Saturday, May 30, 2009

वर्षाजल का संचय (रेनवाटर हारवेस्टिंग) -- जल संकट दूर करने का रामबाण उपाय

आज विश्व के हर भाग में मनुष्यों को पानी की कमी महसूस हो रही है। जरा इन तथ्यों पर गौर करें:-

  • एशिया के तीन में से एक व्यक्ति को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध नहीं है।
  • शहरी गरीबों में से 40 प्रतिशत को और कई ग्रामीण बस्तियों को सुरक्षित पेयजल नहीं मिलता।
  • पिछले सौ सालों में एशिया की आबादी 30 करोड़ से बढ़कर 135 करोड़ हो गई है। यद्यपि भारत जैसे कुछ एशियाई देशों में पिछले दो दशकों में जनसंख्या वृद्धि की दर में मामूली सी कमी देखी गई है, फिर भी मनुष्य की आबादी निरंतर बढ़ती जा रही है। इसका मतलब है पानी की मांग में निरंतर वृद्धि।
  • कृषि में उपोयग किए जानेवाले कुल पानी की तुलना में पानी का औद्योगिक उपयोग नगण्य है, फिर भी उद्योगों द्वारा प्रवाहित अपपदार्थों से मीठे जल के अनेक स्रोत दूषित हो रहे हैं, जिसका दूरगामी परिणाम हो सकता है।

पानी की मांग एक अन्य दिशा से भी आती है। यह है शहरी इलाके। ध्यान रहे कि विश्व की कुल आबादी का 50 प्रतिशत शहरों में रहता है। भारत की शहरी आबादी पिछले दो दशकों में लगभग 11 करोड़ से बढ़कर 22 करोड़ हो गई है, यानी लगभग दुगुनी। देश में ग्रामीण इलाकों से लोग निरंतर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।

शहरी इलाकों में रह रहे लोगों की जीवनशैलियों में आए परिवर्तन से रहन-सहन अधिक सुविधाजनक हो गया है, लेकिन बदली हुई जीवनशैलियां अधिक पानी की मांग भी करती हैं। जब नगरपालिकाओं द्वारा मुहैया कराया गया पानी अपर्याप्त साबित होता है, तो शहरी और अर्ध-शहरी इलाकों के निवासी भूजल का दोहन करने लगते हैं। इसका परिणाम होता है भूजल भंडारों का तेजी से खाली होना।

इससे देश में ऐसे अनेक क्षेत्र बन गए हैं जहां पानी की विकट कमी है।

शहरीकरण में आई तेजी से भूमि के उपयोग में भी अनेक परिवर्तन आए हैं। अब अधिकाधिक जमीन का उपयोग सड़कों, रेलमार्गों, भवनों, वाणिज्यिक केंद्रों, मनोरंजन और उद्योगों के लिए होने लगा है। भूमिगत जलभंडारों को भरने के लिए अब बहुत कम जमीन रह गई है।

कुल मिलाकर, इन सब कारकों का प्रभाव यह रहा है कि सतही और भूमिगत जलस्रोतों में उपलब्ध पानी निरंतर कम होता जा रहा है, और जो पानी उपलब्ध है, उसकी गुणवत्ता बिगड़ती जा रही है। आज पानी विभिन्न मानव समुदायों में असमान रूप से वितरित है। इसलिए यह निहायत जरूरी है कि हम मीठे जल के प्रमुख स्रोत, यानी वर्षाजल का, विवेकपूर्ण उपयोग करें।

वर्षा अत्यंत अनिश्तित है। कई जगहों में वह अपर्याप्त और परिवर्तनशील भी है। जहां राजस्थान में औसत वार्षिक वर्षा मात्र 200 मिलीमीटर है, तो असम में वह 12,000 मिलीमीटर है। लेकिन देश के लगभग सभी भागों में वर्षा होती है और उसे विकेंद्रीकृत रूप से संचित किया जा सकता है।

वर्षाजल के संरक्षण की अवधारण (रेनवाटर हारवेस्टिंग) 4,000 साल पहले के कांस्य युग से ही, यानी मानव सभ्यता के उषाकाल से ही, अस्तित्व में रही है। उस काल के समुदाय भी अपने मकानों की छतों से वर्षाजल को जमीन पर बने कुंडों में एकत्र करते थे।

राजस्थान जैसे कम वर्षावाले राज्यों में साल भर के लिए पेयजल की आपूर्ति हेतु जल-संरक्षण की विभिन्न प्रकार की स्थानीय प्रणालियां विकसित हुई हैं। इन प्रणालियों की बदौलत मनुष्यों और मवेशियों को वर्ष भर पीने का पानी मिलता रहता है। कई स्थानों में तो जल-संरक्षण की संरचनाएं मकान के मूल ढांचे का एक हिस्सा हुआ करती हैं।

सोलहवीं सदी में वर्षाजल का संचय विभिन्न प्रकार से होता था। मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थलों में तालाब और बावड़ियां सामुदायिक स्तर पर बनवाए जाते थे। समुदाय इन जलस्रोतों को पवित्र मानता था और उसे प्रदूषित होने नहीं देता था।

अनेक कारणों से ये स्थानीय परंपराएं तेजी से समाप्त हो रही हैं। अब समय आ गया है कि हम इन प्राचीन पद्धतियों को अपनाकर अपनी पेयजल समस्याओं का समाधान करें। ये पद्धतियां कम वर्षावाले इलाकों में ही नहीं, अपितु अधिक वर्षावाले इलाकों में भी कारगर हैं।

इमारत की मूल योजना में ही वर्षाजल संचयन की प्रणाली को शामिल करना अधिक किफायती साबित होता है। अनुभव सिद्ध करता है कि इमारत बनने के बाद उन्हें स्थापित करने में अधिक खर्चा आता है।

मकानों की छतों से संचित किया गया वर्षाजल बजरी और रेत की परत से छनकर एक टंकी में जमा होता है। इस टंकी से पानी को रसोईघर में पंप किया जाता है।

वर्षाजल का संचय रिहायशी मुहल्लों, व्यावसायिक इमारतों और कर्माचारी आवास भवनों में सफलतापूर्वक किया जाता है क्योंकि यहां सब बड़ी-बड़ी और विस्तृत छतें होती हैं। इन छतों से बह निकलनेवाला पानी नीचे की ओर जानेवाली पाइपों से एक अवसादन टंकी में जमा होता है। यहां से पानी एक पुनर्भराव (रीचार्ज) कुंड में जाता है। इसके बीच में एक गहरा कुंआ होता है। यह माडल गुजरात में पुलिस कर्मचारियों के आवासीय कालोनियों की इमारतों का एक अभिन्न अंग बन गया है।

शहरी इलाकों में बहुमंजिली इमारातें काफी सामान्य हैं। उनमें भी वर्षाजल संचित करके पेयजल का एक सुरक्षित स्रोत प्राप्त किया जा सकता है।

छतों से वर्षाजल विभिन्न पाइपों से एक आड़े फिल्टर से होकर गुजरती है। इससे छनकर आए पानी को एक टंकी में जमा किया जाता है, जहां से पंप करके उसे घरों तक पहुंचाया जाता है। अतिरिक्त पानी को गुरुत्वाकर्षण फिल्टर से भूमिगत जलभंडारों में भेजा जाता है।

ऐसी प्रणाली गुजरात के जलसेवा प्रशिक्षण संस्थान, गांधीनगर में स्थापित की गई है और वह इस संस्थान के कर्मचारियों को साल भर साफ पेयजल दे रही है।

चैक डैम बनाकर कृत्रिम रूप से भूजल भंडारों को भरकर भूजलस्तर को ऊपर उठाया जा सकता है। चैक डैमों के पीछे जमा हुआ वर्षाजल धीरे-धीरे भूमि के नीचे रिसता जाता है और चारों ओर के इलाके में जलस्तर को ऊपर उठाता है।

पानी की मांग और उसकी पूर्ति के बीच की खाई को पाटने में कृत्रिम तालाब महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गुजरात में सरगासना तालाब के द्वारा 3.3 करोड़ लिटर पानी भूमिगत जलभंडारों में पहुंचा, जिससे औसतन जलस्तर 3 मीटर ऊपर उठ आया।

यदि इस प्रकार के प्रयास क्षेत्रीय स्तर पर कुछ सालों तक किए जाएं, तो भूजल स्तर में काफी सुधार हो सकता है। सच तो यह है कि हर गांव, कस्बा और शहर में वर्षाजल संचित करने की भरपूर संभावनाएं मौजूद हैं।

