताजे बीजों को कुछ दिनों तक धूप में सुखा लेने से उनकी स्फुरण क्षमता बढ़ती है। बोने के पांच वर्ष बाद पेड़ पर निंबोलियां आने लगती हैं। एक वृक्ष हर वर्ष 50-100 किलो निंबोलियां पैदा कर सकता है। नीम से एक हेक्टेयर में आठ वर्ष बाद 20 से 170 घन मीटर लकड़ी मिलती है।



नीम की लकड़ी का ईंधन के तौर पर उपयोग होता है। वह बहुत सख्त, मजबूत और टिकाऊ होती है, उसे कीट भी नहीं लगते। इस कारण उससे मकान, मेज-कुर्सी और खेती के औजार बनाए जाते हैं। नीम की हरी और पतली टहनियों से दातुन किया जाता है। नीम के पत्तों का हरी खाद के रूप में भी उपयोग होता है। नीम के पत्तों और बीजों में ऐजिडिरेक्ट्रिन नाम का रसायन होता है जो एक कारगर कीटनाशक है। मच्छर भगाने के लिए नीम के पत्तों का धुंआ किया जाता है। कीटों से अनाज की रक्षा के लिए अनाज की बोरियों और गोदामों में नीम के पत्ते रखे जाते हैं। नीम के गोंद से अनेक दवाएं बनाई जाती हैं। नीम के फल से बीज निकालने के बाद जो गूदा बचता है उसे सड़ाकर मिथेन गैस तैयार की जाती है, जिसे ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

नीम के बीजों में करीब 40 प्रतिशत तेल होता है। यह तेल दिए जलाने में, साबुन, दवाइयां कीटनाशक आदि बनाने में और मशीनों की आइलिंग में काम आता है। तेल निकालने के बाद बची खली पशुओं को खिलाई जा सकती है। नीम की छाल में जो टेनिन पाया जाता है उससे चमड़ा पकाया जा सकता है।

नीम आज अंतरराष्ट्रीय विवाद का कारण बना हुआ है। अमरीका की एक कंपनी ने उसके बीजों में मौजूद ऐजिडेरिक्ट्रिन नामक पदार्थ से एक टिकाऊ कीटनाशक बनाने की विधि को पेटेंट कर लिया है। भारत के अनेक वैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ता इससे बहुत नाराज हैं क्योंकि वे कहते हैं कि भारत के किसान सदियों से नीम के बीजों से प्राप्त तेल से कीटों को मारते आ रहे हैं, इसलिए अमरीका की इस कंपनी द्वारा नीम को पेंटट करना अनैतिक है। यह एक प्रकार से भारतीय किसानों के परंपरागत ज्ञान की चोरी है।

Monday, August 17, 2009

पर्यावरण समस्या और समाधान

सामान्य जीवन प्रक्रिया में जब अवरोध होता है तब पर्यावरण की समस्या जन्म लेती है। यह अवरोध प्रकृति के कुछ तत्वों के अपनी मौलिक अवस्था में न रहने और विकृत हो जाने से प्रकट होता है। इन तत्वों में प्रमुख हैं जल, वायु, मिट्टी आदि। पर्यावरणीय समस्याओं से मनुष्य और अन्य जीवधारियों को अपना सामान्य जीवन जीने में कठिनाई होने लगती है और कई बार जीवन-मरण का सवाल पैदा हो जाता है।

प्रदूषण भी एक पर्यावरणीय समस्या है जो आज एक विश्वव्यापी समस्या बन गई है। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और इंसान सब उसकी चपेट में हैं। उद्योगों और मोटरवाहनों का बढ़ता उत्सर्जन और वृक्षों की निर्मम कटाई प्रदूषण के कुछ मुख्य कारण हैं। कारखानों, बिजलीघरों और मोटरवाहनों में खनिज ईंधनों (डीजल, पेट्रोल, कोयला आदि) का अंधाधुंध प्रयोग होता है। इनको जलाने पर कार्बन डाइआक्साइड, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड आदि गैसें निकलती हैं। इनके कारण हरितगृह प्रभाव नामक वायुमंडलीय प्रक्रिया को बल मिलता है, जो पृथ्वी के तापमान में वृद्धि करता है और मौसम में अवांछनीय बदलाव ला देता है। अन्य औद्योगिक गतिविधियों से क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) नामक मानव-निर्मित गैस का उत्सर्जन होता है जो उच्च वायुमंडल के ओजोन परत को नुकसान पहुंचाती है। यह परत सूर्य के खतरनाक पराबैंगनी विकिरणों से हमें बचाती है। सीएफसी हरितगृह प्रभाव में भी योगदान करते हैं। इन गैसों के उत्सर्जन से पृथ्वी के वायुमंडल का तापमान लगातार बढ़ रहा है। साथ ही समुद्र का तापमान भी बढ़ने लगा है। पिछले सौ सालों में वायुमंडल का तापमान 3 से 6 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। लगातार बढ़ते तापमान से दोनों ध्रुवों पर बर्फ गलने लगेगी। अनुमान लगाया गया है कि इससे समुद्र का जल एक से तीन मिमी प्रतिवर्ष की दर से बढ़ेगा। अगर समुद्र का जलस्तर दो मीटर बढ़ गया तो मालद्वीप और बंग्लादेश जैसे निचाईवाले देश डूब जाएंगे। इसके अलावा मौसम में बदलाव आ सकता है - कुछ क्षेत्रों में सूखा पड़ेगा तो कुछ जगहों पर तूफान आएगा और कहीं भारी वर्षा होगी।

