Wednesday, June 17, 2009

एल निनो और भारतीय मानसून

इस बार देश के अनेक भागों में मानसून के आगमन में देरी हो रही है और लोगों की चिंता बढ़ रही है। भारत अभी भी कृषि प्रधान देश है और भारतीय कृषि अब भी मानसून पर ही आधारित है। सिंचाई आदि की व्यवस्था सर्वत्र उपलब्ध नहीं है। उद्योग भी कृषि के अच्छे परिणाम पर ही निर्भर हैं। न केवल कृषि से उद्योगों को कच्चा माला प्राप्त होता है, कृषि से हुई आमदनी से ही लोग औद्योगिक उत्पाद खरीदते हैं। इसलिए यदि कृषि चौपट हो जाए, तो उद्योग भी टिके नहीं रह सकेंगे।

यद्यपि मौसम शास्त्रियों ने इस बार सामान्य मानसून की भविष्यवाणी की है, मानसून देश के कई भागों में अब भी नहीं पहुंचा है। मौसमशास्त्रियों का मानना है कि इसका मुख्य कारण अभी कुछ दिन पहले बंगाल की खाड़ी में आए आयलो नामक चक्रवाती तूफान है जिसने उत्तर भारत में बने निम्न दाबीय क्षेत्र को छिन्न-भिन्न कर दिया। अब नए सिरे से निम्न दाबीय क्षेत्र बनने पर ही मानसूनी हवा उत्तर भारत में फैल सकेगी।

मानसून की अनियमितता का एक अन्य कारण भी हो सकता है, जो है एल निनो। आपने अखबारों में इसके संबंध में छिट-पुट रिपोर्टें पढ़ी होंगी। इस साल एल निनो के क्षीण संकेत मिल रहे हैं, जिसका भी मानसून के रुक जाने से संबंध हो सकता है। क्या है यह एल निनो? आइए, समझते हैं।

दक्षिण अमरीका के तटों को प्रभावित करने वाली एल निनो नामक जलवायवीय परिघटना से भारत की मानसूनी वर्षा का गहरा संबंध है। एल निनो भी भारत में पड़नेवाले सूखे के समान रह-रहकर तीन-चार सालों में एक बार प्रकट होता है। जब भी भारत में विस्तृत सूखा पड़ा है, पेरू में भी एल निनो प्रभाव देखा गया है। लेकिन इसकी विपरीत की स्थिति नहीं देखी गई है, यानी हर बार जब एल निनो सक्रिय हो, भारत में सूखा नहीं पड़ता है। इसी कारण मौसम शास्त्रियों को एल निनो में गहरी रुचि है। यदि वे एल निनो की प्रक्रिया को और भारतीय मानसून के साथ उसके संबंधों को सटीकता से समझ सकें, तो भारत में पड़नेवाले सूखे का पूर्वानुमान कर सकते हैं, जिससे भारतीय कृषि को भारी फायदा पहुंच सकता है। खराब बारिश के समय रहते सूचना मिलने से किसान सूखे को बर्दाश्त करनेवाली फसलें बो सकते हैं, और पानी की अधिक मांग करनेवाली फसलों को बोने से होनेवाले नुकसान को बचा सकते हैं।

एल निनो जब सक्रिय होता है तो पेरू के पश्चिमी तटों पर पवन की दिशा एकाएक बदलकर समुद्र से जमीन की ओर हो जाती है। अन्य समयों में पवन का बहाव जमीन से समुद्र की ओर रहता है। इस परिवर्तन से वहां के तटीय पारिस्थितिकीय तंत्र पर बहुत बुरा असर पड़ता है।