रसोई के रहस्य

क्या आप जानते हैं कि भारत में उपयोग की जानेवाली कुल ऊर्जा का 50 प्रतिशत खाना पकाने में खर्च होता है? इसलिए रसोईघर में ऊर्जा की बचत करके आप ऊर्जा निर्यात करने में देश को आने वाले अरबों रुपयों का खर्च बचा सकते हैं और स्वयं भी लाभान्वित हो सकते हैं। नीचे दिए गए नुस्के रसोई ईंधन को अधिक कारगर ढंग से उपयोग करने में आपकी मदद करेंगे।

  • खाना पकाते समय बर्तन को ढककर रखें। इससे गरमी बर्तन के अंदर अधिक समाएगी और खाना जल्दी पकेगा।
  • पूरी आंच पर निरंतर खाना न पकाएं। जब तरल उबलने लगे तो आंच धीमी कर दें। यह आदत 40 प्रतिशत ईंधन बचा सकती है।
  • जब भी हो सके, गैस चूल्हे के छोटे बर्नर का ही उपयोग करें।
  • प्रेशर कुकर 75 प्रतिशत ईंधन और समय बचा सकता है।
  • खाना अल्युमिनियम के बर्तनों में स्टील के बर्तनों से अधिक जल्दी पकता है।
  • ईंधन का पूरा-पूरा उपयोग करने के लिए बर्तन का निचला भाग आंच के फैलाव जितना विस्तारवाला होना चाहिए।
  • पकाने की गतिविधि पूरी होने के कुछ मिनट पहले ही आंच बंद कर दें और बर्तन को ढक दें।
  • खाना पकाना आरंभ करने से पहले सभी आवश्यक वस्तुओं को सही मात्रा में निकालकर रख लें। इसके बाद ही चूल्हा जलाएं।
  • परिवार के सभी जन एक-साथ खाने की आदत डालें तो खाने को बार-बार गरम करने से बचा जा सकता है।
  • गैस चूल्हे के बर्नर के छिद्रों को साफ रखें। केरासिन स्टोव की बत्ती के जले अंशों को समय-समय पर कैंची से काटते रहें। इससे ईंधन बचेगा और बर्तन भी काले नहीं होंगे।
  • जो गृहणियां लकड़ी के चूल्हों पर खाना पकाती हैं, उन्हें धुंआ रहित चूल्हें आजमाकर देखना चाहिए। ये चूल्हें साधारण चूल्हों से कम लकड़ी जलाते हैं।
  • हमारे देश में साल के अधिकांश दिनों पर्याप्त धूप आती रहती हैं। इसका उपयोग खाना पकाने के लिए किया जा सकता है। आज बाजार में अनेक प्रकार के धूप-चूल्हे उपलब्ध हैं। इनके खरीदने पर सरकार आकर्षक छूट भी देती है। इनकी सहायता से चावल, दाल, सब्जी आदि पकाए जा सकते हैं। इनमें कोई ईंधन नहीं लगता, इसलिए ये काफी पैसा बचा सकते हैं। हां, इनकी एक खामी है, इन पर रोटी नहीं सेंकी जा सकती।

Friday, May 29, 2009

फोटो फीचर : प्रेम में पागल हाथी


अब इन हाथी महाशय पर हंसा जाए, या तरस खाया जाए, यह आप ही बताएं!

नागों का राजा नागराज



सचमुच ही विश्व का सबसे डरावना सांप नागराज है। पांच मीटर से भी अधिक लंबा यह फनधारी विषधर हाथी तक को डस कर मार सकता है। वह दुनिया का सबसे लंबा जहरीला सांप भी है। उसका बदन छरहरा और सिर संकरा होता है। हल्के हरे रंग के शरीर पर आड़ी-तिरछी लकीरें होती हैं। उसकी खाल चमकीली होती है। कंठ पीला अथवा नारंगी होता है। अवयस्क नागराज काले होते हैं। उनकी पीठ पर पीले छल्ले होते हैं। नागराज का फन गोल न होकर लंबा और चौकोर होता है।

नागराज भारत, मलेशिया, इंडोनीशिया, फिलिप्पीन्स, बर्मा और चीन में पाया जाता है। भारत में वह हिमालय की तलहटी, पश्चिम बंगाल के सुंदरबन, बिहार, असम, उड़ीसा, पश्चिमी घाट की पहाड़ियों और अंदमान निकोबार द्वीप समूह में मिलता है। वह एक बहुत दुर्लभ सर्प है और केवल घने, नम वनों में रहता है।

यद्यपि वह नाग के कुल का सर्प है, पर उसमें और नाग में अनेक भिन्नताएं हैं। नाग चूहे आदि जीवों को खाता है, जबकि नागराज लगभग पूर्णतः सर्पभक्षी है। नाग के ही समान नागराज में भी फन होता है, पर वह उसे नाग के जितना फैला नहीं सकता। फन फैलाकर नाग नृत्य करने के से लहजे में डोलता है, पर नागराज फन ऊपर उठाए गुस्से से घूरते हुए स्थिर खड़ा रहता है। नाग रेंगते समय फन को बंद कर लेता है, पर नागराज फन को जमीन से लगभग 1 मीटर ऊपर उठाए-उठाए आगे बढ़ सकता है। ऐसा करते हुए वह फुफकारता भी जाता है, जिससे वह बहुत ही डरावना लगता है। पर यदि बिना हिले-डुले चुपचाप खड़ा रहा जाए तो कई बार नागराज बिना कुछ किए ही आगे निकल जाता है।

नागराज का विषदंत लगभग 10 सेंटीमीटर लंबा होता है। उसके विशाल विष-थैलियों में 500 मिलीग्राम तक विष होता है। यद्यपि यह विष नाग या करैत के विष जितना असरकारक नहीं होता, फिर भी नागराज द्वारा डसे जाने पर शरीर में इतना अधिक विष चला जाता है कि मृत्यु अनिवार्य हो जाती है। नागराज द्वारा काटे गए व्यक्ति की 10-15 मिनट में ही मृत्यु हो जाती है। यहां तक कि हाथी तक तीन-चार घंटे में मर जाता है। जंगलों में काम कर रहे पालतू हाथी कई बार इसके डसने से मरे हैं। पर इस विशाल सांप द्वारा मनुष्य के काटे जाने की वारदातें बहुत कम होती हैं, क्योंकि यह सर्प बहुत कम संख्या में पाया जाता है और वह ऐसी जगहों में रहता है जहां मनुष्य नहीं होते।

नागराज दिन में अधिक सक्रिय रहता है। वह अत्यंत फुर्तीला और गुस्सैल स्वभाव का होता है। उसका मुख्य आहार अन्य सांप है, इसलिए उसका नाम "नागराज" सार्थक ही है। वह नाग और करैत जैसे जहरीले सांपों को भी खाता है। उनके विष का उस पर कोई असर नहीं होता। कभी-कभार वह गोहों को भी खाता है। सांपों को पकड़ने में उसका लंबा छरहरा शरीर काफी सहायक होता है। शिकार खोजते हुए वह पेड़ों और चट्टानों पर फुर्ती से चढ़ जाता है। उसे पानी में जाना भी अच्छा लगता है। आत्मरक्षा के लिए भी वह पानी में छिपता है।

मादा अंडों को सेने के लिए दो मंजिला घोंसला बनाती है। इसके लिए वह अपने शरीर के अग्र भाग से वन के फर्श पर पड़े सड़े-गले पत्तों और टहनियों को बुहार कर उनका ढेर लगाती है। फिर इस ढेर में वह दो कक्ष बनाती है। नीचे के कक्ष में वह अंडे देती है और ऊपर के कक्ष में स्वयं अंडों के ऊपर कुंडली मारकर बैठ जाती है। इन घोंसलों का व्यास लगभग एक मीटर होता है। मादा एक बार में 20-40 अंडे देती है। इन अंड़ों को विकसित होने के लिए दो-तीन महीने लगते हैं। इस पूरे दौरान मादा उनके ऊपर घोंसले पर ही बैठी रहती है। नर भी घोंसले के पास ही रहता है। इस तरह घोंसला बनाने का व्यवहार नाग कुल के किसी अन्य सर्प में नहीं पाया जाता।

सामान्यतः मई महीने में अंड़ों से संपोले निकलते हैं। वे अंधे होते हैं और लगभग 50 सेंटीमीटर लंबे होते हैं। उनकी विष-ग्रंथी पूर्ण विकसित होती है और उनके द्वारा डसे जाने पर डसे गए प्राणी की मृत्यु हो सकती है।

