Sunday, July 5, 2009

मनुष्य का बराबर का साथी घोड़ा

पालतू किए गए सभी जानवरों में से केवल घोड़े को मनुष्य बराबरी की हैसियत देता है, क्योंकि घोड़ा युद्ध जैसे गंभीर मामलों से लेकर यातायात, सैर-सपाटा, खेती-बाड़ी, खेल-कूद, धर्म-कर्म, शिकार-मनोरंजन आदि सभी गतिविधियों में शरीक होता है। प्राचीन काल में अनेक क्षेत्रों में मनुष्य की सफलता-विफलता उसके घोड़े की शक्ति, बुद्धि एवं कुशलता पर निर्भर करती थी। इसलिए मनुष्य घोड़े को बहुत सम्मान देता था। चूंकि घोड़े सदा मनुष्यों के साथ रहते थे और काम करते थे, वे अपने मालिकों की बहुत सी आदतों को जान लेते थे। उनके मालिक भी उनके स्वभाव के बारे में काफी कुछ जानकारी प्राप्त कर लेते थे। इससे दोनों में एक खास तरह का रिश्ता और सम्मान की भावना पनपने लगती थी।

ऐसे बहुत कम जानवर होंगे जिन्होंने घोड़े के समान इतिहास में स्थान पाया हो। महाराणा प्रताप के शौर्य पराक्रम का उल्लेख आते ही उनके चेतक का भी सहसा स्मरण किया जाता है। सिकंदर का बुसिफालस नामक घोड़ा उसके सभी अभियानों में उसके साथ रहा। वह सिकंदर जितना ही साहसी और शक्तिशाली था। झेलम नदी के किनारे राजा पोरस के साथ हुए घमासान युद्ध के बाद बुसिफालस की मृत्यु हो गई। अपने प्रिय घोड़े के मरने से सिकंदर उतना ही दुखी हुआ जितना किसी बहुत प्यारे मनुष्य-मित्र के चल बसने पर होता। उसने बुसिफालस की याद में एक शहर बसाकर उसका नाम बुसिफाला रखा।

आर्य जाति के लोग आर्यावर्त के विशाल भूखंड पर अपने शक्तिशाली घोड़ों की सहायता से ही फैल पाए। वेद जैसे प्राचीन ग्रंथों में अनेक स्थलों पर घोड़ों का उल्लेख हुआ है। महाभारत युद्ध में कृष्ण ने अर्जुन के रथ के साथ जुते अश्वों के कुशल संचालन से पांडवों को विजयी बनाया। पांडवों में से नकुल और सहदेव अश्वपालन में बहुत कुशल थे।

प्राचीन काल में बिना युद्ध किए दिग्विजय करने के लिए राजा लोग अश्वमेध यज्ञ करते थे। वे अपने अस्तबल के सबसे बलिष्ठ घोड़े को स्वच्छंत विचरने के लिए खोल देते थे। उस घोड़े के साथ सेना भी चलती थी। घोड़ा किसी भी राज्य में घुस जाता था। यदि कोई उसे पकड़ने की कोशिश करता तो सेना उसे युद्ध के लिए ललकारती थी।

गंगाजी के भूलोक में अवतरण के पीछे भी घोड़े का हाथ है। राजा सगर ने अश्वमेध का घोड़ा मुक्त किया तो उसे इंद्र ने चुराकर पाताल लोक में महाविष्णु कपिलदेव के पास छोड़ दिया। सगर के 60 हजार पुत्र घोड़े को खोजते-खोजते कपिलदेव के पास पहुंचे। उस समय कपिलदेव ध्यान मग्न अवस्था में थे। घोड़े को उनके पास देखकर सगर के पुत्र समझ बैठे कि कपिलदेव ने ही उसे चुराया है और उन्हें बुरा भला कहने लगे। इससे कपिलदेव की समाधि टूटी और गुस्से में आकर उन्होंने जो हुंकार भरी, उससे सगर के सारे पुत्र जलकर राख हो गए। इसके अनेक साल बाद सगर के ही वंशज भगीरथ ने दैवलोक से गंगाजी को पृथ्वी पर लाकर राख में बदले अपने पूर्वजों को मोक्ष दिलाया।