प्रदूषक गैसें मनुष्य और जीवधारियों में अनेक जानलेवा बीमारियों का कारण बन सकती हैं। एक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि वायु प्रदूषण से केवल 36 शहरों में प्रतिवर्ष 51,779 लोगों की अकाल मृत्यु हो जाती है। कलकत्ता, कानपुर तथा हैदराबाद में वायु प्रदूषण से होने वाली मृत्युदर पिछले 3-4 सालों में दुगुनी हो गई है। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में प्रदूषण के कारण हर दिन करीब 150 लोग मरते हैं और सैकड़ों लोगों को फेफड़े और हृदय की जानलेवा बीमारियां हो जाती हैं।
उद्योगीकरण और शहरीकरण से जुड़ी एक दूसरी समस्या है जल प्रदूषण। बहुत बार उद्योगों का रासायनिक कचरा और प्रदूषित पानी तथा शहरी कूड़ा-करकट नदियों में छोड़ दिया जाता है। इससे नदियां अत्यधिक प्रदूषित होने लगी हैं। भारत में ऐसी कई नदियां हैं, जिनका जल अब अशुद्ध हो गया है। इनमें पवित्र गंगा भी शामिल है। पानी में कार्बनिक पदार्थों (मुख्यतः मल-मूत्र) के सड़ने से अमोनिया और हाइड्रोजन सलफाइड जैसी गैसें उत्सर्जित होती हैं और जल में घुली आक्सीजन कम हो जाती है, जिससे मछलियां मरने लगती हैं। प्रदूषित जल में अनेक रोगाणु भी पाए जाते हैं, जो मानव एवं पशु के स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा हैं। दूषित पानी पीने से ब्लड कैंसर, जिगर कैंसर, त्वचा कैंसर, हड्डी-रोग, हृदय एवं गुर्दों की तकलीफें और पेट की अनेक बीमारियां हो सकती हैं, जिनसे हमारे देश में हजारों लोग हर साल मरते हैं।

एक अन्य पर्यावरणीय समस्या वनों की कटाई है। विश्व में प्रति वर्ष 1.1 करोड़ हेक्टेयर वन काटा जाता है। अकेले भारत में 10 लाख हेक्टेयर वन काटा जा रहा है। वनों के विनाश के कारण वन्यजीव लुप्त हो रहे हैं। वनों के क्षेत्रफल में लगातार होती कमी के कारण भूमि का कटाव और रेगिस्तान का फैलाव बढ़े पैमाने पर होने लगा है।

फसल का अधिक उत्पादन लेने के लिए और फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को मारने के लिए कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है। अधिक मात्रा में उपयोग से ये ही कीटनाशक अब जमीन के जैविक चक्र और मनुष्य के स्वास्थ्य को क्षति पहुंचा रहे हैं। हानिकारक कीटों के साथ मकड़ी, केंचुए, मधुमक्खी आदि फसल के लिए उपयोगी कीट भी उनसे मर जाते हैं। इससे भी अधिक चिंतनीय बात यह है कि फल, सब्जी और अनाज में कीटनाशकों का जहर लगा रह जाता है, और मनुष्य और पशु द्वारा इन खाद्य पदार्थों के खाए जाने पर ये कीटनाशक उनके लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध होते हैं।

आज ये सब पर्यावरणीय समस्याएं विश्व के सामने मुंह बाए खड़ी हैं। विकास की अंधी दौड़ के पीछे मानव प्रकृति का नाश करने लगा है। सब कुछ पाने की लालसा में वह प्रकृति के नियमों को तोड़ने लगा है। प्रकृति तभी तक साथ देती है, जब तक उसके नियमों के मुताबिक उससे लिया जाए।

एक बार गांधीजी ने दातुन मंगवाई। किसी ने नीम की पूरी डाली तोड़कर उन्हें ला दिया। यह देखकर गांधीजी उस व्यक्ति पर बहुत बिगड़े। उसे डांटते हुए उन्होंने कहा, ''जब छोटे से टुकड़े से मेरा काम चल सकता था तो पूरी डाली क्यों तोड़ी? यह न जाने कितने व्यक्तियों के उपयोग में आ सकती थी।'' गांधीजी की इस फटकार से हम सबको भी सीख लेनी चाहिए। प्रकृति से हमें उतना ही लेना चाहिए जितने से हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है। पर्यावरणीय समस्याओं से पार पाने का यही एकमात्र रास्ता है।

Sunday, August 16, 2009

पुरा गांव की गोबर गैस परियोजना

पुरा दक्षिण भारत में स्थित एक छोटा सा गांव है। यहां एक अनोखा प्रयोग चल रहा है जो लोगों की जीवन-शैली में क्रांतिकारी परिवर्तन ला रहा है। न तो इस गांव में विकास के नाम पर बड़े-बड़े कारखाने लगाए गए हैं, न उद्योग, परंतु स्थानीय संसाधनों के बेहतर उपयोग पर ध्यान देकर लोगों का जीवन स्तर उठाया जा रहा है। फलतः न तो यहां बड़े उद्योग से संबंधित प्रदूषण आदि की समस्याएं हैं और न ही लोगों को उद्योगों और बांधों के लिए विस्थापित होना पड़ा है।