नागराज अत्यंत क्रुद्ध स्वभाव का सांप है। प्रजनन काल में वह और भी अधिक चिड़चिड़ा हो जाता है। उसके घोंसले के पास जाने वाले मनुष्यों और अन्य जानवरों पर वह झपट पड़ता है। एक बार एक नागराज की पूंछ के ऊपर से एक अंग्रेज ने अपनी कार चला दी। क्रुद्ध नागराज ने तुरंत फन उठाए उसकी कार का लगभग 100 मीटर तक पीछा किया। मोटरकार की खिड़की के ऊपर तक उसका फन उठ आया। घोंसले पर बैठी मादा के निकट कोई जाए तो वह जोर से फुफकारती हुई अपने शरीर के लगभग एक मीटर लंबे हिस्से को घोंसले से ऊपर उठा लेती है और फन फैलाकर कुत्ते की सी आवाज में गुर्राती है। जब कभी जंगलों में से गुजरने वाली सड़कों के किनारे नागराज घोंसला बना देता है, तब वन विभाग के कर्मचारी इन सड़कों को बंद कर देते हैं क्योंकि सड़क पर जाने वाले लोगों पर नागराज दंपति हमला करते हैं।

नागराज अन्य सांपों की तुलना में काफी बुद्धिमान होता है। चिड़ियाघरों में रखे गए नागराज काफी पालतू बन जाते हैं और उनकी देखरेख करने वाले चिड़ियाघर के कर्मचारी को पहचानने लगते हैं।

चित्र के बारे में

ऊपर के चित्र में जो नागराज दिखाया गया है, उसे गोवा में पकड़ा गया था। उसका वजन 16 किलो और लंबाई 12 फुट 3 इंच है। उसे संभाले हुए हैं, कृष्ण घुले।

Thursday, May 28, 2009

डरावने डायनोसर


डायनोसर पृथ्वी पर लाखों साल पहले रहते थे। वे आजकल के सरीसृपों (छिपकली, मगर, गोह आदि रेंगनेवाले जीवों) जैसे दिखते थे। वे अंडे देते थे। बहुत से डायनोसर कंगारू की तरह पिछली टांगों पर खड़े हो सकते थे।

डायनोसरों के युग में पृथ्वी पर अनेक प्रकार के सरीसृपों का बोलबाला था। कुछ जमीन पर विचरते थे, कुछ पक्षियों की तरह हवा में उड़ते थे और कुछ मछलियों की तरह पानी में रहते थे। जो सरीसृप जमीन पर पाए जाते थे, उन्हें ही डायनोसर कहा जाता है।

शायद डायनोसर थेकोडोन्ट नामक मांसाहारी छिपकली से विकसित हुए हैं। यह प्राणी आज से 25-30 करोड़ वर्ष पहले रहा करता था। वह छोटी छिपकलियों और कीटों को खाता था। उसके आगे की टांगें छोटी पर पीछे की लंबी और मजबूत थीं। उनके सहारे वह सीधा खड़ा हो सकता था और तेजी से दौड़ सकता था। उसकी ऊंचाई लगभग 60 सेंटीमीटर थी।



डायनोसर तरह-तरह के आकार-प्रकार के होते थे। आज से 650 लाख साल पहले ये सारी छिपकलियां एकाएक विलुप्त हो गईं। मिट्टी में दबे उनेक जीवाश्मों से ही हमें उनके बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी मिली है। अब तक वैज्ञानिकों ने डायनोसरों की 600 भिन्न-भिन्न जातियों का पता लगाया है, जिनमें से कुछ मांसाहारी थे और कुछ शाकाहारी। इसका मतलब यह नहीं है कि इतने ही डायनोसर हुआ करते थे। अनेक डायनोसरों के जीवाश्म अब तक मिले ही नहीं हैं।

मांसाहारी डायनोसरों में सबसे बड़ा और खौफनाक टिरानोसारस, यानी तानाशाह छिपकली था। उसे सबसे शक्तिशाली और खूंखार डायनोसर माना जाता है। उसकी कुल लंबाई 16 मीटर थी। केवल सिर की लंबाई डेढ़ मीटर थी। उसके विशाल जबड़े उस्तरे जैसी धारवाले दांतों से लैस थे। वह अपनी शक्तिशाली पिछली टांगों पर तेज दौड़कर अन्य डायनोसरों का शिकार करता था। उसके आगे के पैर छोटे और कमजोर थे। दौड़ते समय शरीर का संतुलन बनाए रखने के लिए वह अपनी भारी-भरकम पूंछ को हवा में उठाए रखता था।

सबसे बड़ा डायनोसर एक शाकाहारी प्राणी था। उसका नाम अल्ट्रासारस, यानी अति विशाल छिपकली, रखा गया है। उसकी लंबाई 35 मीटर, ऊंचाई 20 मीटर और वजन 150 टन था। इसका मतलब यह है कि अल्ट्रासारस 100 हाथियों से भी ज्यादा भारी था। उसी का निकट का संबंधी ब्राकियोसारस भी विशाल आकार का था--25 मीटर लंबा, 15 मीटर ऊंचा और 100 टन भारी।


कुछ डायनोसर विचित्र आकृति के होते थे। स्टेगोसारस की पीठ पर हड्डी के अनेक फलक एक कतार में लगे होते थे। उसकी पूंछ के सिरे पर अनेक लंबे शूल होते थे। किसी हिंसक डायनोसर द्वारा सताए जाने पर वह पूंछ को उस पर दे मारता था और शत्रु को अपने शूलों से घायल कर देता था। यदि इसके बावजूद शत्रु उस पर हमला कर दे तो स्टेगोसारस की पीठ पर लगे कठोर फलकों से उसके दांत टूट जाते थे। छेड़े न जाने पर स्टेगोसारस शांत स्वभाव का शाकाहारी प्राणी था।


ट्राइसेरोप्स नामक डायनोसर के सिर पर बैल के जैसे सींग होते थे। इनसे वह आत्मरक्षा करता था। आंकिलोसारस की पूंछ हड़्डी के एक भारी गोलक पर समाप्त होती थी। शत्रु पर वह इससे उसी प्रकार वार करता था जिस प्रकार हनुमान अपनी गदा से। पेचीसिफालोसारस एक अन्य विचित्र डायनोसर था जिसके सिर की हड्डी खूब मोटी और टोपी की तरह उभरी थी। शत्रु के पेट पर वह अपने भारी सिर को दे मारता था, जैसे जंगली बकरे करते हैं। डेनोनिक्स नामक डायनोसर की टांगों पर कटार जैसे नख होते थे जिनकी सहायता से वह शिकार को फाड़ डालता था। बैरिओनिक्स अपने घुमावदार नाखूनों से मछलियों का शिकार करता था।

वैज्ञानिकों ने डायनोसरों के विशाल आकार प्राप्त करने के पीछे अनेक कारण बताए हैं। जिस युग में डायनोसर हुए थे, तब पृथ्वी की जलवायु गरम और उमसभरी थी। मौसमी परिवर्तन बहुत कम होते थे। वनस्पति प्रचुर मात्रा में सालभर उगती थी। बड़े-बड़े वृक्षों के घने वनों से पृथ्वी अटी पड़ी थी। डायनोसरों को खाने-पीने की भरपूर सामग्री मुंह बढ़ाते ही मिल जाती थी। इसीलिए बहुत कम परिश्रम से ही खा-पीकर वे विशालकाय हो गए। डायनोसरों के विशाल आकार प्राप्त करने के पीछे एक और कारण है। हाथी आदि स्तनधारी जीवों के शरीर का विकास कुछ सालों के बाद रुक जाता है जब वे परिपक्व अवस्था में पहुंच जाते हैं। डायनोसरों का विकास तब तक होता रहता है जब तक वे जीवित रहते हैं। अतः वे आकार में बढ़ते ही जाते थे।

बड़े आकार का अनेक लाभ भी हैं। डायनोसर अनियततापी जीव थे, यानी उनके शरीर का तापमान वातावरण के तापमान के साथ-साथ घटता-बढ़ता रहता था। बड़े शरीर के प्राणी में अधिक गरमी समाती है और वह धीरे-धीरे ही ठंडा होता है। इसका लाभ यह है कि शारीरिक गरमी बड़े प्राणियों के भीतर अधिक समय तक रहती है। वे वातावरण के तापमान के उतार-चढ़ाव से कम प्रभावित होते हैं। ऊंचा शारीरिक तापमान होने पर प्राणी अधिक सक्रिय भी रह सकता है। अतः बड़े डायनोसर छोटे प्राणियों से अधिक सक्रिय रह सकते थे।

