Thursday, September 3, 2009

गिद्धों को खाते हैं बपाटला के लोग

खाने के मामले में सहमति प्राप्त करना मुश्किल होता है। जिसे कुछ लोग बड़े चाव से खाते हैं, उसका नाम भर सुन लेने से दूसरे लोगों को कय होने लगता है। फ्रांस के लोग मेंढ़क के पैरों को बड़े उत्साह से खाते हैं, पर क्या आप या मैं इस बेहूदी चीज को मुंह में लाएंगे? एक दूसरा उदाहरण गिद्ध हैं। चाहे आप जितने बड़े पेटू हों, गिद्ध के नाम से आपकी भूख हवा हो जाएगी। ''शव खानेवाले ये घिनौने पक्षी भी कहीं खाने की चीज हो सकते हैं, छि! छि! छि!'', आप घृणा से कह उठेंगे।

यही सवाल आंध्र प्रदेश के बपाटला कसबे के बांदा आदिवासियों से पूछ कर देखिए, उत्तर आपको हां में मिलेगा। उनके लिए गिद्ध वैसे ही खाने लायक चीज है जैसे हममें से कुछ लोगों के लिए मुर्गी! बांदा गिद्ध को ही नहीं, बल्कि कौए जैसे अन्य शवभोजी पक्षियों को भी खाते हैं। खाने के मामले में उनकी पसंद-नापसंद इतनी विलक्षण है कि बत्तख, क्रौंच, हंस आदि पक्षियों को, जिन्हें हम खाने योग्य मानते हैं, ये लोग छूते भी नहीं हैं। ये पक्षी इनके गांवों में खूब संख्या में पाए जाते हैं।

किसी भी गांव या शहर में गिद्ध स्थिर पंखों पर बहुत ऊंचे चक्कर काटते हुए या मरे जानवरों पर भीड़ लगाते हुए दिख जाएंगे। परंतु बपाटला के चारों ओर लगभग 50 किलोमीटर की दूरी तक आपको गिद्ध बिरले ही मिलेंगे। आपका अनुमान सही था। बांदा लोगों ने उन सबको चट कर लिया है।

मजे की बात यह है कि बांदा लोगों ने गिद्ध खाना हाल ही में शुरू किया है। पच्चीस वर्ष पहले बपाटला में भी गिद्ध अन्य जगहों के ही समान पाए जाते थे। किसी को नहीं मालूम कि इन लोगों ने गिद्धों को क्यों खाना शुरू किया।

बांदा वासी गिद्धों को बड़े-बड़े जालों में पकड़ते हैं। बहुत ही मजबूत धागे से बने और लकड़ी के चौखट पर तने ये जाल एक-साथ दस गिद्धों को पकड़ सकते हैं। जाल के छेद बैडमिंटन के जालों के छेद जितने बड़े होते हैं। चमर गिद्ध (वाइटबेक्ड वल्चर), राजगिद्ध (किंग वल्चर) और गोबर गिद्ध (स्केवेंजर वल्चर), गिद्धों की ये तीनों सामान्य जातियां इनका शिकार बनती हैं।

बांदा गिद्धों के घोंसलों से अंडों और चूजों को भी चुराते हैं। इनके लिए वे ऊंचे चट्टानों पर चढ़ जाते हैं जहां ये घोंसले होते हैं। गिद्ध इन मानव शत्रुओं से इतने डरते हैं कि उन्होंने बांदा इलाकों में घोंसला बनाना ही छोड़ दिया है। यहां पिछले दस वर्षों में एक भी घोंसला नहीं मिला है।

इस विचित्र पसंद का एक नकारात्मक पहलू भी है। बपाटला के गांवों में आपको जगह-जगह मरे जानवर पड़े-पड़े सड़ते और दुर्गंध फैलाते मिलेंगे, क्योंकि उन्हें खाने के लिए गिद्ध वहां नहीं हैं।

Wednesday, September 2, 2009

जटिंगा का रहस्य

असम के एक छोटे-से पहाड़ी गांव जटिंगा में हर साल अगस्त-अक्तूबर के दरमियान एक विचित्र एवं रहस्यमयी घटना घटती है, जिसने विश्वभर के वैज्ञानिकों को चकित कर रखा है।