इस परियोजना में मवेशियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। सारे गांव में लगभग ढाई सौ गाएं हैं, यानी प्रति व्यक्ति दो गाएं। गोबर का उपयोग पहले खेतों में मिलाने और ईंधन के रूप में किया जाता था। परंतु अब प्रत्येक घर से गोबर इकट्ठा करके दो पूर्व नियुक्त प्रतिनिधियों को सौंप दिया जाता है। इस गोबर के लिए गांववालों को एक रुपया प्रति पचास किलो गोबर के हिसाब से पैसे भी मिलते हैं। परंतु गांव वालों को मिलने वाला असली मूल्य इस पैसे में नहीं है। हर सुबह सभी घरों से गोबर आ जाने के बाद ये पूर्व नियुक्त प्रतिनिध गोबर को पानी में घोलकर साइफन पद्धति से पांच-पांच मीटर गहरे गर्तों में उंड़ेलते हैं। ये गर्त धातु के ढक्कनों से ढके हैं। गोबर इन गर्तों में सड़ता है और इससे उत्पन्न होती है मीथेन या गोबर गैस।

गोबर गैस का उपयोग एक छोटे विद्युत जनित्र को चलाने के लिए होता है। गांव वालों को सुबह और शाम दो-तीन घंटे के लिए बिजली प्राप्त होती है।

बिजली के आने से गांव वालों को बहुत लाभ हुआ है। पहले महिलाओं को दूर-दूर से पानी लाना पड़ता था। अब बिजली की सहायता से पानी पंप करके एक टंकी में भरा जाता है। इस टंकी के साथ आठ नल जुड़े हैं जिनसे लोगों और मवेशियों को पानी उपलब्ध होता है। घरों में बिजली आ जाने से बच्चे देर रात तक पढ़ सकते हैं। समय-समय पर गर्तों से खाद निकाल लिया जाता है। इसकी उर्वरक क्षमता गोबर से कहीं अधिक होती है। इसे खेतों में मिलाकर पुरा के गांववालों की जमीन अच्छी और उपजाऊ हो गई है।

पुरा गांव की गोबर गैस परियोजना अमुल्या रेड्डी नामक वैज्ञानिक द्वारा विकसित की गई है। उन्होंने पहले गांव वालों की जीवन-शैली का अध्ययन किया और फिर उनकी आवश्यकताओं के अनुसार परियोजना तैयार की। उन्होंने इसका भी ध्यान रखा कि परियोजना के हर स्तर पर लोगों को शामिल किया जाए। पुरा गांव को इस परियोजना के लिए चुने जाने के पीछे तर्क यह था कि यह गांव भारत के एक औसत गांव का प्रतिनिधित्व करता था। इसलिए पुरा की सफलता भारत के हर गांव में दुहराई जा सकती है।

आवश्यकता है तो केवल लोगों को संगठित करने के लिए रेड्डी के समान दृढ़-निश्चयी कार्यकर्ताओं की।

Saturday, August 15, 2009

क्यों महत्वपूर्ण है जैविक विविधता

संभव है कि अगले 20-30 वर्षों में पादपों एवं प्राणियों की 10 लाख से भी अधिक जातियां पृथ्वी पर से विलुप्त हो जाएं। इसका मूल कारण है मानव द्वारा किए जा रहे पर्यावरणीय परिवर्तन। यह दर, यानी प्रतिदिन 100 जातियों का विलुप्त हो जाना, विलोप की अनुमानित "स्वाभाविक" दर से 1,000 गुना अधिक है। लुप्त हो चुकी, संकटग्रस्त और संकट के कगार पर खड़ी जातियों की सूची में प्राणी और पादप दोनों शामिल हैं। समशीतोष्ण क्षेत्रों की पादप-जातियों का 10 प्रतिशत और विश्व के 9,000 पक्षी-जातियों का 11 प्रतिशत किसी हद तक विलोप के खतरे तले जी रहे हैं। उष्णकटिबंधीय प्रदेशों में वनों के विनाश ने ऐसी 130,000 जातियों को जोखिम में डाल रखा है, जो अन्यत्र नहीं पाई जातीं।

विलोप की यह चिंताजनक दर ही वह विश्वव्यापी समस्या है जिसने दुनिया भर में "जैविक विविधता" में रुचि जगाई है। जैविक विविधता का तात्पर्य केवल यह नहीं है कि विश्व में मौजूद सभी जातियों की कुल संख्या कितनी है। इन विविध जातियों के बीच होने वाली आपसी पारिस्थितिकीय क्रियाएं और भौतिक पर्यावरण, ये दोनों मिलकर उन पारिस्थितिक तंत्रों का निर्माण करते हैं जिन पर मानव अपने अस्तित्व के लिए निर्भर है। पृथ्वी पर मौजूद समस्त जीवधारियों की जीन-मूलक विभिन्नता भी जैविक विविधता के अंतर्गत आ जाती है। जीन-मूलक विभिन्नता न रहे तो जीवधारी पर्यावरणीय परिवर्तनों को सहने की वह क्षमता खो बैठते हैं जिसे अनुकूलन कहा जाता है।

जैविक विविधता का मतलब साधारणतः तीन स्तरों की जैविक विभिन्नता से होता हैः- विभिन्न प्रकार के पारिस्थितक तंत्र (यानी कोई पर्यावरणीय इकाई और उसमें जी रहे पादप और प्राणी समुदाय); विभिन्न प्रकार की जीव-जातियां; और पृथक-पृथक जातियों में और प्रत्येक जाति में मौजूद जीन-मूलक विभिन्नताएं। पृथ्वी की जैविक विविधता मनुष्य के लिए अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए, वह आहार, दवा और औद्योगिक कच्चे-माल का संभावित स्रोत है।

जैविक विविधता अनेक जीवन-धारक सेवाएं भी प्रदान करती है, जैसे, पृथ्वी के वायुमंडल का नवीकरण, प्रदूषण को सोखना और मिट्टी के उपजाऊपन को बनाए रखना। उससे अनेक समुदायों को नैतिक और आध्यात्मिक प्रेरणा भी प्राप्त होती है।