बड़े होने का एक अन्य फायदा सुरक्षा है। बहुत बड़े प्राणियों को हिंसक जीवों से कम डरना पड़ता है। अपनी गगनचुंभी ऊंचाई के कारण बड़े डायनोसर पेड़ों के ऊंचे-ऊंचे डालों पर से भी आहार जुटा सकते थे जो छोटे प्राणी नहीं कर सकते।

फिर भी यह सोचना गलत होगा कि सभी डायनोसर दैत्याकार होते थे। बहुत से डायनोसरों का कद बिल्ली के जितना ही होता था। उदाहरण के लिए कोंपसौग्नाथस नामक डायनोसर केवल 60 सेंटीमीटर लंबा और तीन किलो भारी था।

बीसियों टन वजन वाले डायनोसरों का मस्तिष्क हास्यास्पद हद तक छोटा होता था। उदाहरण के लिए स्टेगोसारस 7 मीटर लंबा और 1,700 किलो भारी था। पर उसके मस्तिष्क का वजन मात्र 100 ग्राम था।

डायनोसर एकाएक क्यों लुप्त हो गए, यह विज्ञान के सामने एक चिरस्थायी पहेली है। एक सिद्धांत के अनुसार डायनोसर स्तनधारी प्राणियों से प्रतिस्पर्धा में पिछड़ने के कारण समाप्त हो गए। ये स्तनधारी डायनोसरों के अंडों को खा जाते थे। कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि डायनोसर फूलवाले पौधों के प्रकट होने के कारण मरमिट गए। इन पौधों के बीज सख्त खोलों के अंदर रहते हैं और इसलिए डायनोसर उन्हें पचा नहीं पाते थे। यह भी कहा गया है कि अंतरिक्ष से आए उल्का पिंडों या विशाल धूमकेतुओं के पृथ्वी से टकराने या ज्वालामुखियों के फटने से डायनोसर खत्म हुए। जलवायु परिवर्तन को भी डायनोसरों के मर जाने के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है।

जो भी हो, डायनोसर थे बड़े गजब के जीव। वे हमारे मन में विस्मय और रोमांच जगाए बिना नहीं रहते।


चित्र शीर्षक (जिस क्रम में वे आए हैं)।

- टिरानोसोरस, एक विशाल मांसाहारी डायोनसर
- इयोरैप्टर, एक प्रारंभिक डायनोसर
- स्टेगोसोरस, विचित्र आकार का डायनोसर
- ट्राइसेरोप्स, बैल जैसे सींग वाला डायनोसर

Wednesday, May 27, 2009

हाथी संकट में


हाथी जिसका भारत के लोक मानस, धर्म, संस्कृति और अर्थव्यवस्था में प्रमुख स्थान है, जल्द ही भारत से सदा-सदा के लिए समाप्त हुए प्राणियों की सूची में भी प्रमुख स्थान प्राप्त कर लेगा! हाथी दांत के लिए उसके अंधाधुंध शिकार, उसके आवास्थल के बड़े पैमाने पर विनाश और फसलों पर चढ़ आने के लिए उसके वध के कारण भारत में हाथियों की संख्या तेजी से घट रही है और इस विशाल जंतु की नस्ल लगभग समाप्त होने को है।

एक समय एशियाई हाथी भारत के सभी भागों में पाया जाता था। आज उसके केवल चार पृथक-पृथक समूह शेष रह गए हैं जो उत्तरी, मध्य, उत्तरपूर्वी और दक्षिणी भारत में किसी प्रकार जीवित बचे हैं। इनमें से प्रत्येक समूह के हाथियों का अन्य समूहों के हाथियों के साथ कोई संपर्क नहीं रह गया है। इस कारण से भारत के जंगली हाथियों में आनुवांशिक सामग्री का आदान-प्रदान बहुत सीमित हद तक ही होता है, जो उसके भावी अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा देता है। ऊपर उल्लिखित चार हाथी-बहुल क्षेत्रों में भी ऐसे अनेक झुंड हैं जो उसी क्षेत्र के अन्य झुंडों से बिलकुल अलग-थलग पड़ गए हैं।

एशियाई हाथी (ऐलफास मेक्सिमस) अफ्रीकी हाथी (लोक्सोडोन्टा अफ्रीकाना) से कुछ छोटा होता है। फिर भी उसका वजन लगभग 5 टन और ऊंचाई 2.5-3 मीटर होती है। वह भारतीय जंगलों का सबसे बड़ा पशु है। वयस्क हाथी को रोजाना 150 किलो चारे की जरूरत पड़ती है। उसकी खुराक में घास, बांस, वृक्षों की छाल, फल आदि वानस्पतिक सामग्री शामिल हैं। अफ्रीकी हाथी के विपरीत, जिसमें नर-मादा दोनों में दंत होते हैं, एशियाई हाथी में केवल नरों में दंत पाए जाते हैं। कभी-कभी दंतहीन नर भी देखने में आते हैं, जिन्हें ''मखना'' कहा जाता है।

हाथी के झुंडों का सामाजिक ढांचा मातृसत्तात्मक होता है और कोई बूढ़ी हथिनी झुंड का संचालन करती है। नर प्रायः एकांत में रहना पसंद करते हैं और मैथुन के लिए ही झुंडों में आते हैं। हथिनी दो साल में एक बार केवल एक बच्चा जनमती है और इसलिए इस जानवर की प्रजनन-दर काफी धीमी है।


हाथी पर जो खतरे मंडरा रहे हैं, वे सब मनुष्य-जनित हैं, चाहे वे आवास-स्थलों का विनाश हो, शिकार हो या मनुष्यों से सीधी टक्कर हो। ऐसे बहुत से भू-भाग जहां हाथी पहले स्वच्छंद विचरा करते थे, अब खेती-बाड़ी, पनबिजली परियोजनाएं, शहरीकरण, बागान, रेलमार्ग या सड़क निर्माण और झूम खेती जैसी मानवीय गतिविधियों की चपेट में आ गए हैं। चूंकि जीवित रहने के लिए हाथियों को बहुत बड़ा भू-भाग चाहिए, आवास-स्थलों के सिकुड़ने से उनकी उत्तरजीविता पर बहुत बुरा असर पड़ता है। भारत में बहुत कम ऐसे अभयारण्य हैं, जिनका विस्तार हाथियों के संरक्षण की दृष्टि से पर्याप्त है। यदि आवास-स्थल का विस्तार बहुत कम हो, तो उसमें रह रहे हाथी धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं।

हाथियों के आवास-स्थलों को प्रभावित करनेवाली बहुत-सी मानव गतिविधियों के परिणामस्वरूप हाथियों के झुंड एक-दूसरे से बिलकुल कट गए हैं। बांधों के सरोवरों और नहरों के कारण हाथियों के झुंड एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं क्योंकि इन अवरोधों को हाथी तैरकर पार नहीं कर सकते। राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के बीच से गुजरनेवाली गंगा नदी से निकाली गई एक नहर इस उद्यान के हाथियों के झुडों के लिए एक दुर्गम्य बाधा बन गई है। इसी प्रकार कार्बट राष्ट्रीय उद्यान में बनाई गई रामगंगा झील और काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में से गुजरती एक सड़क भी उधर के हाथियों के लिए एक विकट समस्या हैं।

विलायती वृक्षों के रोपण पर आजकल बहुत अधिक जोर दिया जाता है। इन वृक्षों को हाथी नहीं खाते। अनेक क्षेत्रों में जहां ये पेड़ बड़े पैमाने पर लगाए गए हैं, वहां हाथियों को पर्याप्त खुराक जुटाना अधिकाधिक कठिन होता जा रहा है।




हाथी दांत के लिए शिकार से भी हाथियों को भारी क्षति पहुंची है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में हाथी दांत की कीमत बहुत अधिक है, और उससे आभूषण और कलाकृतियां बनाई जाती हैं। चूंकि एशियाई हाथी में केवल नरों में दंत पाए जाते हैं, नर बड़े पैमाने पर मारे गए हैं, जिससे इस प्राणी का लैंगिक संतुलन गड़बड़ा गया है। ऐसा दक्षिण भारत में, खासकर केरल में, अधिक हुआ है। इन जगहों में अधिकतर तंदुरुस्त और वयस्क नर मारे जा चुके हैं, और वहां लैंगिक अनुपात एक नर के पीछे 500 मादाएं हैं, जो इस जाति के कायमी अस्तित्व के लिए एक भारी चुनौती है। ऐसी स्थिति में यदि वनैल झुंडों को पूर्ण संरक्षण दिया जाए, तो भी यह जरूरी नहीं है कि वे अपने अस्तित्व को लंबे समय तक बनाए रख पाएंगे।