भगवान श्री राम सगर के इसी कुल में पैदा हुए। रावण वध के बाद उन्होंने भी एक बार अश्वमेध यज्ञ किया और तब उनके द्वारा छोड़े गए घोड़े को उनके ही जुड़वे पुत्र लव-कुश ने कैद कर लिया। हनुमान और लक्ष्मण जैसे रणवीर भी उनसे घोड़ा छुड़ाने में असफल रहे और स्वयं राम को आना पड़ा। पुराणों के अनुसार सूर्य भगवान के रथ के साथ सात तीव्रगामी अश्व जुते हुए हैं, जो शायद इंद्रधनुष के सात रंगों के प्रतीक हैं। जब क्षीर सागर का मंथन हुआ तब उसमें से जो अनेक दिव्य पदार्थ निकले उनमें से एक घोड़ा भी था। घोड़े को लेकर इस प्रकार की अनेक कथाएं हमारे वेद-पुराणों में मौजूद हैं, जिससे यही पता चलता है कि घोड़ा हमारे पूर्वजों लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण पशु था।

घोड़ा मनुष्य के लिए इतना महत्वपूर्ण होते हुए भी उसे उसने कुत्ते, बकरी, गाय आदि को पालतू बनाने के बहुत दिनों बाद पालतू बनाया। सबसे पहले चीन में आज से हजारों साल पहले घोड़े पालतू बनाए गए। चीन के उत्तरी इलाकों के विस्तृत खुले मैदानों में घोड़े की जंगली जातियां रहती हैं। ईसा पूर्व 2000 की चित्रकला, मिट्टी के बर्तनों और अन्य कलाकृतियों में घोड़ों को दर्शाया गया है। पालतू घोड़ों का उपयोग सबसे पहले रथों को खींचने के लिए किया गया। मनुष्य ने घोड़े की सवारी करना लगाम, जीन आदि के आविष्कार के बाद ही सीखा।

घोड़ों का सबसे अधिक उपयोग युद्ध में हुआ है। टैंकों और जीपों के पहले सैनिकों को तेजी से एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए और शत्रु पर झपट पड़ने के लिए घोड़ों का उपयोग होता था। युद्ध में घोड़ों के उपयोग की कला में सबसे प्रवीण मध्य एशिया के कबीले थे। इन्हीं कबीलों में से एक के सरदार चंगेस खान ने मध्य युग में समस्त एशिया और यूरोप पर कब्जा जमा लिया था। इस दिग्विजय में उसके चुस्त दुरुस्त घोड़ों की निर्णायक भूमिका रही थी।

इसी प्रकार स्पेनवासी समस्त दक्षिण अमरीका पर घोड़ों की सहायता से ही कब्जा कर पाए। आज वहां जो लाखों घोड़े पाए जाते हैं, वे सब आज से चार-पांच सदी पहले स्पेनियों द्वारा यूरोप से जहाजों में भरकर वहां लाए गए घोड़ों के वंशज हैं। अमरीका के दोनों महाद्वीपों में प्राकृतिक रूप से घोड़े नहीं पाए जाते। जब यूरोपियों ने उत्तरी अमरीका के विशाल मैदानों में कृषि एवं पशुपालन करना शुरू किया तो घोड़ों ने इसमें उनकी बहुत मदद की। वहां के काउबॉय नामक अश्वारोहियों के साहस-पराक्रम पर अनेक पुस्तकें और फिल्में बनी हैं।