बदलते पर्यावरण के साथ सफल अनुकूलन अंततः जैविक विविधता के इन तीन स्तरों पर ही निर्भर है।

ज्यों-ज्यों हम मनुष्य जैविक विविधता में कमी लाते हैं, त्यों-त्यों हम बदलते पर्यावरण के साथ अनुकूलन की जीवधारियों की क्षमता को कम करते हैं। अधिकांश प्राणी और पादप धीमी गति से संपन्न होनेवाली जीन-मूलक शारीरिक, संरचनात्मक एवं सहजवृत्तिक परिवर्तनों के जरिए पर्यावरणीय बदलावों के साथ अपना अनुकूलन करते हैं, जबकि मनुष्य जाति सीखने की प्रक्रिया के जरिए यह काम संपन्न करती है और जीवित रहती है। हम मनुष्यों में यह सामर्थ्य है कि हम एक ही पीढ़ी के अल्प अंतराल में अपनी आदतों में काफी अनुकूलनात्मक परिवर्तन लाएं।

पृथ्वी की जैविक विविधता-मूलक संपदाओं के वितरण एवं उपयोग को लेकर अनेक कठिन प्रश्न उपस्थित होते हैं। विकसित देशों ने, जो कि वस्तुतः जैविक विविधता की दृष्टि से अपेक्षाकृत गरीब हैं, वर्तमान जीवनयापन-स्तर अपनी और बहुधा विकासरत देशों की जैविक विविधता के शोषण से प्राप्त किया है।

जिन देशों ने अपने जैविक विविधता स्रोतों का विकास अभी नहीं किया है, क्या उन्हें इस प्रकार का जैविक विविधता पर आधारित विकास बंद कर देना चाहिए, भले ही इससे उनका दीर्घकालीन आर्थिक विकास बाधित होता हो? संसार की जैविक विविधता को संरक्षित करने का खर्च गरीब और अमीर देशों के बीच किस तरह बांटा जाना चाहिए?

जातियों और पारिस्थितिक तंत्रों का एकसार बंटवारा न जमीन पर हुआ है न सागरों में, यद्यपि कुछ क्रम अवश्य प्रतीत होता है। पारिस्थितिकीविदों ने पाया है कि ध्रुवों से भूमध्यरेखा की ओर जाते-जाते स्थलजीवियों की विविधता बढ़ती है। परंतु समुद्री जीवों की विविधधा के संबंध में ऐसा कोई क्रम नहीं देखा जाता।

उष्णकटिबंधीय प्रदेशों के अधिकांश निम्न-भागों में फैले हुए उष्णकटिबंधीय वर्षावन धरती की लगभग 7 प्रतिशत सतह को ढंके हुए हैं और संभवतः समस्त पृथ्वी की 50 प्रतिशत स्थलजीवी जातियां उनमें रहती हैं। जैविक विविधता और उसके महत्व की चर्चा करते समय उष्णकटिबंधीय वर्षावनों पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित करने की प्रवृत्ति देखी जाती है। बेशक उष्णकटिबंधीय वर्षावन सर्वाधिक वैविध्यपूर्ण स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र हैं और कई बार वे सर्वाधिक संकटग्रस्त भी माने जाते हैं। परंतु कम जातीय विविधता वाले पारिस्थितिक तंत्रों की जैविक विवधता का संरक्षण भी उतना ही महत्वपूर्ण और आवश्यक है।

मनुष्य द्वारा उपयोग किए जानेवाले विभिन्न प्रकार के आहार, दवा, ऊर्जा-स्रोत और औद्योगिक उत्पाद लगभग सभी पारिस्थितिकी तंत्रों से और पृथ्वी के हर कोने से आते हैं। इन उत्पादों के अनेक स्रोतों की पूरी क्षमता का उपयोग अभी तक नहीं हुआ है। भविष्य में उपयोग किए जा सकनेवाले ये स्रोत अगर नष्ट हो गए तो उससे हमारा जीवनयापन-स्तर प्रभावित होगा, और कुछ मामलों में तो मनुष्य का भावी अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।

अनुमान लगाया गया है कि आज उपलब्ध सभी दवाओं का एक-चौथाई हिस्सा उष्णकटिबंधीय पौधों से प्राप्त होता है। विकासरत देशों के 80 प्रतिशत बाशिंदे परंपरागत दवाइयों पर निर्भर हैं और इन दवाइयों में से अधिकांश उष्णकटिबंधीय पौधों से बनाई जाती हैं। अमरीका में उपलब्ध दवाइयों का 40 प्रतिशत प्राकृतिक स्रोतों पर आधारित है।

इस समय सारे संसार में खाए जानेवाले कुल आहार का लगभग 80 प्रतिशत केवल दो दर्जन पादप-जातियों और प्राणी-जातियों से प्राप्त होता है। इतनी कम जातियों पर अपने आपको निर्भर रखकर हम अपनी फसलों की जीन-मूलक विभिन्नता को संकुचित कर रहे हैं, विभिन्नतापूर्ण प्राकृतिक स्थलों को जातीय एकरूपता वाले क्षेत्रों में बदल रहे हैं, फसलों और पालतू पशुओं के ज्ञात एवं अज्ञात पूर्वजों की संख्या घटा रहे हैं, जो इनकी नस्ल सुधारने के लिए आवश्यक जीनों के स्रोत हैं, और अपनी बढ़ती हुई आबादी की अन्न सुरक्षा को डांवाडोल कर रहे हैं।