यद्यपि हाथी को वन्यजीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972, की प्रथम सूची में रखा गया है और उसका शिकार गैरकानूनी है, फिर भी हाथी दांत की ऊंची कीमत पकड़े जाने की जोखिम उठाने के लिए चोर शिकारियों को प्रोत्साहन देती है।

चूंकि देश के अनेक भागों में हाथियों के प्राकृतिक आवास स्थल नष्ट हो गए हैं, हाथी जीवित रहने के लिए कभी-कभार खेतों पर उग रहे फसलों पर धावा बोल देते हैं। बहुधा ऐसा एकला नर करते हैं, पर कभी-कभी पूरा-पूरा झुंड फसलों को लूटने आ जुटता है। इससे खेतों के मालिकों और हाथियों के बीच तीव्र संघर्ष छिड़ जाता है। दक्षिण भारत, पश्चिम बंगाल और बिहार में यह समस्या बहुत प्रखर हो उठी है। वहां के लोगों में हाथी के विरुद्ध बहुत अधिक दुर्भावना पाई जाती है, जो इस पशु के संरक्षण में बाधक है।


हाथी को नस्लांत से बचाने के लिए उसके संरक्षण की योजना बहुत सोच-समझकर बनानी होगी। वन्य अवस्था में हाथियों के संरक्षण के लिए भारत सरकार ने हाथी परियोजना शुरू की है। यह परियोजना तभी सफल हो सकेगी जब हाथियों के कायमी अस्तित्व को लक्ष्य बनाकर संरक्षण कार्य किए जाए। हाथी परियोजना के अंतर्गत हाथियों के उन आवास-स्थलों को पहचानना होगा, जो अब भी अच्छी हालत में हैं। यह चुनाव इन आवास-स्थलों के क्षेत्रफल, चारा एवं पानी की उपलब्धि और इनमें मानव गतिविधियों के स्तर को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए। इन चुनिंदा आवास-स्थलों को संपूर्ण संरक्षण देने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। संरक्षण में लगे संगठनों को अनुसंधान और निगरानी के लिए पर्याप्त संख्या में अधिकारी मिलने चाहिए। हाथियों के सभी आवास-स्थलों का प्रबंध हाथियों के हित को केंद्र में रखकर किया जाना चाहिए। ऐसी ही नीति बाघ परियोजना के अंतर्गत बाघ के संरक्षण के लिए भी अपनाई गई थी। जहां भी संभव हो बंदनावस्था में जन्मे नर हाथियों को जंगली झुंडों में छोड़कर इन झुंडों की लैंगिक असमानता को दूर करने की चेष्टा की जानी चाहिए।

अपनी फसलों और गांवों से हाथियों को दूर रखने में स्थानीय निवासियों को हाथी परियोजना के कर्मचारियों से पूरा सहयोग मिलना चाहिए और हाथियों से जो जान-माल की हानि गांववालों को सहनी पड़ती है, उसका तत्काल एवं पर्याप्त मुआवजा उन्हें दिलाना चाहिए। स्थानीय निवासियों और पर्यटकों में हाथी के संरक्षण की आवश्यकता के बारे में चेतना जगाने के प्रयासों को विशेष महत्व देना चाहिए।


लोक मानस में हाथी की छवि एक दयालु एवं सौम्य स्वभाव के प्राणी की भी है जिसकी पूजा विघ्नेश या गणेश के रूप में होती है, और शक्ति एवं पराक्रम के प्रतिक के रूप में भी है जो युद्ध में शत्रुओं पर कहर ढाता है। इन दोनों धारणाएं आज हाथी पर समान रूप से लागू हो सकती हैं। यह मनुष्य पर निर्भर करता है कि वह हाथी को एक सौम्य मित्र बनाता है या एक विध्वंसकारी शत्रु। यदि हम उसे शत्रु बना लेते हैं तो हाथी का नस्लांत निश्चित है और आनेवाली पीढ़ियां फिल्मों, चित्रों और हाथी दांत की कलाकृतियों को देखकर ही यह विश्वास कर पाएंगी कि ऐसा भव्य एवं विशाल प्राणी भी इस धरती पर कभी रहता था।

चित्रों के शीर्षक (जिस क्रम में वे आए हैं)

- हाथियों को पानी बहुत पसंद है।
- रेलगाड़ी से टकराने से मरा हाथी।
- हाथी द्वारा तोड़ा गया घर।
- हाथी उत्पात का अखबारी रपट।
- हाथियों को खेतों में घुसने से रोकने के लिए बनाया जा रहा हाथीरोधी खंदक।

Tuesday, May 26, 2009

सौम्य स्वभाव की समुद्री गाय



मध्य युग के मल्लाहों में मत्स्य कन्याओं की किंवदंतियां अत्यंत प्रचलित रही हैं। वे मानते थे कि ये मत्स्य कन्याएं मल्लाहों को लुभाकर उनके जहाजों को जलमग्न चट्टानों में भटका देती थीं। संभव है कि इस प्राचीन विश्वास के मूल में एक निरापद और भारी-भरकम समुद्री स्तनधारी जीव, यानी समुद्री गाय रही हो।

समुद्री गाय (अंग्रेजी में इसे डुगोंग कहते हैं) हाथियों के दूर का रिश्तेदार है, यद्यपि बाहरी बनावट में वह सीलों और जलसिंहों से मिलती-जुलती होती है। हाथियों के समान उसके भी अस्ति-पंजर वृहदाकार होता है और ऊपरी कृंतक दंत लंबे और नीचे की ओर बढ़े हुए होते हैं। नरों में ये दंत ऊपरी जबड़े से काफी बाहर निकले रहते हैं। समुद्री गाय का वजन १४०-२०० किलोग्राम होता है और लंबाई २.५-३ मीटर। शरीर का बड़ा आकार शारीरिक ऊष्मा को बचाए रखने में मदद करता है। उनके शरीर में चर्बी की मोटी परत होती है जो ठंडे समुद्रों में उनके शरीर को गरम रखती है। शरीर की आकृति लंबोतर और गोलाकार होती है जिससे उन्हें तैरने में आसानी रहती है। उनकी पीठ एवं बगल सलेटी रंग की होती हैं जबकि निचला भाग हल्के रंग का होता है। पूंछ ह्वेलों की पूंछ के समान चपटी होती है। इसे ऊपर-नीचे फटककर समुद्री गाय आगे बढ़ती है, न कि मछलियों के समान दाएं-बाएं झटककर। उनके हाथ-पैर भी चपटे और चप्पूनुमा होते हैं। तैरते समय इन अवयवों को शरीर से लगाकर रखा जाता है ताकि ये कम-से-कम अवरोध उत्पन्न करें।

आंखें छोटी, गोलाकार एवं काली होती हैं जो चौड़े एवं सख्त बालोंवाले थूथन के दोनों ओर स्थित होती हैं। बाहरी कान नहीं होते, केवल दो छोटे-छोटे सूराख होते हैं। नथुने बड़े एवं अर्द्ध चंद्राकार होते हैं। इन्हें बंद करने की विशेष व्यवस्था होती है। ऊपरी होंठ घुड़नाल की आकृति के एक मांसल अवयव में समाप्त होता है जो मुंह के आगे तक बढ़ा होता है। समुद्री गाय की दंत-व्यवस्था भी हाथियों की दंत-व्यवस्था के समान होती है, यानी वयस्क प्राणी में एक समय में केवल दो-तीन दाढ़ें ही होती हैं। जब ये घिस या गिर जाती हैं तो इनके ठीक पीछे नई दाढ़ें उगने लगती हैं।

भारतीय समुद्रों में समुद्री गाय की सबसे बड़ी बस्तियां मन्नार की खाड़ी में होती हैं। उन्हें कच्छ की खाड़ी, अंदमान द्वीप समूह तथा मलबार तट के समुद्रों में भी देखा गया है। वैसे वे प्रशांत महासागर के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में भी पाई जाती हैं। मडागास्कर से लेकर आस्ट्रेलिया के उत्तर-पूर्वी तटों तक तथा फारस की खाड़ी में भी समुद्री गाय दिखाई देती है।