कुछ विशेष परिस्थितियों में जटिंगा में रात में जलाए गए किसी भी रोशनी की ओर बीसियों पक्षी आकर्षित होकर आते हैं, कुछ-कुछ वैसे ही जैसे अन्य जगहों में दिए की ओर पतंगे आते हैं। पक्षियों के आकर्षित होने के लिए निम्नलिखित परिस्थितियों का होना जरूरी हैः- अमावास की रात हो, हल्की बारिश गिर रही हो, धुंध छाया हुआ हो और हवा का बहाव दक्षिण से पश्चिम की ओर हो। पक्षियों का यह अनोखा व्यवहार केवल जटिंगा में देखा जाता है, आसपास के अन्य गांवों में नहीं।

ये पक्षी जटिंगा के स्थानीय पक्षी नहीं होते हैं और इन्हें दिन के समय में शायद ही कभी देखा जाता है। लगभग 45 जातियों के पक्षी रोशनी की ओर आकर्षण महसूस करते हैं। इनमें से अधिकांश जलपक्षी हैं। ये अपना घोंसला जमीन पर ही अथवा छिछले पानी में बनाते हैं।

इतने सारे पक्षी जटिंगा की रोशनियों की ओर खिंचाव क्यों महसूस करते हैं और केवल जटिंगा की रोशनियों की ओर ही क्यों? इसका उत्तर अब भी ठीक-ठीक ज्ञात नहीं है, परंतु इसमें जटिंगा की भौगोलिक एवं मौसमी विशेषताओं और पक्षियों की नीड़न एवं प्रवसन गतिविधियों का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है।

जटिंगा एक पठार पर स्थित है। असम के उत्तर कछार पहाड़ी जिले में स्थित यह पठार बोराइल पर्वत माला से दक्षिण-पश्चिम दिशा में निकला हुआ है। सारा क्षेत्र घने वनों से आच्छादित है और नदी-नालों और ऊबड़-खाबड़ प्रदेशों से भरा है। अगस्त-अक्तूबर के दौरान इस इलाके में भारी मानसूनी वर्षा होती है, जिसकी शुरुआत अप्रैल से ही हो जाती है सितंबर और अगस्त महीनों में तो जटिंगा में अधिकांश समय बारिश होती रहती है और आर्द्रता 85-90 प्रतिशत जितनी रहती है। लगभग निरंतर प्रबल हवाएं चलती रहती हैं। जटिंगा गहरे धुंध में समाया रहता है। आसपास के सभी निचाईवाले इलाके पानी से भर जाते हैं।

निरंतर बारिश और नीड़न स्थलों में पानी भर जाने के कारण जलपक्षियों को घोंसले त्यागकर सुरक्षित स्थानों की खोज में निकलना पड़ता है। सुरक्षित स्थानों की खोज में ये पक्षी किसी निश्चित योजना के अनुसार नहीं निकल पड़ते, जैसा कि वे प्रवास यात्रा के दौरान करते हैं। यह इस बात से स्पष्ट है कि वे पक्षी भी जो साधारणतः झुंडों में रहते हैं, जटिंगा की ओर एक-दो करके ही आते हैं।

पक्षी नदियों, घाटियों और नालों के ऊपर-ऊपर उड़ आते हैं। संभवतः ये ही सर्वाधिक सुगम मार्ग होते हैं। धुंध और बारिश के कारण वे दिग्भ्रमित हो जाते होंगे और अंधेरी रात में दिखाई पड़ने वाली किसी भी रोशनी की ओर बढ़ चलते होंगे। जटिंगा कुछ ऊंचाई पर स्थित है। इसलिए वह पक्षियों के उड़ान मार्ग में अवरोध बनकर आता होगा। खराब मौसम से परेशान पक्षी जटिंगा में पड़ाव डालने के लिए विवश हो जाते होंगे।

रोशनी की ओर पक्षियों का आकर्षण विश्व के अन्य भागों में भी देखा गया है। उदाहरण के लिए अनेक तटीय इलाकों में प्रवासी पक्षी दीपस्तंभों की प्रबल रोशनी से आकर्षित होकर उनसे टकरा जाते हैं। सुप्रसिद्ध पक्षीविद डा सलीम अली ने अपनी आत्मकथा "द फॉल ऑफ ए स्पैरो" में जर्मनी के हेलिगोलोड नामक स्थान का उल्लेख किया है जहां अक्सर ऐसे हादसे होते हैं। संभवतः जटिंगा का प्रसंग भी ऐसी ही कोई घटना है।