आज उगाई जा रही अधिकांश फसलें किसी भौगोलिक क्षेत्र-विशेष के लिए विकसित हुई हैं। जलवायु के बदल जाने अथवा नए पीड़कों या रोगों के प्रकट होने पर इन नस्लों की उत्पादकता शायद पहले जैसी न रह जाए। लिहाजा जैविक विविधता को बचाए रखना और भी आवश्यक हो जाता है क्योंकि उसके बिना हम नई परिस्थित्यों के अनुकूल फसलों की नस्लें विकसित नहीं कर सकेंगे।

Friday, August 14, 2009

रेत के बढ़ते कदम



मरुस्थलीकरण (रेगिस्तान का फैलना) आज विश्व भर में एक विकट समस्या बन गया है। उससे बड़ी संख्या में मनुष्य प्रभावित हो रहे हैं क्योंकि रेत का साम्राज्य बढ़ने से अन्न का उत्पादन घटता है और अनेक प्राकृतिक तंत्रों की धारण क्षमता कम होती है। पर्यावरण भी उसके कुप्रभावों से अछूता नहीं रह पाता।

मरुस्थलीकरण से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिससे विश्व भर के शुष्क क्षेत्रों में उपजाऊ जमीन अनुपजाऊ जमीन में बदल रही है। मानव गतिविधियां और भौगोलिक परिवर्तन, दोनों इसके लिए जिम्मेदार हैं। शुष्क क्षेत्र उन इलाकों को कहते हैं जहां उतनी बारिश नहीं होती कि घनी हरियाली पनप सके। विश्व के कुल स्थल भाग का लगभग 40 प्रतिशत, अथवा 5.4 करोड़ वर्ग किलोमीटर, शुष्क है। मरुस्थलीकरण इन्हीं शुष्क भागों में अधिक देखने में आता है।

भारत का 69.6 प्रतिशत भूभाग (22.83 करोड़ हेक्टेयर) शुष्क माना गया है। यद्यपि इन शुष्क इलाकों की उत्पादकता काफी कम है, फिर भी दूध, मांस, रेशे, चमड़ा आदि के उत्पादन में वे काफी योगदान देते हैं। देश की आबादी का एक बहुत बड़ा भाग शुष्क इलाकों में रहता है।

भारत में 17.36 करोड़ हेक्टेयर, अथवा देश के कुल क्षेत्रफल का 53 प्रतिशत, मरुस्थलीकरण से प्रभावित है। ये इलाके अक्सर सूखे की चपेट में भी रहते हैं। सूखा मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया को तेज कर देता है। राजस्थान का पश्चिमी भाग और गुजरात का कच्छ जिला लगभग सदा सूखे की गिरफ्त में रहते हैं।

मनुष्य तथा उसके पालतू पशु सदा से ही रेगिस्तानी इलाकों में रहते आ रहे हैं। विश्व के अन्य शुष्क इलाकों की तुलना में भारत के शुष्क इलाकों में मानव आबादी का दबाव कहीं ज्यादा है। भारत के पास विश्व के कुल स्थल भाग का मात्र 2.4 प्रतिशत है, लेकिन कुल मानव आबादी का 16.67 प्रतिशत भारत में रहता है। इतना ही नहीं, भारत में विश्व में मौजूद चरागाहों का मात्र 0.5 प्रतिशत ही है, पर यहां विश्व में मौजूद मवेशियों का 18 प्रतिशत पलता है। मनुष्य और मवेशियों का यह असहनीय दबाव मरुस्थलीकरण को बढ़ावा दे रहा है। थार रेगिस्तान के भीतरी भागों तक में खेती और पशुपालन का प्रसार हो रहा है।

रेगिस्तानी इलाकों में पानी की सीमित उपलब्धि वानस्पतिक उत्पादकता की सीमा बांध देती है। वहां वर्षा भी बड़े ही अनियमित ढंग से होती है, जिससे अन्न के उत्पादन में बड़ी-बड़ी अनियमितताएं देखी जाती हैं। इससे पैदा हुई अन्न की किल्लत से गरीब तबके के लोग सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। जीवित रहने के लिए उन्हें रेगिस्तान की वनस्पति पर अत्यधिक निर्भर होना पड़ता है। जैसे-जैसे मनुष्यों और मवेशियों की संख्या बढ़ती जाती है, यह निर्भरता भी बढ़ती है। किसी भी प्राकृतिक-तंत्र की धारण क्षमता सीमित होती है। इस सीमा का उल्लंघन होने पर वह तंत्र बिखरने लगता है। शुष्क इलाकों का प्राकृतिक तंत्र भी मनुष्य द्वारा डाले गए दबाव से आखिरकार चरमरा जाता है। यदि समय रहते इस विघटनकारी प्रक्रिया को रोका नहीं गया, तो सारा तंत्र रेगिस्तान की भेंट चढ़ जाता है, अथवा अत्यधिक चराई और लकड़ी के लिए पेड़ों की छंटाई के कारण उस तंत्र में उपयोगी पौधों की तादाद घट जाती है। उनका स्थान अनुपयोगी और अखाद्य पौधे ले लेते हैं। नतीजा यह होता है कि वह तंत्र अब पहले से भी कम संख्या में मनुष्यों और मवेशियों को पोषित कर पाता है। यही दुश्चक्र मरुस्थलीकरण को गति देता है।