इन जीवों का नामकरण उनकी आदतों और स्वभाव को देखते हुए अत्यंत सार्थक है। गाय-भैंसों के ही समान वे भी पूर्णतः शाकाहारी हैं और समुद्री घास पर निर्भर हैं। मेनाटी नामक एक अन्य समुद्री स्तनी और समुद्री गाय, ये ही दो समुद्री स्तनी हैं जो पूर्णतः शाकाहारी होते हैं। मेनाटी समुद्री गाय का निकट संबंधी है। समुद्री गाय अपने मांसल होंठों से समुद्री घास को उखाड़ती है, उसे पानी में अच्छी तरह झाड़ती है ताकि उसके साथ रेत कण न लगे रह जाएं जो उसके दांतों को नुक्सान कर सकते हैं, और फिर उसे चबाकर निगल जाती है। यह समुद्री घास छिछले उष्णकटिबंधीय सागरों और तटों के पास उगती है। घोड़ों और हाथियों के समान समुद्री गाय जुगाली न करनेवाला शाकाहारी प्राणी है। वे अपने आगे के पैरों से कंद-मूल को भी खोदकर खाती हैं। समुद्री गायों को पानी से ऊपर उठ आकर तट किनारे के पेड़ों की निचली डालियों से पत्ते आदि तोड़कर खाते भी देखा गया है।

समुद्री गाय अत्यंत सौम्य स्वभाव का प्राणी है। सामान्यतः वे गहरे पानी में सतह से थोड़ा नीचे तैरती रहती हैं, जहां उन्हें धूप की गरमी भी लगती रहती है। रह-रहकर वे सांस लेने ऊपर आती जाती हैं। शाम के वक्त वे छिछले पानी की ओर चली आती हैं। ज्वार-भाटे के समय वे सागर तट में आकर पीछे लौटे जल द्वारा अनावृत्त जल पौधों को चरने लगती हैं। समुद्री गाय बिरले ही जमीन पर आती हैं क्योंकि तेज धूप से उनकी मुलायम त्वचा झुलस जाती है। जमीन में उन्हें सांस लेने में भी तकलीफ होती है क्योंकि उनकी पसलियां कमजोर होती हैं और पानी के दबाव के अभाव में वे अंदर की ओर बैठने लगती हैं।

समुद्री गाय समूहचारी प्राणी है। नर और मादा उम्र भर के लिए नहीं तो कम-से-कम प्रजनन काल की पूर्ण अवधि के लिए साथ रहते हैं। मादा ५० साल के अपने जीवनकाल में केवल पांच या छह बच्चों को जनम देती है।

एक बार में केवल एक बच्चा पैदा होता है। बच्चे पानी के किनारे किसी रेतीले भाग में दिए जाते हैं। यह स्थान तट से थोड़ी ही दूरी पर होता है। नवजात शिशु अपनी मां के पीछे-पीछे हो लेता है और पानी में उतर जाता है। मां अपने शिशु को दो साल तक दूध पिलाकर बड़ा करती है। इस सारे समय मां और बच्चे के बीच अत्यंत निकट का संपर्क बना रहता है। दूध पिलाते समय मां बच्चे को अपने चप्पूनुमा हाथों से छाती से लगाकर पकड़ती है।

समुद्री गाय अत्यंत शर्मीले प्राणी होते हैं और हल्की-से-हल्की ध्वनि से भी बिदक जाते हैं। अतः उनकी आदतों और व्यवहारों के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। अन्य प्राणियों के विपरीत उनके जीवन में हिंसा का बहुत कम स्थान है। न तो उनके कोई परभक्षी शत्रु हैं, न ही वे स्वयं किसी प्राणी का शिकार करती हैं। हां उनके शिशुओं को मगरमच्छ अथवा शार्क मछली कभी-कभार पकड़ लेते हैं। जीवन को सफल बनाने के लिए उनके पास तीन ही उपाय हैं:- अत्यंत विकसित सुनने की शक्ति का उपयोग करते हुए खतरे से पहले ही अवगत हो जाना; अपने बड़े आकार, सख्त चमड़ी एवं मजबूत अस्ति-पंजर का फायदा उठाना--बड़े आकार के कारण बहुत कम प्राणी उन पर आक्रमण करने का साहस जुटा पाते हैं; तथा बहुत जल्द जमनेवाले खून का लाभ उठाना जिससे उनके घाव बहुत जल्द भर जाते हैं।

इन शांतिप्रिय प्राणियों को मनुष्यों से ही सबसे बड़ा खतरा है। तटीय इलाक़ों के लोग उन्हें मांस, चर्बी और दांत के लिए मारते हैं। अब समुद्र प्रदूषण, पर्यटन एवं शक्तिशाली मोटर नौकाओं से भी उन्हें खतरा पैदा हो गया है। इन नौकाओं से भिड़ने से अनेक समुद्री गाएं घायल हुई हैं।

इस निरापद प्राणी को संकटग्रस्त प्राणियों की सूची में रखा गया है। उसकी नस्ल को बचाने के लिए उसके आवास-स्थलों को अधिक संरक्षण प्रदान करना होगा। अन्यथा मत्स्य कन्याओं की मनमोहक किंवदंती की प्रेरणा बननेवाली समुद्री गाय स्वयं एक किंवदंती बनकर रह जाएगी।

Monday, May 25, 2009

सीता को मोहनेवाला चीतल


भारत के मैदानी इलाकों में रहनेवाले हिरणों में चीतल का स्थान कद की दृष्टि से तीसरा है। केवल सांभर और बारहसिंघा उससे बड़े हैं। कद में छोटा होने से क्या, सुंदरता में तो चीतल इन तथा सभी अन्य हिरणों से आगे निकल जाता है। कई निष्णातों ने उसे दुनिया का सुंदरतम हिरण माना है।

चीतल का सामान्य रंग लालिमा लिए भूरा होता है, जिसमें अनेक सफेद चिकत्तियां बनी होती हैं। ये उसके नाम को सार्थक बनाती हैं। ये चिकत्तियां शरीर पर लंबाई में एक कतार में होती हैं। कहा जाता है कि लाल चमड़ी पर बनी सफेद चिकत्तियां घास और नीची झाड़ियों के बीच से चमकनेवाली सूर्य किरणों सी लगती हैं और चीतल को परभक्षी जीवों की नज़रों से बचाती हैं। परंतु यह भी सच है कि चीतल खुले में चरने वाला जीव है और परभक्षियों से छिपने की कोशिश कम करता है। उनसे बचने के लिए वह अपनी सतर्कता पर निर्भर करता है और शत्रु को दूर से ही देखकर तेजी से भाग कर अपनी रक्षा करता है। इस मामले में उसका स्वभाव वनों के निवासी सांभर और बारहसिंघे से पर्याप्त भिन्न है। ये दोनों हिरण शत्रु की नजरों से बचे रहने और लुकने-छिपने की नीति अपनाते हैं।

एक तंदुरुस्त नर चीतल की कंधे तक की ऊंचाई लगभग एक मीटर होती है और वजन 80 किलो। चीतलों को पनपने के लिए खुला जंगल और पानी की अविच्छिन्न सुविधा चाहिए। जहां जंगल घना हो या पानी दुर्लभ हो, वहां चीतल विरले ही दिखते हैं। इस कारण से चीतल असम या इसके आगे के पूर्वी इलाक़ों के घने वनों में या पंजाब, राजस्थान आदि शुष्क प्रदेशों में नहीं पाए जाते। भारत के अन्य भागों में और श्रीलंका में भी वे आसानी से दिख जाते हैं। चीतल मनुष्यों से अधिक नहीं घबराते और गांवों के आसपास बहुधा दिखाई दे जाते हैं।

चीतल के शरीर का निचला भाग, गला, पूंछ और पैरों का अंतिम हिस्सा सफेद होता है। नाक के ऊपर गाढ़े रंग की एक पट्टी होती है। नरों में शानदार शृंगाभ पाए जाते हैं, जो दो-तीन या इससे भी अधिक शाखाओं में बंटे होते हैं। शृंगाभ लालिमा लिए और औसतन 90 सेंटीमीटर लंबे होते हैं। अधिकांश नर चीतल इन शृंगाभों को अगस्त में गिरा देते हैं। चौमासा समाप्त होने पर नए शृंगाभ उगने लगते हैं। ये दिसंबर तक मखमली और मुलायम रहते हैं और मार्च तक सूखकर सख्त हो जाते हैं।

चीतल का प्रजनन काल सामान्यतः अप्रैल-मई में होता है। इस समय नर शृंगाभों को उलझाकर आपस में लड़ पड़ते हैं और मादाओं को अपने कब्जे में रखने की कोशिश करते हैं। ये लड़ाइयां कई बार एक प्रतिद्वंद्वी की मौत पर आ रुकती हैं जब दूसरे के शृंगाभ उसकी छाती को भेदकर उसके फेफड़ों को फोड़ देते हैं। मादाएं छह महीने के गर्भधारण के बाद एक या दो छौनों को जन्म देती हैं।