यों तो पालतू घोड़ों की अनेक नस्लें हैं, पर सबसे प्रसिद्ध अरब के घोड़े हैं। वे ईरान और अरब प्रायद्वीप में मूल रूप से पाए जाते हैं और इस्लाम धर्म के साथ विश्वभर में फैल गए। उनका शरीर छरहरा और खाल चिकनी होती है। खाल के नीचे नसें और पेशियां उभरी रहती हैं। सिर छोटा होता है। गर्दन घुमावदार होती है। वे काफी सहनशील और चुलबुले स्वभाव के होते हैं। आजकल घुड़दौड़ में जो घोड़े दौड़ाए जाते हैं, वे इसी नस्ल से विकसित किए गए घोड़े हैं। छोटी दूरियों के लिए वे आसानी से 60 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से दौड़ सकते हैं। आठ मीटर के फासलों को छलांग लगाकर पार करना उनके लिए मामूली बात है। वे 18 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से लगातार 150-200 किलोमीटर की दूरी तय कर सकते हैं। इसे देखते हुए यह समझना कठिन नहीं है कि मध्य युगों में जब न तो रेलें थीं न मोटरकारें, यातायात एवं सूचना-विनिमय में घोड़ों की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण थी।

भार खींचने में भी घोड़ा अद्भुत क्षमता रखता है। जिस प्रकार भारत में हल और गाड़ी खींचने के लिए बैलों का उपयोग होता है, उसी प्रकार यूरोप के ठंडे इलाकों में कृषि में और सामान की ढुलाई के लिए घोड़े उपयोग किए जाते थे। ये घोड़े एक भिन्न नस्ल के घोड़े थे। पहले इस नस्ल के घोड़ों का उपयोग युद्ध में होता था। यूरोप में उस समय योद्धा धातु के भारी-भरकम कवच पहनकर लंबे-लंबे भालों से युद्ध करते थे। इन भारी-भरकम कवचधारी योद्धाओं को नाइट कहा जाता था। उनके और उनके भारी कवच के भार को साधारण घोड़े संभाल नहीं सकते थे। इसलिए विशेष प्रकार के भारी एवं अधिक शक्तिशाली घोड़े विकसित किए गए। एसे घोड़ों को चार्जर कहा जाता था और यूरोपीय इतिहास में उनका बहुत महत्व है। बाद में कवचधारी योद्धाओं का प्रचलन बंद हो गया। तब इस तरह के शक्तिशाली घोड़ों को कृषि में और वाहन खींचने में लगाया गया। ये घोड़े बहुत ही विशाल आकार के होते हैं और उतने ही शक्तिशाली भी। उनके बाल लंबे और खुरदुरे होते हैं। वे अत्यंत शांत स्वभाव के होते हैं, कुछ-कुछ हमारे यहां के बैलों के समान।

जंगली अवस्था में घोड़े छोटे झुंडों में विचरते हैं जिनमें एक नर, अनेक घोड़ियां और उनके बच्चे होते हैं। नर झुंड का नेतृत्व करता है। वह अन्य नरों को झुंड में रहने नहीं देता और उन्हें दूर खदेड़ देता है। ये नर झुंड से कुछ दूर अलग से विचरते हैं और सरदार को हराकर झुंड को हथियाने या उसकी कुछ घोड़ियों को चुराने की फिराक में रहते हैं।

जिस खुले प्रदेश में घोड़ा रहता है, वहां उसका मुख्य शत्रु भेड़िए होते हैं। जब भेड़िए आते हैं तब कई बार नर सरदार आगे बढ़कर उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेता है और उन्हें झुंड से दूर ले जाता है। पीछे रह गई घोड़ियां एक वृत्त बना लेती हैं और बच्चों को बीच में रख लेती हैं। यदि नर झुंड के साथ रहा तो वह भेड़ियों पर झपट कर उन्हें तितर-बितर करने की चेष्टा करता है। इसके लिए वह पीछे के पैरों पर खड़ा होकर आगे के पैरों से प्रहार करता है। कभी-कभी झुंड से अलग किए गए अवयस्क नर भी उसकी सहायता के लिए आ जाते हैं। घोड़े आत्मरक्षा करते हुए दुलत्ती भी झाड़ते हैं और अपने आगे के बड़े-बड़े कृंतक दांतों से काटते भी हैं।

जब झुंड चर रहा होता है, तो सरदार कभी-कभी किसी ऊंची जगह पर चढ़कर चारों ओर दृष्टि घुमा लेता है। पानी पीते समय घोड़ियां और उनके बच्चे सबसे पहले जलाशय में उतरते हैं। नर सरदार अलग खड़ा रहकर पहरा देता है। जब वे सब पी चुके होते हैं, तब नर पानी पीता है।