यद्यपि शुष्क इलाकों में बारिश कम होती है, पर जो बारिश होती है, वह काफी तेज और तूफानी ढंग की होती है। इससे इन इलाकों में बारिश अक्सर बाढ़ का रूप धारण करके उपजाऊ मिट्टी को बहा ले जाती है। एक अनुमान के अनुसार बंजर इलाकों में हर हेक्टेयर क्षेत्र से हर साल पानी के कटाव से 16.35 टन मिट्टी बह जाती है। इससे देश के बहुत बड़े-बड़े इलाकों में खड्ड और नाले बन गए हैं और वे खेती के लिए निकम्मे हो गए हैं। काफी इलाकों में रेत के टीलों ने अधिकार जमा लिया है। इस प्रकार अनुपयोगी बनी जमीन को पुनः उपजाऊ बनाने का काम वहां की मिट्टी की जिजीविषा शक्ति पर निर्भर करता है, पर यदि समय रहते कदम न उठाए गए, तो यह मिट्टी ही लुप्त हो जाती है। बार-बार आनेवाला सूखा मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया को त्वरित कर देता है, यद्यपि सूखे का प्रभाव क्षणभंगुर ही होता है।

अभी हाल तक हर गांव में नदी-तालाब होते थे, जिनका पानी फसल उगाने के लिए पर्याप्त था। गांव के गोचरों में मवेशियों के लिए चारा पैदा होता था। आसपास के जंगलों से चूल्हे के लिए लकड़ी मिल जाती थी। आज इन्हीं गांवों का हाल बिलकुल बदल गया है। नदी-तालाब सूख गए हैं, अथवा उनमें पानी बहुत कम रह गया है। जो जलाशय बचे हैं, उनमें से कई तो इतने प्रदूषित हो गए हैं कि उनका पानी पीने लायक नहीं रह गया है। गांव की स्त्रियों को पानी, चारा और ईंधन लाने के लिए मजबूरन कोसों चलना पड़ रहा है। यह दुखद स्थिति गांवों तक सीमित नहीं है, अनेक शहरों की भी यही दशा है।

मिट्टी के कटाव का एक अन्य दुष्परिणाम यह है कि पानी के साथ बह आई मिट्टी जलाशयों में जमा होकर उनके जलधारण क्षमता को घटा रही है। इससे बाढ़ की स्थिति और गंभीर हो जाती है और लाखों लोगों को हर साल बारिश के मौसम में बेघर होना पड़ता है। हमारे देश में ऐसे व्यक्तियों की तादाद बहुत ज्यादा है जिनके लिए बारिश का मौसम अभिशाप बनकर आता है, क्योंकि वह मौत, बीमारी और तबाही का पैगाम भी साथ लाता है। बड़ी-बड़ी पनबिजली योजनाओं के सरोवरों में मिट्टी भर जाने से उनसे निर्मित बिजली की मात्रा घटी है और इन योजनाओं की आयु कम हो गई है। मिट्टी को पहुंची नुकसान से कृषि की उत्पादनशीलता में जो कमी आई है, उसे लगभग 23,200 करोड़ रुपए आंका गया है। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि हमारे जैसे निर्धन देश में बढ़ती आबादी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कृषि की उत्पादकता को बढ़ाने की जरूरत है, न कि घटाने की।

मरुस्थलीकरण एक बहुआयामी समस्या है जिसके जैविक, भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक आदि अनेक पक्ष हैं। इसलिए उससे निपटने में केंद्र और राज्य सरकारों की अनेक संस्थाएं योगदान दे रही हैं। मरुस्थलीकरण से लड़ रहे मुख्य मंत्रालयों में शामिल हैं पर्यावरण और वन मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय, कृषि मंत्रालय और जल संसाधन मंत्रालय।

सन 1985 में राष्ट्रीय भूमि-उपयोग एवं परती विकास परिषद को उच्चतम नीति-निर्धारक एवं समायोजक एजेंसी के रूप में गठित किया गया। यह परिषद देश भर की जमीनों के प्रबंध से जुड़ी समस्याओं पर विचार करती है तथा नीतियां बनाती है। इस परिषद के अध्यक्ष स्वयं प्रधान मंत्री हैं। यह परिषद राष्ट्रीय भूमि-उपयोग एवं संरक्षण बोर्ड, राष्ट्रीय परती भूमि विकास बोर्ड और राष्ट्रीय वनीकरण एवं पारिस्थितिकी-विकास बोर्ड के कामों की देखरेख करती है। राज्य स्तर पर राज्य-स्तरीय भूमि-उपयोग बोर्ड गठित किए गए हैं। इनके अध्यक्ष संबंधित राज्य के मुख्य मंत्री होते हैं। ये बोर्ड भूमि विकास संबंधी कार्यक्रम चलाते हैं।

पिछले कई सालों से शोध संस्थाएं कृषि विश्वविद्यालयों के सहयोग से मरुस्थलीकरण और सूखे के प्रभावों पर गहन अनुसंधन कार्यों में लगी हुई हैं। इन अनुसंधानों की प्राथमिकता रही है मरुस्थलीकरण रोकना और सूखा-पीड़ित इलाकों की उत्पादकता बढ़ाने की कार्यक्षम विधियां विकसित करना। इन अनुसंधान कार्यों को आर्थिक मदद देने के लिए केंद्रीय और राज्य स्तर की अनेक अनुसंधान संस्थान गठित किए गए हैं। इनमें शामिल हैं, हैदराबाद का केंद्रीय शुष्क खेती अनुसंधान संस्थान, जोधपुर का केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, करनाल का केंद्रीय क्षारीय जमीन अनुसंधान संस्थान, देहरादून का केंद्रीय मृदा एवं जल संरक्षण अनुसंधान संस्थान, झांसी का भारतीय वन एवं चरागाह अनुसंधान संस्थान और नई दिल्ली में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के परिसर में स्थित जल प्रौद्योगिकी केंद्र। देहरादून के भारतीय वन अनुसंधान एवं शिक्षण परिषद के मार्गदर्शन में अनेक शोध संस्थाएं शुष्क प्रदेशों के वनों के पुनरुद्धार के कार्य में लगी हैं तथा इन वनों की उत्पादकता में वृद्धि लाने के तरीके खोज रही हैं। ये सब संस्थाएं शुष्क क्षेत्रों के लिए उपयुक्त प्रौद्योगिकियां विकसित करने के साथ-साथ कर्मचारियों को विभिन्न विषयों में प्रशिक्षण भी देती हैं। इन संस्थाओं के कार्यों को समर्थन देने के लिए काफी धनराशि उपलब्ध कराई गई है और नीतिमूलक संरचनाएं एवं विधि-कानून बनाए गए हैं।