पेरू के तटीय समुद्रों का जल जीवन गहरे समुद्र के गरम जल के सतह की ओर उठ आने पर निर्भर करता है। इस जल में पोषक तत्व घुले हुए होते हैं और अनेक प्रकार की मछलियां पेरू के तटों की ओर खिंच आती हैं। इन मछलियों पर पेरू की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ अनेकानेक पशु-पक्षी भी अवलंबित हैं, खासकर के जलपक्षी। ये जलपक्षी तट के किनारे के चट्टानों पर लाखों की संख्या में घोंसला बनाते हैं और उनकी बीट की मोटी तह वहां जमा हो जाती है। इस बीट में नाइट्रोजन की मात्रा बहुत अधिक होती है और उसे खेतों में खाद के रूप में उपयोग किया जा सकता है। पेरूवासी इस बीट का खनन करके उसे दूसरे देशों को निर्यात करते हैं। बीट का निर्यात उनके लिए आमदनी का एक महत्वपूर्ण स्रोत है।

एल नीनो की प्रक्रिया इस प्रकार होती है। सामान्यतः समुद्र की सतह पर पानी निचले स्तरों की तुलना में अधिक गरम रहता है क्योंकि वह सूरज की गरमी सोखता रहता है। लेकिन पेरू के तटों के समुद्र में इससे थोड़ी भिन्न स्थिति पाई जाती है। पूरू के भूभाग से समुद्र की ओर बहनेवाली हवाएं सतह जल को अपने आगे ठेलती जाती हैं, जिससे इस गरम जल-स्तर के नीचे मौजूद ठंडे जल को ऊपर उठ आने का मौका मिल जाता है। इस ठंडे जल में पोषक पदार्थ भारी मात्रा में रहते हैं। इससे मछलियों, जल-पक्षियों आदि के वारे-न्यारे हो जाते हैं, और वे खूब फलते-फूलते हैं। पेरू के आसपास के समुद्र इसी कारण दुनिया के सर्वाधिक उत्पादनशील पांच स्थानों में से एक माना गया है।

जब एल नीनो प्रभाव शुरू होता है, तो हवा की दिशा बदलकर समुद्र से पेरू के भूभाग की ओर हो जाता है। यह हवा समुद्र की सतह पर मौजूद गरम पानी को तट की ओर ढकेल देती है। यह गरम पानी कई किलोमीटर क्षेत्र में एक मोटी चादर के रूप में फैल जाता है। गरम जल की यह चादर निचले समुद्र से गरम एवं पोषक जल को ऊपर उठने नहीं देती। इस का परिणाम बहुत ही भयानक निकलता है। पोषक तत्वों के अभाव में मछलियां अन्यत्र चली जाती हैं और उन पर निर्भर मनुष्य एवं जीव-जंतु तबाह हो जाते हैं। एल निनो वाले वर्ष में लाखों समुद्री पक्षी भूख से मर जाते हैं। समुद्र से बह आनेवाली नम हवा तटीय इलाकों में भारी वर्षा भी लाती है। यह इलाका सामान्यतः बहुत कम वर्षा पाता है और अचानक आई वर्षा का परिणाम भयंकर एवं विध्वंसकारी बाढ़ होती है। एल निनो एक साल तक सक्रिय रहता है। उसका प्रभाव दिसंबर के महीने में चरम सीमा पर पहुंचता है।

मौसमशास्त्री एल निनो का बारीकी से अध्ययन कर रहे हैं। उनके अनुसार यह परिघटना वायुमंडल के सामान्य संचरण में बड़े पैमाने पर खलबली मचने का परिणाम है। देखा गया है कि एल निनो भारतीय सूखे के बाद प्रकट होता है। यदि एल निनो का आठ-दस महीने पूर्व अनुमान हो सके तो इससे भारत में पड़नेवाले सूखे की भी पूर्वसूचना मिल सकती है।

1 comments:

गर्दूं-गाफिल said...

बालसुब्रमण्यम साहब
अलका जी की कविता पर आपकी विद्वत्ता पूर्ण टिप्पणी ने आप के ब्लॉग तक पहुंचा दिया एल नीनो और भारतीय मानसून पर आपके द्वारा प्रदत्त जानकारी स्तरीय है .बधाई

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