यद्यपि चीतल के बाघ, तेंदुए और ढोल जैसे खौफनाक शत्रु हैं, पर वह इनकी मौजूदगी से बेफिक्र होकर अपनी जिंदगी का पूरा लुत्फ उठाने में मगन रहते हैं। कई बार नदियों और सोतों में रहनेवाले मगर भी इन्हें निगल जाते हैं। छौनों को अजगर, लकड़बग्घे और गीद़ड़ मार देते हैं। इन शत्रुओं से बचने के लिए प्रकृति ने चीतल के छौनों को एक अद्भुत क्षमता दी है। इनकी गंध बिलकुल नहीं होती और किसी झुरमुट में या घास में पड़े छौने को परभक्षियों को सूंघ पाना अत्यंत कठिन होता है।

चीतल अन्य हिरणों से कम निशाचर होते हैं और सुबह देर तक और शाम को चरते देखे जाते हैं। चीतलों को अन्य प्राणियों की संगत बहुत प्रिय है। वे पालतू ढोरों, बारहसिंघों, नीलगायों, सूअरों, कृष्णसारों और लंगूरों के साथ विचरते देखे जाते हैं। लंगूरों के साथ तो इनका खास रिश्ता है। जहां लंगूरों का झुंड पेड़ों पर आहार तलाश रहा हो, वहां नीचे जमीन पर चीतल भी अवश्य मिलेंगे। ये वहां लंगूरों द्वारा गिराए गए पत्ते, फूल आदि को खाने इकट्ठा होते हैं। लंगूरों की उपस्थिति से चीतलों को सुरक्षा का एहसास भी होता है। लंगूरों की दृष्टि पैनी होती है और अपने ऊंचे आसनों से वे शत्रु को दूर से ही देखकर चीतलों को चेता देते हैं।

इस सुंदर हिरण ने साहित्य और कला में भी स्थान पाया है। कहा जाता है कि सीता इसी हिरण पर मोहित हो गई थीं और राम को उसे पकड़ लाने को भेजा था। चित्रकला में भी चीतल को भरपूर सम्मान मिला है। इससे भी ज्यादा चीतल भारतीय जंगलों का एक मूल्यवान आभूषण है क्योंकि वह उनकी सुंदरता में चार चांद लगा देता है।

सीटी बजानेवाले शिकारी ढोल


जंगली कुत्ते भारत और अफ्रीका के जंगलों के महत्वपूर्ण परभक्षी जानवर हैं। भारतीय और अफ्रीकी जंगली कुत्ते अलग-अलग जाति के हैं। भारतीय जंगली कुत्ते ढोल और सोनकुत्ते के नाम से भी जाने जाते हैं। ढोल का आकार गीदड़ से बड़ा पर भेड़िए से कुछ छोटा होता है। देखने में वह घरेलू कुत्ते जैसा ही होता है, पर पूंछ कुछ अधिक झबरीली और सिरे पर काली होती है। उसके दांतों का विन्यास भी भेड़िया या कुत्ते से कुछ भिन्न होता है। ढोल का रंग लाल होता है।

ढोल जंगलों का निवासी है। वह पतझड़ी वनों और हिमालय के सदाबहार वनों दोनों में रहता है। ढोल समूहचारी प्राणी है। प्रत्येक समूह में तीन-चार परिवार होते हैं। उनमें से किसी एक परिवार के नर और मादा की हैसियत सबसे ऊंची होती है, और वे ही झुंड के नायक होते हैं। झुंड में शिकार करके ढोल जंगल के बड़े-से-बड़े प्राणी को भी मार पाते हैं, मसलन सांबर, गौर, बारहसिंगा आदि, जिनका कद ढोल से कहीं बड़ा होता है। झुंड में रहकर ढोल बाघ, तेंदुआ आदि शक्तिशाली परभक्षियों से अपना बचाव भी अधिक सफलता से कर पाते हैं।

सामान्यतः ढोल चीतल, सांबर या सूअर का शिकार करते हैं। यदि झुंड बड़ा हो तो वे गौर या भैंसा जैसे बड़े जानवरों पर भी किस्मत आजमाते हैं। हिमालय के वनों में रहनेवाले ढोल जंगली भेड़, बकरी, कस्तूरी हिरण, तहर, सेराऊ आदि का शिकार करते हैं।

ढोल दिवाचर प्राणी है और दिन में ही शिकार करते हैं। शिकार के दौरान वे सुनने और सूंघने की शक्ति पर अधिक निर्भर करते हैं। यह इसलिए क्योंकि घने जंगल में आगे भाग रहे शिकार को देख पाना कठिन होता है। शिकार के दौरान झुंड के सदस्य एक-दूसरे से संपर्क बनाए रखने के लिए सीटी बजाते हैं, कुत्तों के समान भौंकते नहीं।

ढोल अत्यंत साहसी जीव हैं, भोजन कर रहे बाघ तक को खदेड़कर उसके भोजन को हथियाने की दमखम रखते हैं। कई बार बाघ और ढोल के बीच हुए मुठभेड़ों में बाघ की दुर्गति हुई है और वह मारा गया है। पर ढोल मनुष्यों से घबराते हैं और उनसे सामना होने पर पीछे हट जाते हैं।

Sunday, May 24, 2009

कुत्ते की तरह भौंकनेवाला हिरण काकड़



काकड़ छोटे कद का हिरण है। नर के शृंगाभ कुछ विशिष्ट होते हैं। उसके माथे पर दो उभार साफ नजर आते हैं, जो चर्म से ढके उन ठूंठों तक फैलते हैं जहां से थोड़ा अंदर की ओर मुड़े छोटे-छोटे शृंगाभ उगते हैं। नर में ऊपर के जबड़े के दो रदनक दंत भी काफी विकसित होते हैं और बाहर की ओर निकले होते हैं। इनका उपयोग वह लड़ाई में या अपनी सुरक्षा के लिए करता है। पर काकड़ की सबसे रोचक विशेषता उसका संत्रास स्वर है जो कुछ दूर से सुनने पर कुत्ते के भौंकनो के जैसा लगता है।

काकड़ मुख्यतः घने वनों का जीव है लेकिन घास व पानी के लिए चरागाहों में आ जाता है। वे यूथचर प्रकृति के नहीं होते और अधिकतर अकेले या जोड़ों (नर-मादा, मां-शावक) में ही रहते हैं। अकेले और जंगलों में बिखरे रहने की वजह से वे अधिक दिखाई नहीं देते। उनकी कुछ नियमित आदतें होती हैं, जैसे खाने की खोज में अधिक दूर न विचरना या तमाम जिंदगी लगभग एक ही नाले में रहते गुजार देना। वे घास, कोंपल, फूल, पत्ती व विभिन्न प्रकार के फल खाते हैं। पानी भी वे खूब पीते हैं और वे दुपहर के वक्त जंगल के पोखरों और तालाबों के पास बहुधा नजर आते हैं।

नर का अपना क्षेत्र होता है जिसकी वह पूरे जोश-खरोश से रक्षा करता है। वैसे तो वे वर्ष भर ही प्रजनन करते हैं, लेकिन मुख्य अवधि जाड़ों में होती है। बच्चे बरसात के कुछ ही पहले पैदा होते हैं। बाघ, तेंदुए, ढोल आदि काकड़ का शिकार करते हैं।

गाय की बहन नीलगाय

नीलगाय एक बड़ा और शक्तिशाली जानवर है। कद में नर नीलगाय घोड़े जितना होता है, पर उसके शरीर की बनावट घोड़े के समान संतुलित नहीं होती। पृष्ठ भाग अग्रभाग से कम ऊंचा होने से दौड़ते समय यह अत्यंत अटपटा लगता है। अन्य मृगों की तेज चाल भी उसे प्राप्त नहीं है। इसलिए वह बाघ, तेंदुए और सोनकुत्तों का आसानी से शिकार हो जाता है, यद्यपि एक बड़े नर को मारना बाघ के लिए भी आसान नहीं होता। छौनों को लकड़बग्घे और गीदड़ उठा ले जाते हैं। परंतु कई बार उसके रहने के खुले, शुष्क प्रदेशों में उसे किसी भी परभक्षी से डरना नहीं पड़ता क्योंकि वह बिना पानी पिए बहुत दिनों तक रह सकता है, जबकि परभक्षी जीवों को रोज पानी पीना पड़ता है। इसलिए परभक्षी ऐसे शुष्क प्रदेशों में कम ही जाते हैं।