सन 1992 में ब्राजील के रियो द जनेरियो में हुए पृथ्वी सम्मेलन में विश्व समुदाय ने मरुस्थलीकरण रोकने के लिए एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षर किए। 15 जून 1994 को इस संधि को कानूनी स्वरूप दिया गया। भारत ने उसे 17 दिसंबर 1996 को अनुमोदित किया। इस संधि का उद्देश्य है मरुस्थलीकरण रोकना तथा मरुस्थलीकरण और सूखे के कारण मानव समुदायों पर पड़ रहे विपरीत प्रभावों को कम करने के लिए सभी देशों के बीच सभी स्तरों पर सहयोग बढ़ाना।

मरुस्थलीकरण रोकने के भगीरथ कार्य में पारंपरिक ज्ञान की अहम भूमिका है क्योंकि वह समयसिद्ध ही नहीं है, बल्कि साधारण जनता की दैनंदिन की समस्याओं को सुलझाने में कामयाब भी रहा है। इनमें से कुछ पारंपरिक विधियों का संक्षिप्त विवरण आगे दिया जा रहा है।

थार रेगिस्तान में वर्ष के कुछ ही महीने फसल उगाने के लिए उपयुक्त होते हैं। अतः वहां के लोगों ने अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए खेती के साथ पशुपालन भी करना सीख लिया है। गर्मियों में वे बाजरा आदि खुरदुरे अनाजों की खेती करते हैं, जिन्हें बहुत कम पानी चाहिए होता है। लेकिन पालीवाल नामक एक काश्तकार समुदाय वर्षाजल संचित करके सर्दियों की फसल भी उगाने में सफल हुआ है। इस विधि को खदीन प्रणाली कहते हैं। आज 500 से भी ज्यादा छोटे-बड़े खदीन हैं जो 12,140 हेक्टेयर क्षेत्र को सिंचित कर रहे हैं। बिहार में इससे मिलता-जुलता एक दूसरा तरीका है जिसे अहर कहा जाता है।

अर्ध-शुष्क इलाकों में खेती की नींव खेत-तालाब होते हैं। ये वर्षाजल को संचित करते हैं और इन्हें या तो जमीन खोदकर बनाया जाता है अथवा पानी के बहाव के मार्ग में दीवार बनाकर। तमिलनाड में नंगै-मेल-पंगै (नमभूमि पर कम पानी मांगनेवाली फसलों की खेती) नामक विधि का प्रचलन है। यदि फसल बोने के समय वर्षा होने के आसार नजर न आए, तो किसान तालाब की सिंचाई पर पनपने वाले बाजरा, रागी आदि फसल बोते हैं, जो कम पानी मिलने पर भी अच्छी पैदावार देते हैं। यदि वर्षा होने के आसार अच्छे हों, तो किसान धान की खेती करते हैं।

मध्य भारत में वर्षाजल संचित करने का एक बहुत प्राचीन तरीका प्रचलित है, जिसे हवेली प्रणाली कहते हैं। भीलों ने एक अन्य विधि विकसित की है जिसे पट्टा कहा जाता है। इसके अंतर्गत नदी-नालों की धारा को रोककर 30-60 सेंटीमीटर गहरा सरोवर बनाया जाता है। यह गहराई खेतों को पानी ले जानेवाली नहरों में पानी पहुंचाने के लिए पर्याप्त होती है। इस विधि की सहायता से साल में दो फसल उगाना संभव हो जाता है।

शुष्क इलाकों की प्रकृति खेती से भी ज्यादा पशुपालन के अनुकूल होती है क्योंकि जहां खेती नहीं हो सकती वहां अच्छे चरागाह हो सकते हैं। इसीलिए शुष्क प्रदेशों के अधिकांश किसान मिश्रित खेती करते हैं, जिसमें पशुपालन को भी महत्वपूर्ण स्थान है। इससे प्राकृतिक संसाधनों से अधिकतम लाभ प्राप्त होता है।

थार रेगिस्तान के अधिक रेतीले भागों के गांवों में वर्षाजल एकत्र करने का एक स्थानीय विधि कुंड है। राजस्थान के गांवों के कुंड, कुंडी (छोटे आकार के कुंड) और टंका और गुजरात की बावड़ियां पेय जल भी उपलब्ध कराते हैं।

रेगिस्तान के निवासियों ने कृषिवानिकी भी बड़े पैमाने पर अपनाया है। इसके अंतर्गत उपयोगी पेड़ों की कतारों के बीच फल-तरकारी आदि उगाए जाते हैं। उदाहरण के लिए राजस्थान में खेतों में खेजड़ी वृक्ष (प्रोसोपिस सिनेरेरिआ) और चरागाहों में बेर (जिजिफस मौरिटिआना) के कुंज अक्सर उगाए जाते हैं। यहां के निवासियों का दृढ़ विश्वास है कि पेड़ों के नीचे फसल अच्छी पनपती है और उनसे ढोरों के लिए चारा भी मिलता है। शुष्क प्रदेशों में सड़कों, नहरों और सरोवरों के किनारे छायादार पेड़ लगाना एक धार्मिक परंपरा रही है।