Tuesday, September 1, 2009

औषधों की खान नीम

नीम गहरी जड़ वाला, मध्यम ऊंचाई का, साल भर हरा रहनेवाला और मध्यम तेजी से बढ़नेवाला वृक्ष है। उसकी ऊंचाई 18 मीटर तक होती है। उसका ऊपरी घेरा गोलाकार या अंडाकार होता है। उसकी छाल मोटी और भूरे रंग की होती है और अंदर की लकड़ी लाल रंग की होती है।

नीम हर प्रकार की जमीन में अच्छी प्रकार से उग सकता है। उसकी जड़ें काफी गहराई से पानी और पोषक तत्व प्राप्त करने में सक्षम होती हैं। नीम क्षारयुक्त जमीन में भी पैदा हो सकता है। किंतु जहां पानी भरा रहता हो, वहां वह नहीं होता। सूखी जलवायु उसे पसंद है। वह बहुत अधिक ठंड और गरमी (0-45 डिग्री सेल्सियस तक) भी सहन कर सकता है। 1500 मीटर तक की ऊंचाई और 450-1150 मिलीमीटर वर्षा वाले क्षेत्र में वह होता है।

नीम पर सफेद फूल मार्च से अप्रैल के बीच आते हैं। इन फूलों से निंबोली तैयार होती है। कच्ची निंबोली हरे रंग की होती है और पकने पर पीले रंग की हो जाती है। निंबोलियां जून में झड़ जाती हैं। इन निंबोलियों से नीम के बीज प्राप्त होते हैं। ये बीज दो-तीन सप्ताहों तक ही स्फुरण करने की क्षमता बनाए रख पाते हैं। इसलिए हर वर्ष बीजों को नए सिरे से इकट्ठा किया जाता है। ताजे बीजों को कुछ दिनों तक धूप में सुखा लेने से उनकी स्फुरण क्षमता बढ़ती है। बोने के पांच वर्ष बाद पेड़ पर निंबोलियां आने लगती हैं। एक वृक्ष हर वर्ष 50-100 किलो निंबोलियां पैदा कर सकता है। नीम से एक हेक्टेयर में आठ वर्ष बाद 20 से 170 घन मीटर लकड़ी मिलती है।



नीम की लकड़ी का ईंधन के तौर पर उपयोग होता है। वह बहुत सख्त, मजबूत और टिकाऊ होती है, उसे कीट भी नहीं लगते। इस कारण उससे मकान, मेज-कुर्सी और खेती के औजार बनाए जाते हैं। नीम की हरी और पतली टहनियों से दातुन किया जाता है। नीम के पत्तों का हरी खाद के रूप में भी उपयोग होता है। नीम के पत्तों और बीजों में ऐजिडिरेक्ट्रिन नाम का रसायन होता है जो एक कारगर कीटनाशक है। मच्छर भगाने के लिए नीम के पत्तों का धुंआ किया जाता है। कीटों से अनाज की रक्षा के लिए अनाज की बोरियों और गोदामों में नीम के पत्ते रखे जाते हैं। नीम के गोंद से अनेक दवाएं बनाई जाती हैं। नीम के फल से बीज निकालने के बाद जो गूदा बचता है उसे सड़ाकर मिथेन गैस तैयार की जाती है, जिसे ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

नीम के बीजों में करीब 40 प्रतिशत तेल होता है। यह तेल दिए जलाने में, साबुन, दवाइयां कीटनाशक आदि बनाने में और मशीनों की आइलिंग में काम आता है। तेल निकालने के बाद बची खली पशुओं को खिलाई जा सकती है। नीम की छाल में जो टेनिन पाया जाता है उससे चमड़ा पकाया जा सकता है।

नीम आज अंतरराष्ट्रीय विवाद का कारण बना हुआ है। अमरीका की एक कंपनी ने उसके बीजों में मौजूद ऐजिडेरिक्ट्रिन नामक पदार्थ से एक टिकाऊ कीटनाशक बनाने की विधि को पेटेंट कर लिया है। भारत के अनेक वैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ता इससे बहुत नाराज हैं क्योंकि वे कहते हैं कि भारत के किसान सदियों से नीम के बीजों से प्राप्त तेल से कीटों को मारते आ रहे हैं, इसलिए अमरीका की इस कंपनी द्वारा नीम को पेंटट करना अनैतिक है। यह एक प्रकार से भारतीय किसानों के परंपरागत ज्ञान की चोरी है।
 

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