वास्तव में "नीलगाय" इस प्राणी के लिए उतना सार्थक नाम नहीं है क्योंकि मादाएं भूरे रंग की होती हैं। नीलापन वयस्क नर के रंग में पाया जाता है। वह लोहे के समान सलेटी रंग का अथवा धूसर नीले रंग का शानदार जानवर होता है। उसके आगे के पैर पिछले पैर से अधिक लंबे और बलिष्ठ होते हैं, जिससे उसकी पीठ पीछे की तरफ ढलुआं होती है। नर और मादा में गर्दन पर अयाल होता है। नरों की गर्दन पर सफेद बालों का एक लंबा और सघन गुच्छा रहता है और उसके पैरों पर घुटनों के नीचे एक सफेद पट्टी होती है। नर की नाक से पूंछ के सिरे तक की लंबाई लगभग ढाई मीटर और कंधे तक की ऊंचाई लगभग डेढ़ मीटर होती है। उसका वजन 250 किलो तक होता है। मादाएं कुछ छोटी होती हैं। केवल नरों में छोटे, नुकीले सींग होते हैं जो लगभग 20 सेंटीमीटर लंबे होते हैं।

नीलगाय भारत में पाई जानेवाली मृग जातियों में सबसे बड़ी है। मृग उन जंतुओं को कहा जाता है जिनमें स्थायी सींग होते हैं, यानी हिरणों के शृंगाभों के समान उनके सींग हर साल गिरकर नए सिरे से नहीं उगते।

नीलगाय दिवाचर प्राणी है। वह घास भी चरती है और झाड़ियों के पत्ते भी खाती है। मौका मिलने पर वह फसलों पर भी धावा बोलती है। उसे बेर के फल खाना बहुत पसंद है। महुए के फूल भी बड़े चाव से खाए जाते हैं। अधिक ऊंचाई की डालियों तक पहुंचने के लिए वह अपनी पिछली टांगों पर खड़ी हो जाती है। उसकी सूंघने और देखने की शक्ति अच्छी होती है, परंतु सुनने की क्षमता कमजोर होती है। वह खुले और शुष्क प्रदेशों में रहती है जहां कम ऊंचाई की कंटीली झाड़ियां छितरी पड़ी हों। ऐसे प्रदेशों में उसे परभक्षी दूर से ही दिखाई दे जाते हैं और वह तुरंत भाग खड़ी होती है। ऊबड़-खाबड़ जमीन पर भी वह घोड़े की तरह तेजी से और बिना थके काफी दूर भाग सकती है। वह घने जंगलों में भूलकर भी नहीं जाती।

सभी नर एक ही स्थान पर आकर मल त्याग करते हैं, लेकिन मादाएं ऐसा नहीं करतीं। ऐसे स्थलों पर उसके मल का ढेर इकट्ठा हो जाता है। ये ढेर खुले प्रदेशों में होते हैं, जिससे कि मल त्यागते समय यह चारों ओर आसानी से देख सके और छिपे परभक्षी का शिकार न हो जाए।

नीलगाय राजस्थान, मध्य प्रदेश के कुछ भाग, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, बिहार और आंध्र प्रदेश में पाई जाती है। वह सूखे और पर्णपाती वनों का निवासी है। वह सूखी, खुरदुरी घास-तिनके खाती है और लंबी गर्दन की मदद से वह पेड़ों की ऊंची डालियों तक भी पहुंच जाती है। लेकिन उसके शरीर का अग्रभाग पृष्ठभाग से अधिक ऊंचा होने के कारण उसके लिए पहाड़ी क्षेत्रों के ढलान चढ़ना जरा मुश्किल है। इस कारण से वह केवल खुले वन प्रदेशों में ही पाई जाती है, न कि पहाड़ी इलाकों में।

नीलगाय में नर और मादाएं अधिकांश समय अलग झुंडों में विचरते हैं। अकेले घूमते नर भी देखे जाते हैं। इन्हें अधिक शक्तिशाली नरों ने झुंड से निकाल दिया होता है। मादाओं के झुंड में छौने भी रहते हैं।

नीलगाय निरापद जीव प्रतीत हो सकती है पर नर अत्यंत झगड़ालू होते हैं। वे मादाओं के लिए अक्सर लड़ पड़ते हैं। लड़ने का उनका तरीका भी निराला होता है। अपनी कमर को कमान की तरह ऊपर की ओर मोड़कर वे धीरे-धीरे एक-दूसरे का चक्कर लगाते हुए एक-दूसरे के नजदीक आने की चेष्टा करते हैं। पास आने पर वे आगे की टांगों के घुटनों पर बैठकर एक-दूसरे को अपनी लंबी और बलिष्ठ गर्दनों से धकेलते हैं। यों अपनी गर्दनों को उलझाकर लड़ते हुए वे जिराफों के समान लगते हैं। अधिक शक्तिशाली नर अपने प्रतिद्वंद्वी के पृष्ठ भाग पर अपने पैने सींगों की चोट करने की कोशिश करता है। जब कमजोर नर भागने लगता है, तो विजयी नर अपनी झाड़ू-जैसी पूंछ को हवा में झंडे के समान फहराते हुए और गर्दन को झुकाकर मैदान छोड़कर भागते प्रतिद्वंद्वी के पीछे दौड़ पड़ता है। यों लड़ते नर आस-पास की घटनाओं से बिलकुल बेखबर रहते हैं, और उनके बहुत पास तक जाया जा सकता है।

प्रत्येक नर कम-से-कम दो मादाओं पर अधिकार जमाता है। नीलगाय बहुत कम आवाज करती है, लेकिन मादा कभी-कभी भैंस के समान रंभाती है। नीलगाय साल के किसी भी समय जोड़ा बांधती है, पर मुख्य प्रजनन समय नवंबर-जनवरी होता है, जब नरों की नीली झाईवाली खाल सबसे सुंदर अवस्था में होती है।

मैथुन के बाद नर मादाओं से अलग हो जाते हैं और अपना अलग झुंड बना लेते हैं। इन झुंडों में अवयस्क नर भी होते हैं, जिनकी खाल अभी नीली और चमकीली नहीं हुई होती है। मादाओं के झुंडों में 10-12 सदस्य होते हैं, पर नर अधिक बड़े झुंडों में विचरते हैं, जिनमें 20 तक नर हो सकते हैं। इनमें छोटे छौनों से लेकर वयस्क नरों तक सभी उम्रों के नर होते हैं। ये नर अत्यंत झगड़ालू होते हैं, और आपस में बार-बार जोर आजमाइश करते रहते हैं। जब झगड़ने के लिए कोई नहीं मिलता तो ये अपने सींगों को झाड़ियों में अथवा जमीन पर ही दे मारते हैं।

नीलगाय चरते या सुस्ताते समय अत्यंत सतर्क रहती है। सुस्ताने के लिए वह खुली जमीन चुनती है और एक-दूसरे से पीठ सटाकर लेटती है। यों लेटते समय हर दिशा पर झुंड का कोई एक सदस्य निगरानी रखता है। कोई खतरा दिखने पर वह तुरंत खड़ा हो जाता है और दबी आवाज में पुकारने लगता है।

छौने सितंबर-अक्तूबर में पैदा होते हैं जब घास की ऊंचाई उन्हें छिपाने के लिए पर्याप्त होती है। ये छौने पैदा होने के आठ घंटे बाद ही खड़े हो पाते हैं। कई बार जुड़वे बच्चे पैदा होते हैं। छौनों को झुंड की सभी मादाएं मिलकर पालती हैं। भूख लगने पर छौने किसी भी मादा के पास जाकर दूध पीते हैं।

नीलगाय अत्यंत गरमी भी बरदाश्त कर सकती है और दुपहर की कड़ी धूप से बचने के लिए भर थोड़ी देर छांव का सहारा लेती है। उसे पानी अधिक पीने की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि अपनी खुराक से ही वह आवश्यक नमी प्राप्त कर लेती है।

नीलगाय भारत के उन अनेक खुशनसीब प्राणियों में से एक है जिन्हें लोगों की धार्मिक मान्यताओं के कारण सुरक्षा प्राप्त है। चूंकि इस जानवर के नाम के साथ "गाय" शब्द जुड़ा है, उसे लोग गाय की बहन समझकर मारते नहीं है, हालांकि नीलगाय खड़ी फसल को काफी नुक्सान करती है। उसे पालतू बनाया जा सकता है और नर नीलगाय से बैल के समान हल्की गाड़ी खिंचवाई जा सकती है।
 

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