देश भर में ऐसे अनेक पवित्र वन हैं जो किसी-न-किसी देवी-देवता अथवा मंदिर-मठ से जुड़े हैं। समुदाय इन पवित्र वनों की रक्षा करता है और वहां पेड़ काटने या जंगली जानवरों को सताने नहीं देता। इन पवित्र वनों का महत्व जैविक विविधता के संरक्षण की दृष्टि से बहुत अधिक है। राजस्थान के बारमेर, जैसलमेर, नागौर, जोधपुर, पाली , सीकर, झुंझुनु और जालोर जिलों में इस प्रकार के 400 से अधिक पवित्र वन हैं, जिन्हें वहां ओरान (संस्कृत के अरण्य शब्द का बिगड़ा रूप) कहा जाता है। इनका कुल क्षेत्रफल 1,00,140 हेक्टेयर जितना है। राजस्थान और हरियाणा के बिशनोई समुदाय की कुछ प्रथाओं से भी जंगलों और जीव-जंतुओं का संरक्षण होता है।

सिंचाई की एक रोचक पारंपरिक विधि में मिट्टी के सुपरिचित घड़ों का उपयोग होता है। इन घड़ों में एक ओर छेद बने होते हैं, जिनसे पानी रिसता रहता है। इन घड़ों को पेड़ों की जड़ों के पास जमीन में दबा दिया जाता है और समय-समय पर उनमें पानी भरा जाता है। जमीन की सतह पर पानी छिड़कने से अधिकांश जल वाष्पीकृत हो जाता है और पौधों को उसका थोड़ा अंश ही मिल पाता है। घड़ों से सिंचाई करने की इस विधि में सारा पानी धीरे-धीरे पौधे को मिलता है। इसे आधुनिक टपक-सिंचाई का एक घरेलू विकल्प माना जा सकता है। देश के अनेक भागों में इस अनोखी विधि को वनीकरण कार्यक्रमों में अपनाया गया है। अन्य देशों में भी इसका प्रसार हो रहा है।

शुष्क प्रदेशों के किसान अपनी फसल को झुलसाती, शुष्क हवाओं से बचाने के लिए खेत के चारों ओर पेड़ों की आड़ खड़ी करते हैं। घरों की सुरक्षा के लिए भी ऐसी हरित दीवारें उगाई जाती हैं।

ऊपर वर्णित पारंपरिक विधियां पर्यावरण की दृष्टि से बहुत अधिक महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे पर्यावरण को किसी भी प्रकार से नुकसान नहीं पहुंचातीं। मरुस्थलीकरण रोकने में उनका उपयोग असंदिग्ध है। शुष्क प्रदेशों में विकास कार्यक्रम शुरू करने में भी ये उपयोगी हैं, क्योंकि स्थानीय लोग इन परंपरागत विधियों के प्रति विश्वास रखते हैं और इसलिए उन्हें आसानी से अपना लेते हैं।

राजस्थान के अलवर जिले में कार्य कर रहे स्वयंसेवी संगठन तरुण भारत संघ ने सैकड़ों चेकडैम बनाकर एक मृत नदी को जीवित किया है। इस चमत्कार का पूरा लाभ उठाने के लिए नदी के किनारे स्थित गांवों के निवासियों ने एक नदी संसद बनाई है ताकि पुनरुज्जीवित नदी की हिफाजत और उसके पानी का समान बंटवारा हो सके। गुजरात के सुरेंद्रनगर जिले के सायला तालुके के निवासियों ने 10 छोटे तालाब खोदकर आसपास के भूमिगत जलभंडारों को भरने में सफलता प्राप्त की है। इन तालाबों की क्षमता 5,00,000 गैलन है। अन्य अनेक स्वयंसेवी संगठनों ने भी जल और मृदा संरक्षण के क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया है, मसलन, अण्णा साहब हजारे द्वारा शुरू किया गया संगठन, जो महाराष्ट्र के रालेगांव सिद्धि में हरियाली लौटाने में सफल हुआ है, और गुजरात के सदगुरु जल एवं मृदा विकास प्रतिष्ठान और आगा खान ग्रामीण समर्थन कार्यक्रम। इन सब संगठनों ने समुदायों के साथ मिलकर काम किया है और पारंपरिक ज्ञान से भरपूर फायदा उठाया है।

हमारा देश बहुत बड़ा है और उसमें विविधता भी बहुत अधिक है। दूसरी ओर मरुस्थलीकरण जैसी समस्या बहुत ही जटिल है और बड़े पैमाने पर दुष्प्रभाव डालती है। उससे लड़ने के साधन सीमित हैं। इस वस्तुस्थिति को ध्यान में रखते हुए यही उचित है कि अधिक ध्यान उन क्षेत्रों की ओर दिया जाए जहां मरुस्थलीकरण का प्रभाव सर्वाधिक दृष्टिगोचर होता हो। मरुस्थलीकरण से निपटने के किसी भी कार्यक्रम में स्थानीय समुदायों की सक्रिय भागीदारी अनिवार्य मानी जानी चाहिए। मरुस्थलीकरण एक विश्वव्यापी समस्या है और इसलिए सभी देशों को मिलकर उसका सामना करना चाहिए। इसमें गैरसरकारी संगठनों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। स्पष्ट ही मरुस्थलीकरण के विरुद्ध सबसे सफल रणनीति वह होगी जिसमें स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय समुदाय, राष्ट्र सरकारें और गैरसरकारी संगठन सब साथ मिलकर काम करें।
 

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