सुस्ताते समय घोड़े एक वृत्त बनाकर खड़े हो जाते हैं। उनका मुंह वृत्त के अंदर की ओर रहता है और पूंछ बाहर की ओर। बच्चे वृत्त के अंदर रहते हैं। इससे झुंड को हिंस्र पशुओं से सुरक्षा मिल जाती है। सभी घोड़ों के एक साथ पूंछ हिलाने से मक्खी आदि कीड़े भी उन्हें अधिक परेशान नहीं कर पाते। बीच में बैठे बच्चों को न केवल सुरक्षा का एहसास होता है, बल्कि चारों ओर खड़े बड़े घोड़ों के शरीर की गरमी के कारण उन्हें मैदानों की कड़ाके की ठंड से भी राहत मिलती है। जब बर्फ की आंधियां आती हैं, तब भी घोड़े इस प्रकार वृत्त बनाकर खड़े होकर आंधी के थपेड़ों को झेलते हैं।

हाथियों के समान घोड़े भी खड़े-खड़े सो सकते हैं, यद्यपि लेटकर सोने में भी उन्हें कोई परहेज नहीं है। उनका गर्भाधान काल लगभग 336 दिन होता है। घोड़ी रात को ही ब्याती है। सामान्यतः घोड़े 25-30 साल जीवित रहते हैं। अमरीकी सेना का एक घोड़ा 44 साल जीवित रहा था। सबसे लंबी आयु प्राप्त घोड़ा 62 साल जिया।

घोड़ों की देखने की शक्ति कमजोर होती है, पर वे रंगों की पहचान कर सकते हैं। वे सुनने और सूंघने की शक्ति पर अधिक निर्भर करते हैं।

घोड़े खुले मैदानों के प्राणी हैं और घने जंगलों में अधिक नहीं जाते। खुले एवं विस्तृत मैदानों में रहने के कारण उनका दिशाज्ञान बहुत प्रबल होता है, वे आसानी से रास्ता नहीं भटकते। कई बार पालतू घोड़ों के सवार रास्ता भूल जाते हैं, पर उनके घोड़े उन्हें सही-सलामत घर पहुंचा देते हैं।


घोड़े की विकास यात्रा के पड़ाव

आज का शानदार एवं शक्तिशाली घोड़ा कुछ 5.5 करोड़ वर्ष पूर्व इस पृथ्वी पर प्रकट हुआ। तब वह कुत्ते के आकार का एक निरीह प्राणी था जिसके पैरों में उंगलियां थीं न कि खुर-- आगे के पैरों में चार उंगलियां और पीछे के पैरों में तीन। उसकी कंधे तक की ऊंचाई मात्र 38 सेंटीमीटर थी। लाखों वर्षों तक उसका विकास होता रहा और उसके आकार एवं शक्ति में वृद्धि होती रही। दौड़ने में सुविधा के लिए पैरों की उंगलियां खुर में बदल गईं। वास्तव में यह खुर बीच की ऊंगली का विकसित रूप ही है। बाकी ऊंगलियां लुप्त हो गई हैं। घोड़े को जिस रूप में हम आज जानते हैं, उस रूप में वह सर्वप्रथम मध्य एशिया के खुले विस्तृत घास के मैदानों में प्रकट हुआ।

मोटरकार के आविष्कार के बाद युद्ध, यातायात, कृषि आदि में घोड़ों का व्यावहारिक महत्व काफी घट गया है। फिर भी मनुष्य अपने प्रिय साथी को अंतिम विदाई देना नहीं चाहता। वह उसे घुड़-दौड़, खेल-कूद और शौक के नाम पर पालता है और उस पर प्यार बरसाता है।

1 comments:

Arvind Mishra said...

समग्र घोड़ा ब्लॉगशास्त्र
समुद्र मंथन से निकले घोडे का नाम उच्चैश्रवा था
घोडे खडे ही खडे सोते हैं

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